सोमवार, 11 फ़रवरी 2013

 कविता
बूझता नहीं रास्ता
अशोक वाजपेयी

पसरती
    कारखाना संस्कृति के
मुहाने पर उगी दूब
    उसका मुह चिढ़ाती है ।
विज्ञापनी माहौल
    खड़ा कर देता है
        चौराहे पर ।
हंसती है प्रतिभाएँ
    लगाया था जिन्हें
बतौर निशानी
    रास्ता भूलजाने पर ।
समन्दर पार के कारिन्दे
    हड़पना चाहते हैं
हमारा नमक ।
    निकल पड़ते हैं
चिटियों के जूलूस
    अदायगी की खातिर ।
बचाने
    अपना समन्दर ।
इस भयावह में
    छीन लेते हैं
बच्चें की गेंद
    कफ्र्यू लगाने वाले हाथ ।
खोखले लगते हैं
    नारे बच्चें को
तब -
    फूल से नन्हें बालक
और -
    शाखाआें से पुष्ट होते किशोर 
छत पर जमा करने लगते हैं
पत्थरों के पहाड़ ।
    आदिम सतपुड़ा के दिल में
    पड़ती है दरार
निहत्थे आदिवासियों पर
सतान्धों के अंधाधुन्ध
आक्रमण से
    जिन्हें रास्ते मालूूम नहीं थे
मैदानों में बसे
    लान वाले शहरों के ।
बचाने जा आए थे
    हरियाली जड़ों की
उन्हें मालूम नहीं था
    जिन गेड़ियों पर वे नाचते हैं
वे ही उन पर बरस पड़गी
जिन पत्थरों से
    इजाद की थी आग
वे ही बुल्डोजर की शक्ल में
तबाह कर रहे थे
जंगल ।
जंगल जो
    रास्ता सदा से खोलते आए हैं मंगल का ।
(दिशा संवाद से साभार)
    

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