सोमवार, 11 फ़रवरी 2013

विशेष लेख
भारत की बिजली समस्या : समाधान के रास्ते
के.जयलक्ष्मी
    कुछ समय पहले ही देश के पॉवर ग्रिड ताश के पत्तों के महल की तरह धराशाई हो गए । चौबीस घंटे के भीतर ही पांच में से तीन पॉवर ग्रिड-उत्तरी, पूर्वी और पूर्वोत्तर फेल हो गए । ये पॉवर ग्रिड करीब ५० हजार मेगावट बिजली का पारेषण कर रहे थे । इनके फेल होने से देश के लगभग ६० करोड़ लोगों का जीवन अस्त-व्यस्त हो गया ।
    समस्या की शुरूआत आगरा स्थित पॉवर लाइन में एक अंदरूनी तकनीकी गड़बड़ी से हुई । इससे उत्तरी ग्रिड उसे मिल रही बिजली के एक बड़े हिस्से से वंचित हो गया । ऐसा होते ही सभी राज्यों को तत्काल ग्रिड से अपने लोड में कमी करने को कहा जाना चाहिए था । लेकिन जब तक आदेश जारी होता, तब तक बहुत देर हो चुकी थी । अधिक लोड होने के कारण ग्रिड पर अधिकांश जनरेटर्स की फ्रिक्वेंसी भी कम हो गई थी । कोई भी क्षेत्र अपने लोड में कमी करने को तैयार नहीं था । परिणाम यह निकला कि पूरा ग्रिड ही ठप हो गया । 
     जून २०१२ तक भारत में कुल स्थापित बिजली क्षमता २,०५,३४० मेगावॉट थी । वित्तीय वर्ष २०११-१२ में देश में बिजली के उत्पादन में ८.१ फीसदी की बढ़ोतरी हुई, लेकिन इसके बावजूद अधिकतम मांग के समय में बिजली की १०.६ फीसदी की कमी रही । कमजोर मानसून की वजह से पनबिजली उत्पादन में कमी आई, और गर्मी अधिक होने के कारण बिजली की खपत बढ़ गई । पहले ही बिजली पूरी नहीं मिल पा रही थी और कमजोर मानसून के कारण स्थिति और भी बिगड़ गई ।
    दी नेशनल लोड डिस्पैच सेंटर ने केन्द्रीय विघुत नियामक आयोग (सीईआरसी) के समक्ष एक याचिका दायर कर कहा है कि कुछ उत्तरी राज्य ग्रिड अनुशासन का पालन नहीं कर रहे हैं । सीईआरसी की पहली सुनवाई में इन राज्यों ने दलील दी कि मांग और उन्हें आवंटित बिजली के कोटे में बहुत अधिक अंतर होने के कारण वे ग्रिड से अधिक बिजली लेने को मजबूर है ।
    ग्रिड्स का ठीक से मेन्टेनैंस न होना भी हालिया संकट का एक बड़ा कारण बताया गया । लेकिन देश में बिजली संकट की दास्तां इससे भी कही आगे है ।
    आबादी में वृद्धि के अनुपात में बिजली उत्पादन में वृद्धि नहीं  हुई । कुल बिजली उत्पादन और खपत के मामले मेंभारत दुनिया में छठवें स्थान पर है, लेकिन प्रति व्यक्ति बिजली उपभोग के मामले में कहीं पीछे है । यहां यह आंकड़ा प्रति व्यक्ति ५०० किलोवॉट सालाना है, जबकि चीन में २६०० किलोवॉट और अमरीका में १२,००० किलोवॉट है । वैसे भारत में बिजली की खपत का यह गणित इतना आसान भी नहीं है कि कुल बिजली  उत्पादन में जनसंख्या का सीधे-सीधे भाग देने से हासिल हो जाएगा । यहां अब भी ४० करोड़ लोग ऐसे हैं, जो अपने घरों में एक बल्ब के जगमगाने का इंतजार कर रहे हैं । इससे साफ है कि देश में बिजली की खपत में भारी असमानता है । भारत की झुग्गी बस्तियों और गांवों में करोड़ों लोग अंधेरे में रहने को मजबूर हैं, जबकि एक वर्ग इसका भारी उपभोग करता है ।
    भारत में कोयले के दहन के फलस्वरूप उत्पन्न कार्बन डाईऑक्साइड ही ग्रीन हाउस प्रभाव में बढ़ोतरी के लिए ६० फीसदी तक जिम्मेदार है ।
    भारत में २०५ गीगावॉट बिजली उत्पादन क्षमता में से आधे से अधिक भाग कोयला आधारित है । यहां के कोयला भंडार बहुत तेजी से खत्म हो रहे है । यहां पाया जाने वाला कोयला अपेक्षाकृत कम गुणवत्ता का है जिसमें ३० से ४५ फीसदी तक राख होती है । निम्न गुणवत्ता का कोयला होने के कारण भारत के ताप बिजलीघर युरोप की तुलना में ५० से १२० प्रतिशत अधिक कार्बन डाईऑक्साइड का उत्सर्जन करते हैं ।
    भारत के अधिकांश कोयला आधारित संयंत्र बहुत पुराने हैं और उत्सर्जन नियंत्रण तकनीकें (जैसे सिलेक्टिव केटेलिटिक रिडक्शन) से लैंस नहीं हैं । हालांकि कोयला आधारित संयंत्रों की कार्यक्षमता में हाल के वर्षो में सुधार हुआ है, लेकिन फिर भी वह काफी कम है । भारत के सभी कोयला आधारित बिजली संयंत्रों की औसत कार्यक्षमता केवल२९ फीसदी है । हालांकि ५०० मेगावॉट की बड़ी इकाइयों की कार्यक्षमता थोड़ी ज्यादा, करीब ३३ फीसदी है । देश की अधिकांश ताप बिजली इकाइयों का सामान्य कार्यकाल पूरा हो चुका है ।
    पारेषण के दौरान विघुत हानि आज भारत के ऊर्जा क्षेत्र की सबसे बड़ी चिंता बनी हुई है । तकनीकी वजहों से हानि के साथ बिजली की चोरी से समस्या और भी जटिल हो जाती है । पारेषण एवं वितरण हानि व बिजली की चोरी पर कैलिफोर्निया, मिशिगन आथ्र प्रिसंटन विश्वविघालय के शोधकर्ताआें ने उत्तरप्रदेश का एक अध्ययन किया था । यह अध्ययन वर्ल्डवॉच में प्रकाशित हुआ है ।
    भारत मेंअधिकतर पारेषण एवं वितरण व्यवस्था सरकारों के पास है । क्या इस व्यवस्था का निजीकरण करने से यह अधिक कार्यकुशल बन सकेगी ? आखिर बिजली की चोरी के खिलाफ सख्त कानूनी प्रावधान क्यों नहीं किए जाते ? सच तो यह है कि इसका समाधान केवलकानूनी प्रावधानों से नहीं किया जा सकता । इसके लिए राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक पहलुआें को एक साथ जोड़कर देखना होगा, तभी कोई रास्ता निकल सकेगा ।
    भारत के केन्द्रीय विघुत अभिकरण ने माना है कि बिजली क्षेत्र की कुशलता में सुधार और लागत में कमी करने के लिए मौजूदा बिजली संयंत्रों का नवीनीकरण और आधुनिकीकरण किया जाना चाहिए ।
    मार्च २०१२ तक के आंकड़ों पर नजर डाले तो पता चलता है कि भारत की कुल २०० गीगावॉट उत्पादन क्षमता में से केवल २५ गीगावॉट बिजली ही गैर पारंपरिक ऊर्जा स्त्रोतों (नवीकरणीय ऊर्जा) से मिलती है । इसमें भी सौर ऊर्जा का हिस्सा तो बहुत ही कम है । भविष्य के जो लक्ष्य निर्धारित किए गए हैं, उनमें जवाहरलाल नेहरू राष्ट्रीय सौर मिशन के तहत तय लक्ष्य भी शामिल हैं । इसके अन्तर्गत वर्ष २०२२ तक देश में २० गीगावॉट सौर ऊर्जा क्षमता स्थापित की जानी है । भारत सरकार ने गैर पांरपरिक ऊर्जा स्त्रोतों से वर्ष २०१७ तक कुल मिलाकर ५५ गीगावॉट और २०२२ तक ७४ गीगावॉट क्षमता स्थापित करने का लक्ष्य निर्धारित किया है । जीवाश्म ईधन के तेजी से घटते संसाधनों और परमाणु ऊर्जा को लेकर लोगों के एक बड़े तबके के विरोध के चलते गैर पांरपरिक ऊर्जा स्त्रोतों से ही उम्मीद लगाई जा सकती है ।
    ग्रिड की स्थिरता के सम्बंध में केन्द्रीय विद्युत अभिकरण के अध्यक्ष ए.एस. बक्षी  के नेतृत्व में एक पैनल ने स्मार्ट ग्रिड्स ओर विशेष सुरक्षा योजनाआें (एसपीएस) के क्रियान्वयन की अनुशंसा की थी । एसपीएस ग्रिड ठप होने की स्थिति को रोकने में मदद करता है । इसे राज्यों के बिजली वितरण केन्द्रों पर ही क्रियान्वित करना होगा । यह सिस्टम गंभीर स्थिति में सर्किट सेअपने आप संपर्क खत्म कर देता है ।
    हालांकि केवल तकनीकोंसे ही काम नहीं बनने वाला । भारत की मौजूदा बाध्यताआें के बीच स्मार्ट ग्रिड से ग्रिड को कार्यकुशल बनाया जा सकता है, लेकिन ग्रिड्स की संख्या और लागत के मद्देनजर यह काम चरणबद्ध तरीके से ही संभव  है । कुल मिलाकर देखें तो ग्रिड स्थिरता के लिए मांग के अनुरूप बिजली की आपूर्ति और पारेषण नेटवर्क की मजबूती जरूरी होगी और इन्हें दीर्घकालीन उपायों के माध्यम से ही अंजाम दिया जा सकता है ।
    एक बहस यह भी है कि क्या सरकार को उत्पादन क्षमता में वृद्धि करनी चाहिए या पारेषण और वितरण के दौरान होने वाली क्षति को रोकना उसकी पहली प्राथमिकता होनी  चाहिए ? सरकार द्वारा अधिक बिजली उत्पादन के वादों के बावजूद देश में बिजली संकट बरकरार है । हाल ही में भारत के बिजली क्षेत्र में ४०० अरब डॉलर का निवेश हुआ है । इससे वर्ष २०१७ तक बिजली के उत्पादन में ८८ हजार मेगावॉट की वृद्धि की जा सकेगी । आजादी के बाद से देश में बिजली उत्पादन में करीब १८० गुना वृद्धि हो चुकी है, लेकिन इसके बावजूद आबादी के बड़े हिस्से तक बिजली नहीं पहुंच पाई है । वर्ष २०११ के आंकड़ों के अनुसार करीब ४० करोड़ लोग बिजली ग्रिड के दायरे से बाहर थे ।
    अब भारत की पारेषण और वितरण क्षति पर विचार करते हैं । यह क्षति वर्षो से जंग खा रहे उपकरणों, बिजली चोरी और अविश्वसनीय निगरानी के चलते होती है । एक अनुमान के अनुसार बिजली की चोरी ६६ हजार मेगावॉट तक पहुुंच गई है । सवाल यह है कि पहले इस चोरी पर नियंत्रण करना चाहिए या नए बिजली संयंत्र बनाने चाहिए ?
    एकीकृत ऊर्जा नीति (ईआईपी) के एक आकलन के अनुसार देश की बिजली उत्पादन क्षमता को पांच गुना तक बढ़ाना होगा (यानी वर्ष २००६ की १,६०,००० मेगावॉट से बढ़ाकर वर्ष २०३२ तक ८,००,००० मेगावॉट करना) । आलोचकों का कहना है कि ईआईपी ने यह आकलन करते समय संबंधित सामाजिक और पर्यावरणीय प्रभावों को ध्यान में नहीं रखा ।
    सवाल यह है कि आखिर नए बिजली संयंत्रों के लिए जरूरी संसाधन कहां से आएंगे ? कोयला आवंटन में नो गो जोन को लेकर पहले ही खूब विवाद चल रहा है । पर्यावरणविदों के साथ संघर्ष के कारण आने वाले समय में कोयले का आयात बढ़ाना ही पड़ेगा । बिजली क्षेत्र पानी का भी खूब दोहन करता है, यहां तक कि कृषि क्षेत्र से ज्यादा । इसलिए देश बिजली संकट के समाधान के लिए जितने अधिक बिजली संयंत्र बनाएगा, पानी की उतनी ही अधिक कमी होती जाएगी ।
    ओवर विड्राल की मुख्य वजह बढ़ता तापमान भी था, जिसके कारण शहरों में एयर कंडीशनर लगातार चलते रहे । इसके अलावा गांवों में सूखी जमीनों से भूजल के दोहन के कारण भी बिजली का बहुत अधिक इस्तेमाल किया गया । अगर मानसून धोखा देते रहे तो जमीन की गहराई से इसी तरह पानी का दोहन जारी रहेगा और बिजली की मांग बढ़ती रहेगी । इस स्थिति से तब तक नहीं बचा जा सकता, जब तक कि सिंचाई की बेहतर योजनाएं अमल में नहीं जाती । आधिकारिक आंकड़े बताते हैं कि देश में अब भी १.१० करोड़ हेक्टर जमीन तक किसी भी सिंचाई परियोजना से पानी नहीं पहुंच पाया है ।
    कुछ विशेषज्ञों का मानना है कि एक उचित विद्युत शुल्क नीति हमारी प्राथमिकता होनी चाहिए । अगर ऐसी ही कोई विद्युत शुल्क नीति और व्यावहारिक सब्सिडी सिस्टम अमल में लाई जाए तो बिजली की मांग और आपूर्ति के बीच  की दरार को काफी हद तक पाटा जा सकता है । किसानों को मुफ्त बिजली और बिजली की दरों में वृद्धि को लेकर हिचक के चलते सरकारी बिजली कंपनियां घाटे में चल रही हैं । इससे वे अपने पॉवर सिस्टम को अपग्रेड नहीं कर पा रही हैं  ।
    ऊर्जा सुरक्षा के लिए ऐसे एकीकृत ऊर्जा संसाधन प्रबंधन नजरिए की जरूरत है, जिसमें केन्द्रीकृत और विकेन्द्रीकृत नवीकरणीय ऊर्जा स्त्रोतों को शामिल किया जा सके ।
    हाल ही में जो ब्लैक आउट की स्थिति पैदा हुई, वह इस बात का संकेत है कि किस तरह जटिल व्यवस्थाआें के ढहने की आशंका ज्यादा होती है, फिर चाहे वे पॉवर ग्रिड हो या परमाणु संंयंत्र । स्थानीय स्तर पर छोटी-छोटी इकाइयों का प्रबंधन करना कहीं बेहतर विकल्प है, खासकर दूर-दराज इलाकों में । विशेषज्ञों का मानना है कि केन्द्रीकृत विशालकाय बिजली संयंत्रों पर निर्भरता कम करनी चाहिए, साथ ही इंटरकनेक्टेड नेटवर्क को भी घटाना चाहिए । केवल भारी उद्योगों और रेलवे को ही केन्द्रीकृत नेटवर्क से बिजली की आपूर्ति करनी चाहिए । जिन उद्योगोंऔर संगठनों में बहुत अधिक कर्मचारी कार्यरत हैं, उन्हें नवीकरणीय ऊर्जा पर आधारित केप्टिव पॉवर प्लांट्स लगाने की दिशा में आगे बढ़ना चाहिए ।
    बिजली क्षेत्र की अक्षमता के कारण देश को वर्ष २०११ में पहुंचा नुकसान एक लाख २५ हजार करोड़ रूपए को पार कर गया । उचित प्रबंधन उपायों से बिजली की ३५ से ४० फीसदी जरूरत को कम किया जा सकता है । इसलिए सबसे पहली प्राथमिकता तो इन उपायों को लागू करने की होनी चाहिए । कार्यक्षमता में वृद्धि, न्यूनतम बिजली क्षति, जिम्मेदारी के साथ इसका उपयोग और नवीकरणीय ऊर्जा स्त्रोंतो का अधिक से अधिक इस्तेमाल एकीकृत ऊर्जा संसाधन प्रबंधन के आधारभूत घटक होने चाहिए ।
    अंतर्राष्ट्रीय ऊर्जा एजेंसी (आईईए) ने वर्ष २०११ में चेताया था कि बिजली के लिए कोयले पर निर्भरता से अगले पांच सालों में दुनिया ऐसी राह पर पहुंच जाएगी जिससे वैश्विक तापमान में दो डिग्री सेल्सियस की बढ़ोतरी को कोई नहीं टाल सकेगा । सदी के अंत तक तो इसमें और इजाफा हो जाएगा । विभिन्न संगठन तापमान में इस दो फीसदी बढ़ोतरी को बहुत ही भयावह मानते हैं । उनका कहना है कि इससे सूखा और बाढ़ जैसी घटनांए बढ़ जाएंगी, फसल का उत्पादन कम हो जाएगा और धरती पर जीव-जन्तुआें व वनस्पतियों की ३० फीसदी प्रजातियां खत्म हो जाएंगी । ऊर्जा विशेषज्ञों का कहना है कि इस स्थिति को रोकने के लिए हमें भविष्य की अपनी ऊर्जा जरूरतों को इस तरह से पूरा करना होगा कि उससे कार्बन का उत्सर्जन शून्य हो ।
    दक्षिण कोरिया ने हरित विकास की दिशा में बहुत काम किया है । वर्ष २००९ में दक्षिण कोरियाई सरकार ने मंदी से निपटने के लिए जिस ३८.१० अरब डॉलर के पैकेज की घोषणा की थी, उसका ८० फीसदी हिस्सा ताजा जल जैसे संसाधनों के बेहतर इस्तेमाल, ऊर्जा दक्ष भवनों के निर्माण, नवीकरणीय ऊर्जा संसाधनों, न्यूनतम कार्बन उत्सर्जित करने वाले वाहनों व रेल नेटवर्क के विकास पर खर्च किया जाएगा । इसके अलावा उसने हरित खरीदी कानून लागू किया है, ताकि पर्यावरण अनुकूल उत्पादों के इस्तेमाल को प्रोत्साहन मिल   सके ।

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