सोमवार, 11 फ़रवरी 2013

वातावरण
हवा में घुलता जहर
प्रमोद भार्गव
    पिछले लगातार कई दिनों से दिल्ली में छाई रहने वाली धंुध ने कई चिंताजनक सवाल छोड़े हैं । औघोगिक विकास, बढ़ता शहरीकरण और उपभोगक्तावादी संस्कृति आधुनिक विकास के ऐसे नमूने, मॉडलद्ध हैं, जो हवा, पानी और मिट्टी को एक साथ प्रदूषित करते हुए समूचे जीव-जगत को संकटग्रस्त बना रहे  हैं । इससे भी दुखद व भयावह स्थिति यह है कि विश्व बैंक के आर्थिक सलाहकार विलियम समर्स का कहना है कि हमें विकासशील देशों का प्रदूषण, अपशिष्ठ, कूड़ा-कचराद्ध निर्यात करना चाहिए । क्योंकि ऐसा करने से एक तो विकासशील देशों का पर्यावरण शुद्ध रहेगा, दूसरे इससे वैश्विक स्तर पर प्रदूषण घातक स्तर के मानक को स्पर्श नहीं कर पाएगा, क्योंकि तीसरी दुनिया के इन गरीब देशों में मनुष्य की कीमत सस्ती हैं । पूंजीवाद के भौतिक दर्शन का यह क्रूर नवीनतम संस्करण है जिसके वबंडर ने दिल्ली को एक पखवाड़े अपनी गिरफ्त में रखा । आधुनिक व प्रौघोगिक विकास का दंभ भरने वाले सत्ता-संचालकों के पास ऐसा कोई उपाय नहीं था, जिसका इस्तेमाल करके वे दिल्ली को इस संकट से तत्काल छुटकारा दिला पाते ? अंतत: लाचार दिल्लीवासी कुदरत पर ही आश्रित रहे । 
     भारत में औघोगिकरण की रफ्तार भूमण्डलीकरण के बाद तेज हुई । एक तरफ प्राकृतिक संपदा का दोहन बढ़ा तो दूसरी तरफ औघोगिक कचरे में बेतहाशा बढ़ोत्तरी हुई । लिहाजा दिल्ली में जब शीत ऋतु ने दस्तक दी तो वायुमण्डल में आर्द्रता छा गई । इस नमी ने धूल और धुएं के बारीक कणों को वायुमण्डल में विलय होने से रोक दिया और दिल्ली के उपर एकाएक कोहरा अच्छादित हो गया । वातावरण का यह निर्माण क्यों हुआ, मौसम विज्ञानियों के पास इसका कोई स्पष्ट तार्किक उत्तर नहीं है । वे इसकी वजह तमिलनाडू में गतिमान रहीं, नीलम चक्रवात की तूफानी हवाआें को मान रहे हैं । लेकिन ये हवाएं तमिलनाडू से चलकर दिल्ली पर ही क्यों केन्द्रित हुई, इसका न तर्कसंगत जवाब है और न ही व्यावहारिक हल ।
    इसका एक कारण बढ़ते वाहन और उनका सह उत्पाद प्रदूषित धुंआ भी बताया गया । लेकिन वाहन तो चैन्नई, मुम्बई, बैगलुरू, अहमदाबाद और कोलकाता में भी दिल्ली से कम नहीं हैं, लेकिन इन शहरों में धुंध का माहौल नहीं    बना ? हालांकि हवा में घुलता जहर महानगरों में ही नहीं छोटे नगरों में भी प्रदूषण का सबब बन रहा है, इसमें कोई शक-सुबहा नहीं है । कारों की बढ़ती संख्या के कारण दिल्ली ही नहीं लखनऊ, कानपुर, अमृतसर, इन्दौर और अहमदाबाद जैसे शहरों में प्रदूषण खतरनाक स्तर की सीमा लांघने को तत्पर है । दिल्ली में वायु प्रदूषण मानक स्तर से पांच गुना ज्यादा   है । उद्योगों से धंुआ उगलने और खेतों में बड़े पैमाने पर औघोगिक व इलेक्टोनिक कचरा जलाने से दिल्ली की हवा में जहरीले तत्वों की सघनता बढ़ी है ।
    मध्यप्रदेश व छत्तीसगढ़ के लगभग सभी छोटे शहरों को प्रदूषण की गिरफ्त में ले लिया है । डीजल व घासलेट से चलने वाले वाहनों व सिंचाई पंपों ने इस समस्या को और विकराल रूप दे दिया है । केन्द्रीय प्रदूषण बोर्ड देश के १२१ शहरोंमें वायु प्रदूषण का आंकलन करता है । इसकी एक रिपोर्ट के मुताबिक देवास, कोझिकोड व तिरूपति को अपवाद स्वरूप छोड़कर बाकी सभी शहरों में प्रदूषण एक बड़ी समस्या के रूप में अवतरित होता जा रहा है । इस प्रदूषण की मुख्य वजह तथाकथित वाहन क्रांति है । विश्व स्वास्थ्य संगठन का दावा है कि डीजल और कैरोसीन से पैदा होने वाले प्रदूषण से ही दिल्ली में एक तिहाई बच्च्े सांस की बीमारी की गिरफ्त में है । २० फीसदी बच्च्े मधुमेह जैसी लाइलाज बीमारी की चपेट में हैं । इस खतरनाक हालात से रूबरू होेने के बावजूद दिल्ली व अन्य राज्य सरकारें ऐसी नीतियां अपना रही हैं, जिससे प्रदूषण को नियंत्रित किए बिना औद्योगिक विकास को प्रोत्साहन मिलता रहे । यही कारण है कि डीजल वाहनों का चलन लगातार बढ़ रहा  है ।
    जिस गुजरात को हम आधुनिक विकास का मॉडल मानकर चल रहे हैं, वहां भी प्रदूषण के हालात भयावह हैं । कुछ समय पहले टाइम पत्रिका में छपी एक रिपोर्ट के मुताबिक दुनिया के चार प्रमुख प्रदूषित शहरों में गुजरात का वापी शहर शामिल हैं । इस नगर में ४०० किलोमीटर लंबी औद्योगिक पट्टी है । इन उद्योगों में कामगर और वापी के रहवासी कथित औद्योगिक विकास की बड़ी कीमत चुका रहे हैं । वापी के भूगर्भीय जल में पारे की मात्रा विश्व स्वास्थ्य संगठन के तय मानकों से ९६ प्रतिशत ज्यादा है । यहां की वायु में धातुआें का संक्रमण तारी है जो फसलों को नुकसान पहुंचा रहा है । कमोबेश ऐसे ही हालात अंकलेश्वर बंदरगाह के हैं । यहां दुनिया के अनुपयोगी जहाजों को तोड़कर नष्ट किया जाता है । इन जहाजों में विषाक्त कचरा भी भरा होता हैं, जो मुफ्त में भारत को निर्यात किया जाता है ।
    इनमें ज्यादातर सोड़ा की राख, एसिडयुक्त बैटरियां और तमाम किस्म के घातक रसायन होते हैं । इन घातक तत्वों ने गुजरात के बंदरगाहों को बाजार में तब्दील कर दिया है । लिहाजा प्रदूषित कारोबार पर शीर्ष न्यायालय के निर्देश भी अंकुश नहीं लगा पा रहे हैं । यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि हमारे देश में विश्व व्यापार संगठन के दबाव में प्रदूषित कचरा भी आयात हो रहा है । इसके लिए बाकायदा विश्व व्यापार संगठन के मंत्रियों की बैठक में भारत पर दबाव बनाने के लिए एक परिपत्र जारी किया कि भारत विकसित देशों पर पुननिर्मित वस्तुआें और उनके अपशिष्टों के निर्यात की कानूनी सुविधा दे । पंूजीवादी अवधारणा का जहरीले कचरे को भारत में प्रवेश की छूट देने का यह कौन-सा मानवतावादी तर्क है ? अमेरिका, ब्रिटेन और जर्मनी इस प्रदूषण को निर्यात करते रहने का बेजा दबाव बनाए हैं ।
    हमारी गंगा और यमुना जैसी पवित्र नदियों का भी बुरा हाल है । बनारस जहां करोड़ों श्रृद्धालु अपना परलोक सुधारने के लिए गंगा में डुबकी लगाते हैं, इस गंगा के प्रति एक सौ मिलीमीटर पानी में फेसल कोलिफार्म नामक बैक्टीरिया की मात्रा ६० हजार है । इस लिहाज से जो पानी स्नान के लिए सुरक्षित माना जाता है, उससे यह पाने १२० गुना ज्यादा खतरनाक है । यमुना में इसी बैक्टीरिया की तादात १० हजार है । मसलन देश की दोनों पवित्र नदियों को जल प्रदूषण ने अपवित्र बना दिया है । इन सब हालातों से रूबरू होने के बावजूद प्रदूषण से निजात दिलाने की प्राथमिकता न केन्द्र सरकार के एजेंडे में शामिल है और न ही राज्य सरकारों ने एजेंडे में ?   

कोई टिप्पणी नहीं: