सामाजिक पर्यावरण
ताकि गुस्सा व्यर्थ न जाए
मस्तराम कपूर
नागरिक समाज के अंसतोष और आक्रोश की अभिव्यक्ति पूरे देश ने पिछले दिनों दामिनी की मौत की घटना से देखी । कानूनों के रास्ते केवल समस्याआेंका समाधान संभव नहीं है । नागरिक समाज को इसके लिए आगे आना होगा ।
पिछले दिनों दामिनी की मौत ने सबको झकझोर दिया । इसने दिल्ली सरकार और केन्द्र की सरकार के मुंह पर कालिख भी पोत दी । इससे पहले भ्रष्टाचार और काले धन के विरोध मेंचले अन्ना हजारे, केजरीवाल और रामदेव के आंदोलनों ने समाज को झकझोर दिया था । इन दोनों मौकों पर चौबीस घंटे के खबरिया चैनलों ने आग में भी डालने का काम किया । ऐसा लगा कि व्यवस्था में कोई बड़ा भूचाल आने वाला है । निश्चय ही इन घटनाआें से युवा वर्ग में जो ऊर्जा फुटी उसमें क्रांतिकारी परिवर्तन की संभावनाएं थी और है । इस ऊर्जा को सही दिशा में लगाने की जरूरत है ।
ताकि गुस्सा व्यर्थ न जाए
मस्तराम कपूर
नागरिक समाज के अंसतोष और आक्रोश की अभिव्यक्ति पूरे देश ने पिछले दिनों दामिनी की मौत की घटना से देखी । कानूनों के रास्ते केवल समस्याआेंका समाधान संभव नहीं है । नागरिक समाज को इसके लिए आगे आना होगा ।
पिछले दिनों दामिनी की मौत ने सबको झकझोर दिया । इसने दिल्ली सरकार और केन्द्र की सरकार के मुंह पर कालिख भी पोत दी । इससे पहले भ्रष्टाचार और काले धन के विरोध मेंचले अन्ना हजारे, केजरीवाल और रामदेव के आंदोलनों ने समाज को झकझोर दिया था । इन दोनों मौकों पर चौबीस घंटे के खबरिया चैनलों ने आग में भी डालने का काम किया । ऐसा लगा कि व्यवस्था में कोई बड़ा भूचाल आने वाला है । निश्चय ही इन घटनाआें से युवा वर्ग में जो ऊर्जा फुटी उसमें क्रांतिकारी परिवर्तन की संभावनाएं थी और है । इस ऊर्जा को सही दिशा में लगाने की जरूरत है ।
यह काम सरकारांे द्वारा नहीं किया जा सकता क्योंकि यह ऊर्जा-विस्फोट मूलत: सरकारों की अकुशलता और असफलता की प्रतिक्रिया है । सरकारें इनका दमन तो कर सकती है किन्तु इनको सर्जनात्मक दिशा नहीं दे सकती । यह नागरिक समाज के असंतोष और आक्रोश की अभिव्यक्ति है । नागरिक समाज नगरीय समाज के अर्थ में, जो ग्रामीण समाज से भिन्न है तथा उसकी तुलना में अधिक विकसित, शिक्षित तथा साधन-सम्पन्न है । किन्तु नागरिक समाज के आंदोलनों की समस्याआें के प्रति दृष्टि काफी लचर रही है ।
भ्रष्टाचार की समस्या को हल करने के लिए उनकी तरफ से जो सुझाव आए उनका सार था कि सरकार सख्त से सख्त कानून बनाए और उन्हें सख्ती से लागू करें । अगर कानून बनाने से ही समस्या हल हो जाती तो इस देश को अब तक सभी समस्याआें से मुक्त हो जाना चाहिए था । कानून और दंड का रास्ता अपराधों पर रोक लगाने का एक रास्ता हो सकता है किन्तु वह समाज में व्याप्त् अपराध की प्रवृत्तियों का इलाज नहीं है । ये प्रवृत्तियां सामाजिक रोगों का लक्षण हैं । जब तक इन रोगों का ठीक से निदान नहीं हो जाता और इनके कारणों को दूर नहीं किया जाता, ये अपराध होते रहेंगे ।
पुरूषों की यौन विकृतियों का कारण आधुनिक जीवन की परिस्थितियां भी हैं । औद्योगीकरण और शहरीकरण की अंधाधुंध गति ने कृषिभूमि को नष्ट कर खेती पर निर्भर जातियों को कृत्रिम समृद्धि और निठल्ले जीवन की जो लत लगाई है उसके चलते युवकों का नशे और अपराधों की दुनिया की ओर जाना स्वाभाविक है । रोजगार छीनने और नकद पैसा बांटने की सरकारी योजनाएं भी इस प्रवृत्ति को बढ़ावा दे रही है ।
कहने का मतलब यह कि समाज की रोग पैदा करने वाली स्थितियों को बदले बिना केवलसख्त कानून बना कर स्त्रियों के प्रति होने वाले अपराधों पर रोक नहीं लगाई जा सकती । यह काम सरकारें भी कर सकती हैं बशर्ते कि सरकारें आम जनजीवन तथा संस्कृति के प्रति संवेदनशील हो । केवल जीडीपी की चिंता करने वाली और मुनाफे के लिए चलने वाली सरकारें यह काम नहीं कर सकती है । लेकिन यह शुरूआत टीवी कैमरों की चमक-दमक के बीच मोमबत्तियों का जुलूस निकालने या मुंह पर काली पट्टी बांधकर नारों की पटि्टयां गले से लटकाए पिकनिक की मुद्रा में प्रदर्शन करने से नहीं होगी । इस प्रकार के विरोध पर तब तो संदेह होने ही लगता है जब हम पाते हैं कि बलात्कार जैसे जघन्य अपराधों को रंगीनी प्रदान करने वाली फिल्मों और सीरियलों के प्रशंसक भी इसी मध्य वर्ग के लोग होते हैं । अत: इस कुसंस्कृति के विरूद्ध आंदोलन छेड़ने के लिए युवक-युवतियों को विशेष प्रशिक्षण प्राप्त् करना होगा तथा कठोर अनुशासन से गुजरना होगा । सबसे पहले तो हमें अपनी भीतर यह विश्वास जगाना होगा कि अन्याय और अत्याचार का विरोध करना मनुष्य का जन्म सिद्ध अधिकार है । बल्कि यह अधिकार ही नहीं, कर्तव्य भी है । इसके बिना मनुष्य मनुष्य होने का दावा भी नहीं कर सकता । इस विश्वास को प्राप्त् करना कठिन अनुशासन से ही संभव है ।
इसके लिए दूसरी शर्त है सत्याग्रह । विरोध का आधार सत्य होना चाहिए न कि निजी स्वार्थ से उत्पन्न भावावेश । सत्याग्रह की कसौटी पर भी खरा उतरने के लिए हमें कठोर अनुशासन और प्रशिक्षण की जरूरत है । इस प्रकार अन्याय और अत्याचार का विरोध करने के अधिकार को कोई भी सत्ता छीन नहीं सकती । यह बात सिर्फ गांधीजी ने ही नहीं कहीं, साम्यवादी चिंतक मार्क्स, ट्राटस्की सिविल नाफरमानी हर युग में, हर समाज में आवश्यक है । लोहिया सतत सिविल नाफरमानी में प्रशिक्षित युवक-युवतियों के दल यूथ ब्रिगेड संगठित करना चाहते थे और उनके द्वारा ही हिंसा तथा अन्याय-अत्याचार रहित नये विश्व का निर्माण करना चाहते थे ।
लोहिया ने अपनी सोशलिस्ट पार्टी में भी इसी तरह के यूथ ब्रिगेडों की कल्पना की जिनमें समाज के सभी तबकों के युवक-युवतियां आएं । उन्हें अन्याय, अत्याचार और भ्रष्टाचार का विरोध करने की कला में, सतत सिविल नाफरमानी में, प्रशिक्षित किया जाए और साथ ही साथ स्त्री-पुरूष बराबरी तथा जातिगत पूर्वाग्रहों से मुक्ति के संस्कार भी दिए जाएं । उनका एक कार्यक्रम था एक घंटा देश के नाम । इसके अन्तर्गत वे चाहते थे कि समाज के विभिन्न तबकों से आए लड़के-लड़कियों के दल महीने में एक या दो दिन नहरे-तालाब खोदने, सड़के-नदियां साफ करने के सार्वजनिक काम करेंऔर फिर सहभोज आदि में भाग ले कर स्त्री-पुरूष समानता तथा जातिगत भेदभाव से उपर उठने का प्रशिक्षण प्राप्त् करें । इसके अलावा उनकी अपेक्षा थी कि ये युवजन-समूह भ्रष्टाचार, अन्याय और अत्याचार का प्रतिकार करने के लिए अहिंसक सत्याग्रह और सिविल नाफरमानी के तरीकों में प्रशिक्षित हो ।
सदियों पुराने सामाजिक रोगों से मुक्ति एक कानून बना कर, अपराधियों को फांसी पर लटका कर या उत्सव के माहौल में किए गए प्रदर्शनों से नहीं मिलेगी । इसके लिए ऊपर बताए गए अनुसार लड़के-लड़कियों को प्रशिक्षित करना पड़ेगा । पिछली सदी में विश्व युद्ध से उत्पन्न समस्याआें से निपटने के लिए जैसे स्काउट और एनसीसी आदि संगठन बने थे कुछ उसी तरह के संगठन हमेंबनाने होंगे । इसकी शुरूआत नागरिक संस्थाएं भी कर सकती हैं और युवा लोग खुद भी पहल कर सकते है ।
युवा दलों के संगठन मोहल्ले या कुछ गांवो के स्तर पर भी बनाए जा सकते है । किन्तु इस तरह के संगठनों के लिए जरूरी होगा कि इनमें न सिर्फ लड़कियों की समान भागीदारी हो बल्कि समाज के अलग-अलग तबकों की भी समान भागीदारी हो । तभी तो हम जाति-लिंग के पूर्वाग्रहों से मुक्त होने का प्रशिक्षण प्राप्त् कर सकते है । ये पूर्वाग्रह हममें पैदा ही इसलिए हुए कि एक तरफ लड़के-लड़कियों के बीच और दूसरी तरफ सवर्ण और असवर्ण जातियों के बीच अलगाव बनाए रखने का वातावरण हमें मिला ।
शिक्षण संस्थाआें और दफ्तरों आदि में भी यह देखा गया कि जहां लड़के-लड़कियां साथ-साथ पढ़ते हैं या स्त्री-पुरूष साथ-साथ काम करते हैं वहां स्त्री-पुरूष संबंधों में सहजता आती है । इसी प्रकार जातिगत संबंधों की सहजता के लिए पड़ौस के स्कूल और कॉमन स्कूल जिनमें सभी तबकों के बच्च्े साथ-साथ पढ़े आवश्यक है । किन्तु हम तो उल्टी दिशा में चले जा रहे हैं ।
इस समय देश में सैकड़ों ऐसे आंदोलन अलग-अलग मुद्दों को लेकर चल रहे है । उनमें न केवल सत्ता को बदलने की शक्ति है बल्कि व्यवस्था-परिवर्तन की भी शक्ति है बशर्ते कि वे एक व्यापक एजेंडे पर एकजुट होकर राजनैतिक प्रक्रिया में हस्तक्षेप करें ।
भ्रष्टाचार की समस्या को हल करने के लिए उनकी तरफ से जो सुझाव आए उनका सार था कि सरकार सख्त से सख्त कानून बनाए और उन्हें सख्ती से लागू करें । अगर कानून बनाने से ही समस्या हल हो जाती तो इस देश को अब तक सभी समस्याआें से मुक्त हो जाना चाहिए था । कानून और दंड का रास्ता अपराधों पर रोक लगाने का एक रास्ता हो सकता है किन्तु वह समाज में व्याप्त् अपराध की प्रवृत्तियों का इलाज नहीं है । ये प्रवृत्तियां सामाजिक रोगों का लक्षण हैं । जब तक इन रोगों का ठीक से निदान नहीं हो जाता और इनके कारणों को दूर नहीं किया जाता, ये अपराध होते रहेंगे ।
पुरूषों की यौन विकृतियों का कारण आधुनिक जीवन की परिस्थितियां भी हैं । औद्योगीकरण और शहरीकरण की अंधाधुंध गति ने कृषिभूमि को नष्ट कर खेती पर निर्भर जातियों को कृत्रिम समृद्धि और निठल्ले जीवन की जो लत लगाई है उसके चलते युवकों का नशे और अपराधों की दुनिया की ओर जाना स्वाभाविक है । रोजगार छीनने और नकद पैसा बांटने की सरकारी योजनाएं भी इस प्रवृत्ति को बढ़ावा दे रही है ।
कहने का मतलब यह कि समाज की रोग पैदा करने वाली स्थितियों को बदले बिना केवलसख्त कानून बना कर स्त्रियों के प्रति होने वाले अपराधों पर रोक नहीं लगाई जा सकती । यह काम सरकारें भी कर सकती हैं बशर्ते कि सरकारें आम जनजीवन तथा संस्कृति के प्रति संवेदनशील हो । केवल जीडीपी की चिंता करने वाली और मुनाफे के लिए चलने वाली सरकारें यह काम नहीं कर सकती है । लेकिन यह शुरूआत टीवी कैमरों की चमक-दमक के बीच मोमबत्तियों का जुलूस निकालने या मुंह पर काली पट्टी बांधकर नारों की पटि्टयां गले से लटकाए पिकनिक की मुद्रा में प्रदर्शन करने से नहीं होगी । इस प्रकार के विरोध पर तब तो संदेह होने ही लगता है जब हम पाते हैं कि बलात्कार जैसे जघन्य अपराधों को रंगीनी प्रदान करने वाली फिल्मों और सीरियलों के प्रशंसक भी इसी मध्य वर्ग के लोग होते हैं । अत: इस कुसंस्कृति के विरूद्ध आंदोलन छेड़ने के लिए युवक-युवतियों को विशेष प्रशिक्षण प्राप्त् करना होगा तथा कठोर अनुशासन से गुजरना होगा । सबसे पहले तो हमें अपनी भीतर यह विश्वास जगाना होगा कि अन्याय और अत्याचार का विरोध करना मनुष्य का जन्म सिद्ध अधिकार है । बल्कि यह अधिकार ही नहीं, कर्तव्य भी है । इसके बिना मनुष्य मनुष्य होने का दावा भी नहीं कर सकता । इस विश्वास को प्राप्त् करना कठिन अनुशासन से ही संभव है ।
इसके लिए दूसरी शर्त है सत्याग्रह । विरोध का आधार सत्य होना चाहिए न कि निजी स्वार्थ से उत्पन्न भावावेश । सत्याग्रह की कसौटी पर भी खरा उतरने के लिए हमें कठोर अनुशासन और प्रशिक्षण की जरूरत है । इस प्रकार अन्याय और अत्याचार का विरोध करने के अधिकार को कोई भी सत्ता छीन नहीं सकती । यह बात सिर्फ गांधीजी ने ही नहीं कहीं, साम्यवादी चिंतक मार्क्स, ट्राटस्की सिविल नाफरमानी हर युग में, हर समाज में आवश्यक है । लोहिया सतत सिविल नाफरमानी में प्रशिक्षित युवक-युवतियों के दल यूथ ब्रिगेड संगठित करना चाहते थे और उनके द्वारा ही हिंसा तथा अन्याय-अत्याचार रहित नये विश्व का निर्माण करना चाहते थे ।
लोहिया ने अपनी सोशलिस्ट पार्टी में भी इसी तरह के यूथ ब्रिगेडों की कल्पना की जिनमें समाज के सभी तबकों के युवक-युवतियां आएं । उन्हें अन्याय, अत्याचार और भ्रष्टाचार का विरोध करने की कला में, सतत सिविल नाफरमानी में, प्रशिक्षित किया जाए और साथ ही साथ स्त्री-पुरूष बराबरी तथा जातिगत पूर्वाग्रहों से मुक्ति के संस्कार भी दिए जाएं । उनका एक कार्यक्रम था एक घंटा देश के नाम । इसके अन्तर्गत वे चाहते थे कि समाज के विभिन्न तबकों से आए लड़के-लड़कियों के दल महीने में एक या दो दिन नहरे-तालाब खोदने, सड़के-नदियां साफ करने के सार्वजनिक काम करेंऔर फिर सहभोज आदि में भाग ले कर स्त्री-पुरूष समानता तथा जातिगत भेदभाव से उपर उठने का प्रशिक्षण प्राप्त् करें । इसके अलावा उनकी अपेक्षा थी कि ये युवजन-समूह भ्रष्टाचार, अन्याय और अत्याचार का प्रतिकार करने के लिए अहिंसक सत्याग्रह और सिविल नाफरमानी के तरीकों में प्रशिक्षित हो ।
सदियों पुराने सामाजिक रोगों से मुक्ति एक कानून बना कर, अपराधियों को फांसी पर लटका कर या उत्सव के माहौल में किए गए प्रदर्शनों से नहीं मिलेगी । इसके लिए ऊपर बताए गए अनुसार लड़के-लड़कियों को प्रशिक्षित करना पड़ेगा । पिछली सदी में विश्व युद्ध से उत्पन्न समस्याआें से निपटने के लिए जैसे स्काउट और एनसीसी आदि संगठन बने थे कुछ उसी तरह के संगठन हमेंबनाने होंगे । इसकी शुरूआत नागरिक संस्थाएं भी कर सकती हैं और युवा लोग खुद भी पहल कर सकते है ।
युवा दलों के संगठन मोहल्ले या कुछ गांवो के स्तर पर भी बनाए जा सकते है । किन्तु इस तरह के संगठनों के लिए जरूरी होगा कि इनमें न सिर्फ लड़कियों की समान भागीदारी हो बल्कि समाज के अलग-अलग तबकों की भी समान भागीदारी हो । तभी तो हम जाति-लिंग के पूर्वाग्रहों से मुक्त होने का प्रशिक्षण प्राप्त् कर सकते है । ये पूर्वाग्रह हममें पैदा ही इसलिए हुए कि एक तरफ लड़के-लड़कियों के बीच और दूसरी तरफ सवर्ण और असवर्ण जातियों के बीच अलगाव बनाए रखने का वातावरण हमें मिला ।
शिक्षण संस्थाआें और दफ्तरों आदि में भी यह देखा गया कि जहां लड़के-लड़कियां साथ-साथ पढ़ते हैं या स्त्री-पुरूष साथ-साथ काम करते हैं वहां स्त्री-पुरूष संबंधों में सहजता आती है । इसी प्रकार जातिगत संबंधों की सहजता के लिए पड़ौस के स्कूल और कॉमन स्कूल जिनमें सभी तबकों के बच्च्े साथ-साथ पढ़े आवश्यक है । किन्तु हम तो उल्टी दिशा में चले जा रहे हैं ।
इस समय देश में सैकड़ों ऐसे आंदोलन अलग-अलग मुद्दों को लेकर चल रहे है । उनमें न केवल सत्ता को बदलने की शक्ति है बल्कि व्यवस्था-परिवर्तन की भी शक्ति है बशर्ते कि वे एक व्यापक एजेंडे पर एकजुट होकर राजनैतिक प्रक्रिया में हस्तक्षेप करें ।
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