रविवार, 17 जुलाई 2016

कृषि जगत
पानी को सुखाती आधुनिक तकनीक
कुलभूषण उपमन्यु
भारतीय हमने ऐसी सारी नई तकनीकों को अपना लिया जो कि सतह के नीचे से पानी को आसानी से निकाल लेती है। परंतु उसके पुनर्भरण की ओर से आँखे मूंद    लीं । परिणाम हम सबके सामने है । परंतु हम अब भी चेत नहीं रहे हैं । 
दुनिया में जब भी नई तकनीक आई है, उसने पुराने तौर तरीकों और तकनीकों को बदल दिया है। जब तक ये बदलाव उत्पाद की गुणवत्ता बढ़ाने वाले या श्रम को बचाने वाले रहते हैं, इनका स्वागत होता है और विस्तार भी । हर नई तकनीक ने एक नए व्यावसायिक वर्ग को जन्म दिया है, जो उस तकनीक के साथ रोजी रोटी के लिए जुड़ जाता है और निहित स्वार्थ की भूमिका निभाता रहता है। इसी तरह मानव विकास का क्रम चलता आया है। चिंता की बात तब पैदा होती है, जब कोई तकनीक जीवन के आधार हवा, पानी और मिट्टी (भोजन) की उपलब्धता पर संकट पैदा करने की भूमिका में आ जाती है या इनके महत्व के प्रति लापरवाह बना देती   है । 
  भारत वर्ष में यदि जल के बढ़ते संकट को देखें तो दो बातें उभर कर सामने आती हैं। एक तो पानी की मात्रात्मक उपलब्धता में कमी आ रही है और मांग दिनों दिन बढ़ती जा रही है। जलवायु परिवर्तन के इस दौर में पिछले कुछ दशकों में, तापमान में एक डिग्री की बढ़ोतरी हो गई है। यह बढ़ोतरी हिमालय में स्थानीय कारणों से और भी ज्यादा हुई है। हिमालय में बर्फ पड़ना कम हो गया है। सदियों से ग्लेशियरों के रूप में संचित जल के भंडार भी तेजी से पिघलने लगे हैं। 
हिमालय के ९० प्रतिशत ग्लेशियर पीछे हट रहे हैं। इससे पानी के लिए संघर्ष बढ़ रहा है। उदाहरण के लिए पंजाब में पिछली अमरेन्द्र सिंह की सरकार ने राज्य की नदियों में आ रही जलस्तर की कमी को आधार बना कर इन नदियों के जल बंटवारे के १९८० तक के सभी समझौतों को विधानसभा में प्रस्ताव पास करके  रद्द कर दिया था। इससे स्थिति की गंभीरता को समझा जा सकता है । 
पंजाब के आधे ब्लॉक भूजल के अत्यधिक दोहन के कारण भी संकट से गुजर रहे हैं। ट्यूबवैल तकनीक और मुफ्त बिजली ने इसमें बड़ी भूमिका निभाई है। लोग बड़े पैमाने पर ज्यादा पानी खाने वाली गन्ना और धान जैसी फसलें उगाने लगे, जिससे भूजल नीचे जाता    गया । उसे निकालने की तकनीक में सुधार आता गया । इससे भूजल की स्थिति की ओर किसानों का ध्यान ही नहीं जा सका । सरकारें भी वोट बैंक की राजनीति करती चली गई । 
मुफ्त बिजली से भूजल की जो अनदेखी हुई उसका दीर्घकालीन दुष्प्रभाव किसानों पर ही पड़ेगा । जिन इलाकों में १०-२० फूट से रह्ट (पर्शियन व्हील) से पानी निकाल लिया जाता था, वहां सैकड़ों फूट नीचे से पानी निकालने की जरूरत पड़ने लगी है, जिसके  लिए ज्यादा बिजली चाहिए, ज्यादा बिजली के लिए ज्यादा कोयला जलाना पड़ेगा या पहाड़ों में कृत्रिम जलाशय बना कर बिजली बनानी पड़ेगी । कोयले का धुंआ और जलाशयों से निकलने वाली मीथेन तापमान में वृद्धि करेगी । इससे ग्लेशियर और बर्फबारी से प्राप्त जल में और कमी आएगी । यह दुष्चक्र अब स्थायी है ।
सतही जल में कमी से भूजल भरण में भी कमी आती है, लेकिन तकनीक का घमंड हमें सोचने नहीं देता है । हम दूर से नहर बना कर, बड़ा जलाशय बना कर पानी ले आएंगे या जमीन से और गहरे ट्यूबवैल लगा कर निकाल लेंगे । तकनीक प्रकृति के प्रति इस तरह की लापरवाही का जब कारण बन जाती है तो मनुष्य जीवन के लिए सुविधा के नाम पर खतरे का कारण भी बन जाती है । इस समय हमें वैकल्पिक, प्रकृति मित्र तकनीकों की खोज करनी चाहिए, किन्तु निहित स्वार्थ हमेशा इस तरह की कोशिश और विचार का विरोध करते हैं। क्योंकि उनके आर्थिक तात्कालिक हित उससे जुड़े रहते हैं। 
ऐसी बात करने पर आपको विकास विरोधी बताएंगे या कोई दलगत राजनीति का ठप्पा लगाकर दबाने का प्रयास करेंगे । आखिर जीत तो सच्चई की ही होगी, किन्तु उसमें काफी समय की बर्बादी हो जाती है और कुछ लोगों को कष्ट भी उठाने पड़ जाते हैं। बड़े बांधों से नहरें, गहरे ट्यूबवैल और नल तकनीक ने स्थानीय जल स्त्रोतों के प्रति लापरवाही का भाव पैदा कर दिया   है । तालाब, कुंए, बावड़ियां गायब हो रही हैं। कहीं गंदगी की भेंट चढ़ गई,  कहीं नाजायज कब्जों और भूमि उपयोग में बदलाव की । तालाबों की जगह पार्किंग स्पॉट बन गए । समस्या के स्थानीय समाधान की संस्कृति लुप्त होती चली गई । 
अब नदी जोड़ो जैसे कार्यक्रमों की शरण में जाने की सोच बन रही है, जिसमें लाखों लोगों के विस्थापन की स्थितियां बनेंगी । इतने बड़े स्तर पर विस्थापन झेलना अब भारत के बस की बात नहीं है । आजादी के बाद के बड़ी परियोजनाओं के विस्थापित अब तक नहीं बस पाए तो नए कैसे बस पाएंगे। हिमाचल का उदाहरण लें तो भाखड़ा और पौंग के विस्थापित आज तक भटक रहे हैं। इसलिए तालाबों, कुआेंऔर छोटे छोटे जल स्त्रोतों के द्वारा स्थानीय स्तर के समाधान ज्यादा कारगर होंगे । स्थानीय स्तर पर संरक्षित पानी को कम पानी से सिंचाई वाली आधुनिक तकनीकों द्वारा प्रयोग करके बड़ी राहत किसानों के लिए हासिल की जा सकती है । 
इस काम के लिए जलागम विकास कार्यक्रमों को कुछ सुधारों के साथ लागू करके रास्ता निकला जा सकता है । बहुत कम इलाके ऐसे बचेंगे जहां के लिए पानी दूर-दराज से नहरों द्वारा लाने की जरूरत पड़ेगी । दूसरी बड़ी समस्या उद्योगों और शहरी मल जल के कारण जल प्रदूषण और औद्योगिक जरूरतों के लिए पानी की बढती मांग है । बहुत से उद्योगों को बड़ी मात्रा में पानी चाहिए किन्तु पानी को शुद्ध करके वापस नदी में छोड़ने की व्यवस्थाएं  ठीक नहीं हैं, जिसके कारण रासायनिक और जैविक कचरा नदियों में पहंुच रहा है । यमुना, हिंडन, सिरसा आदि अनेक नदियों का जल किसी भी काम के लायक नहीं बचा है । जल जीव नष्ट हो गए हैं । 
गंगा तक के सफाई अभियानों का असर देखना अभी बाकी है । हालांकि सरकारें हजारों करोड़ रुपए इस कार्य पर खर्च कर रही हैं। समस्याएं तो पैदा होती ही रहेंगी, किन्तु घमंडी तकनीकों के बूते जीवन के बुनियादी आधारों हवा, पानी, मिट्टी (भोजन) के प्रति लापरवाह व्यवहार से जो समाधान ढूंढे जाएंगे वे नई समस्याएं ही पैदा करेंगे, जिसके चलते विकास का स्वरूप टिकाऊ नहीं हो सकता । अत: जरूरी है कि नम्रतापूर्वक प्रकृति को मां समझते हुए प्रकृति मित्र तकनीकों के विकास के प्रयास हों, ताकि शस्यश्यामला धरती सदा जीवनदायिनी बनी रहे । 

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