रविवार, 17 जुलाई 2016

सम्पादकीय
अंतरिक्ष से कार्बन डाईऑक्साइड की निगरानी
 हाल ही में दुनिया के देशों ने पेरिस में जलवायु परिवर्तन के संदर्भ में कई वचन दिए हैं । इनमें से प्रमुख है ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में कमी लाना । पेरिस संधि के बाद यह जानना जरूरी है कि विभिन्न देश अपने-अपने वचनों का पालन कर रहे हैं या नहीं । इसके लिए सबकी निगाहें अंतरिक्ष में टिक गई है । कोशिश की जा रही है कि पृथ्वी का चक्कर काट रहे उपग्रहों की मदद से ग्रीनहाउस गैसों की निगरानी की जाएं ।
फिलहाल दो उपग्रह यह काम रहे हैं । पहला है नासा द्वारा निर्मित ऑर्बाइटिंग कार्बन ऑब्सरवेटरी-२ और दूसरा है जापान द्वारा प्रक्षेपित ग्रीन हाउस गैस ऑब्सविंग सैटेलाईट । इन दोनों उपग्रह से प्राप्त् आंकड़ों का मिलान धरती पर प्राप्त् आंकड़ों से करके सटीक बनाने की काशिश चल रही है । अलबत्ता, दुनिया भर की अंतरिक्ष संस्थाएं इस जुगाड़ में है कि वर्ष २०३० तक ऐसे उपग्रहों का एक पूरा बेडा अंतरिक्ष में स्थापित कर दिया जाए ताकि पूरी धरती पर ग्रीनहाउस गैसों का सतत आंकलन किया जा सके । 
यह काम न सिर्फ बहुत महंगा है बल्कि इसमें कई तकनीकी अड़चने भी है । जैसे अभी ये दो उपग्रह धरती के ऊपर हवा के एक स्तंभ में कार्बन डाईऑक्साइड और मीथेन की मात्रा की गणना कर लेते हैं । मगर इससे यह पता नहीं चलता कि इन गैसों का स्त्रोत क्या है जबकि वास्तविक जरूरत तो यही जानने की है । एक ओर समस्या इनके आंकड़ों की विश्वसनीयता की है । नासा के २के आंकड़ो में इस वक्त ०.५ प्रतिशत की घट-बढ़ की संभावना है । अब नासा एक नई प्रणाली विकसित कर रहा है जिसकी विश्वसनीयता कहीं अधिक होगी । चीन भी इस वर्ष दो कार्बन निगरानी उपग्रह छोड़ने की फिराक में है । मगर पैसा एक बड़ी अड़चन है । इस समय ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन को लेकर जो धरती आधारित विधियां है वे काफी किफायती हैं और कई देश इन्हीं को तरजीह देना चाहते हैं । 
वैसे विभिन्न अंतरिक्ष एजेंसियों के बीच इस संदर्भ में बातचीत हुई है और इन उपग्रहों से प्राप्त् आंकड़ों के वितरण व उपयोग को लेकर कुछ सहमति बनने के आसार हैं । 

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