गुरुवार, 22 दिसंबर 2016

हमारा भूमण्डल
राष्ट्रों को श्रीहीन करते कारपोरेशन
निका नाइट
कारपोरेटों (बहुराष्ट्रीय निगमों) की बढ़ती ताकत और आकार राष्ट्रों को अर्थहीन बनाते जा रहे हैं । यदि समय रहते इन पर लगाम न लगाई गई तो यह राष्ट्रों की संप्रभुता को नष्ट कर देंगे एवं एक बार पुन: दुनिया पर ईस्ट इंडिया कंपनी जैसी बहुराष्ट्रीय कंपनियों का राज हो जाएगा ।
ब्रिटेन स्थित ``ग्लोबल जस्टिस नाऊ`` द्वारा जारी किए गए नए आंकड़ों के अनुसार कारपोरेशन (निगम) ही इस दुनिया को चला रहे हैं। इस आर्थिक एवं सामाजिक न्याय पैरवी समूह ने पाया कि सबसे बड़े १०(दस) कारपोरेशन विश्व के अधिकांश देशांे को यदि एक साथ मिला दिया जाए तो उनसे भी ज्यादा समृद्ध हैं। ग्लोबल जस्टिस नाऊ आंदोलन की नीति अधिकारी, आएशा डोडवेल ने लिखा है, ``यदि आज दुनिया की सबसे समृद्ध १०० आर्थिक इकाइयों का मूल्यांकन करेंगे तो हम पाएगंे कि अब उनमें से ६९ बड़े कारपोरेशन हैंऔर महज ३१ देश हैं। पिछले साल यह अनुपात ६७ : ३७ था । अगर यह अंतर इसी रफ्तार से बढ़ता रहा तो एक पीढ़ी (करीब ३० वर्ष) के अंदर इस पूरी दुनिया पर इन विशाल कारपोरेशनों का पूरा आधिपत्य हो जाएगा । 
वस्तुत: शैल, एप्पल और वालमार्ट जैसी महाकाय बहुराष्ट्रीय कंंपनियों में से प्रत्येक का राजस्व विश्व के १८० ``निर्धनतम`` देशों से अधिक है । इन देशों में संयुक्त रूप से आयरलैंड, ग्रीस, दक्षिण अफ्रीका और कोलंबिया शामिल हैं। इन दस सर्वोच्च् कंपनियों का संयुक्त मूल्य २.९ अरब डॉलर है जो कि चीन की अर्थव्यवस्था से भी ज्यादा है। वालमार्ट जो कि विश्व का सबसे बड़ा कारपोरेट है की कुल कीमत ४८२ अरब डॉलर है जो कि इसे स्पेन, आस्ट्रेलिया व नीदरलैंड (अलग-अलग) से अधिक अमीर बना देती है ।
ग्लोबल जस्टिस नाऊ के निदेशक निक डियरडेन का कहना है, कारपोरेशन (निगमों) की अथाह संपदा और ताकत ही विश्व की अनेक समस्याओं की जड़ में है। अल्पावधि की लाभ की आकांशा इस ग्रह पर निवास कर रहे करोड़ों लोगों के मानवाधिकार से खिलवाड़ कर रही है। आंकड़े बता रहे हैंकि स्थितियां दिनोंदिन बद्तर होती जा रही हैं। हमें इस बात को लेकर चिंतित होना चाहिए कि बहुराष्ट्रीय कंपनियां उन क्षेत्रों में भी अत्याधिक प्रभुत्व जताती जा रही हैंजिन्हें कि पांरपरिक तौर पर राज्य का प्राथमिक क्षेत्र माना जाता था । 
एक ओर वे शिक्षा से स्वास्थ्य तक और सीमाओं के नियंत्रण से लेकर जेलखानों तक का निजीकरण कर रहे हैंवहीं दूसरी ओर अपने लाभ को आफशोर (बाहरी देशांे) गुप्त खातों में जमा करते जा रहे हैं। इतना ही नहीं निर्णय लेने की प्रक्रिया में उनकी असाधारण पहुंच बन गई है और वे गुप्त न्यायालय बनाकर उस पूरी न्याय प्रक्रिया की अनदेखी कर रहे हैं, जो कि सामान्य लोगों पर लागू है । उनकी इस असाधारण वृद्धि के परिणामस्वरूप पर्यावरण विध्वंस हो रहा है और जलवायु परिवर्तन सामने आ रहा है। किसी कारखाने में गुलामों जैसी कार्य परिस्थितियां से लेकर बी पी (ब्रिटिश पेट्रोलियम) के तेल कुंओं में रिसाव से लोगों के घर की बर्बादी, जैसी कारपोरेशनों की मनमानियों की कहानियां हम अक्सर पढ़ते हैं।
ग्लोबल जस्टिस नाऊ का कहना है, ``इस समय इन आंकड़ों को इसलिए जारी किया गया है जिससे ब्रिटिश सरकार पर दबाव डाला जा सके कि इक्वाडोर की अध्यक्षता में सं रा. कार्यसमूह द्वारा प्रस्तावित रिपोर्ट में वह इस तरह की बाध्यकारी संधि की स्थापना हेतु दबाव डाले जिससे कि यह सुनिश्चित किया जा सके कि यह बहुराष्ट्रीय कारपोरेशन इस संधि से बाध्य होकर मानव अधिकारों की पूरी जवाबदेही को स्वीकारें । वैसे ब्रिटेन ने कभी भी इस प्रक्रिया का समर्थन नहीं किया है और पूर्व में बार-बार इस प्रस्ताव पर वीटो करता रहा है और इस प्रस्ताव का विरोध भी किया है । डीयरडेन का कहना है,`` ब्रिटिश सरकार ने करों के ढ़ांचे, व्यापार समझौतों और बड़े व्यापारियों की मदद हेतु कार्यक्रमों के माध्यम से कारपोरेशन की ताकत बढ़ाने में मदद ही की है । 
अमेरिका-यूरोप ट्रांस-अटलाटिंक ट्रेड एवं इन्वेस्टमेंट पार्टनरशिप (टी टी आई पी) सरकार द्वारा बड़े व्यापारों को मदद पहुंचाने का नवीनतम उदाहरण है। इतना ही नहीं उसने बहुत ही अगरिमापूर्वक ढंग से नियमित तौर पर सं. राष्ट्र संघ में विकासशील देशों के उन प्रस्तावों का विरोध किया है जिनमें उन्होंने कारपोरेशनों द्वारा अपने यहां पर मानवाधिकारों के उल्लंघन की बात कही गई थी । 
साथ साथ नवीनतम आंकड़ें दर्शाते हैंकि कारपोरेशनों ने किस हद तक इस पूरे विश्व में अपना प्रभुत्व कायम कर लिया है । ग्लोबल जस्टिस नाऊ  ने अब एक याचिका जारी की है जिसमें ब्रिटिश सरकार से कहा गया है कि वह संयुक्त राष्ट्र संघ को एक ऐसी बाध्यकारी संधि को अपनाने में मदद करे जो कारपोरेशनों को इस बात के लिए बाध्य कर सके कि वे विश्वभर में मानवाधिकारों का सम्मान करें । यह संधि १२ अक्टूबर के ब्रिटेन और यूरोपीय संघ के नेताओं को सौंप दी गई है । डोडवेल का कहना है, ``हालांकि कारपोरेट ताकत के खिलाफ लड़ाई बहुआयामी है और सं. राष्ट्र संधि उसका केवल एक हिस्सा है । 
ठीक इसी समय यह भी आवश्यक है कि हम अपनी आवश्यकताओं से संबंधित वस्तुओं को तैयार करने, वितरण करने एवं सेवाओं संबंधी वैकल्पिक रास्ते विकसित करें । हमें इस धारणा को तोड़ना होगा कि केवल विशाल कारपोरेशन ही अर्थव्यवस्था और समाज को ``सुचारु रूप से चला`` सकते हैं । विल्पि यह है कि हम उस कारपोरेट ताकत जिसे अब तक चुनौती नहीं दी गई है, के आत्मघाती विचार को चुनौती दें । \

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