रविवार, 18 नवंबर 2018

आवरण कथा
विकास की वेदी पर कितनी और बलियां ?
मेघा पाटकर/संदीप पाण्डेय
प्रोफेसर गुरूदास अग्रवाल जो अमरीका के कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय से दो वर्षों में पीएचडी करने के बाद विख्यात 'भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान` (आईआईटी), कानपुर में सीधे लेक्चर से प्रोफेसर प्रोन्नत किए गए थे और 'केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड` (सीपीसीबी)के पहले सदस्य-सचिव के रूप में उन्होंने भारत में प्रदूषण नियंत्रण हेतु कई महत्वपूर्ण मानक तय किए, अंतत: अपनी ही सरकार को गंगा को पुनर्जीवित करने के अपने आग्रह को न समझा पाए । 
इसकी कीमत उन्हें अपनी जान गंवा कर देनी पड़ी । हरिद्वार में ११२ दिनों तक सिर्फ नींबू पानी और शहद पर आमरण अनशन करने के पश्चात, जिसमें से आखिरी के तीन दिन निराजल रहे, ११ अक्टूबर, २०१८, को ऋषिकेश के 'अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान` में हृदय-गति रूक जाने से उनका प्राणांत हो गया ।
यह अचरज का विषय है कि हिन्दुत्व के मुद्दे पर चुनाव जीत कर आई सरकार ने एक साधु (जो वे ७९ वर्ष की अवस्था में २०११ में बन गए थे) की बात गंगा जैसे पारिस्थिति-कीय व धार्मिक विषय पर, जो  प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के वाराणसी चुनाव प्रचार के समय केन्द्र में था, क्यों नहीं सुनी ? प्रोफेसर अग्रवाल ने, जो अब स्वामी ज्ञान स्वरूप सानंद के नाम से प्रसिद्ध थे, एक 'राष्ट्रीय नदी गंगा जी (संरक्षण एवं प्रबंधन) अधिनियम, २०१२` का मसौदा तैयार किया था। सरकार ने भी एक 'राष्ट्रीय नदी गंगा (संरक्षण, सुरक्षा एवं प्रबंधन) बिल-२०१७,` जिसे २०१८ में कुछ बदलाव के साथ पुन: लाया गया, तैयार किया था। स्वामी सानंद व सरकार के मसौदों में नजरिए का फर्क है । 
अपने ५ अगस्त, २०१८ के प्रधानमंत्री को लिखे पत्र में स्वामी सानंद ने कहा है कि मनमोहन सिंह सरकार के समय 'राष्ट्रीय पर्यावरणीय अपील प्राधिकरण` ने उनके कहने पर लोहारी-नागपाला पन बिजली परियोजना, जिस पर कुछ काम हो चुका था, को रद्द किया था और भागीरथी नदी की गंगोत्री से लेकर उत्तरकांशी तक की सौ किलोमीटर से ज्यादा लम्बाई को पर्यावरणीय दृष्टि से संवेदनशील क्षेत्र घोषित किया था । इसका अर्थ है कि अब वहां कोई निर्माण कार्य नहीं हो सकता, लेकिन वर्तमान सरकार ने पिछले साढे चार सालों में कुछ भी नहीं किया है। उन्होंने अनशन शुरू  करने से पहले प्रधानमंत्री को जिन चार मांगों से अवगत कराया था, वे हैं 
(१) स्वामी सानंद, एडवोकेट एमसी मेहता व परितोष त्यागी द्वारा तैयार गंगा के संरक्षण हेतु बिल के  मसौदे को संसद में पारित करा कर कानून बनाया जाए, 
(२) अलकनंदा, धौलीगंगा, नन्दाकिनी, पिण्डर व मंदाकिनी, छह में से वे पांच धाराएं जिन्हें मिलाकर गंगा बनती है, छठी भागीरथी पर पहले से ही रोक है, व गंगा एवं गंगा की सहायक नदियों पर निर्माणाधीन व प्रस्तावित सभी पनबिजली परियोजनाओं को निरस्त किया जाए, 
(३) गंगा क्षेत्र में वन कटान व किसी भी प्रकार के खनन पर पूर्णत: रोक लगाई जाए और 
(४) 'गंगा भक्त  परिषद` का ग न हो जो गंगा के हित में काम करेगी । इस पर प्रधानमंत्री की ओर से स्वामी सानंद की मृत्यु तक कोई जवाब नहीं आया, जबकि २०१३ में उनका पांचवां अनशन तब खत्म हुआ था जब 'भारतीय जनता पार्टी` के तत्कालीन अध्यक्ष राजनाथ सिंह ने उन्हें पत्र लिखकर आश्वासन दिया था कि दिल्ली में नरेन्द्र मोदी की सरकार बनने के बाद गंगा संबंधित उनकी सारी मांगें मान ली जाएंगी ।
स्वामी सानंद गंगा को राष्ट्रीय प्रतीक के रूप में घोषित करवाना चाहते थे। गंगा के संरक्षण हेतु उनका मुख्य जोर इस बात पर था कि गंगा को उसके नैसर्गिक, विशुद्ध, अबाधित स्वरूप में बहने दिया जाए जिसे उन्होंने अविरल की परिभाषा दी थी व उसका पानी अप्रदूषित रहे जिसे उन्होंने निर्मल की परिभाषा दी । वे गंगा में शहरों का गंदा पानी या औद्योगिक कचरा, गंदा या सफा, किसी भी तरह से डालने के खिलाफ  थे। 
उन्होंने गंगा किनारे ठ ोस अपशिष्ठ को जलाने, कोई ऐसी इकाई लगाने जिससे प्रदूषण होता हो, वन कटान, अवैध पत्थर व बालू खनन, रिवर फ्रंट बनाने या कोई रासायनिक, जहरीले पदार्थ के प्रयोग पर प्रतिबंध की मांग की थी। असल में किसी भी नदी को बचाने के लिए ये आवश्यक मांगें हैं। महत्वपूर्ण बात यह है कि प्रोफेसर जीडी अग्रवाल की यह समझ उ.प्र. राज्य सिंचाई विभाग के लिए रिहंद बांध पर एक अभियंता के रूप में काम करते हुए बनी थी, जिसके बाद उन्होंने उ.प्र. सरकार की नौकरी छोड़ दी ।
एक वैज्ञानिक होने के नाते उन्होंने अविरल की ठीक-ठीक परिभाषा दी-नदी की लम्बाई में सभी स्थानों, यहां तक की कोई बांध है तो उसके बाद भी, और सभी समय न्यूनतम प्राकृतिक या पर्यावरणीय  या परिस्थितिकीय प्रवाह, जिसमें निरंतर वायुमण्डल व भूमि से तीनों तरफ, तली व दोनों तटों से सम्पर्क के साथ-साथ अबाध प्रवाह बना रहे । उनका मानना था कि गंगा के विशेष गुण-सड़न-मुक्त, प्रदूषण-नाशक, रोग-नाशक, स्वास्थ्य वर्धक तभी संरक्षित रहेंगे जब गंगा का अविरल प्रवाह बना रहेगा । इसी तरह निर्मल का मतलब सिर्फ 'प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड` द्वारा तय किए गए मानकों के अनुरूप अथवा आर.ओ. या यू.वी. का पानी नहीं है। 
गंगा में स्वयं को साफ करने की शक्ति  है जिसकी वजह उसके पानी में बैक्टीरिया मारने वाले जीवाणु, मानव शौच को पचाने वाले जीवाणु, नदी किनारे पेड़ों से प्राप्त पॉलीमर तत्व, भारी धातु एवं रेडियोधर्मी तत्व, अति सूक्ष्म गाद, आदि की मौजूदगी है। कुल मिलाकर गंगा के ऊपरी हिस्से की चट्टानें, साद, वनस्पति, जिसमें औषधीय पौधे भी शामिल हैं, यानी परिस्थितिकी के कारण गंगा में निर्मल होने का विशेष गुण है। स्वामी सानंद का इस बात पर पूरा भरोसा था कि गंगा का संरक्षण तभी हो सकता है जब गंगा को निर्मल व अविरल बनाए रखा जाए ।
जल संसाधन, नदी घाटी विकास व गंगा संरक्षण मंत्री नितिन गडकरी सार्वजनिक रूप से कहते हैं कि उन्हें निर्मल की अवधारणा तो समझ में आती है लेकिन अविरल की नहीं। यदि वे या उनकी सरकार स्वामी सानंद की गंगा को अविरल बनाने की बात मान लेंगे तो नदी पर बांध कैसे बनवाएंगे ? एक दूसरी बात, शासक दल भजपा से सुनने को यह मिली है कि उन्हें न तो देश से मतलब है, न धर्म से और न ही लोगों से,उन्हें तो सिर्फ  विकास करना है। विकास यानी ऐसा जिसमें पैसा कमीशन के रूप में वापस आता हो ताकि अगले चुनाव का खर्च निकाला जा सके । 
स्वामी सानंद गंगा के व्यवसायिक दोहन के सख्त खिलाफ थे। इसलिए 'राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ` के  एक वरिष्ठ सज्जन, जो स्वामी सानंद के मामले में मध्यस्थता के लिए तैयार हुए थे, का कहना था कि सिद्धांतत: तो वे स्वामी सानंद की बातों को अक्षरश: मानते हैं किन्तु सरकार चलाने की अपनी मजबूरियां होती हैं । स्वामी सानंद के साथ-साथ गंगा का भी भविष्य उसी समय अंधकारमय हो गया था । देश की दूसरी नदी घाटियों, जिन पर लाखों-करोड़ों का जीवन व आजीविका निर्भर हैं, पर भी यह खतरा मंडरा रहा है।
स्वामी सानंद ने 'संयुक्त  प्रगतिशील गठबंधन`  (यूपीए) की सरकार के समय भी पांच बार अनशन किया था, किन्तु एक बार भी उनके जीवन के लिए संकट उत्पन्न नहीं  हुआ । 'राष्ट्रीय लोकतांत्रिक ग बंधन`(एनडीए) की सरकार में एक बार ही अनशन करना उनके लिए जानलेवा बन गया। इससे यह भी स्पष्ट है कि विकास की प्रचलित अवधारणा सामाजिक-सांस्कृतिक  विचारधारा, जिसमें धर्म शामिल है या पर्यावरणीय चिंतन, भले ही प्रधानमंत्री को 'संयुक्त राष्ट्र संघ` ने पुरस्कार दिया हो, के  प्रति संवेदनशील नहीं है और वर्तमान सरकार तो कॉर्पोरेट जगत के ज्यादा पक्ष में है और कम मानवीय है।
स्वामी सानंद के जाने से जो स्थान रिक्त हुआ है उसे कैसे भरा जाएगा ? देश में कौन है,गंगा को बचाने की बात करने वाली दूसरी दमदार आवाज ? धार्मिक आस्था वाले कुछ लोगों के लिए स्वामी सानंद तो भागीरथ की तरह थे जिन्होंने अकेले अपने दम पर गंगा का मुद्दा उठाया । स्वामी सानंद के प्रति सच्ची श्रद्धांजलि यही होगी कि हम उन सरकारों, जो ऐसी विकास की अवधारणा को मानती हैं जिसमें प्रकृति का विनाश अंतर्निहित है, उन कम्पनियों को, जो ऐसी सरकारों की भ्रमित करने वाली अवधारणा को जमीन पर उतारती हैं और उन ठेकेदारों को, जो प्राकृतिक संसाधनों को लूट रहे हैं, के खिलाफ मोर्चा खोल दें ।
गंगा को बचाने की लड़ाई का अभी अंत नहीं हुआ है। मातृ सदन, जिस आश्रम को स्वामी सानंद ने अपना अनशन स्थल चुना था, के प्रमुख स्वामी शिवानंद ने नरेन्द्र मोदी को चेतावनी देते हुए घोषणा की थी कि स्वामी सानंद के बाद वे व उनके शिष्य अनशन के सातत्य को कायम रखेंगे। 
स्वामी सानंद के २२ जून, २०१८ को अनशन शुरू  करने के  तुरंत बाद ही एक स्वामी गोपाल दास ने भी अनशन शुरू कर दिया था । २०११ में मातृ सदन के ही नवजवान साधु स्वामी निगमानंद का गंगा में अवैध खनन के खिलाफ अपने अनशन के ११५वें दिन प्रणांत हो गया था, जिसमें यह आरोप है कि तत्कालीन उत्तराखंड की भाजपा सरकार से मिले हुए एक खनन माफिया ने उनकी हत्या करवाई । विकास के वेदी पर अभी और न जाने कितनी बलियां चढेंगी ?          

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