रविवार, 18 नवंबर 2018

विशेष लेख
प्राकृतिक संतुलन से पर्यावरण संरक्षण
डॉ. कैलाशचन्द सैनी
आधुनिक जीवनशैली और वैश्वीकरण ने पर्यावरण को प्रतिकूल रूप से प्रभावित किया है। भौतिक सुखों की लालसा ने प्राकृतिक असंतुलन को बढ़ाया है। महानगरीय संस्कृति के विस्तार से प्राकृतिक जंगल सिकुड़ते जा रहे हैं और क्राकीट जंगल इनकी जगह लेते जा रहे हैं। औद्योगिक विकास पर्यावरण के नैसर्गिक संतुलन को नष्ट कर रहा है। प्रदूषण से उत्पन्न विषम स्थिति से कथित विकसित देशों में शुद्ध हवा, निर्मल जल और सौंधी मिट्टी का मिलना ही दुर्लभ होता जा रहा है।
आधुनिक अनुसंधानों से यह स्पष्ट हो गया है कि यदि समय रहते प्राकृतिक संतुलन के प्रति सजग होकर काम नहीं किया गया तो यह विकास ही मानव के विनाश का कारण बन जायेगा। इसलिए पर्यावरण के  विनाश की नींव पर विकास की इमारत बनाने की छूट नहीं दी जा सकती । भौगोलिक परिवर्तनों से भी यह प्रमाणित हो गया है कि किसी भी देश का एक तिहाई भू-भाग प्राकृतिक सम्पदा से परिपूर्ण होना आवश्यक है। इसके अभाव में मौसम पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है और अतिवृष्टि, अनावृष्टि, अकाल और बाढ़ जैसे प्राकृतिक प्रकोपों का  सामना करना पड़ता है ।
प्राकृतिक असंतुलन के कारण उत्पन्न प्रदूषण ने अनेक नये रोगों को जन्म दिया है। तनाव और अशान्ति बढ़ने का मूल कारण कोलाहलपूर्ण वातावरण भी है जो आधुनिक जीवनशैली का अभिन्न अंग बन गया है। भौतिक सुखोपभोग के आधुनिक साधनों के बावजूद भी आज मनुष्य का सुखी और संतुष्ट नहीं है क्योंकि जीवन-दर्शन के अभाव के  कारण निरन्तर मूल्योंऔर मान्यताओं का ह्रास होता जा रहा है, परिणामस्वरूप मानवतावादी समग्र दृष्टि लुप्त् हो गई है जिससे सभ्यता विघटन के कगार पर आ खड़ी हुई है।
प्रदूषण को रोकने के लिए हमें समद्ध प्राकृतिक सम्पदा के  अनियंत्रित उपभोग को रोकना होगा । जंगलों को नष्ट होने से बचाना होगा । वन्य जीवों को संरक्षित रखने के लिए भी उनके प्राकृतिक आवासों को अक्षुण्ण रखना होगा। मनुष्य में असीम जिजीविषा है तभी तो वह हिमालय की बर्फानी चोटी पर ही नहीं बल्कि थार के रेगिस्तान में भी रह सकता है। उसमें ऐसी अदम्य क्षमता है जिससे वह कुछ तो हिमालय की परिस्थिति के अनुरूप खुद को ढाल लेता है तथा कुछ वह हिमालय की चोटी को ही अपने अनुकूल बना लेता है। मनुष्य मन रूपी ऐसी क्षमता वाली मशीन का स्वामी है जिसके कारण वह परिस्थितियों को भी अपने अनुकूल बना लेता है ।
सुख-समृद्धि से भरपूर जीवन के लिए जरूरी है कि प्राकृतिक वनस्पति जगत खूब फले-फूले । पशु-पक्षी सुरक्षित रहे। मानव, पशु-पक्षी और वनस्पति एक सामंजस्यपूर्ण समन्वय के साथ संगठित रूप से रहे। 'जीवेम शरद: शतम्' की अवधारणा प्रकृति के साथ माधुर्ययुक्त संवाद स्थापित करने से ही संभव है । प्रकृति ने मनुष्य को बहुत कुछ दिया है लेकिन मनुष्य ने प्रकृति को क्या दिया है, यह विचारणीय है । पृथ्वी, जल, वायु और अग्नि से ही पर्यावरण का निर्माण होता है । वेदों में इन चारों तत्वों की विशद् व्याख्या की गई है। इनमें उल्लेख मिलता है कि वायु को शुद्ध करने वाले यज्ञों से ही सुख का विस्तार संभव है तथा प्रकृति के उत्कर्ष से ही सर्वत्र स्वस्थ जीवन का संचार होता है।
पर्यावरण को संरक्षित रखने के लिए वैदिक ऋषियों द्वारा बताया गया मार्ग आज भी महत्वपूर्ण है । विध्वंस के बाद प्रकृति स्वयं संतुलन स्थापित करें इससे बेहतर यह है कि हम स्वयं ही संयत होकर प्राकृतिक नियमों का पालन करें तथा प्रकृति को ध्वंस होने से बचाकर उसे सृजन की ओर उन्मुख करें । प्रदूषणयुक्त विषाक्त पर्यावरण को अमृतमय बनाने के लिए प्रकृति प्रेम को पोषित करने, यज्ञों का अनुष्ठान करने और अंहिसा को बढ़ावा देने की शिक्षा वेदों में वर्णित है । हमें स्वस्थ, शान्त और सुखी जीवन जीने के लिए प्रकृति के साथ भावात्मक तादात्म्य स्थापित करने की दिशा में आगे बढ़ना चाहिए ।
जनचेतना और जागरूकता से पर्यावरण संरक्षण की दिशा में सार्थक प्रयास किया जा सकता है। सरकार ने भी विद्यालयों में पर्यावरण से सम्बन्धित पाठयक्रम शुरू करके पर्यावरण-संरक्षण को शिक्षण का आधार बनाया है जो स्तुत्य है। पर्यावरण की रक्षा के लिए शान्ति के मूल मंत्र को भी आस्था और श्रद्धा का आधार बनाना होगा । इस मंत्र के  अनुसार आकाश में शान्ति, पृथ्वी पर शान्ति, समुद्र में शान्ति और हमारे भीतर भी शान्ति होगी तो सर्वत्र शान्ति हो जायेगी । 
प्राकृतिक संसाधनों की दृष्टि से हमारा देश काफी समृद्ध रहा है। प्रकृति के सहयोग से ही मनुष्य अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति करता रहा है लेकिन प्रकृति के प्रति उपेक्षापूर्ण व्यवहार तथा संसाधनों के अति दोहन ने पर्यावरण और परिस्थितिकी संतुलन को बिगाड़ दिया है। इसके अतिरिक्त शहरीकरण, औद्योगीकरण, मशीनीकरण और कृत्रिम उपग्रहों ने भी पर्यावरण पर प्रतिकूल प्रभाव डाला है।
आधुनिक युग में औद्योगिक क्रांति ने मानव के क्र्रियाकलापों पर अधिकार जमा लिया है। प्रकृति के प्रति मानव की उपेक्षापूर्ण नीति ने अनेक समस्याओं को जन्म दिया है। बाढ़, सुनामी, भूकम्प और ऑधी-तूफान आदि प्राकृतिक प्रदूषकों की श्रेणी में आते हैं। वहीं विकिरण, ताप, रसायन अपशिष्ट, सीवरेज आदि मानव निर्मित प्रदूषक हैं । मनुष्य के क्रियाकलापों ने प्राकृतिक तंत्र को प्रतिकूल रूप से प्रभावित कर प्राकृतिक संरचना को असंतुलित कर दिया है। उसने अपने हित और  स्वार्थलिप्सा के कारण प्रकृति के वरदान को अभिशाप में बदल दिया है। विकास के नाम पर किये गये विनाशकारी कार्यों से मानव सहित समस्त प्राणियों के अस्तित्व पर भी संकट पैदा हो गया है। 
प्रकृति ज्यादा देर तक मानवीय उद्दण्डता और शोषण की प्रवृत्ति को सहन नहीं कर सकती । इससे पहले कि प्रकृति अपना विकराल रूप दिखाये मनुष्य को सजग होकर उसके संतुलन, संरक्षण और संवर्धन के लिए कार्य करना होगा । यह सही है कि मानव और प्रकृति का अटूट सम्बन्ध है और मनुष्य प्राकृतिक संसाधनों का उपयोग करने का अधिकारी है। लेकिन उसे यह नहीं भूलना चाहिए कि हम प्रकृति से उतना ही ले जितना कि उसे वापस दे सकें ।   जीवन और जगत में घटित होने वाली प्रत्येक घटना हमारे हित और हमें विकास के मार्ग पर आगे बढ़ाने के लिए ही घटित होती है। विषम परिस्थितियाँ मनुष्य के साहस और पुरूषार्थ को रचनात्मक दिशा में प्रवृत करती हैं। 
मानवता की साधना प्रात:कालीन सूर्य के समान सौम्य, सुन्दर और सुखद है। मानव की सृजनशील सोच और उसका रचनात्मक चिन्तन जीवन को प्रगति और विकास की ओर ले जाने के लिए प्रेरित करते हैं। यह हमारी समृद्ध  संस्कृति की उत्कृष्टता का ही प्रमाण है कि यहाँ के विशाल हृदयी लोग वृक्षों के साथ मानवीय व्यवहार कर उन्हें अपना मित्र समझकर उनकी चेतनता और सुख:-दु:ख के अनुभव की शक्ति में विश्वास करते हैं। वैज्ञानिकों ने भी यह सिद्ध कर दिया है कि वृक्षों को भी मनुष्य की तरह सुख, दु:ख, मृत्यु, शोक, हर्ष आदि की अनुभूति होती है।
वृक्ष प्रकृति के श्रेष्ठ प्रहरी और मानव मात्र के परम सेवक है। ये कदम-कदम पर मानव की सहायता करके उसके जीवन को ऊँचा उठाते हैं। वृक्ष मनुष्य को भोजन, छाया, लकड़ी, बहुमूल्य रासायनिक तत्व व प्रदान करने के साथ ही औषधि के रूप में अमूल्य सम्पदा उपलब्ध कराते है। प्राकृतिक सुषमा सम्पदा के कारण ही पृथ्वी इस सृष्टि का सबसे सुन्दर गृह है। अंतरिक्ष से देखने वाले वैज्ञानिकों ने भी इसे 'सारे जहाँ से अच्छा' बताया  है।
जल, जंगल और जमीन के संतुलन को बनाये रखने के लिए हमें वृक्षारोपण के प्रति समर्पण भाव से एकजुट होकर कार्य करना होगा । यदि प्रत्येक व्यक्ति अपने जीवन में १२ वृक्ष लगाये तो हम वन सम्पदा की अनिवार्य आवश्यकता को पूरा कर सकते हैं। लेकिन मात्र पौधा लगाने मात्र से ही हमारे दायित्व की पूर्ति नहीं हो जायेगी बल्कि उसमें समुचित खाद-पानी देने और वृक्ष के रूप में स्वावलम्बी होने तक उसकी देख-रेख किया जाना जरूरी है। अगस्त-सितम्बर माह को पेड़ लगाने के लिए श्रेष्ठ माना जाता है, अत: मानवता की सेवा के  इस अवसर का लाभ उठायें तथा अधिक से अधिक पेड़ लगाये तथा दूसरों को भी इस परमार्थ के लिए प्रेरित करें । 
शास्त्रों में भी पेड़ लगाने को पुण्य का कार्य बताया गया है। यह पुनीत कार्य स्वर्गदाता परमार्थ के समतुल्य है। इससे नई चेतना और नये उत्साह का संचार होगा। वृक्षों के प्रति आदर भाव से भी प्रकृति संतुलित   होगी ।  कष्ट और कठिनाइयों से घिरे जीवन में खुशहाली लाने के लिए वृक्षारोपण कर हरियाली फैलायें जिससे भारत भूमि पुन: शस्य श्यामला बन मानव जीवन में समृद्धि को साकार करे ।                                        

कोई टिप्पणी नहीं: