रविवार, 18 नवंबर 2018

कविता
जल गया है दीप
गोपालदास 'नीरज'

आंधियां चाहे उठाओ,
बिजलियां चाहे गिराओ,
जल गया है दीप तो अंधियार ढल कर ही रहेगा । 

रोशनी पूंजी नहीं है, जो तिजोरी में समाये,
वह खिलौना भी न, जिसका दाम हर ग्राहक लगाये,
वह पसीने की हंसी है, वह शहीदों की उमर है,
जो नया सूरज उगाये जब तड़पकर तिलमिलाये,
उग रही लौ को न टोको,
ज्योति के रथ को न रोको,
यह सुबह का दूत हर तुम को निगलकर ही रहेगा । 
जल गया है दीप तो अंधियार ढल कर ही रहेगा । 

दीप कैसा हो, कहीं हो, सूर्य का अवतार है वह,
धूप में कुछ भी न, तम में किन्तु पहरेदार है वह,
दूर से तो एक ही बस फूंक का वह है तमाशा,
देह से छू जाय तो फिर विप्लवी अंगार है वह, 
व्यर्थ है दीवार गढ़ना,
लाख-लाख किवाड़ जड़ना,
मृतिका के हाथ में अमरित मचलकर ही रहेगा । 
जल गया है दीप तो अंधियार ढल कर ही रहेगा । 

कोई टिप्पणी नहीं: