सोमवार, 18 फ़रवरी 2019

जनजीवन
पर्यावरण संरक्षण, हम सबका दायित्व
डॉ. खुशालसिंह पुरोहित

हमारे   पर्यावरणीय प्रदूषण आज एक विश्वव्यापी समस्या बन गई है  जिसका प्रभाव पूरे जगत पर हो रहा है। 
विवेकशील एवं विचारशील प्राणी होने के नाते मानव का यह कर्तव्य है कि वह भूमण्डल पर पर्यावरणीय संतुलन बनाए रखने के लिए अपनी बुद्धि और क्षमताओ का समुचित उपयोग करें । जीवन में भोगवादी जीवन शैली एवं बढती विलासिता के कारण हम अपने परिवेश की अनदेखी करने की गलती कर रहे हैं ।
इन दिनों विश्व स्तर पर हमारी जीवनशैली का प्रतिबिंब स्पष्ट दिखाई देने लगा  है । अब प्रकृति ने बाढ़, सूखे एवं भूकम्प के रूप में मानव को चेतावनी देना प्रारंभ कर दिया है । आज शायद ही कोई ऐसा क्षैत्र बचा हो जिस पर मानव जनित  प्रदूषण और पर्यावरण विनाश की काली छाया न दिखाई देती हो हो । मानव के  विभिन्न क्रियाकलाप पर्यावरण में व्याप्त् अंसतुलन के लिये जिम्मेदार   हैं । देश में तीव्र गति से बढ़ रही जनसंख्या के दबाव के कारण हमारे पर्यावरण संरक्षण कार्यक्रमों में अपेक्षित गति नहीं आ पा रही है । 
हमारे देश में वन निरन्तर कम होते जा रहें है । शताब्दियों से यह सिकुडन जारी है पर जिस गति से वनों पर पिछले ४-५ दशको में दबाव बढ़ा है वैसा पहले कभी नहीं रहा । जब हमारा देश आजाद हुआ उस समय कुल क्षेत्रफल के २२ प्रतिशत भाग पर वन थे अब देश के केवल १९ प्रतिशत भाग पर ही वन बचे है। वनों के बचाव के लिये हमें दोहरी नीति अपनानी होगी यानि आज के आधुनिक प्रौघोगिकी ज्ञान को लोगों के पारम्परिक अनुभव के  साथ मिलाकर वन संवर्धन योजनाओ को आगे बढ़ाना होगा । लोकतान्त्रिक समाज में लोगों की सहभागिता के बिना कुछ भी नहीं किया जा सकता । 
देश के सभी नागरिकों का नैतिक दायित्व है कि वे पर्यावरण में संतुलन कायम करने के लिए अधिक से अधिक पेड़ लगाएँ । भारत की अरण्य संस्कृति ने  ही  हमें शिक्षा और संस्कृति के संस्कार दिए थे । यह हमारे लिए राष्ट्रीय जीवन की सामाजिक विरासत है । भारतीय वन्य जीव बोर्ड ने राष्ट्रीय वन्य जीव सुरक्षा के लिए व्यापक प्रबंध किए हैं ।  परन्तु फिर भी आए दिन सरंक्षित पशुओ का शिकार कर कस्तुरी, हाथी दांत, खाल व बाघ की हडि्डयों की तस्करी हो रही है । 
पर्यावरण को सन्तुलित रखने के लिए जल संरक्षण भी हमारी जिम्मेदारी है । कहा जाता है कि जल है तो कल है महाकवि रहीम ने बहुत पहले कहा था कि रहिमन पानी राखिए, बिन पानी सब सून । देश में सचमुच शुद्ध पानी की कमी है, देश में जल संसाधनों के प्रबंधन में लापरवाही और अनदेखी अगर जारी रही तो भविष्यमें जीवन संकट में पड़ जाएगा । 
हमारे देश में वर्षा जल के संरक्षण के  उद्देश्यों में सफलता नहीं मिल पा रही है । एक दूसरा भारी खतरा भूमिगत जलस्तर के निरन्तर गिरते जाने से उत्पन्न हो गया है । संयुक्त राष्ट्र की पर्यावरण संबंधी रिपोर्ट के अनुसार अधिकांश नगर भूमिगत जल पर आधारित होते जा रहे हैं । नदियों व झीलों का जल जहरीला होता जा रहा हैं । 
देश की आबादी का बड़ा  हिस्सा गंदा पानी पीने को मजबूर है । हालात इतने गंभीर इसलिए हो गए कि भू-जल में फ्लोराइड, आर्सेनिक, लौह व नाइट्रेट जैसे तत्वों, लवणों और भारी धातुआेंकी उपस्थिति के कारण ऐसे पानी को पीने वाले गंभीर बीमारियों के शिकार हो रहे है । इससे त्वचा संबंधी रोग, सांस की बीमारियां, हडि्डया कमजोर पड़ना, गठिया और कैंसर जैसे रोग दस्तक दे रहे है । 
देश आज पीने के पानी और साफ पानी की जिस समस्या से जूझ रहा है इसका कारण जल प्रबंधन में हमारी लापरवाही रही है । दो समस्याएं है, एक पानी नहीं है और दूसरी यह कि जहां पानी है वह पीने लायक नहीं है । देश में बारिश के  पानी को संग्रहित और संरक्षित करने का कोई ठोस तंत्र हम आज तक विकसित नहीं कर पाएं है, जबकि आज भी यह परंपरा का विषय बनकर रह गया है । कुछ राज्योंमें लोक परंपरा के रूप मेंलोग इन देशज उपायों को अपनाकर वर्ष की बूंदों को प्रकृति का उपहार मानकर सहेज रहे हैं । 
कहने को पेयजल के मसले पर कितनी ही योजनाएं-परियोजनाएं बनी, लेकिन जल संकट से मुक्ति नही मिली । यह इस बात का प्रमाण है कि इन योजनाओ पर ठोस तरीके से अमल नहीं हुआ । देश को साफ पानी की उपलब्धता की चुनौती को दूर करना बेहद जरुरी है । हर नागरिक को साफ पेयजल दिया जाना अभी भले ही चुनौती हो, मगर प्रयास किए जाएं, तो ऐसा संभव है । अब तक इस दिशा में सामूहिकता का अभाव दिखता है ।
इन दिनों देश में अनेक स्तरों पर पौधरोपण के कार्यक्रम चलाये जा रहे है यहाँ एक गाँव के प्रयासों की चर्चा करना अप्रासंगिक नहीं होगा महज दो हजार की आबादी वाले इस छोटे से गांव की गलियों में दो सौ से ज्यादा पेड़ पौधे लहलहाते है, यहाँ हर घर के सामने पेड़ है, इतना ही नहीं,पेड़ को किसी ने नुकसान पहुंचाया तो उसे जुर्माने के तौर पर नए पौधे लगाकर परवरिश करते हुए पेड़ बनाने की सजा सुनाई जाती है । पिछले ३५  सालों से यहां के ग्रामीण हर साल कुछ नए पौधे भी लगाते है । 
मध्यप्रदेश के देवास जिले के गांव देवली की गलियों में पेड़ पौधों की बहार है, गांवभर के लोग इनकी निगरानी करते है गाँव के बुजुर्ग इस बात का ध्यान रखते है कि कोई इन्हें नुकसान नही पहुचाएं, इन्हे सूखने पर नही काटा जाता, यदि कोई ऐसा करते है तो चौपाल पर बैठक में बुजुर्ग उसे नए पौधे लगाने और इन्हे बड़ा करने की सजा सुनाते है इस गाँव में ३५ सालों से यह प्रथा चली आ रही हैं  ।
हमारे देश में हजारो वर्षो से संचित भूजल का बिना सोचे -समझे दोहन किया गया, परिणाम यह हुआ कि हमने धरती का पेट खाली करके प्राकृतिक जल चक्र को प्रभावित किया है। इससे बाढ़ व सूखे की स्थितियां उत्पन्न हुई है और पर्यावरण असंतुलित हुआ है । आज देश के  प्रत्येक नागरिक का कर्तव्य है कि वह जल संरक्षण के विभिन्न उपायों को अपने जीवन में अमली जामा पहनाने का प्रयत्न करे तभी हम आगे आने वाली पीढ़ियों को पीने का पानी उपलब्ध करा पायेंगे । 
हमारे देश में शहरों का आकार निरन्तर बढ़ता जा रहा है । आज संसार में शहरी आबादी की दृष्टि से भारत का चौथा स्थान है । अनुमान है कि आज बड़े शहरों में लगभग ३५ करोड़ लोग रह रहे है । इतनी बड़ी  जनसंख्या के लिए आवास, परिवहन के साधन एवं पीने के पानी उपलब्ध कराना बहुत कठिन कार्य है । देश में कस्बो एवं छोटे शहरों की संख्या ४७०० है । इसमें केवल २५०० कस्बों व शहरों में ही पेयजल की सही व्यवस्था है । मलमूत्र की निकासी के लिए सीवरेज की पूरी व्यवस्था तो काफी कम शहरों में ही उपलब्ध है, ऐसे में पर्यावरण का प्रदूषण होना स्वभाविक है । 
अर्थतंत्र के हर हिस्से में पर्यावरणीय समस्याएं अपने पंजों को फैला रही हैं । आज जरूरत इस बात की है कि हम अपनी विकास परियो-जनाओ को पर्यावरण के परिप्रेक्ष्य में तय करें व उन्हें पर्यावरण सम्मत बनाये रखे । जल विद्युत योजनाएं हो या थर्मल पॉवर योजनाएं या कोई और विकास कार्य हो, हमें इस बात पर ध्यान देना होगा कि पर्यावरण असन्तुलित न होने पाए और यदि कुछ हद तक पर्यावरण  सन्तुलन में कुछ गड़बड़ होती है तो उस समस्या के निदान के रास्ते भी तय किय जाये और तुरन्त लागु किये जाये  ।
यदि राष्ट्रीय स्तर पर प्रत्येक नागरिक पर्यावरण संतुलन के प्रयासों में एक जुट हो जाए तो हमारे देश की औद्योगिक गति की प्रक्रिया को कहीं अधिक सुगमता और तेजी से बढ़ाया जा सकता है । पर्यावरण से संबंधित सभी प्रकार के मुद्दो को  मिलजुलकर हल करने के लिए सरकारी और गैर सरकारी संस्थाओ के बीच संयुक्त रूप से प्रयास करने होंगे । विकास की विभिन्न योजनाओ को प्रारंभ करने के पूर्व अनुसंधानों के आधार पर वैज्ञानिक दृष्टि से सृजनात्मक एवं व्यावहारिक सुझावो को परियोजना में शामिल करते उनके अनुरूप कार्य करने होंगे । 
प्राकृतिक पर्यावरण की सुरक्षा व संरक्षण के लिए भारत सरकार ने विभिन्न कानून बनाएं है । जैसे कीटनाशक एक्ट १९६८, वन्य जीव एक्ट १९७२, जल प्रदूषण एक्ट १९७४, वायु प्रदूषण एक्ट १९८१ और पर्यावरण संरक्षण एक्ट १९८६ आदि  । लेकिन इन कानूनों की सार्थकता तभी होगी जब सरकार और समाज दोनों स्तर पर जिम्मेदारी की भावना से कार्य होगे इसके लिए हमें अपनी प्रवृत्ति बदलनी होगी और जीवन में प्रकृति मित्र दृष्टि का विकास करना होगा । प्रसिद्ध भौतिकविद स्टीफन हॉकिंग का कहना है कि मानव जाति अपने इतिहास में आज सबसे अधिक खतरनाक वक्त का सामना कर रही   है । विश्व की आबादी लगातार बढ़ रही है और प्राकृतिक संसाधन खत्म हो रहे है । पर्यावरण नष्ट हो रहा है । प्रकृतिक के साथ सन्तुलन बनाने वाले वन्य जीवों की प्रजातियां लुप्त् हो रही है । 
वैज्ञानिक बताते हैंकि दस हजार साल पहले तक धरती पर महज कुछ लाख इंसान थे । १८वीं सदी के आखिर में आकर धरती की आबादी ने सौ करोड़ का आंकड़ा छुआ था । १९२० में धरती पर दो सौ करोड़ लोग हुए । आज दुनिया की आबादी सात अरब से ज्यादा है । साल २०५० तक यह आंकड़ा करीब दस अरब और २२वीं सदी के आते-जाते धरती पर ११ अरब इंसान होने का अनुमान जताया जा रहा है । हम जिस तकनीकी और प्रौघोगिकी विकास का गुणगान करते हैं, वह हमारे नियंत्रण में नहीं है, इसीलिए स्टीफन कहते हैं कि हमारे पास अपने ग्रह को नष्ट करने की प्रौघोगिकी है, लेकिन इससे बच निकलने की क्षमता अब तक हमने विकसित नहीं की है । 
वैज्ञानिक स्टीफन ने प्रकृतिक के साथ लगातार किए जा रहे खिलवाड़ को लेकर जो चेतावनी जारी की है, उस पर पूरी दुनिया को तत्काल अमल करने की जरूरत है, ताकि विकास की अंधी दौड़ में हम इंसानी बस्तियों को कब्रिस्तान में बदलने की आदत से बाज आएं । साथ ही इंसानों को अपनी जीवनशैली में तत्काल बदलाव करने की जरूरत है । 
प्रकृति के जबरदस्त दोहन के परिणाम पहले भी हमारे सामने आते रहे हैं । कही बाढ़ कहीं सूखा तो कहीं भूकंप की त्रासदी से हमारा सामना होता ही रहता है । ये आपदाएं हमारे लिए सबक के समान है । धरती पर मानव सभ्यता को दीर्घजीवी बनाने के लिए मानव को अपनी जीवनशैली में तत्काल बदलाव लाने की जरूरत   है । 
पर्यावरण के संदर्भ में हमें अपनी बुद्धि, विवेक और मर्यादा के अनुसार इन सब बातों को ध्यान में रखकर उचित रूख अपनाना होगा और पर्यावरण संरक्षण को सबका साझा दायित्व समझकर सही निर्णय लेना होगा । जिस पर्यावरण के घटकों से हमारा शरीर बना है और जिन प्राकृतिक संसाधनों से हमारा जीवन चलता है उसके प्रति हमारी भावना निष्ठामय और निश्चल होनी चाहिए तभी पर्यावरण का सपना सफल  होगा । अपने पर्यावरण को सर्वोपरि मानकर ही हम उसका संरक्षण कर सकते हैं और सम्पूर्ण समाज को भी स्वस्थ, शांत तथा रोगमुक्त रख सकते है ।                                        

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