सोमवार, 18 फ़रवरी 2019

विशेष लेख
गायब हो रहे हैंकिसानों के मित्र पक्षी 
डॉ. कैलाशचन्द्र सैनी
प्रकृति में सभी जीवों के विकास और जीवनयापन का आधार एक-दूसरे के संरक्षण पर आधारित है। आदिकवि वाल्मिकी द्वारा जोड़े में से एक क्रौंच पक्षी का वध कर देने पर आक्रोशित स्वर में बहेलिए को जो अभिशाप दिया उसमें भी भारतीय संस्कृति का 'जियो और जीने दो'का संदेश छिपा था जिसकी प्रासंगिकता आज भी अक्षुण्ण है। पशु-पक्षियों की प्राकृतिक दिनचर्या से मनुष्य के  नीरस जीवन में प्रसन्नता और प्रफुल्लता का संचार होता है । 
प्रकृति हमें सह-अस्तित्व का पाठ पढ़ाती है। पक्षी मानव समाज के लिए बहुत लाभदायक सिद्ध हुए हैं। कृषि प्रधान भारत के पर्यावरण संतुलन में भी इनकी बहुत महत्वपूर्ण भूमिका रही है। भारत की जलवायु और भौगोलिक परिस्थितियां पक्षियों के लिए अनुकूल होने के कारण ही इसे पक्षियों का स्वर्ग कहा गया है।
मोर, तीतर, बटेर, कौआ, शिकरा, बाज, काली चिड़िया और गिद्ध आदि को किसानों का हितैषी कहा गया है। किसानों के ये मित्र दिनों-दिन लुप्त् होते जा रहे हैं । ये पक्षी खेतों में बड़ी संख्या में कीटों को मारकर खाते हैं और किसानों का कल्याण करते हैं । यदि कीड़ों की वंश वृद्धि निर्बाध रूप से होती रहे तो कुछ ही दिनों में सारी पृथ्वी पर कीड़े ही कीड़े हो जाएं और कीड़ों के अलावा कुछ न रहे। लेकिन हमें इन पक्षियों का आभारी होना चाहिए जो इन कीड़ों को खा-खा कर इनकी अनियंत्रित वंश वृद्धि को रोक देते हैं । पक्षी  केवल कीड़ों को ही नहीं, बल्कि चूहे, सांप, छिपकली, मेढ़क आदि की वंश वृद्धि को भी नियंत्रित करते हैं । अबाबील, कठफोड़वा, सारिका और टामटिट जैसे कीटभक्षी पक्षी बहुत बड़ी संख्या में हानिकारक कीटों का संहार करते हैं । कहते हैं टामटिट एक दिन में अपने वजन के बराबर कीटों को चट कर जाता है। सारिकाओं का एक परिवार एक दिन में तीन सौ पचास से अधिक इल्लियों, बीटलों और घोघों का नाश करता है। कोयल एक घंटे में लगभग सौ रोएंदार इल्लियाँ खा जाती है जिन्हें दूसरे पक्षी नहीं खाते।
पक्षी अपने बच्चें की परव-रिश के दौरान बहुत बड़ी मात्रा में हानिकारक कीटों का सफाया कर देते हैं । केवल कीट-भक्षी पक्षी ही नहीं बल्कि सिसकिन, गोल्ड फ्रिंच, गौरैया एवं बया जैसे अनाज-भक्षी पक्षी भी अपने बच्चें को चुग्गे में पोषक कीट खिलाना पसन्द करते हैं ।  तीव्र गति से बड़े हो रहे शिशुआें के लिए काफी भोजन की आवश्यकता होती है और उनके माँ-बाप सारे दिन इसी काम को अंजाम देने में लगे रहते हैं । निरीक्षण से पता चला है कि कठफोड़वा अपने बच्चों के लिए चौबीस घंटे में करीब तीन सौ बार चुग्गा लाता है। 
फलों, फूलों और पौधों की नई-नई किस्म पैदा करने में भी पक्षी बहुत उपयोगी सिद्ध होते हैं । फूलचुही, बया, शकरखोरा जैसे पक्षी एक फूल का पराग दूसरे फूल में डालकर नई किस्म के फूल और फल पैदा करते हैं । पक्षी फल खाते हैं ।  फलों के बीज उनके पेट से होकर उनकी बीट के साथ बाहर निकलते हैं और मिट्टी में मिलकर अंकुरित हो वृक्ष बन जाते हैं । साधारण ढंग से उगाये गये बीजों से उत्पन्न पेड़ों की अपेक्षा ये पेड़ अधिक हष्ट-पुष्ट होते  हैं । पक्षियों के उदर से होकर गुजरने वाले बीज अधिक सुगमता से उपजते हैं । 
पक्षी फल वृक्षों के बीजों के विकिरण में भी सहायक होते हैं । फल खाकर पक्षी इधर-उधर उड़ते रहते हैं । पर्यटन के शौकीन ये पक्षी दूसरे प्रान्तों और देशों की यात्रा भी करते हैं और वहां फल वृक्षों की उत्पत्ति करने में सहायक होते हैं । पक्षियों की बीट अच्छे किस्म की खाद के रूप में काम आती है। कबूतरों की बीट की खाद बहुत उपयोगी होती है, जो 'वायलट' जैसे मौसमी फूलों के लिए अत्यन्त आवश्यक है। 
पक्षी प्रकृति के प्रति बहुत संवेदनशील होते हैं । जीवन का कोई ऐसा क्षेत्र नहीं जिसमें पक्षी मनुष्य का साथ न देते हों। वैज्ञानिकों ने सिद्ध कर दिया है कि पशु-पक्षियों को अपनी अन्त:प्रेरणा से बाढ़ और भूकम्प जैसे प्रकोपों का पूवार्नुमान हो जाता है, इसलिए इन्हें भविष्य दृष्टा भी कहते हैं । सबसे बड़ा भारतीय पक्षी सारस अंतरिक्ष विज्ञान का ज्ञाता है। वर्षा कम होगी या अधिक, इसका अनुमान यह पहले ही लगा लेता है। मादा सारस इसी अनुमान के अनुसार अंडे देने की जगह चुनती है। यदि ज्यादा वर्षा होने वाली हुई तो ऊंची वरना नीची जमीन पर ही अंडे देने का जुगाड़ किया जाता है ।
विभिन्न प्रजाति के पक्षी खेतों में बोयी गई फसलों में लगने वाले कीटों का सफाया करते हैं । खास बात यह है कि ये पक्षी खेतों में केवल  कीटोंका ही सफाया करते हैं,  फसलों को कोई नुकसान नहीं पहुँचाते । किसानों के मित्र इन पक्षियों में नीलकंठ, सारिका और बगुला प्रमुख हैं । इनके अलावा और भी कई प्रकार की चिड़ियाँ हैं जो फसलों को नुकसान पहुँचाए बिना हानिकराक कीटों का सफाया करती हैं। देखा गया है कि जो इल्लियाँ हजारों रुपए की कीटनाशक दवाओं से नहीं मरती उन इल्लियों को बगुला बड़ी तेज से चट कर जाता है, जिससे अब किसानों को भी समझ आने लगा है कि यदि प्रकृति और वनों से छेड़छाड़ न की गई होती तो संभवत: उनका इतना नुकसान नहीं होता । विशेषज्ञों द्वारा प्राय: वैज्ञानिक दृष्टिकोण से दवा व पानी का सही मात्रा में मिलाकर छिड़काव करने की सलाह दी जाती है। किसानों को यह सलाह भी दी जाती चाहिए कि अंकुरण के बाद खेतों में 'टी' आकार की लकड़ी की खूटियां समान दूरी पर लगाए जिन पर पक्षी बैठ कर इल्लियों को नियंत्रित कर सकें ।  
किसानों के मित्र समझे जाने वाले पक्षियों की कई प्रजातियां काफी समय से दिखाई नहीं दे रही हैं ।  इन मित्र पक्षियों के धीरे-धीरे लुप्त् होने के पीछे बहुत से कारण हैं जिनमें एक बड़ी वजह किसानों द्वारा कृषि में परम्परागत तकनीक को त्यागने और मशीनीकरण को अपनाने तथा रसायनों, उर्वरकों और कीटनाशकों के अधिकाधिक उपयोग को माना जा रहा है ।  
आज से एक दशक पहले तक जो घरेलू पक्षी काफी अधिक संख्या में देखने को मिलते थे लेकिन अब इनमें से कुछ पक्षियों के तो दर्शन ही दुर्लभ हो गए हैं । सबसे ज्यादा असर तो खेत और घरों में आमतौर पर दिखने वाली गोरैया चिड़िया पर पड़ा है। खेतों में तीतर व बटेर जैसे पक्षी दीमक को खत्म करने में सहायक होते हैं, क्योंकि उनका मनपंसद खाना दीमक ही है। इनके प्रजनन का माह अप्रैल-मई होता है और ये पक्षी आमतौर पर गेहूं के खेतों में ही अंडे देते हैं। आज किसान गेहँू कम्बाइन से काटते हैं और बचे हुए भाग को आग लगा देते हैं । इससे तीतर, बटेर के अंडे, बच्च्ेआग की भेंट चढ़ जाते हैं ।  इसी कारण इनकी संख्या में कमी आ रही है। नरमा, कपास के खेतों में दिन-प्रतिदिन जरूरत से ज्यादा कीटनाशकों के छिड़काव से भी हर साल बड़ी संख्या में तीतर-बटेरों की मृत्यु हो जाती है। 
किसानों को वर्षा के आगमन की पूर्व सूचना देने वाले खूबसूरत पक्षी मोर भी अब लुप्त् होते जा रहे हैं । ये पक्षी किसानों को सांप जैसे खतरनाक जंतुआें से भयमुक्त रखता है और साथ ही खेतों से चूहे मारकर खाने में भी पारंगत हैं ।  वर्तमान में केमिकलयुक्त विषैली दवाओं की वजह से मोरों की संख्या निरन्तर कम होती जा रही है। मनुष्य की नासमझी के कारण अब तो कौआ, तोता, मैना जैसी चिड़ियों के साथ-साथ गिद्धोंके सामने भी अस्तित्व का संकट गहराने लगा है ।
भारत में कभी गिद्धों की नौ प्रजातियां पाई जाती थीं, लेकिन अब बिरले ही कहीं दिखाई देते हैं । ऐसा मानना है कि पिछले १०-१२ सालों में गिद्धों की संख्या में अविश्सनीय रूप से ९७ प्रतिशत की कमी आ गई है। गिद्धों की इस कमी का एक कारण पशुआें को दर्दनाशक के रूप में दी जा रही दवा डायक्लोफेनाक को बताया जा रहा है। दूसरा कारण, पशुआें का दूध निकालने के लिए उन्हें लगातार दिए जा रहे ऑक्सीटोसिन इंजेक्शन है। उपचार के बाद पशुओं के  शरीर में इन दवाओं के  रसायन घुल जाते हैं और जब ये पशु मरते हैं तो ये रसायन उनका मांस खाने वाले गिद्धों की किडनी और लिवर को गंभीर नुकसान पहुँचाते हैं। मुर्दाखोर गिद्ध पर्यावरण को साफ-सुथरा रखते हैं और सड़े हुए माँस से होने वाली अनेक बीमारियों की रोकथाम में भी सहायक होते हैं । 
कीटनाशकों का असीमित प्रयोग से खेतों में अन्य कीटों के  साथ-साथ चूहे भी मर जाते हैं और इन मरे हुए चूहों को खाने वाले किसान के हितैषी पक्षी भी मर जाते  हैं । खेतों में सुंडी जैसे कीटों को मारकर खाने वाली काली चिड़िया व अन्य किस्म की चिड़ियों पर भी कीटनाशकों का प्रतिकूल  प्रभाव पड़ा है । परिणामस्वरूप अब ये पक्षी कभी-कभार ही दिखाई देते हैं। 
किसानों और सफेद बगुलों में हुई मित्रता अनुकरणीय है। अक्सर किसानों को यह डर सताता रहता है कि पक्षी उनकी फसल को चौपट न कर दें । लेकिन प्रतापगढ़ के किसान प्रार्थना करते हैं कि सफेद बगूले उनके खेत में आएं । क्योंकि वे इनके लाभ परिचित हो गए हैं । बगूलों से किसानों को प्रेम है क्योंकि ये उनके काम में हाथ बटाते हैं । खेत में किसानों को जहरीले जीवों से नुकसान न हो, इसलिए बगूले बड़े बिच्छु को भी निगल जाते हैं । साथ ही छोटे-मोटे कीड़े-मकोड़ों का भी सफाया कर देते हैं । हम सभी जानते हैं ं कि पक्षी इंसान को देखते ही भाग जाते हैं, लेकिन प्रतापगढ़  में अलग ही नजारा देखने को मिलता है। यहाँ खेतों में पक्षी और किसान साथ में मिलकर काम करते हैं। 
सम्पूर्ण भारत में पाये जाने वाले सुन्दर पक्षी नीलकंठ भी फसलों को नुकसान पहुँचाने वाले कीड़ों को निगल कर किसानों की मदद करता रहा है। यह एकांत प्रिय पक्षी पलक झपकते ही फसलों के कीड़ों को अपना आहार बना लेता है। इसलिए इसे भारतीय किसानों का सच्चा मित्र भी कहा जाता है। लेकिन किसानों का यह मित्र अब विलुिप्त् के कगार पर पहुँच गया है। दो दशक पूर्व तक खेत-खलिहानों से लेकर बागानों में यह पक्षी खूब दिखाई देता था। लेकिन आज स्वयं किसान भी यह ठीक से नहीं बता पा रहेकि उन्होंने इसे आखिरी बार कब देखा । 
वन्य जीव विशेषज्ञों के अनुसार नीलकंठ के लुप्त् होने के  लिए हम सभी दोषी हैं। हमने अधिक पैदावार के लिए खेतों में अंधाधुंध  कीटनाशकों का प्रयोग किया । यही जहर नीलकंठ के लिए जानलेवा साबित हुआ है। आज देश के कई भागों, विशेष रूप से इसका गढ़ कहे जाने वाले पश्चिमी उत्तर प्रदेश में भी नीलकंठ विलुप्त् होने को है। धार्मिक मान्यता के अनुसार भी नीलकंठ के  दर्शन शुभ माने जाते हैं । धार्मिक दृष्टिकोण से ही नहीं बल्कि किसानों के लिए लाभदायक और प्रकृति की गोद में विचरने वाले सुन्दर, सजीले और लुभावने नीलकंठ को बचाने की आवश्यकता है। 
किसानों के हित संवर्धन तथा पर्यावरण संरक्षण के लिए यह जरूरी है कि हम लुप्त् हो रहे पक्षियों को बचाने की दिशा में जागरूक हो जायें। किसानों के पंख वाले मित्रों की संख्या यदि इसी प्रकार कम होती गई तो पर्यावरण में जो असंतुलन पैदा होगा उसका खामियाजा हमारी आने वाली पीढ़ियों को भी भोगना होगा।  

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