सोमवार, 18 फ़रवरी 2019

सामयिक
विज्ञान का मिथकीकरण
प्रदीप
पिछले दिनों १०६ वीं भारतीय विज्ञान कांग्रेस का सालाना अधिवेशन जालंधर  है । 
इस अधिवेशन में भी प्राचीन भारत के विज्ञान और टेक्नॉलॉजी की उपलब्धियों का इस तरह बखान किया गया कि वैज्ञानिक माहौल को बढ़ावा देने वाला यह विशाल आयोजन किसी धार्मिक जलसे जैसा ही रहा ! विज्ञान कांग्रेस की हर साल एक थीम होती है। इस वर्ष के  सम्मेलन की थीम थी -   फ्यूचर इंडिया : साइंस एंड टेक्नॉलॉजी । भविष्य में भारत के विकास का मार्ग विज्ञान और प्रौद्योगिकी किस प्रकार प्रशस्त करेंगे, इसकी चर्चा की बजाय प्राचीन भारत से जुड़े निरर्थक, प्रमाणहीन और हास्यास्पद छद्मवैज्ञानिक दावों ने ज्यादा सुर्खियां बटोरी । 
आंध्र विश्ववद्यालय के कुलपति और अकार्बनिक रसायन विज्ञान के जी. नागेश्वर राव ने कौरवों की पैदाइश को टेस्ट  ट्यूब बेबी और स्टेम सेल रिसर्च टेक्नॉलॉजी से जोड़ा तथा श्रीराम के लक्ष्य भेदन के बाद तुरीण में वापस लौटने वाले बाणों और रावण के २४ प्रकार के विमानों की बात कहकर सभी को चौंका दिया । तमिलनाडु के वर्ल्ड कम्यूनिटी सेंटर से जुड़े शोधकर्ता कन्न जोगथला कृष्णन ने तो न्यूटन के गुरुत्वाकर्षण सिद्धान्त और आइंस्टाइन के सापेक्षता सिद्धान्त को ही खारिज करते हुए कहा कि उनके शोध में भौतिक विज्ञान के सभी सवालों के जवाब हैं । वे यहीं पर नहीं रूके ।  आगे उन्होंने कहा कि भविष्य में जब वे गुरुत्वाकर्षण के बारे में लोगों के  विचार बदल देंगे, तब गुरुत्वीय तरंगों को  नरेन्द्र मोदी तरंग  के नाम से तथा गुरुत्वाकर्षण प्रभाव को  हर्षवर्धन प्रभाव  के नाम से जाना जाएगा । 
भूगर्भ विज्ञान की प्रोफेसर आशु खोसला के द्वारा इसी भारतीय विज्ञान कांग्रेस में प्रस्तुत पर्चे में कहा गया है कि भगवान ब्राह्म इस ब्राह्मंड के  सबसे महान वैज्ञानिक थे । वे डायनासौर के बारे में जानते थे और वेदों में इसका उल्लेख भी किया है। इतने प्रतिष्ठित आयोजन में अवैज्ञानिक और अतार्किक दावों का ये चलन २०१५ से पहले शायद ही देखा गया हो । 
हालांकि प्राचीन भारतीय विज्ञान की बखिया उधेड़ने का यह सिलसिला कोई नया नहीं है। इससे पहले आम नेता-मंत्री से लेकर मुख्यमंत्री, और प्रधानमंत्री तक भी मिथक, अंधविश्वास और विज्ञान का घालमेल कर चुके हैं । उनके दावों के मुताबिक यदि प्राचीन भारतीय ग्रंथों की भलीभांति व्याख्या की जाए, तो आधुनिक विज्ञान के सभी आविष्कार उसमें पाए जा सकते हैं । जैसे राडार प्रणाली, मिसाइल तकनीक, ब्लैक होल, सापेक्षता सिद्धांत एवं क्वाटंम सिद्धांत, टेस्ट ट्यूब बेबी, अंग प्रत्यारोपण, विमानों की भरमार, संजय द्वारा दूरस्थ स्थान पर घटित घटनाओं को देखने की तकनीक, समय विस्तारण सिद्धांत, अनिश्चितता का सिद्धांत, संजीवनी औषधि, कई सिर वाले लोग, क्लोनिंग, इंटरनेट, भांति-भांति के यंत्रोंपकरण वगैरह । वेदों, पुराणों में विज्ञान के जिस अक्षय भंडार को स्वयं आदि शंकराचार्य, यास्क से सायण तक के वेदज्ञ, आर्यभट, वराह मिहिर, ब्राहगुप्त् और भास्कराचार्य जैसे गणितज्ञ-ज्योतिषी नहीं खोज पाए, उसको हमारे वैज्ञानिकों और नेताओं ने ढूंढ निकला ।  
भारत विश्व का एकमात्र ऐसा देश है, जिसके संविधान द्वारा वैज्ञानिक दृष्टिकोण के लिए प्रतिबद्धता को प्रत्येक नागरिक का मौलिक कर्तव्य बताया गया है। अत: यह हमारा दायित्व है कि  हम अपने समाज में वैज्ञानिक दृष्टिकोण को बढ़ावा दें। वैज्ञानिक दृष्टिकोण के महत्व को जवाहरलाल नेहरु ने १९४६ में अपनी पुस्तक डिस्कवरी ऑफ इंडिया में विचारार्थ प्रस्तुत किया था । उन्होंने इसे लोकहितकारी और सत्य को खोजने का मार्ग बताया था।
पिछले सत्तर वर्षों में हमारे देश में दर्जनों उच्च् कोटि के वैज्ञानिक संस्थान अस्तित्व में आए हैंऔर उन्होंने हमारे देश के समग्र विकास में अभूतपूर्व योगदान दिया है। हमारे मन में अत्याधुनिक तकनीकी ज्ञान तो रच-बस गया है, मगर हमने वैज्ञानिक दृष्टिकोण को खिड़की से बाहर फेंक दिया है। वैश्वीकरण के प्रबल समर्थक और उससे सर्वाधिक लाभ अर्जित करने वाले लोग ही भारतीय संस्कृति की रक्षा के नाम पर आज आक्रामक तरीके से यह विचार सामने लाने की खूब कोशिश कर रहे हैं कि प्राचीन भारत आधुनिक काल से अधिक वैज्ञानिक और प्रौद्योगिकी सम्पन्न था । पौराणिक कथाओं को विज्ञान बताया जा रहा है।
आज यह दावा किया जाता है कि हमारे वेदों-पुराणों में परमाणु बम बनाने की विधि दी हुई है । विज्ञान समानुपाती एवं समतुल्य होता है। अगर हम यह मान भी लें कि वैदिक काल में परमाणु बम बनाने का सिद्धांत एवं अन्य उच्च् प्रौद्योगिकियां उपलब्ध थीं, तो तत्कालीन वैदिक सभ्यता अन्य सामान्य वैज्ञानिक सिद्धांतों एवं आविष्कारों को खोजने में कैसे पीछे रह गई ? नाभिकीय सिद्धांत को खोजने की तुलना में विद्युत या चुम्बकीकय शक्तियों को पहचानना और उन्हें दैनिक प्रयोग में लाना अधिक सरल है। मगर वेदों में इस ज्ञान को प्रयोग करने का कोई विवरण उपलब्ध नहीं होता है। यहां तक कि इन्द्र के स्वर्ग में भी बिजली नहीं थी, जबकि आज गांव-गांव में बिजली उपलब्ध है। तकनीक की ऐसी रिक्तियां विरोधाभास उत्पन्न करती हैं । निश्चित रूप से इससे यह तर्क मजबूत होता है कि वैदिक सभ्यता को नाभिकीय बम बनाने का सिद्धांत ज्ञात नहीं था। मगर इससे हमें वैदिक ग्रंथों के रचनाकारों की अद्भभूत  कल्पना शक्ति के बारे में पता चलता है। निसंदेह कल्पना एक बेहद शक्तिशाली एवं रचनात्मक शक्ति   है । 
आज के इस आधुनिक युग में जिस प्रकार से कोई खुद को अंधविश्वासी, नस्लवादी या स्त्री शिक्षा विरोधी कहलाना पसंद नहीं करता, उसी प्रकार से खुद को अवैज्ञानिक कहलाना भी पसंद नहीं करता है। वह अपनी अतार्किक बात को वैज्ञानिक सिद्ध करने के लिए मूलभूत सच्चई की नकल उतारने वाले छल-कपट युक्त छद्म विज्ञान का सहारा लेता है। आज प्राचीन भारत की वैज्ञानिक उपलब्धियों से जुड़े जो मनगढ़ंत और हवाई दावे किए जा रहे हैं वे छद्मविज्ञान के ही उदाहरण हैं । 
इसमें कोई संदेह नहीं है कि प्राचीन भारत ने आर्यभट, भास्करा-चार्य, सुश्रुत और चरक जैसे उत्कृष्ट वैज्ञानिक दुनिया को दिए । परंतु यह मानना कि हजारों साल पहले भी भारत को विज्ञान एवं तकनीकी के क्षेत्र में महारथ हासिल थी, स्वयं को महिमामंडित करने का हास्यास्पद प्रयास है । 

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