रविवार, 15 मार्च 2015

सामाजिक पर्यावरण  
संविधान पर एक अमानवीय बहस 
न्यायमूर्ति चन्द्रशेखर धर्माधिकारी
भारतीय संविधान की उद्देशिका को लेकर छिड़ा विवाद वास्तव में भारत में सांप्रदायिक राजनीति की कई हवा दने की असफल कोशिश है । आम आदमी के मुद्दों, परेशानियों एवं राजनीतिक असफलता को छिपाने के लिए इस नए विवाद को जन्म दिया जा रहा   है । 
भारतीय संविधान में गांधी विचार और समाजवादी संकल्पना के अंतर्भाव का विचार आज तक विचारकों ने ही नहीं किया । मूलत: जो भारत का संविधान सन् १९४९ में पारित हुआ उसकी उद्देशिका (प्रीअॅम्बल) में सोशालिस्ट तथा सेक्युलर यह दोनों शब्द नहीं थे । 
इतना ही नहीं नागरिक के लिए जो मूलभूत अधिकार और हक धारा १९ में विशद किए गए थे उनमें धारा १९ (च) में सम्पत्ति के अर्जन, धारण और व्ययन का मूलभूत अधिकार सभी भारतीय नागरिकों को प्रदान किया गया था । जो समाजवादी संकल्पना विरोधी स्वतंत्रता आन्दोलन की आकांक्षाआें के भी विपरीत व विसंगत भी था । उसके पश्चात संविधान के ४२ वें संशोधन अधिनियम १९७६ के द्वारा संविधान के उद्देशिका में समाजवादी और पंथनिरपेक्ष नामक दो शब्द दाखिल किए गए । लेकिन इन शब्दों की व्यािप्त् का अर्थ क्या होगा इसकी कोई व्याख्या नहीं की गई । उसके बाद संविधान के ४४ वे संशोधन अधिनियम १९७८ द्वारा नागरिक के बुनियादी धारा१९(१) (च) जो संपत्ति के अधिकारों से सम्बन्धित थी, उसे निरस्त कर, पंथनिरपेक्ष और समाजवादी शब्द की व्याख्या और व्यािप्त् प्रस्तुत की गई । 
पंथनिरपेक्ष की व्याख्या थी सभी धर्मोंा का समान सम्मान । एक अर्थ में यह इन शब्दों का स्पष्टीकरण था । उस समय सत्ता में जनता पार्टी थी और उसी सरकार ने यह प्रस्ताव रखा   था । यह प्रस्ताव लोकसभा ने पारित किया लेकिन इंदिरा कांग्रेस का राज्यसभा में बहुमत था इसलिए वह प्रस्ताव राज्यसभा ने नामंजूर  किया । इसलिए आज भी उद्देशिका में यह शब्द है, लेकिन उनकी कोई व्याख्या नहीं है । 
अगर समाजवाद की संकल्पना का अर्थ सभी प्रकार के याने राजनीतिक, सामाजिक तथा आर्थिक शोषण से मुक्ति नहीं हैं, तो फिर क्या है ? यदि व्याख्या या स्पष्टीकरण को राज्यसभा ने मंजूर नहीं किया, तो फिर उस संकल्पना का दूसरा क्या अर्थ हो सकता है ? यही यक्ष प्रश्न है । महात्मा गांधी ने शोषण रहित समाज की संकल्पना की थी । १० सितम्बर १९३१ के यंग इंडिया में उन्होंने यह स्पष्ट किया था कि  मैं ऐसे संविधान की रचना करवाने का प्रयत्न करूँगा जो भारत को हर तरह की गुलामी और परावलम्बन से मुक्त करे ।  १ जून १९४७ के हरिजन में गांधीजी ने लिखा -  समाजवाद का आधार आर्थिक समानता है । अन्यायपूर्ण असमानताआें की इस हालत में जहाँ चन्द लोग मालामाल हैं, और सामान्य प्रजा को भरपेट खाना भी नसीब नहीं होता, उसे  रामराज्य  कैसे कह सकते हैं ?  
इसीलिए गांधीजी ने विश्वस्त भावना पर जोर दिया और अब तो अमेरिका और भारत के सर्वोच्च् न्यायालय ने भी यह स्पष्ट किया है कि सरकार या शासन नैसर्गिक सम्पत्ति के विश्वस्त है मालिक    नहीं । इसीलिए गाधीजी ने कहा था कि - समाजवाद में मूलत: और सर्वप्रथम समाजवादी वृत्ति   होगी । वह किसी भी प्रकार की हो इसे ही तो समाजवाद कहा जा सकता है । गांधीजी ने यह भी कहा था कि, मेरे समाजवाद का अर्थ है सर्वोदय और उसका प्रवास है, अन्त्योदय से सर्वोदय की दिशा । यही स्थिति पंथनिरपेक्ष संकल्पना के बाबद् भी    है । भारत सरकार द्वारा प्रकाशित शब्दावली में इस शब्द के लिए सर्वधर्म समभाव धर्मनिरपेक्ष, लौकिक अर्थ दिया है । दादा धर्माधिकारी ने कहा है सेक्युलर शब्द का इतिहास वैसे बहुत पुराना है, लेकिन वह शब्द अलग-अलग अर्थोंा में प्रयोग में लाया जाता था । जैसे सेक्यूलर गेम्स, सेक्यूलर क्लर्जी, सेक्यूलर अॅक्जिलरेशन ऑफ द मून आदि । 
सर्वप्रथम जॉर्ज जेकब होलिओक ने सन् १९५० में कहा, धर्म और सेक्युलॅरिज्म परस्पर व्यावर्तक है । वे एक दूसरे के क्षेत्र में प्रवेश न करें । धर्म में निहित नैतिकता हमें मान्य है, लेकिन उस नैतिकता का आधार धर्म नहीं    होगा । इसके माने हैं कि सेक्यूलरिज्म धर्मनिरपेक्ष हो तो भी धर्मविरोधी नहीं । श्री रामकृष्ण परमहंस देव, स्वामी विवेकानन्द, गांधी और विनोबा ने धार्मिक समन्वय पर जोर दिया । रामकृष्ण परमहंस ने अपने जीवन मेंभिन्न-भिन्न धर्मोंा का अनुष्ठान कर उनकी मूलभूत एकता का अनुभव किया । गांधी ने सामूहिक सर्वधर्म प्रार्थना का प्रवर्तन कर सर्वधर्म समभाव लोक-जीवन में चरितार्थ करने का प्रयत्न किया । और विनोबा ने सब प्रमुख धर्म-ग्रंथों का सार निकालकर उनका साम्य लोगों के सामने रखा । 
विनोबा ने इसी मर्म को पकड़ लिया और कहा  आज के युग में धर्म और राजनीति कालबाह्रय हो गए है । यह युग विज्ञान और अध्यात्म का है । इससे यह पता चलता है कि सर्वधर्म समभाव शब्द का प्रयोग भी सदोष है । तो हर एक इसका समर्थन कैसे कर सकेगा ? सर्वधर्म समभाव का प्रतिपादन करने वाले गांधी तो यहाँ तक कह गए कि अस्पृश्यता वेदविहित होगी तो मैं वेद भी नहीं मानूँगा । यानी धर्मनिष्ठ व्यक्ति की स्वधर्म श्रद्धा में भी विवेकपूर्ण मर्यादा होनी चाहिए । विवेक की मर्यादा के साथ ही गांधी ने अपने धर्म का पालन किया और उसकी नीतिविहीन विधियों का दृढ़ता से विरोध किया । दूसरे के ह्दय में प्रवेश उसके धर्म द्वारा किया जाय, यह समाजशास्त्रीय सिद्धान्त है । लेकिन उसमें भी विवेक की मर्यादा तो रहनी ही चाहिए । इस दृष्टि से विवेकनिष्ठ धार्मिक व्यक्ति अपने धर्म के बारे में भूमिका रखता है वैसा ही विवेकनिष्ठ भूमिका दूसरे धर्मो के विषय में उसे रखनी  चाहिए । 
हर किसी को अपने-अपने धर्म का अनुष्ठान और प्रचार करने की स्वतंत्रता हो, लेकिन मर्यादा होनी चाहिए मानवनिष्ठा और नीतिमत्ता । हमारे देश में आज यह नहीं हो रही है । इसलिए सर्वधर्म समभाव सध नहीं पा रहा है । दुनिया में नैतिक मूल्यों के विषय के कानून धर्म से आगे बढ़ गया  है । कानून ने ऐसे कुछ सर्वव्यापी मूल्य स्थापित किए हैं जो मानवमात्र पर लागू होते है । उस कानून में सम्प्रदाय, जाति या वंशवाद का कोई स्थान नहीं । इस अर्थ में वह कानून ही धर्मनिरपेक्ष या सेक्युलर   है । पूरी मानवता और जीवमात्र के लिए यथासंभव करूणा उस कानून का आधार है । यही पर धर्म पीछे रह जाता है । सब धर्मो के लिए समान आदर हो, लेकिन उनमें मानवनिष्ठा और नैतिकता का अधिष्ठान हो, यह भी अत्यन्त जरूरी है । तब सर्वधर्म समभाव और सेक्युलॅरिजम यानी धर्म निरपेक्षता की भूमिकाआें में विलक्षण साम्य हो जाता है । 
       सेक्युलॅरिजम में धर्मनिरपेक्षता है, तो सर्वधर्म समभाव में किसी भी धर्म विशेष का आग्रह नहीं है । यह संकल्पनाआें का स्पष्टीकरण नहीं है इसलिए सेक्यूलर शब्द के नाम पर अत्याचारों में वृद्धि हो रही है । मराठी के सुप्रसिद्ध कवि कुसुमाग्रज ने लिखा है कि धर्म का ध्वज जब धर्मान्ध शक्तियोंके कंधे पर रखा जाता है, तब उसके परिणाम स्वरूप जो खून बहता है, वह हमेशा उसी धर्म का होता है । 
अगर संविधान के उद्देशिका के अन्य शब्द जैसे सामाजिक, आर्थिक न्याय और उपासना की स्वतंत्रता तथा प्रतिष्ठा और अवसर की समानता या संविधान कि धारा २५,२६ तथा धारा ५१क, जो नागरिक के मूलककर्तव्य के बाबत है, वह सब एक साथ पढ़े जाए, तो यह स्पष्ट है कि सेक्युलर तथा समाजवादी प्रवृत्ति भारतीय संविधान का बुनियादी सिद्धान्त है । इसलिए अब उस बाबद विवाद खड़ा करना असंगत ही नहीं, बल्कि अमानवीय भी है । 

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