रविवार, 15 मार्च 2015

सामयिक
धर्म, राजनीति और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता
अरूण कुमार त्रिपाठी
अभिव्यक्ति की आजादी पर बढ़ रहे खतरे दिनों-दिन नए स्वरूप में हमारे सामने आ रहे हैं । फ्रांस में शार्ली एब्दो पर हुए हमले में मारे गए पत्रकारों के शोक से अभी विश्व उभर भी नहीं पाया था कि आईएसआईएस द्वारा दो जापानी पत्रकारों के सिर कलम कर दिए जाने के समाचार ने पूरे विश्व को दहला दिया है । 
अभिव्यक्ति की आजादी के  आगे आज धर्म की बंदूकें और जाति की तलवारें तन गई हैं । ऐसे में  उदारता भयभीत है । अभिव्यक्ति की वेदी पर मचे इस महाभारत में पश्चिम के कथित धर्मनिरपेक्ष राज्य जहां अभिव्यक्ति की आजादी के पक्ष में खड़े होने का दावा कर रहे हैं, वहीं एशियाई राज्य धर्म और जाति की ताकतों के आगे विचित्र किस्म के  समझौते कर रहे हैं । पेरिस के कार्टून वाले पत्र शार्लीं एब्दो से लेकर भारत के तमिल लेखक पेरुमल मुरुगन के  उपन्यास ``माथोरुभगन`` और डेरा सच्च सौदा के प्रमुख बाबा राम रहीम की फिल्म ``मेसंेजर आफ गॉड`` पर मचे घमासान इसके उदाहरण हैं ।
पेरिस में चालीस देशों के  राष्ट्राध्यक्षों ने जिस तरह से एकजुट होकर शार्ली एब्दो के दफ्तर पर हुए आतंकी हमले का विरोध किया और बाद में शार्ली एब्दो ने धार्मिक कट्टरता पर हंसने की उसी परंपरा को जारी रखते हुए उन्हीं पात्रों पर केन्द्रित अपना अंक फिर से प्रकाशित करने से लगता है कि पश्चिम मेंराज्य और समाज अभिव्यक्ति की पूर्ण आजादी के लिए समर्पित हैं । कई बार उनकी यह लड़ाई धर्म के विरुद्ध उसी प्रकार अतिवादी दिखती है जिस तरह की लड़ाई धर्म के अतिवादी लड़ते  हैं । वे फ्रांस की क्रांति से निकले लोकतांत्रिक मूल्यों को जीते हुए उसी को दुनिया का परम आदर्श बताते हैंऔर उसी में दुनिया को ढालने की कोशिश कर रहे हैं । 
लेकिन दुनिया है कि अपने नए-नए प्रयोगों और नई-नई सनकों से बाज आती ही नहीं क्योंकि मनुष्य विचारों और जीवन में एकरूपता पसंद नहीं करता । विडंबना देखिए कि धर्म की जिस आजादी को यूरोप से निकले साम्यवाद ने प्रतिबंधित किया बाद में यूरोप ने उसी आजादी के लिए साम्यवाद को ध्वस्त कर दिया । साम्यवाद के पतन की शुरुआत पोप के पोलैंड दौरे से हुई और बाद में उस काम के लिए ट्रेड यूनियन नेता और ईसाइयत में धार्मिक आस्था रखने वाले लेकवालेंसा का सहारा लिया गया । इसलिए अभिव्यक्ति के प्रति यूरोप के इस उत्साह को अगर हम तात्कालिक घटनाओं के बजाय ऐतिहासिक संदर्भ में देखेंगे तो विषय ज्यादा स्पष्ट  होगा । यूरोप ने पहले विचारधारा से धर्म को नष्ट करने की कोशिश की और बाद में धर्म से विचारधारा को नष्ट कर दिया । इसी अंर्तसंघर्ष में आज की अभिव्यक्ति की जंग तथा जेहाद और उसके विरुद्ध संघर्ष छिड़ा हुआ है ।
अफगानिस्तान से लेकर मध्य एशिया तक सभी इसमें उलझे हुए हैं और भारत जैसा बहु सांस्कृतिक देश, जहां अभिव्यक्ति की आजादी की आधुनिक से ज्यादा मध्ययुगीन और प्राचीन परंपरा रही है उसे भी इस विवाद में लपेटा जा रहा है । भारत की आजादी की लड़ाई हालांकि ज्यादा धार्मिक समाज ने लड़ी थी लेकिन उसमेें धार्मिक प्रतीकों का उतना इस्तेमाल नहीं हुआ जितना आज की राजनीति में किया जा रहा है। भारत के विभाजन लिए वे नेता ज्यादा जिम्मेदार थे, जो न सिर्फ नास्तिक थे बल्कि जिन्होंने सारा जीवन धर्म से अलग रहकर राजनीति की और आखिर में धर्म का इस्तेमाल अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षा के लिए किया । 
भारत जैसे बहुसांस्कृतिक देशों में अभिव्यक्ति की जितनी विविध संभावनाएं हैं उतने ही खतरे भी हैं । संभावना तब है जब हम उसे अपनी सांस्कृतिक विरासत मानकर उसे सहते हुए उसमें रचनाशीलता तलाशें और खेमेबाजी से बाज आएं । जिस पंूजीवाद से अभिव्यक्ति की आजादी के विस्तार की उम्मीद की जा रही थी और हमारे वित्ता मंत्री अरुण जेटली दावा कर रहे हैं कि प्रौद्योगिकी के विस्तार के साथ अभिव्यक्ति की आजादी पर अंकुश लगाना संभव नहीं हैं, जबकि उसी ने इस आजादी पर अंकुश लगाने की सबसे ज्यादा आशंका पैदा की है । नब्बे के दशक में शुरु हुई वैश्वीकरण, सांप्रदायिकता और अस्मिताओं की राजनीति ने इस देश के बौद्धिक, अकादमिक और मीडिया जगत को विमर्श के नए आयाम   दिए । 
धर्म और जाति के बारे में वे तमाम बातें उभर कर आई जो कि या तो महात्मा फूले, पेरियार, आंबेडकर, सावरकर, हेडगेवार, गोलवलकर, दीनदयाल उपाध्याय और गांधी के ग्रंथों में थीं या फिर ग्रामीण समाज के भीतरी पर्तोंा में  थीं । इसी दौरान दलित, स्त्री और आदिवासी साहित्य के विविध आयाम विमर्शोंा में आए और लोगों की संवेदना और समझ में वृद्धि हुई । इस विमर्श का इस्तेमाल पश्चिम के योजनाकारोें और भारत के संकीर्ण बौद्धिकों और नेताओं ने भारत की एकता के साथ ही समाजवाद की उस विचारधारा पर चोट करने के लिए किया जो कि अस्मिताओं को खंडित विमर्श का मानता था । 
इस विमर्श ने स्वाधीनता संग्राम के उन मूल्यों पर भी चोट की जिसने संविधान के अनुच्छेद १९(१) में अभिव्यक्ति की आजादी दी थी और उसके उपधारा (२) में आठ अपवाद बताए थे । इसी दौरान साहित्य के उस विमर्श ने भी जोर पकड़ा कि दलितों पर प्रामाणिक साहित्य दलित ही लिख सकता है, स्त़्रियों पर स्त्री और आदिवासियों पर आदिवासी । क्योंकि वे ही उसकी पीड़ा को समझ सकते हैं । साहित्य (और अभिव्यक्ति) का यह सिद्धांत जहां संवेदना की गहराई बनाने और पक्षपातपूर्ण रचना करने में सहायक हुआ वहीं इसने एक खास तरह की संकीर्णता तैयार की जो बाद में दुधारी तलवार साबित हुई । इस सिद्धांत ने न सिर्र्फ विधर्मी और परजाति के लोगों को निशाना बनाया बल्कि अब वह अपने ही लोगों पर हमलावर होती जा रही है ।
पेरुमल मुरुगन का मामला ठीक यही है । वे तो पश्चिमी तमिलनाडु के कोंगू वेल्लाना समुदाय के हैंऔर उन्होंने पिछली सदी की जिस प्रथा का शोधपूर्ण तरीेके के  जिक्र किया है वह तो उन्हीं स्त्रियों के बारे में है । चंूकि वे वामपंथी रहें हैं और इन दिनों तमिलनाडु मेंं दक्षिणपंथी दल को अपने उभार के  लिए मध्यजातियों की जरुरत है इसलिए मुरुगन के विरुद्ध कोंगू वेल्लाना जाति का आंदोलन खड़ा करके उन्हें खामोश कर दिया । अपनी तमाम कमजोरियों के बावजूद भारतीय समाज भगवान और देवी, देवताओं के मानवीकरण का समाज रहा हैं । इसीलिए यहां राम, कृष्ण और शिव को लेकर लोकजीवन में जितनी हंसी मजाक की बातें हैं उतनी किसी मुख्यमंत्री और प्रधानमंत्री के  बारे में नहीं हैं । 
आज हम मानवीकरण की उस प्रक्रिया को पलट रहे हैं और नए-नए ईश्वर बना रहे हैं । यही ईशनिंदा का अपराध नया रूप लेता है। इसकी शुरुआत पूंजीवाद के सबसे उदार रूप कहे जाने वाले नब्बे के दशक से शुरु हुए वैश्वीकरण ने की है । जाहिर है जब हम धर्म और जाति यानी अस्मिताओं की राजनीति और उसके विमर्श का इस्तेमाल पहले समाजवाद को कमजोर करने और बाद में लोकतंत्र को कमजोर करने के लिए करेंगे तो वे अभिव्यक्ति की आजादी के  विरुद्ध तलवार और बंदूक उठाएंगी ही । हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि हमारे तमाम टीवी चैनलों और अखबारों ने अभिव्यक्ति की आजादी के बहाने जनता के स्वास्थ्य, शिक्षा और कुपोषण की खबर लेने और दाभोलकर जैसे लोेगों की मदद करने के बजाय आर्थिक रूप से निराश लोगों का भयादोहन कर अंधविश्वास के आधार पर कमाई करने वालों की ही मदद की है । 
हमने आधुनिक राजनीतिक विमर्श की भाषा को रंगबिरंगा और बिकाऊ बनाने के  लिए राजतिलक, सिंहासन, अवतार जैसे शब्दों और अवधारणाओं से पाट दिया है । रघुवीर सहाय जैसे पत्रकार और कवि ने इस तरह के विमर्श के  प्रति पत्रकारों और लेखकों को आगाह किया था कि अगर हम सामंती विमर्शों की भाषा का प्रयोग करेंगे तो समाज के मानस को वहां उतरने से रोक नहीं पाएंगे । ऐसे में सवाल यह है कि हम कैसा विमर्श करें जिससे बहुसांस्कृतिक समाज में टकराव कम से कम हो और बात भी चलती रहे ? अगर लोकतंत्र को उसके मूल अधिकारों के साथ लंबे समय तक चलाना है तो अस्मिताओं के विमर्श और उसकी राजनीति को व्यापक मानवीय विमर्श और हितों की राजनीति में विलीन करना होगा। हमें अपने बारे में ही सोचने के बजाय पराए हितों के बारे में अधिक सोचना होगा। 

कोई टिप्पणी नहीं: