रविवार, 15 मार्च 2015

विशेष लेख 
कैसे सफल हो, स्वच्छ भारत अभियान ?
नित्यानंद जयरामन
केन्द्र सरकार द्वारा देश में शुरू किया गया स्वच्छता अभियान अपनी सरलता में जितना असरकारक है, उतना ही समस्यामूलक भी है । अभियान को लेकर बारीकियों के अभाव और नरेन्द्र मोदी के उपभोक्तावादी विकास के एजेंडे व स्वच्छ भारत अभियान के उद्देश्यों के बीच निहित विरोधाभासों ने ही इसमें संदेह के बीज बोए हैं । 
साथ ही कई सवाल भी खड़े किए है, जैसे - भारत के किस हिस्से को स्वच्छ बनाया जाएगा, किसे नहीं ? क्यों स्वच्छ नहीं बनाया जाएगा ? जो गंदगी हम हटाएंगे, उसका क्या करेंगे ? इस गंदगी को हम कहां रखेंगे ?   इत्यादि । 
अगर स्वच्छता अंतिम नतीजा है तो हमें शुरूआत गंदगी से करनी होगी । वर्ष १९६६ में मानव विज्ञानी मैरी डगलस ने अपनी क्लासिक पुस्तक प्युरिटी एण्ड डेंजर में लिखा है - अगर हम गंदगी की अपनी धारणा को स्वच्छता और रोगजनकता में तबदील कर सकें तो हमारे पास गंदगी की वही पुरानी परिभाषा रह जाती है यानी वह पदार्थ जिसे हमें दूर हटाना है .... इससे दो स्थितियां सामने आती है, एक, व्यवस्थित संबंधों का एक सेट और दूसरा, उस व्यवस्था को तोड़ना । 
अगर भारत के संदर्भ में देखें तो स्वच्छता नामक यह शब्द जाति की धारणा के साथ जुड़ा है, जिसे सामाजिक और भौतिक विवेचना में शुद्ध और अशुद्ध के रूप में सजा-संवार दिया गया है । यानी इस संदर्भ में स्वच्छता को तभी हासिल किया जा सकता है जब हम स्वच्छ और अस्वच्छ को अलग-अलग रखकर देखें । 
केवल वस्तु या स्थान ही अस्वच्छ, अशुद्ध, गंदे या भद्दे नहीं होते । जब पिछली बार तमिलनाडु में डीएमके सत्ता में थी, उस समय तत्कालीन स्थानीय प्रशासन मंत्री एम.के. स्टालिन ने सिगारा चेन्नई (सुन्दर चेन्नई) नामक अभियान शुरू किया था । स्वच्छ भारत अभियान की तरह ही किसी स्थान को सुन्दर बनाने के अभियान के खिलाफ दलील देना काफी मुश्किल है । लेकिन सुन्दरता या गंदगी तो देखने वाले की आंखों में होती है । सिंगारा चेन्नई अभियान के बाद भी जहां तक कूड़ा करकट का सवाल है, चेन्नई में कोई अंतर नहीं आया है । आज भी जगह-जगह कूड़े-करकट के ढेर लगे हुए हैं । लेकिन शहर की सुन्दरता के नाम पर झुग्गी बस्तियों में रहने वाले कम से कम २० हजार परिवारों को हटा दिया  गया । उन्हें कन्नगी नगर और सेमेरचेरी जैसे स्थानों पर अस्थायी ठिकानों पर बसाया गया, जो चेन्नई से २० से ३० कि.मी. दूर हैं । गंदगी या कचरा तो महज एक उपमा है, जिसे लोगों पर भी लागू किया जा सकता है । 
अतीत के अनुभवों को देखते हुए कहा जा सकता है कि ऐसे अभियान जिनके नारों के साथ उपशीर्षक या चेतावनियां न हों, वे सतही नारे ही बने रहेंगे । वे अतीत में चले आ रहे अन्याय को बनाए रखेंगे और जातिवाद के आधुनिक रूप को और भी मजबूती के साथ स्थापित करेंगे ।
नरेन्द्र मोदी ने स्कूली बच्चें और सरकारी कर्मचारियों को शपथ दिलाते हुए उन्हें याद दिलाया कि अपने आसपास सफाई बनाए रखना राष्ट्रसेवा के बराबर है - अब हमारा कर्तव्य है कि गंदगी को दूर करके भारत माता की सेवा करें । गंदगी को दूर कर उसे कहां फेंका जाएगा, इसके बारे में कुछ नहींकहा गया है । लेकिन अगर गंदगी का मतलब उसे एक स्थान से हटाना है तो इसका अर्थ है कि उसे उसके सही स्थान पर रखना होगा । 
तमाम आधुनिक संस्कृतियों में सफाई का मतलब केवल इतना ही है कि गंदगी को एक स्थान से हटाकर दूसरे स्थान पर रख देना । पांच दशक पहले सफाई शायद ज्यादा आसान थी । सफाई का मतलब यह था कि जैविक अपशिष्ट पदार्थो, जैसे पेड़-पौधों की पत्तियों इत्यादि को सही स्थान जैसे जमीन के भीतर रख देना ताकि वह खाद में बदल सके । पिछले दो दशकों में भारत गांवों में रहने वाले एक उनींदे राष्ट्र से जागकर बढ़ती शहरी आबादी वाली एक आर्थिक शक्ति में बदल गया है । मोदी ने संयुक्त राष्ट्र महासभा में कहा कि भारतीयों को प्रकृति के साथ एक विशेष संबंध और प्रकृति के प्रति एक खास आस्था है । लेकिन इसके बावजूद इस तथ्य से इंकार नहीं किया जा सकता कि चाहे अमरीकी हो या भारतीय, चाहे हिन्दू हो या मुस्लिम, हम सभी उपभोगवादी धर्म के भी उपासक हैं । 
हम जैसे होते हैं, हमारा कचरा भी वैसा ही होता है । सालों पहले हमारा कूड़ा-करकट अमरीकी कूड़े-करकट से भिन्न हुआ करता   था । लेकिन आज हमारे कूड़े में उन्हीं ब्रांड्स का अपशिष्ट, स्टायरोफोम व प्लास्टिक जैसा नष्ट न होने वाला कचरा बढ़ता जा रहा है जो अमरीकी लैंडफिल्स में भी मिलता है । 
गंदगी तो रूपक है 
चैन्नई शहर से रोजाना ६००० टन से भी अधिक मिश्रित कचरा कोडुनगैयूर में डंप किया जाता है । कोडुनगैयूर कभी वेटलैंड हुआ करता था । गंदगी का यह विशालकाय ढेर आपकी  देखने और सूंघने की इन्द्रियों को पस्त कर देता है । कचरे का यह पहाड़ इतना ऊंचा हो गया है कि आसपास के इलाके में इतनी ऊंची तो कोई इमारत भी नहीं मिलेगी । ऐेसे सभी लोग इस इलाके को छोड़कर जा चुके हैं जिनके पास विकल्प थे । वही लोग बचे हैं जिनके पास या तो रहने का कोई विकल्प नहीं है या आजीविका का कोई दूसरा साधन नहीं है । 
गंदगी के ढेर से निकलने वाले काले कीचड़ के ऊपर एक पैदल पुल बना हुआ है, जिसका इस्तेमाल कचरा बीनने वाले और स्थानीय लोग इस लैंडफिल में पहुंचने के लिए करते हैं । यह जो काले कीचड़ का दलदल नजर आता है, वह किसी समय कैप्टन कॉटन नहर हुआ करती थी । इस डंप साइट के करीब १०० मीटर अंदर एक मजबूत दरवाजा नजर आता है जिस पर मांगलिक चिन्ह बने हुए है । यह दरवाजा एक जीर्ण-शीर्ण घर की मुस्तैदी से सुरक्षा करता प्रतीत होता है जिसकी छत और दीवारें टूट-फूट गई हैं । यह घर कामाच्छी देवी का है जिसका निर्माण उसने इसी कचरे की डम्प साईट में मिली चीजों से किया है । इस मकान से बमुश्किल पांच मीटर की दूरी पर लाल-नारंगी रंग की एक बदबूदार सड़ांध मारती नदी सी बहती नजर आती है । यह तरल उसी सड़ते हुए कचरे के पहाड़ से आता है जो उसके मकान के चारोंओर फैला हुआ है । इसी नदी के दूसरी ओर युद्ध के देवता मुरूगन का एक खंडहर सा मन्दिर बना हुआ है । 
हवा की दिशा कैसी भी हो, कामाच्छी के घर को पूरे साल जहरीले बदबूदार झोंको का सामना करना पड़ता है । उसका घर उन १५ दलित परिवारों के घरों में से एक है जो पनक्करा नगर में रहते हैं । इसे विडंबना ही कहेंगे कि पनक्करा  नगर का अर्थ है धनवान लोगों का नगर । हजारों लोग कचरे की इस साइट पर शहरी उपभोक्ताआें द्वारा फेंकी गई चीजों को छांटकर और उन्हें बेचकर अपनी आजीविका कमाते    हैं । 
डंप साइट के मुख्य प्रवेश स्थल के सामने सड़क के उस पार आर.आर. नगर बसा हुआ है । यहां करीब १५०० परिवार नारकीय स्थिति में रह रहे हैं । तमिलनाडु झुग्गी बस्ती उन्मूलन बोर्ड ने १९९० की शुरूआत में चेन्नई नगर निगम के सफाईकर्मियों के रहने के लिए आर.आर. नगर में मकान बनाए   थे । लेकिन इन कर्मचारियों ने डंप साइट के सामने बने इन मकानों में जाने से इंकार कर दिया । अंतत: यहां उन परिवारों को भेज दिया गया जिन्हें शहर के विकास की प्रक्रिया में जबरदस्ती हटा दिया गया था । यह वही स्थान है जहां शहर का कचरा भी भेजा जाता है । 
डंप साइट पर कचरा बीनने वाला, पनक्करा नगर व आर.आर. नगर में रहने वाले, सफाईकर्मी जिनके लिए सरकार ने डंप साईट के सामने मकान बनाए थे और जिनमें अंतत: शहर के विस्थापितों को बसाया गया, इन तमाम लोगों में अधिकांश लोग अनुसूचित जाति या जनजाति के हैं । कोडनगैयूर एक आरक्षित निर्वाचन क्षेत्र है जहां बड़ी आबादी अनुसूचित जाति के लोगों की है । 
वर्ष २०१० में एक वैधानिक पर्यावरणीय जनसुनवाई, जो इस डंप साइट के विस्तार और आधुनिकीकरण के मुद्दे पर की गई थी, में चेन्नई के तत्कालीन महापौर ने इस जगह पर कचरा फेंकने के पक्ष में एक अजीबो-गरीब दलील दी थी । उन्होनें कहा था कि जैसे हमें अपने घरों में शौचालयों की जरूरत होती है, वेस ही शहर के लिए भी शौचालय जरूरी है और स्थानीय लोगों को तो इस बात पर गर्व करना चाहिए कि ये अपने यहां डंप साइट बनाकर शहर की सेवा कर रहे हैं । 
कोडुनगैयूर डंप यार्ड अनेक मामलों में अवैध है । इसे तमिलनाडु वायु एवं जल कानून के तहत तमिलनाडु प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड से वैधानिक मंजूरी नहीं मिली है । इसे वर्ष २००० में अधिसूचित नगर पालिका ठोस अपशिष्ट पदार्थ नियमों का खुला उल्लघंन कर संचालित किया जा रहा है । कोडुनगैयूर में वर्ष २०१२ में हवा के कुछ नमूनों का वैज्ञानिक विश्लेषण किया गया था । यहां की हवा में १९ प्रकार के जहरीले रसायन पाए गए थे । इनमें तीन रसायन तो कैंसरजनक थे । बच्चें में ल्युकेमिया पैदा करने वाली बेंजीन तो सुरक्षित स्तर से ५० गुना ज्यादा    थी । इस संबंध में एक मामला मद्रास उच्च् न्यायालय में पिछले दस साल से भी ज्यादा समय से लंबित है । इस मामले के इतने सालों तक लंबित रहना भारतीय न्याय व्यवस्था के लिए शर्मनाक है । 
ऐसा नहीं है कि इस तरह के डंप यार्ड बंद किए नहीं जा सकते । हाल के दिनों तक चैन्नई में दूसरा डंप यार्ड था । यह भी जलीय स्थल पल्लीकरनाई में बनाया गया था जो पेरूनगुडी में स्थित है । जबसे यहां कचरा फेंकना शुरू हुआ, पेरूनगुडी की जनांकिकी में भारी बदलाव आ गया । चेन्नई का प्रसिद्ध आईटी कॉरिडोर इसी जलीय स्थल पर बनाया जा रहा है और यह इस डंप यार्ड के कॉफी करीब है । जब इस डंप यार्ड में सड़ते हुए कचरे की बदबू संवेदनशील मध्यमवर्गीय और उच्च् जातीय समाज के लोगों की नाक तक पहुंचने लगी तो सभी लोग हरकत में आ गए । पेरूनगुडी के प्रभावशाली लोगों ने चेन्नई नगर निगम के अधिकारियों को अपने यहां के डंप यार्ड को बंद कर कचरे को कोडुनगैयूर डंप यार्ड में ही फेंकने के लिए मजबूर कर दिया । 
कचरा और कचरे से निपटने के लिए जिस तरह के गलत तरीके इस्तेमाल किए जा रहे हैं, उससे यह समस्या समाजशास्त्रीय ज्यादा नजर आती है । इस समस्या का कोई भी वास्तविक समाधान स्थापित सामाजिक व्यवस्था को अस्त-व्यस्त कर सकता है । इसीलिए स्थानीय निकाय इंजीनियरिंग समाधान ही पंसद करते हैं, जिससे कि सामाजिक समस्या बनी रहती है । उच्च् तबके के इंजीनियर्स को आधुनिक औद्योगिक अपशिष्ट प्रबंधन सुविधाआें का निर्माण करने के लिए बुलाया जाता  है । यह इंजीनियरिंग दखल कचरे की डंपिंग, उसे दफन या दहन करने के आधुनिक तरीकों तक ही सीमित रहता है । इसे और अधिक आकर्षक बनाने के लिए इंजीनियर्स अपने इन प्रयासों को सेनेटरी लैंडफिल या इंसीनरेटर्स नाम दे देते हैं । इन्हें कुछ भी  कहा जाए, एक बात तय है । भारत जैसे जातिगत या अमरीका जैसे नस्लीय प्रभाव वाले समाजों में ये तथाकथित अत्याधुनिक सुविधाएं भी उन स्थानों पर स्थापित नहीं की जाएंगी जहां हैसियत वाले लोग रहते है । वे उन्हीं लोगों के बीच स्थापित की जाएंगी जो पहले से ही पारंपरिक कचरा प्रबंधन का भार ढोते आए हैं । 
अमरीकी समाजशास्त्री मुरे मिलनर जुनियर का कहना है कि हमारे जैसे समाजों में कचरे के साथ जाति को जोड़ने का मतलब यह मानना है कि कुछ मात्रा में गंदगी और अस्वच्छता अनिवार्य है । तो यहां रणनीति कचरे के इधर से उधर स्थानान्तरण की होगी, उसके उन्मूलन की नहीं । 
मिलनर लिखते हैं कि जातिविहीन पश्चिमी समाजों में माना जाता है कि कचरे को नष्ट करके उसका उन्मूलन करना संभव  है । दोनों की अपनी-अपनी सीमाएं   है । पहले वाले मामले में सामाजिक समस्याएं बाधक बनती हैं तो दूसरे मामले में पर्यावरणीय दिक्कतों से दो-चार होना पड़ता है । 
आर्थिक विकास को अक्सर उत्पादन में बढ़ोतरी और माल एवं सेवाआें के उपभोग में वृद्धि से जोड़ा जाता है । अर्थव्यवस्था में विकास की दर अक्सर इस बात से निर्धारित होती है कि प्राकृतिक  संसाधनों का कितना अधिक से अधिक दोहन करके उपभोग लायक वस्तुआें में परिवर्तित किया जा रहा है, उनका उपभोग किया जा रहा है और उनका निस्तारण किया जा रहा है । यानी विकास की दर जितनी अधिक होगी, कचरा भी उतना ही अधिक होगा । उपभोग के बाद जो गंदगी निकलती है ओर जिसे लेकर झाडू घुमाने वाला मध्यमवर्ग चिंतित हो रहा है, वह तो बस ऊपरी झलक भर है । उपभोक्ता वस्तुआें (चाहे वह बुनियादी ढांचे के निर्माण के लिए अतिआवश्यक इस्पात हो या बिजली अथवा प्लास्टिक पैकेजिंग) के निर्माण की प्रक्रिया के दौरान काफी बड़ी मात्रा में जहरीले अपशिष्ट पैदा होते हैं जिनका निस्तारण या तो जमीन के भीतर या फिर पानी में कर दिया जाता है । तो क्या स्वच्छ भारत अभियान केवलसतही गंदगी को ही दूर   करेगा ?
अगर मोदी का मेक इन इण्डिया का सपना सच होता है तो स्वच्छ भारत अभियान एक त्रासदी बन जाएगा । जिस तरह उद्योगों की पर्यावरणीय कीमत प्रदूषण के रूप में हवा, जमीन और पानी को चुकानी होती है, उसी तरह उपभोगवादी अर्थव्यवस्थाआें की पर्यावरणीय व सामाजिक कीमत कचरे के रूप में राजनीतिक रूप से कमजोर और सदियोें से सताए हुए समुदायों को चुकानी पड़ती है । यदि अपना कचरा दूसरों पर फेंकने का विकल्प बंद कर दिया जाए तो हमारी उपभोगवादी अर्थव्यवस्था खुद के ही पाखाने में डूब मरेगी । विकास अथवा उपभोग के संबंध में नई रणनीति बनाए बगैर साफ-सफाई की यह कोशिश करना उसी तरह होगा जैसा कि बाथरूम में भर आए पानी की समस्या को रोकने की कोशिश नल से आ रहे पानी को बंद किए बगैर करना । 
यदि प्रधानमंत्री स्वच्छता अभियान को लेकर वाकई गंभीर है तो उन्हें कुछ और भी घोषणाएं करनी चाहिए । इन घोषणाआें को अमल में लाना वर्ष २०१९ तक गंगा या देश को स्वच्छ बनाने की तुलना में ज्यादा आसान होगा । उन्हें शुरूआत इनसे करनी चाहिए :-
१.  भोपाल गैस त्रासदी की ३०वीं बरसी को मील का पत्थर मानते हुए उन्हें घोषणा करनी चाहिए कि वे प्रदूषण के लिए जिम्मेदार लोगों को यहां लाकर पूरे स्थल को जहरीले पदार्थो से मुक्त करवाएंगे । 
२.  ऐसे ही अन्य प्रदूषित औद्योगिक स्थलों, जैसे तमिलनाडु के कोडाईकनाल स्थित हिन्दुस्तान युनीलीवर थर्मामीटर फैक्ट्री और उसके आस-पास के स्थलों को एक निर्धारित समय सीमा के भीतर स्वच्छ किया जाएगा और इसकी पूरी कीमत भी प्रदूषण फैलाने वालों से ही वसूली जाएगी । 
३.  भारत ऐसी गतिविधियों से परहेज करेगा जिनसे ऐसे अपशिष्ट पदार्थ निकलते हैं जिनका निस्तारण नहीं हो सकता, जैसे परमाणु ऊर्जा संयंत्रों से निकलने वाले अपशिष्ट पदार्थ । साथ ही यह भी घोषणा करनी चाहिए कि गुजरात, महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश, आंध्रप्रदेश, हरियाणा और तमिलनाडु में नए परमाणु ऊर्जा संयंत्र स्थापित करने की योजना छोड़ देंगे । 
४.  पैकेजिंग जैसे कार्यो में इस्तेमाल की जाने वाली नष्ट न होने वाली सामग्री का उपयोग धीरे-धीरे खत्म करने और उनके स्थान पर वैकल्पिक सामग्री का उपयोग बढ़ाने को लेकर प्रतिबद्धता दर्शानी चाहिए । इसके अलावा, ऐसी आदतें विकसित करने पर जोर देना होगा कि पर्यावरण पर ज्यादा भार न आए । 
५.  हाथ से मैला साफ करने की अमानवीय प्रथा का पूरी तरह खात्मा करने को लेकर अपनी सरकार की प्रतिबद्धता जताना । 
६.  स्थानीय निकायों को इतनी धनराशि उपलब्ध करवाने के प्रति प्रतिबद्धता जताना ताकि वे सफाई कर्मियों को बेहतर वेतन और सुविधाएं मुहैया करवा सकें । 
७.  कचरा बीनने वालों के योगदान को स्वीकार कर उन्हें जहां से कचरा निकल रहा है, उसी स्त्रोत या उसके करीब उनकी पहुंच बनाना । 
८.  जैविक अपशिष्ट पदार्थो के निस्तारण की विकेन्द्रीकृत व्यवस्था को प्रोत्साहित करना ताकि कचरे का एक बड़ा हिस्सा डंप साइट पर आने से रोका जा सके । 
भारत को पश्चिम की तुलना मेंएक अलग तरह का काम करने के लिए विकास के लक्ष्य पाने की ऐसी रणनीति बनानी होगी जो मात्र वृद्धि पर निर्भर न हो । उसे स्वच्छ भारत अभियान के तहत सदियों पुराने जातिवाद, नस्लवाद और लिंगभेद के सड़े-गले मलबे को साफ करना  होगा । उसे वृद्धि-विहीन विकास के लक्ष्य को पाने के लिए एक छोटे से उच्च् एवं उच्च् मध्यम वर्ग में हो रही बेहिसाब खपत की मात्रा को काफी हद तक कम करना होगा । जब तक हमारी सरकार प्रकृति के दोहन करने वाली अर्थव्यवस्था का अनुसरण करती रहेगी,तब तक भारत को स्वच्छ बनाना संभव नहीं होगा, भले ही कितने ही लोग और कितने ही स्कूली बच्च्े हाथोंमें झाडू थाम लें । 

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