सोमवार, 19 सितंबर 2016

विशेष रिपोर्ट 
विकास का फलसफा क्या हो ?
चिन्मय मिश्र 

आजादी के ७० वें वर्ष को एक इवेंट में परिवर्तित कर देने की भारतीय राजनीतिज्ञों की करामात के बीच भोपाल स्थित विकास संवाद ने मध्यप्रदेश के कान्हा टाइगर रिजर्व में, ``आजाद भारत में विकास`` विषय पर पत्रकारों का एक वृहद सम्मेलन आयोजित किया । इसमें भारत के १२ राज्यों के करीब ११५ पत्रकारों ने सक्रिय भागीदारी की । 
सम्मेलन हेतु कान्हा का चयन इसलिए भी महत्वपूर्ण था क्योंकि यह भारत के विरोधाभासी विकास नीतियांे को उधेड़ता है । एक ओर जंगल से बेदखल आदिम बैगा, गौंड आदिवासी और पशुपालक यादव हैंतो दूसरी ओर सर्वाधिक आधुनिक व उभरता हुआ पर्यटन व्यवसाय छाती ताने बैठा है ।  एक ऐसा स्थान जहां कुछ बरस पहले तक ``घी`` की मंडी लगती थी अब काली चाय पीने को अभिशप्त है ।   
सम्मेलन के आधार वक्तव्य में वरिष्ठ पत्रकार राकेश दीवान ने कहा कि संविधान का ७३ वां और ७४ वां संशोधन स्थानीय स्वशासी संस्थानों को न तो मजबूत कर पाया और न ही इच्छित फल ही दिलवा पाया । आज आधा देश भूखा है और हमारी मिट्टी की उर्वरता ५० प्रतिशत ही रह गई है । हमें हमारी नीतियों पर पुनर्विचार करना ही होगा । विकास संवाद के सचिन जैन ने वैश्विक विकास के परिपे्रक्ष्य में टिकाऊ विकास लक्ष्य (एस डी जी) की बात की । सन् २००१ के एस डी जी में १७ मुख्य लक्ष्य हैंऔर १६९ सहायक लक्ष्य हैंउनका मानना था कि यह विकास के श्रेष्ठतम शब्दों का शब्दकोश मात्र है । वैसे यह शांतिपूर्ण समाज संरचना की बात करता है ।  
सघन वन के बीच बैठे होने से पर्यावरण व वन स्वमेव सर्वाधिक महत्वपूर्ण मुद्दे बन कर उभर रहे   थे । पहले मुख्य वक्तव्य में सेंटर फार साइंस एण्ड इन्वायरमेंट (सी एस ई) के निदेशक और डाउन टू अर्थ के सलाहकार संपादक चंद्रभूषण ने कहा कि नेहरु पर्यावरण विरोधी नहीं बल्कि वैज्ञानिक सोच के हामी थे । उन्होंने काफी पहले ही कह दिया था कि हमें बड़ा बनाने की बीमारी लग गई है । वह इस बात से चिंतित थे कि सरकार और हमारा गुलामी का रिश्ता है । महज १०,००० लोग १२० करोड़ लोगों को संचालित करते हैं। उनके अनुसार भारत का ४० प्रतिशत पानी प्रदूषित हो चुका है । ९० प्रतिशत शहरों की हवा प्रदूषित हो चुकी है । ६० प्रतिशत भूमि का क्षरण हो रहा है। वनों की सघनता कम हो रही है और अब वन वनक्षेत्र के बाहर विकसित किए जा रहे हैं । 
उनका कहना था कि सरकार के पास न तो इस समस्या के निपटारे की सोच है और न साधन । यह काम तो समाज ही कर सकता है । हस्तक्षेप करते हुए वर्धा स्थित हिन्दी विश्वविद्यालय के अरुण कुमार त्रिपाठी ने कहा कि हम आजादी के ७० वें, भारत छोड़ो आंदोलन के ७५ वें, गांधी-नेहरु भेंट के १०० वें एवं अंबेड़कर के १२५ वें जन्म वर्ष में इकट्ठे हुए हैं । उनके अनुसार भारत में विकास के मौजूदा मॉडल को लेकर कोई राजनीतिक मतभेद नहीं है । जी एस टी को लेकर मीडिया का गौरवगान इसी को दर्शाता है। कहीं कोई वैकल्पिक राजनीति नजर नहीं आती जो बताए कि क्या बिना विदेशी पंूजी के काम नहीं चल सकता ? वैश्विक पूंजी के और उग्र राष्ट्रवाद के क्या खतरे हैं? अन्नू आनंद का कहना था कि भारत में पांच करोड़ बाल मजदूर हैंऔर मीडिया का हस्तक्षेप नदारद है । 
वरिष्ठ पत्रकार अरविंद मोहन ने कहा कि विकास का अर्थ समझ पाना ही कठिन है । विगत में बिहार नमक एवं सूखे मेवे को छोड़ दें, तो पूरी तरह से आत्मनिर्भर था । परंतु अब ? बीज सहित तमाम कच्चे माल पर अमेरिका का ही प्रभुत्व है । मनरेगा को पढ़े-लिखे लोगों ने ``नीतियों का लकवा`` बताया था । अतएव विकास नापने का आधार ही प्रश्न के घेरे में है । पत्रकार एवं प्राध्यापक आनंद प्रधान का मत था कि हमारी शुरुआत पराजित मानसिकता से हुई है । बिना आलोचना के हल नहीं ढूंढा जा सकता । ग्रीस का उदाहरण देते हुए उन्हांेने कहा कि पूंजीवाद और लोकतंत्र का साथ-साथ चलना कठिन है। उन्होंने स्मार्ट सिटी को नए उपनिवेशवाद की ओर बढ़ता कदम बताया । सक्रिय सामाजिक कार्यकर्ता व पत्रकार बाबा मायाराम का कहना था, पहले से क्या बदला । हम क्या ज्यादा खाने लगे ? आदमी अब आदमखोर हो गया है। दुनिया विकल्पहीन नहीं है । परंतु विकल्पों को भी विक्रेन्दित करना होगा । हमें परंपरागत ज्ञान के साथ नया ज्ञान भी जोड़ना होगा ।   
साहिर लुधियानवी ने लिखा है, ``अफलास जदा दहकानों के/हल बैल बिके, खलिहान बिके/जीने की तमन्ना के हाथों/जीने ही के सब सामान बिके । दूसरा सत्र प्रसिद्ध अधिवक्ता व विचारक प्रशांत भूषण को समर्पित था । उनका मानना था कि वर्तमान स्थितियों की  विवेचना यदि आर्थिक विकास के नजरिए से भी करें तो हमें इसे दो हिस्सांे सन् १९८० के दशक पहले और इसके बाद में बांटना होगा । इस दौरान आर्थिक असमानता बढ़ी और कभी वापस न लौट पाने वाले प्राकृतिक संसाधनों की लूट आसमान छू गई । 
नवउदारवाद से भ्रष्टाचार के समाप्त होने की उम्मीद थी मगर यह बढ़ता चला गया । बोफोर्स से २ जी तक का सफर इसकी गवाही देता है। भ्रष्टाचार की वजह से सर्वप्रथम गबन को प्रोत्साहन मिलता है और दूसरा नीतियां जनहित में नहीं बल्कि कारपोरेट के हित में बनती हैं । गुजरात का सरदार सरोवर बांध इसका जीता जागता उदाहरण है। उन्होंने कहा कि ग्रामीण न्यायालयों की असफलता अत्यन्त दुखद है। हमने न्याय की अंग्रेजों की पद्धति अपनाई जिसका उद्देश्य जमींदारों को न्याय उपलब्ध करवाना था । आज ८० प्रतिशत जनता न्याय से वंचित है और मात्र दो प्रतिशत को वास्तविक न्याय मिल पाता है । ऊपरी अदालतों के न्यायाधीशों की जवाबदेही तय नहींहै तथा निगरानी व्यवस्था में भी चूक है। इस पर समर अनार्य का कहना था, भारत की न्यायपालिका पर बड़े लोगों  का विश्वास है। इसे विजय माल्या और सोनी सोरी के  मामलों से समझा जा सकता है ।
ध्यान रहे पत्रकारिता सिर्फ विचार नहीं है । बिना तथ्यों के यह पूर्णता तक नहीं पहुंचती । बरगी                बांध-पीड़ितों की ओर से राजकुमार सिन्हा का कहना था कि यह आरोप लगाया जाता है कि आंदोलनकारी विकास विरोधी होते हैं । परंतु हमने तो बरगी बांध बन जाने के बाद पुनर्वास न होने पर आंदोलन किया था । परियोजना रोकी भी नहीं तो फिर अन्याय क्यों ? सम्मेलन के दो महत्वपूर्ण वक्तव्य राजस्थान के ग्रामीण अंचलों के थे, जिन्होंने विकास के आधुनिक व एकतरफा सोच की पोल खोल दी । 
राजस्थान के जैसलमेर जिले के रामगढ़ गांव से आए चतरसिंंह जाम ने कहा कि हमारे यहां भारत में सबसे कम पानी (करीब ४ इंच) बरसता है । इस वर्ष तो अभी तक मात्र ११ (ग्यारह) एम. एम. पानी ही बरसा है । परंतु पानी की कमी नहीं है । वे तमाम तरह की खेती करते हैं और बड़े पैमाने पर पशुपालन भी । उनका कहना था हम पानी रोकते नहीं उसे रमाते हैं । 
भारत के सरकारी जल विशेषज्ञों को शायद उनकी बातों पर विश्वास ही नहीं  होगा । वे कहते हैंआजादी के पहले सबकुछ हमारा था, अब सब कुछ सरकार का हो गया है। जहां वे वंशानुगत भाईचारे को बनाते हुए रमे हैं वहीं जयपुर के पास स्थित लापोड़िया गांव के लक्ष्मण सिंह ने इस उपभोक्तावादी युग में सौहार्द्र की नई नींव रखी है । इस गांव में सारा प्रबंधन पानी से लेकर खेती तक का सामूहिक होता है और मनुष्य से लेकर चूहे तक सभी आपसी मैत्री से रहते हैं । यह अपने आप में विलक्षण गांव है जो भविष्य के बेहतर बनाने के सपने को साकार करता नजर आता है ।
एक अन्य व्याख्यान देविन्दर शर्मा द्वारा भारत में कृषि भी स्थिति को लेकर था। वैसे भारत में कृषि और किसान की दुर्दशा से कौन अपरिचित है। सरकारें भी इनके प्रति अत्यन्त दयालु हैं। अक्टूबर २००७ में महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमंत्री विलासराव देशमुख ने एक पत्रकार से कहा था, ``आत्महत्या भारतीय दंड संहिता (आर पी सी) के तहत अपराध है परंतु क्या हमने एक भी किसान को इस  अपराध में पकड़ा ? पर क्या आपने कभी इसकी खबर दी ।`` देविन्दर शर्मा का कहना था कि पत्रकारों को भी अपने अंदर झाक कर देखना चाहिए। हम विकास की नहीं हिंसा की अर्थव्यवस्था के पोषक हैं । 
पिछले ५ वर्षांे में दुनिया के अमीरों की संपत्ति २४० अरब डालर बढ़ी है। इससे वैश्विक गरीबी को चार बार दूर किया जा सकता है । किसानों की आत्महत्याएं कृषि की नहीं अर्थव्यवस्था की असफलता है । पंजाब में ९५ प्रतिशत कृषि भूमि सिंचित है तो फिर किसान आत्महत्या क्यों कर रहे हैं ? हमारा किसान भगवान भरोसे है तो अमेरिका का सरकार के भरोसे । पिछले दशकों में गेहंू के दामों में १९ गुना वृद्धि हुई और सरकारी कर्मचारियों के वेतन में १८० गुना । हमें आर्थिक विकास के विचार को ही बदलना होगा । इसमें मध्यवर्ग का हस्तक्षेप आवश्यक है ।
तकरीबन सभी इस बात पर एकमत थे कि विकास के इस मॉडल में ही हिंसा निहित है । सुखद स्थिति यह थी कि आधे से ज्यादा पत्रकारों ने चर्चाओं में हस्तक्षेप किया । यह सम्मेलन विश्वास दिलाता है कि पत्रकारिता में सकारात्मक सोच रखने वाले साथियों की कमी नहीं   है । आवश्यकता सामूहिकता और पत्रकारिता के मूल्यों को बनाए रखने की है । स्वस्थ चर्चाएं भी भविष्य को बहुत आशावादी नहीं बना पाई तो फैज अहमद फैज की यह पंक्तियां याद आई, 
फिर अगली रुत की फिक्र करो, 
जब फिर एक बार उजड़ना है ।
इक फस्ल पकी तो भर पाया,
जब तक तो यही कुछ करना है । 

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