सोमवार, 19 सितंबर 2016

हमारा भूमण्डल
माईक्रो क्रेडिट में गहराता दलदल  
केरोलिन शुस्टेर

माइक्रोफाइनेंस का उद्देश्य गरीब व वंचितों को ऋण की उपलब्धता और उन्हें छोटे व्यापार के लिए मदद करना था । परंतु धीरे-धीरे इसने पांरपरिक वित्तीय बाजार का शोषण आधारित मॉडल अपना    लिया । आज गरीब लोग अपने ही बुने जाल में फंस गए हैं ।
माइक्रोफाइनेंस का महिमा मंडन कुछ इस तरह से किया जाता है कि इससे गरीब लोगों, खासकर महिलाओं, के हाथ में धन आता है जिससे कि छोटा या थोड़ा बड़ा व्यापार प्रारंभ किया जा सकता है । यह छोटे-छोटे ऋण प्राप्त करने में न्यूनतम कार्यवाही करना पड़ती है जिससे कि यह एक वैश्विक जुनून सा बन गया है। संयुक्त राष्ट्र संघ ने २००५ को ``माइक्रो क्रेडिट वर्ष`` घोषित किया था और इसके अगले ही वर्ष २००६ में बांग्लादेश के ग्रामीण बैंक को नोबल पुरस्कार प्रदान किया गया  था । 
        इसके बाद के दशक में माइक्रो क्रेडिट फाइनेंस माइक्रो क्रेडिट महिलाओं के सशक्तिकरण हेतु एक दूरगामी कदम माना गया जिससे कि आर्थिक विकास की पहल संभव है । इतना ही नहीं इसने मुख्यधारा की व्यावसायिक बैंकिंग में भी प्रवेश कर लिया। उद्यमिता को लेकर यह व्यापक सहमति बनती गई कि आप इसमें बस ऋण डाल दो और इसे प्राणवान बना लो । ऐसा अनुमान है कि सूक्ष्म वित्त संस्थानों (माइक्रो फाइनेंस इंस्टि्टयूशन, एम एफ आई) में विश्वभर में करीब ९ करोड़ लेनदार (ऋण लेने वाले) हैं और इस क्षेत्र ने वर्ष २०१२ में ८१.५ अरब अमेरिकी डॉलर के बराबर का ऋण प्रदान  किया ।
इस बीच एम एफ आई कई उभरते हुए क्षेत्रों जैसे मोबाइल बैंकिंग, बीमा एवं बचत, शिक्षा ऋण और डिजिटल वित्तीय सेवाओं में भी प्रवेश कर गया । जैसे-जैसे वित्तीय सेवाओं एवं उत्पादों का क्षेत्र विस्तारित होता गया वैसे वैसे इसका विकास मिशन भी फैलता चला गया । गरीब महिलाओं को ऋण उपलब्ध कराने की धारणा अंतत: दौरान मजबूत वित्तीय प्रणाली के एक ऐसे व्यापक विचार में बदल गई जो कि गरीब एवं कम आय वाले समुदायों की मदद कर सके । जिस तरह माइक्रो क्रेडिट (छोटे ऋण) आंदोलन बढ़ता गया, उसी दौरान ``वित्तीय समावेश`` की चुनौती भी वर्तमान परिस्थितियों में उभकर सामने आई । 
वर्तमान स्थिति यह है जिन लोगों के पास धन की कमी है उनके लिए इसका इस्तेमाल कर पाना अधिक खर्चीला बन गया है। आवश्यकता इस बात की है। वित्तीय सेवाओं पर मूलभूत विचार हो कि किस तरह इसे अधिक समावेशी बनाया जा सकता है। करोड़ों लोगों को जो कि अभी पारंपरिक बैंकिंग क्षेत्र से बाहर छूट गए हैं उन्हें इसमें शामिल करने हेतु वित्तीय सेवाओं के विस्तार में क्या बुराई है ? बैंकिग के अधिक समावेशी और लोकतांत्रिक प्रकार वास्तव में उन लोगों और समुदायों को वित्तीय सेवाओं के दायरे में ला सकते हैं जो कि अभी मुख्य बाजार में नहीं है। परंतु अकादमिक शोध एवं नीति विश्लेषक दोनों ही सावधान रहने हेतु चेता रहे हैं । 
अर्थशास्त्री चारलोट्टे वेगनेर ने माइक्रो फाइनेंस की वृद्धि का अध्ययन किया और पाया कि सन २००० के दशक के मध्य में पारंपरिक बैंकिंग प्रणाली मंे भी ऋण को लेकर इसी प्रकार की भरमार महसूस की गई थी । ठ ीक उसी प्रकार से उछाल और बुलबुले के फूटने जैसी अति संवदेनशीलता माइक्रो फाइनेंस से भी सामने आ सकती    है ।
सवाल उठता है ऋण के तेज विस्तार ने कहीं इस क्षेत्र को अस्थिर वैश्विक ऋण बाजार के सामने जोखिम भरा तो नहीं बना दिया है ? भारत से जुड़ी अत्यधिक ऋणग्रस्तता की समस्या को लेकर ऋण लेने वालों द्वारा की जारी रही आत्महत्याआंें की परेशान कर देने वाली कहानियां कमोवेश इसी ओर इशारा कर रही  हैं । एक उथल पुथल भरा बाजार और ऋण वापसी को लेकर बढ़ता दबाव अंतत: वित्तीय समावेश को लेकर वैश्विक पहल का अनचाहा परिणाम हो सकता है। माइक्रो फाइनेंस में छिपी हुई लागत को लेकर मेरा जमीनी नृतत्वशास्त्रीय कार्य दो वर्ष पूर्व लेटिन अमेरिका में ऋण की पारंपरिक संस्कृति के अध्ययन से प्रारंभ    हुआ । 
इसके पीछे यह भी उद्देश्य था कि इन विकास परियोजनाओं में शामिल व ऋण लिए हुए परिवारों, पास-पड़ौस व समुदायों का इसे लेकर कैसा अनुभव है। अंतत: मैंने पाया कि महिलाएं जिस आर्थिक विश्व को दिशा देने का प्रयास कर रही हैं, ऋण तो उन्हें ही बहा ले जाता है। वास्तविकता तो यह है कि पेराग्वे में वित्तीय सेवा उद्योग में जिनमें माइक्रोक्रेडिट लेनदार से लेकर ऋण वसूली अधिकारी तक सभी शामिल हैं, ने मुझे बताया कि जब ऋण की बात होती है तो लगता है कि जैसे वे ``साइकल चला रहे हैं ।`` इसका साधारण सा अर्थ यह है कि वह जिस तरह साइकिल चलाने के लिए एक पैडल मारते हैं और उसे गतिमान बनाए रखने के लिए दूसरा । ठीक  उसी तरह उन्हें एक ऋण चुकाने के लिए दूसरा ऋण लेना पड़ता है ।
``ऋण की इस साइकिल`` के पहिए चलाए रखने का अर्थ है ऋण प्राप्त करने के नए अवसरों की लगातार खोज करते रहना । गौरतलब है यह ऋण विकास संगठनों, उपभोक्ता ऋण, स्थानीय व्यापार, बचत एवं ऋण को-आपरेटिव वित्त कंपनियों से औपचारिक तौर पर और अनौपचारिक ऋण दोस्तों एवं परिवार से लिए गए थे। इनका लक्ष्य छोटे व्यापारिक संस्थान खोलने के साथ ही उपभोग और आय में सहजता का मिश्रण था । माइक्रो क्रेडिट जिसका उद्देश्य वित्तीय समावेश था और इसमें अत्यन्त आसान अर्हताएं जैसे ऋण का इतिहास और आय या बराबरी की राशि की गारंटी की आवश्यकता नहीं थी। परंतु अंतत: इससे भी ``साइकल चालन`` ऋण व्यवस्था को सहयोग मिला ।
अनचाहे परिणाम : शोध से सामने आया कि ``वित्त के लोकतांत्रिकरण`` हेतु माइक्रो उद्यमिता उसी राह पर चली जिस तरह से गिरवी का बाजार चलता है। इसे विशेषकर अमेरिका की ``सब प्राइम लेडिंग`` जोखिम भरे ऋण अधिक ब्याज पर देना का पर्याय भी कहा जा सकता है। सामाजिक न्याय को लेकर बैंकिंग क्षेत्र तक पहंुच को लेकर बेचैनी, वो भी खासकर महिलाओं के लिए, अच्छी बात है । 
परंतु यह उस पूर्ववर्ती परिस्थिति जिसमें घरों के स्वामित्व को लेकर भी सामाजिक न्याय संबंधी बेचैनी, जिसमें तमाम लोगों को गिरवी बाजार से बहिष्कृत कर दिया गया था, से अलग नहीं   थी । यदि व्यापक फलक पर देखें तो इसका यह अर्थ निकलता है कि वित्तीय क्षेत्र अपने लाभ के एक स्त्रोत के रूप मेंअत्यन्त असुरक्षित समुदायों जिसमें फिर महिलाएं हों या कम आय वाले गृहस्वामी, दोनों को ही अपना लक्ष्य बना रहा है ।
माइक्रो क्रेडिट (ऋण) की अदायगी की दर अत्यन्त ऊँची अर्थात् ९८ प्रतिशत तक है । यह इसलिए कि महिलाओं को हमेशा इस बात का डर लगा रहता है कि ऋण अदा न करने पर वह अपनी वर्तमान जीवन शैली से वंचित हो जाएगी और उन्हें भी ``ऋण साइकल चालन`` में फंसना पडेग़ा । मेरा जिन लेनदारों से साबका पड़ा उनमें से अधिकांश का कार्य बिना ऋण के नहीं चल सकता था । यह  ठीक वैसा ही है जैसा कि विकसित विश्व में तमाम लोग अब बिना क्रेडिट कार्ड के नहीं जी     सकते । 
गिरवी बाजार की तरह से विकसित इस वित्तीय समावेशी धारणा को लेकर कुछ क ोर प्रश्न किए जाने की आवश्यकता है, जिससे कि बढ़ते ऋण से उनका बचाव हो सके । हमने महिलाओं से कहा कि वे अपने ऋण के भुगतान हेतु एक दूसरे पर और अपने परिवारों पर निर्भरता  बढ़ाएं । यह नई ``सब प्राइम लेंडिग`` जिस तरह से उनके जीवन व जीविका को नई शक्ल दे रही है ऐसे में हमें पूछना होगा कि ये समुदाय कब तक अकेले ही जोखिम उठाते रहेंगे ? 

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