सोमवार, 19 सितंबर 2016

सामयिक
प्रवासी पक्षी खरमोर
मनीष वैद्य

मध्यप्रदेश में शुरूआती बारिश अच्छी होने और दूर-दूर तक घास के मैदान बन जाने से इस बार लुप्त्प्राय प्रवासी पक्षी खरमोर (लेसर फ्लोरिकन) बड़ी संख्या में यहां पहुंच रहे हैं । बीते कुछ सालों से अवर्षा और सूखे की वजह से यहां हर साल पहुंचने वाले प्रवासी खरमोर पक्षियों की तादाद तेजी से घटने लगी थी । 
मध्यप्रदेश के ग्वालियर, श्योपुर, रतलाम, झाबुआ, व धार जिले की आबोहवा और यहां के बड़े घास के मैदान हजारों मील दूर रहने वाले इन पछियों को इतने पंसद है कि वे यहां हर साल पहुंचते है । मगर इन्हें इस मौसम के अलावा यहां कभी नहीं देखा गया है । 
खरमोर का आकार साधारण मुर्गी की तरह होता है पर देखने में यह उससे सुन्दर लगता है । इसे चीनीमोर, खर तीतर या केरमोर भी कहते हैं । इसके नर और मादा काफी एक जैसे दिखते हैं । इसका सिर, गर्दन और नीचे का भाग काला   और ऊपर का हिस्सा हल्का सफेद  या चकत्तेदार होता है । इसके पंख भी सुन्दर होते हैं । प्रणयकाल में   नर चमकीले काले रंग का हो जाता है । 
खरमोर घास, कोमल पत्ते, पौधों की जड़ें, टिड्डे और अन्य कीड़े-मकोड़े खाता है । सुन्दर सुराहीदार गर्दन और लम्बी पतली टांगों वाले खरमोर की ऊंची कूद देखने लायक होती है । मादा को आकर्षित करने के लिए नर एक बार में ४०० से ८०० बार तक कूदता    है । 
जुलाई के आखरी पखवाड़े से मध्य अक्टूबर तक सोनचिरैया परिवार के ये पक्षी मध्यप्रदेश के जंगलों में मेहमान बनकर आते हैं और फिर वापिस उड़ जाते हैं अपने देस को । ये खास तौर से यहां प्रणय के लिए ही आते है । 
इन प्रवासी पक्षियों को देखने के लिए यहां बड़ी तादाद में लोग जुटते हैं । ये बहुत शर्मीले होते हैं और जरा सी आहत पाते ही उड़ जाते हैं । यहां पहुंचने के करीब महीने भर बाद मादा खरमोर अंडे देती है और नर-मादा दोनों उन्हें सहेजते हैं । सात दिन बाद इन अण्डों से बच्च्े निकल आते हैं । बर्ड लाइफ इंटरनेशनल ने १९९४ में प्राप्त् आंकड़ों के आधार पर इनकी वैश्विक आबादी २२०० बताई थी जबकि अकेले भारत में लगभग ४,२५० बताई जाती है । अब सरकार के साथ आसपास रहने वाले किसान भी खरमोर को बचाने के लिए आगे आ रहे है । 
ये दुर्लभ पक्षी लुप्त्प्राय प्रजाति के हैं, इसलिए सरकार भी हर साल बड़ें पैमाने पर तैयारियां करती हैं, ताकि इनकी तादाद बढ़ सके । बीते कुछ सालों के आंकड़े बताते हैं कि इनकी संख्या लगातार घट रही थी । लेकिन इस बार शुरूआती मानसून में ही अच्छी बारिश होने से घास       के मैदान हरे-भरे हो गए तो   सैलानी खरमोर बड़ी तादाद में पहुंच रहे हैं । 
ये पक्षी मानसून के दौरान मध्यप्रदेश के कुछ खास जंगलों में कहां से आते हैं और वापिस कहां चले जाते हैं, यह फिलहाल तक पक्षी विज्ञानियों के लिए शोध और उत्सुकता का विषय रहा है । अब इसका पता लगाने के लिए रेडियो चिप का सहारा लिया जा रहा है । देहरादून स्थित भारतीय वन्यजीव संस्थान इनके प्राकृतिक रहवास को लेकर शोध कर रहा है । बीते साल भी संस्थान के वन्यजीव वैज्ञानिक और पक्षी विज्ञानी यहां आए थे । इस बार फिर अक्टूबर में दल प्रदेश के चिन्हित स्थानोंपर खरमोर पर नजर रखेगा । बीते साल ३ पक्षियों को रंगीन छल्ले पहनाए गए थे । अब इन छल्लेदार पक्षियों को ढूंढा जाएगा । प्रदेश में आने वाले खरमोरों को रेडियो चिप लगाई जा रही है । इसकी मदद से इनके प्रवास की स्थिति, प्रवास मार्ग, भौगोलिक स्थिति और अन्य जानकारियां हासिल की जा सकेगी । तब यह पता चल पाएगा कि ये मानसून के अलावा बाकी समय कहां रहते हैं । 
दरअसल खरमोर सामान्यतया २० से.मी. ऊंची घास के सघन मैदानों में अपना प्रजनन काल बिताने यहां आते हैं । इनके रहवास और घास मैदानों का भी अब विशेष तौर पर अध्ययन किया जा रहा है । इस अध्ययन में बैंगलुरू का इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ सांइस भी शामिल है । इसके आसपास के १०० वर्ग कि.मी. क्षेत्र का सेटेलाइट मानचित्र भी तैयार किया गया है । 
इंस्टीट्यूट में पारिस्थितिकी शोध छात्र चैतन्य कृष्णा बताते हैं कि खरमोर के अलावा ग्रेट इंडियन बस्टर्ड, बंगाल ब्लैकबर्ड आदि कई पक्षी घास के मेदानों में ही रहते हैं । उक्त अध्ययन से यह आकलन भी हो सकेगा कि वास्तव में घास के लिए अब धरती पर कितनी जगह बची   है । अब यह जरूरी होता जा रहा है कि जंगल की तरह हम घास के मैदानों में संरक्षण की भी सुध लें । कृष्णा ने महाराष्ट्र का उदाहरण देते हुए बताया कि ६ हेक्टर घास मैदानों के अध्ययन में पता चला है कि इस पर १६० प्रकार की जीव और वनस्पतियां निर्भर है । 
करीब तीन दशक पहले प्रसिद्ध पक्षी विज्ञानी डॉ. सालिम अली ने जब रतलाम से करीब २० कि.मी. दूर सैलाना के पास पहली बार खरमेार को देखा तो वे चहक उठे । वे कहा करते थे कि खरमोर हमारे लिए प्रकृति का एक बेशकीमती तोहफा   है । बाद में उन्हीं की पहल पर सरकार ने यहां खरमोर के प्रवास काल को सुखद बनाने के लिए विशेष अभयारण्य बनाया । 
मध्यप्रदेश सरकार ने सैलाना में १४ जून १९८३ को खरमोर अभयारण्य के लिए साढ़े आठ सौ हेक्टर से ज्यादा वन भूमि और करीब साढ़े चार सौ हेक्टर कृषि भूमि अधिग्रहित की थी । यह पूरा इलाका खेतोंऔर ऊंची-नीची घास की बीडों से आच्छादित है । यहां का वन अमला मानसून के साथ ही खरमोर के आने का इंतजार करने लगता    है । खरमोर या उनके अंडे देखे जाने की सूचना देने वाले किसानों को नगद धन राशि का इनाम दिया जाता है । खरमोर को बाधा न पहुंचे, इसके लिए यहां के किसान नवम्बर तक घास नहीं काटते है ।  
अकेले सैलाना खरमोर अभयारण्य के आंकड़ों के मुताबिक वर्ष २००५ से २०१२ के बीच प्रतिवर्ष २०-३५ खरमोर ही सैलाना पहुंचे   थे । बीते दो सालों में तो इनकी तादाद घटकर दर्जन के आसपास ही सिमट गई थी । इससे वन्यजीव प्रेमियों की चिंताएं बढ़ गई है । वन्यजीव प्रेमी अजय गडीकर बताते है कि इस बार भी सैलाना में खरमोर  आ चुके हैं । धार झाबुआ जिलों में और ग्वालियर के घाटीगांव और श्योपुर के कूनो अभयारण्य में भी ये देख जाते है । 
सैलाना के बाद धार जिले के सरदारपुर में करीब ९ वर्ग कि.मी. क्षेत्र में तथा झाबुआ जिले के पेटलावद में भी विशेष अभयारण्य बनाए गए हैं । यहां १४ गांवों के ३० हजार किसान अपनी १३ हजार हेक्टर जमीन पर खेती तो कर सकते हैं लेकिन इसे न बेच सकते हैं और न कोई निर्माण कर सकते हैं । सरदारपुर में अब ढाई सौ वर्ग मीटर क्षेत्र को इको सेंसिटिव जोन में बदला जा रहा है । यहां बारिश के पानी को रोका जाएगा और जल संरक्षण की कई तकनीके इस्तेमाल की जाएगी । जैविक खेती और सौर ऊर्जा को बढ़ावा दिया जाएगा । लकड़ी काटना पूरी तरह से प्रतिबंधित होगा तथा किसी तरह का निर्माण नहीं हो सकेगा । पेटलावद मेंभी करीब   ९० लाख रूपए खर्च कर घास के बड़े मैदान बनाए गए हैं । यहां २००९ में आखिरी बार खरमोर देखे गए    थे । 
खरमोर पर विशेष अध्ययन करने वाले प्राणी शास्त्री डॉ. तेजप्रकाश व्यास बताते हैं कि खरमोर के कम आने की वजह अभयारण्य क्षेत्रों के आसपास खेती मेंभारी मात्रा में रासायनिक खाद और कीटनाशकों का उपयोग है । इनके सतत इस्तेमाल से खरमोर के खाद्य कीटों पर भी बुरा असर हो रहा है । खेतों में बढ़ती आवाजाही भी इनके एकान्त में खलल पैदा करती है । सैलाना रियासत के विक्रमसिंह बताते हैंकि पहले यहां रियासत के दौरान शिकारवाड़ी हुआ करती थी । तब खरमोर बड़े-बड़े झुंडों में आया करते थे । तब यह जगह बहुत शांत थी पर अब लोगों ने पट्टे की जमीनों पर खेत बना लिए हैं । यहां खेती, अतिक्रमण, खनन जैसी गतिविधियों पर रोक लगाना जरूरी है । 

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