शुक्रवार, 17 दिसंबर 2010

१३ जनजीवन

खेती को निगलता खनन
कुमार कृष्णन

आधुनिक औद्योगिक उत्पादन अत्यधिक ऊर्जा उपभोग आधारित है । ऊर्जा उत्पादन भी अत्यधिक प्राकृतिक संसाधनों की मांग करता है । आज भारत में कृषि और कृषक हाशिये पर चले गए हैंऔर उनके स्थान पर उद्योगों को अनावश्यक प्राथमिकता दी जा रही है । आवश्यकता इस बात की है कि दोनों के मध्य संतुलन बैठाया जाए ।
पर्यावरण में असंतुलन से आज वर्तमान उत्पादन पद्धति से उपजी चुनौती के रूप में पर्यावरण असंतुलन उभरा है और यह हमारी जीवन-पद्धति के हर हिस्से को प्रभावित कर रहा है ।
पर्यावरण असंतुलन का प्रभाव सभी पर पड़ता है । देश के विभिन्न हिस्सों और खासकर झारखंड की खेती बारिश पर निर्भर
है । पर्यावरण के दुष्प्रभावों के कारण मौसम चक्र पूरी तरह से बदल चुका है या बदलने के कगार पर है । यह बारिश शुरू होने का समय होता है, तब बेतहाशा गर्मी पड़ती है और आकाश में बादल का नामों निशान नहीं रहता है ।
एक रिपोर्ट के अनुसार हिमालय की बर्फ के पिघलने से भारत समेत एशियाई देशों मे बाढ़ अधिक आएगी । साथ ही पूर्वी और पूर्वोत्तर के इलाके में पानी के संकट स्पष्ट तौर से सामने आएंगे । इसके अलावा एशिया के अधिकांश देशो में कृषि की उत्पादकता में ३० फीसदी की गिरावट आएगी । समुद्रों के जलस्तर में बढ़ोतरी होगी, जिससे समुद्रतटीय इलाकांे में खारे जल की मात्रा बढ़ेगी और वह वहाँ भी फसलों को चौपट करेगा । शहर हो या औद्योगिक नगर सभी इसकी गिरफ्त में हैं ।
कई शहरांे और गांवों में फैल रही सिलिकोसिस और अन्य सांस की बीमारियों से इसके खतरों को समझा जा सकता है । इन बीमारियोंें का कोई इलाज नहीं है । यह इसलिए होता है कि हवा में मौजूद सिलिका के कण हमारे फेफड़ों में परत जमा जाते हैं । ये सिलिका के कण पहले हवा में मौजूद नहीं थे इन्हें औद्योगिक विकास की भूख ने पैदा किया है । इसके अलावा औद्योगिक कचरा जलीय पर्यावरण को दूषित कर रहा है तथा इसी पानी को देश के करोड़ों लोगों को पिलाकर जबरन मौत के मुंह में धकेला जा रहा है ।
पर्यावरण असंतुलन और उससे उपजे पारिस्थितिकीय संकट के कारण एक से बढ़कर एक प्राकृतिक आपदाएं आ रही हैं। सरसरी तौर पर देखने में तो वे प्राकृतिक आपदाएं महसूस होती हैं, परंतु उनका मूल कारण है पर्यावरण असंतुलन । इतना ही नहीं जैव-विविधता जो सजीव प्राणियों के निरंतर विकास की प्रक्रिया है, उसे भी पर्यावरण असंतुलन द्वारा बाधित किया जा रहा है । पर्यावरण का असंतुलन सिर्फ किसानों के लिए नहीं, पूरी मानव सभ्यता के लिए एक चुनौती है ।
झारखंड राज्य की अर्थव्यवस्था कृषि आधारित है । आंकड़ों के मुताबिक राज्य में ३८ लाख हेक्टेयर कृषि योग्य भूमि है और महज २२ लाख हेक्टेयर में ही खेती होती है । पिछले वित्तिय वर्ष में कृषि क्षेत्र का वृद्धि दर चार फीसदी रही है । इसके बावजूद सरकार उन योजनाआें पर जोर दे रही है, जो पर्यावरण को असंतुलित करने के प्रति जवाबदेह रही
है ।
क्योटो प्रोटोकॉल के मुताबिक पर्यावरण में असंतुलन और उसमें कार्बन की मात्रा को बढ़ने में लौह उद्योग की हिस्सेदारी पचास फीसदी रही है । बावजूद इसके पश्चिमी सिंहभूम में लौह अयस्क के भंडार क्षेत्र के लिए सरकार ने धड़ाधड़ एम.ओ.यू.किए । इसी तरह उत्तरी कर्णपुरा क्षेत्र, जिसने कृषि क्षेत्र के रूप में अपनी पहचान बनाए रखी है, में भी पर्यावरण को नष्ट करने वाली कोयला उत्सर्जन परियोजना के लिए २२ एम.ओ.यू. हो चुके हैं। झारखंड की मुख्य नदी दामोदर दुनिया की चौथी प्रदूषित नदी के रूप में घोषित हो चुकी है । यह नदी पहले किसानों के लिए वरदान थी, लेनिक यह अब औद्योगिक कचरा को बहाने वाले नाले के रूप में तब्दील हो चुकी है ।
कोयला निकालने की भूख शांत नहीं हुई है । यही हाल स्वर्ण रेखा और कोयलकारांे का हो चुका है । जलीय पर्यावरण असंतुलन के कारण उसके किनारे पर बसने वाले लाखों लोगांे के जीवन और आजीविका पर चोट पहुची है । अलग झारखण्ड राज्य के संघर्ष में पर्यावरण एक महत्त्वपूर्ण मुद्दा था । आज पुरे झारखंड में उद्योगों के कारण न केवल टिकाऊ संसाधनों और आम आदमी के बीच फासला बढ़ा है वरन उसका पहले से भी ज्यादा विस्थापन हुआ है ।
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