शुक्रवार, 17 दिसंबर 2010

३ खतरे में है

पशु-पक्षियों का जीवन
नरेन्द्र देवांगन

कहा जाता है कि हम जीवों की महालिपुिप्त् के दौर से गुजर रहें हैं । वैज्ञानिकों का अनुमान है हर साल पशु-पक्षियों, कीड़े-मकाड़ों और पेड़-पौधों की कम से कम सौ प्रजातियां हमेशा के लिए हमसे बिछुड़ जाया करेंगी । साथ ही वे चेतावनी देते हैं कि जिन कारणों से तेजी से जीवों की विलुिप्त् हो रही है, वही कारण धीरे-धीरे पृथ्वी को मानव जाति के आवास लायक नहीं रहने देंगी ।
वैज्ञानिकों या मानना है कि अगर हम आर्थिक विकास का अंधाधुंध प्रकृति का विनाश तथा पर्यावरण की रक्षा के बीच एक सही फैसला लेने में देर कर देते हैं, तो मानव जाति की इस नियति को शायद टाला नहीं जा सकेगा।
संसार भर के राजनीतिक और आर्थिक क्षेत्र की कई महारथी वैज्ञानिकों की इस चेतावनी को खास महत्व नहीं देते हैं कुछ का कहना है कि विश्व के भविष्य की यह भयावह तस्वीर सिर्फ आंकड़ों और सिद्धांतों की उपज है, वास्तव में ऐसा कुछ नहीं होने जा रहा है । कई लोग यह तर्क देते हैं कि विलुिप्त् से हमे घबराना नहीं चाहिए । जीवों की विलुिप्त् तो प्रकृति के विकास का नियम है । मानव के धरती पर आने से पहले भी ढेर सारे जीव खत्म हुए हैं । डायनासौर भी आखिर एक झटके मेंसंसार भर से मिट गए थे । फिर भी धरती बनी रही और जीवन फलता-फूलता रहा ।
यही सही है कि धरती पर जीवन लगभग चार अरब सालोंके इतिहास में कई बार जीवों पर अस्तित्व के गंभीर संकट के दौरान डायनासौर खत्म हुए । पर उन प्राकृतिक विलुप्त्यिों और आज के पर्यावरण के संकट के बीच कई बुनियादी भिन्नताएं हैं । प्रकृति में जीवों का विकास तभी होता है जब किसी प्राकृतिक उथल-पुथल या मौसम में भारी बदलाव के दौरान कुछ अयोग्य प्रजातियां नई परिस्थिति में खत्म हो जाती हैं । तब अन्य प्रजातियां उनके द्वारा खाली किए गए स्थान को भरती हैं । उल्का पिंडों की चोट का मौसम मंे आए बदलाव के कारण डायनासौर जब खत्म हुए तो उनसे रिक्त हुए हर स्थान को स्तनपायी वर्ग के विभिन्न प्राणियों ने भर दिया । कहा जाता है कि सभी डायनासौर एकाएक खत्म हुए थे, पर आज की विलुप्त्यिों के मुकाबले में देखा जाए तो उनका खात्मा एक लंबे समय के दौरान हुआ । जीवाश्मों के अध्ययन से पता चलता है कि डायनासौर की विलुिप्त् की औसत दर एक हजार वर्ष में एक प्रजाति से अधिक नहीं रही थी ।
प्रकृति में नई प्रजातियों का विकास काफी लंबे समय में होता है । पिछले एक हजार वर्षोंा के दौरान जीवन की एक हजार से अधिक प्रजातियां विलुप्त् हुई हैं । इस दौर की विलुप्त्यिों में खास बात यह है कि इन सभी जीवों का खात्मा सिर्फ एक प्राणी मानव की तथाकथित सफलता के एवज में हुआ । हालांकि पिछले तीन सौ सालों के दौरान औजारांे और टेक्नॉलॉजी के अभूतपूर्व विकास के कारण इंसान ने धरती के लगभग हर हिस्से को अपनी आर्थिक गतिविधियों की चपेट में ले लिया है और इस दौरान पर्यावरण के विनाश और जीवों की विलुिप्त् की दर में तेजी से वृद्धि हुई है । पर हाल के अध्ययन बताते हैं कि प्रागैतिहासिक काल से ही जहां-तहां मानव के कदम पड़े वहां प्रकृति और प्रजातियों का विनाश शुरू हो गया ।
लगभग तीस-चालीस हजार साल पहले मानव तकनीकी रूप से इतना विकसित हो चुका था कि वह अफ्रिका और एशिया के कुछ चुने हुए क्षेत्रोंसे बाहर निकलकर दूर नए इलाकों में बसने लगा । दक्षिणी फ्रांस और स्पेन मे मिले क्रो-मैग्नन मानव द्वारा बनाए गए गुफा चित्रों से पता चलता है कि २५ हजार वर्ष पहले यूरोप में इंसान और विशाल शेर, प्रागैतिहासिक बायसन, चीता भालू, शुतुरमुर्ग, जेबरा, कई तरह के जंगली घोड़े, रोंएदार गैंडा और महादंत हाथी (मैमथ) सभी एक साथ रहते थे । आधुनिक मानव ने यूरोप में उन्हें कभी नहीं देखा । आज से लगभग दस-पंद्रह हजार वर्ष पहले हिमयुग के खात्मे के साथ-साथ उनका भी खात्मा हो गया । अब तक मौसम का बदलाव ही उनकी विलुिप्त् का कारण समझा जाता था । पर पच्चीस लाख वर्ष के हिमयुग के दौरान धरती कम से कम बीस बार गर्म हुई । तब ये जीव खत्म क्यों नहीं हुए ?
नवीन पुरातात्विक खोंजे मौसम के बदलाव के साथ-साथ मानव की आर्थिक गतिविधियों को भी उन पशुआें की विलुिप्त् के लिए जिम्मेदार ठहराती हैं । आदमी के पहुंचने के पहले जब भी मौसम गर्म हुआ, ये जीव उत्तर में ठंडे प्रदेशों की ओर चले गए । पर जब लोगों ने टुंड्रा प्रदेशों तक अपना डेरा जमा लिया और वहां की प्रकृति को बदलना शुरू कर दिया तब इन पशुआें को दक्षिण के सीमित इलाके मंे ही रहकर मौसम की मार सहनी पड़ी । औजारों का विकास और जनसंख्या की वृद्धि के कारण अब अधिक पशु शिकार में भी मारे जाने लगे और वे धीरे-धीरे खत्म हो गए ।
इसी तरह उत्तरी दक्षिणी अमेरिका में भी आदमी के पहुंचने के बाद ही जीवों की विलुिप्त् का एक अभूतपूर्व सिलसिला शुरू हो गया । हिमयुग के दौरान समुद्र का काफी सारा पानी बर्फ के रूप में जमे रहने के कारण समुद्र का तल आज से काफी नीचा था । उस समय अलास्का (उत्तरी अमेरिका) और साइबेरिया के बीच समुद्र नहीं था । दोनों क्षेत्र एक जमीनी पुल द्वारा जुड़े हुए थे । सुदूर पूर्व के लोग सबसे पहले इसी पुल से होकर अमेरिका पहुंचे, जो बाद में इंडियन कहलाये । पशु-पक्षियों के मामलों में उस समय के अमेरिका की तुलना मध्य अफ्रीका के जंगल और सवाना से की जा सकती है । चीता, शेर, बड़े-बड़े रीछ, ज़ेबरा, याक, तापिर, लंबे दातोंवाला बाघ, तरह-तरह के छोटे-बड़े हाथी, ऊंट और जंगली घोड़ा, ये सभी पिछले दस-पंद्रह हजार साल पहले अमेरिकी महादेशों से खत्म हो गए । इस दौरान उत्तरी अमेरिका में बड़े पशुआें के कुल ३३ वंश और दक्षिणी अमेरिका में ४६ वंश विलुप्त् हो गए ।
संसार भर में कहीं भी इतने कम समय में इतनी सारी प्रजातियां एक साथ खत्म नहीं हुई । हालांकि इन विलुप्त्यिों में इन्सान की भूमिका कितनी थी और मौसम के बदलाव की कितनी, यह स्पष्ट रूप से कहना संभव
नहीं है । पर जीवाश्मों के अध्ययन और हाल में खोजे गए पुरावशेषों से यह पता चलता है कि अमेरिका महादेशों में जैसे-जैसे इन्सान उत्तर से दक्षिण की ओर बढ़ता गया वैसे-वैसे उन इलाकों में विलुिप्त् की दर तेज होती गई ।
ये तो रही महाद्वीपों की बात । समुद्र के बीच में अलग-अलग में मानव द्वारा पशु-पक्षियों की विलुिप्त् की कहानी और भी रोंगटे खड़े कर देने वाली है । प्रशांत महासागर तथा समुद्रों के बीच ऐसे अनेक छोटे-बड़े द्वीप हैं जिनका निर्माणज्वालामुखियों के फटने से हुआ और जो कभी भी किसी महाद्वीप का हिस्सा नहीं थे । इन द्वीपों में प्रकृतिका ताना-बाना बहुत ही नाजुक है जिसमें थोड़ा भी उलटफेर विनाश का कारण बन सकता है । साथ ही हरेक द्वीप की इकॉलॉजी अपने आप में अनूठी है । इन द्वीपों में प्रकृति पर जीव तैरकर, उड़कर या समुद्र में तैरते मलबे के साथ बहकर वहां पहुंचे । इसलिए इन द्वीपों पर बड़े चौपाए लगभग नहीं मिलते और पक्षी तथा सरीसृप अधिक संख्या में पाए जाते हैं । द्वीपों पर पहुंचने के बाद उन जीवों में भिन्नताएं विकसित हुई और वहां के विशिष्ट वातावरण पर वे निर्भर होते चले गए ।
स्तनधारियों के अभाव में सरीसृपों ने उनकी खाली जगह को भरते हुए विशाल आकार धारण कर लिया । जैसे गैलापेगोस का विशाल कछुआ और इंडोनेशिया के कोमोडो द्वीप का ड्रेगन । इसी तरह मॉरिशस के डोडो के समान कई पक्षियों ने उड़ना छोड़ दिया । इन द्वीपों पर मनुष्य का सबसे ज्यादा कुप्रभाव पक्षियों पर ही पड़ा । हालांकि पक्षियों की हडि्डयां नरम होने के कारण उनके अवशेष बहुत कम बचे रह जाते हैं, फिर भी उपलब्ध प्रमाणों के आधार पर वैज्ञानिक अनुमान लगाते हैं कि पिछले एक हज़ार वर्षोंा के दौरान प्रशांत महासागर के द्वीपोंमें पक्षियों की कम से कम दो हज़ार प्रजातियां मनुष्य द्वारा खत्म कर दी गई । आज संसार भर में पक्षियों की करीब दस हजार प्रजातियां बची हुई हैं, जो वनों के विकास और प्राकृतिक संतुलन को बनाए रखने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं । जिस गति से उनका और उनके पर्यावरण का विनाश होता रहा है उसे देखते हुए यह कहना मुश्किल है कि अगली सदी के मध्य तक दुनिया भर में कितने पक्षी बच पाएंगे ।
इस आशंका को गंभीरता से न लेने वालों को यह नहीं भूलना चाहिए कि उन्नीसवीं सदी की शुरूआत में उत्तरी अमेरिका में अरबों की संख्या में पाए जाने वाले पक्षी सफरी कपोत (पैसेंजर पीजन) का इंसान द्वारा पूरी तरह से सफाया कर दिया था । इसी प्रकार संसार भर में सबसे अधिक संख्या में पाए जाने वाले चौपाए अमेरिकी बायसन को कुछ ही वर्षोंा के अंदर खत्म कर दिया गया ।
समुद्री द्वीपोंमें पशु-पक्षियों की विलुिप्त् में शिकार और जंगल में आग लगाकर खेती के अलावा मनुष्य द्वारा मुख्य भूमि से वहां लाए कुत्ते, बिल्ली, चूहा, सूअर, खरगोश और नेवला जैसे पशुआें ने भी अहम भूमिका निभाई । आदिम पॉलिनेशियाई लोगों द्वारा आस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड, हवाई और अन्य द्वीपों पर लाए गए इन पशुआें के स्थानीय पर्यावरण पर पड़े भयावह परिणामों को जानने के बाद भी आधुनिक काल तक यह सिलसिला जारी रहा । ऑस्ट्रेलिया में बाहर से लाए गए डिंगो कुत्ते ने वहां के कई अद्भुत मार्सुपियल्स को खत्म कर दिया । क्यूबा और हाइथी द्वीपों में मनुष्य के साथ सबसे पहले पहुंचा चुहा । इन चूहों ने पक्षियों के अंडों और चूजों पर दांत साफ किए । जब चूहों का प्रकोप बहुत बढ़ गया तो उनका दमन के लिए नेवलों को लाया गया । पर नेवले उनकी तरफ ध्यान न देकर कई स्थानीय पशु-पक्षियों को चट करने में जुट
गए ।
निश्चित तौर पर मनुष्य का अपने जन्म काल से प्रकृति के साथ अंतर्विरोध रहा है । दरअसल मानव दूसरे जीवों से इसी मामले में अलग है कि वह अन्य पशुआें की तरफ सिर्फ प्रकृति के अनुरूप अपने को नहीं ढालता है । खुद की जरूरत के मुताबिक वह प्रकृति को बदलता है, उसमेंतोड़-मरोड़ करता है ।
हाल के दिनों में विकास के साथ- साथ यह प्रवृत्ति अपनी चरम पर पहुंच चुकी
है । पर मुसीबत यह है कि जिस प्रकृति से लड़कर और उसे वश में करके हम पशु से इन्सान बने और आज सर्वशक्तिमान होने का दावा कर रहे हैं, उसी प्रकृति का हम एक अभिन्न हिस्सा भी हैं। उसे बरबाद कर मानव खुद जिंदा नहीं रह सकता है । एक और मामले में हम पशुआें से भिन्न हैं कि अपनी प्रवृत्ति के खिलाफ भी मानव सचेतन प्रयास कर सकता है । शायद प्रकृति के साथ हमारे अन्याय का घड़ा अभी पूरी तरह से भरा नहीं है । अगर पक्का इरादा हो तो उसे फूटने से अभी भी हम बचा सकते हैं।
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