म.प्र. : जंगल बचाने का नया खेल
अशोक मालवीय
मध्यप्रदेश सरकार जंगल बचाने के नाम पर प्रेशर कुकर और कंबल बॉटकर जंगल कटने के वास्तविक कारणों पर पर्दा डालना चाहती है । अनादिकाल से वनवासी इन गैर इमारती लघु वनोपज पर निर्भर रहे हैं और इससे भी जंगलों को नुकसान नहीं पहुंचा है ।
जंगलों का दिनों-दिन बढ़ता दोहन चिन्ता का एक बड़ा मसला रहा है । जंगल के नष्ट होने से सही कारणों की तह में जाए बगैर किए गए उपाय का ही फल है कि आज तक जंगल का दोहन नहीं रूक पाया है । वैसे सही मायने में इसे रोकने की कोशिश ही नहीं की गई है ।
मध्यप्रदेश के वन मंत्री भी जंगल के घटते रकबे से परेशान हैं । इतनी बड़ी चिन्ता के साथ वे चुक कैसे बैठते, तो अब वे एक नायाब टोटके के सहारे जंगलों को बचाने चल पड़े हैं । मंत्रीजी ने जिस जुगत को अस्त्र बनाया है तो यह है कि जंगल में रहने वाले प्रत्येक परिवार को प्रेशर कुकर व कम्बल दिये जायेंगे । उनके अनुसार जंगलों में रहने वाले लोग खाना पकाने के लिये लकड़ी का इस्तेमाल करते हैं । इस जलाऊ लकड़ी से जंगल में बर्बादी हो रही है । हंडी (तपेली) की अपेक्षा प्रेशर कुकर में जल्दी खाना पकेगा। खाना पकाने के समय की बचत से ऊर्जा के संसाधनों की बचत
होगी । मंत्रीजी का सोचना है, कि सर्दी के दिनों में आदिवासियों व ग्रामीणों के पास गर्म कपड़े नहीं होते हैं, इस कारण वनों से जलाऊ लकड़ी लाकर रात में जलाते हैं । वे जलाऊ लकड़ी के लिये पेड़ काटते हैं, जिससे जंगल खत्म हो
रहे । क्या नए खोजे गये इस फार्मूले से प्रदेश के जंगल बच जायेंगे ?
होशंगाबाद जिले केसला ब्लाक के साधुपुरा गांव में आयोजित एक कार्यक्रम में वन समितियों से जुड़े २००० परिवारों को प्रेशर कुकर बांटे जा चुके हैं। प्रदेश में १५ हजार २८८ संयुक्त वन ग्राम समितियां हैं, जिससे ४६ लाख परिवार जुड़े हैं । इन सभी परिवारों को प्रेशर कुकर व कम्बल बांटने और जंगल बचाने का अभियान छिड़ गया है । जरा सोचें की इस तरह के हास्यप्रद टोटके से क्या जंगल बचेंगे ? अगर वास्तव में जंगल को बचाना है तो जंगल के नष्ट होने वाले तमाम कारणों को गंभीरता से जानना-समझना होगा ।
यह फार्मूला प्रत्यक्ष, अप्रत्यक्ष रूप से आदिवासियों के सिर पर इल्जाम मढ़ने के अलावा और कुछ भी नहीं है । जबकि इतिहास गवाह है कि आदिकाल से जंगल में निवास करने वाले लोगोंे ने ही वन का संरक्षण व संवर्धन किया है । उन्होंने जंगल को सहेजते-संभालते हुए अपनी जिन्दगी को जंगल का एक हिस्सा ही माना है । पर्यावरण कानून व वन अधिकार कानून भी इस बात को स्पष्ट रूप से कहते हैं, कि वनों से सिर गट्ठा एवं जलाऊ लकड़ी का उपयोग जंगल में निवास करने वाले लोग कर सकते हैं । इन सूखी लकड़ियों व झड़ियों की कटाई से जंगल को कोई नुकसान नहीं होगा ।
प्रदेश के आदिवासी अंचलों में लगभग १५-२० वर्ष पहले भी सौर ऊर्जा को प्रोत्साहन देने के लिये कुछ इस तरह की ही तरकीब अजमाई गई थी । इन आदिवासियों को सोलर कुकर थमाने व सौर ऊर्जा से जंगली क्षेत्र को रोशन (सौर बिजली) करने का एक कार्यक्रम चलाया गया था । इस कार्यक्रम की शुरूआत भी होशंगाबाद जिले के केसला आदिवासी ब्लाक से ही की गई थी । सोलर कुकर थमाने के कार्यक्रम का हश्र यह हुआ कि महज दो-तीन साल बाद ही ये सोलर कुकर कबाडियों की दुकान पर पहुंच गए या डब्बों के रूप में लोग इसका इस्तेमाल करने लगे । इस कार्यक्रम का उद्देश्य पूरा हुआ भी की नहीं यह विश्लेषण करने की कभी कोशिश क्यों नहीं की गई ? होशंगाबाद जिले का केसला ब्लाक ही वही क्षेत्र है, यहां गोबर गैस की भी शुरूआत हुई थी । बाद में जमीनी स्तर जाकर किसी ने देखा कि कितने गोबर गैस संयंत्र बचे हैं ? अथवा नहीं । इस तरह के झमेले से वन में निवास करने वाले निवासियों को फायदा हो ना हो और जंगल बचें या ना बचें परंतु लाखों की तादात में प्रेशर कुकर व कम्बल का धंध जरूर हो जायेगा ।
वन मंत्री ने गृह जिले होशंगाबाद से यह प्रेशर कुकर सौंपने का कार्यक्रम चालू किया है । यहीं सतपुड़ा टाईगर रिजर्व के डोबझिरना और घोघरीखेड़ा के आदिवासी को अतिक्रमणकारी बताकर भगा दिया गया था । इनकी जगह धाई गांव को लाकर बसाया गया था । इसके लिये पांच सौ एकड़ जमीन समतल की गई थी । जिसके लिये ३० से ४० हजार पेड़ काटे गये थे । दूसरी ओर जब कोई आदिवासी पेड़ की एक डाल भी काट लेता है, तो वन विभाग के कर्मचारी पकड़कर उसकी पिटाई कर केस लाद देते हैंऔर रिश्वत लेते
हैं । या उन्हें बन्धुआ बना कर रखते हैं । जैसे कि उसने कोई बहुत बड़ा जुर्म कर दिया हो । जबकि सिर्फ एक गांव (घांई) को बसाने/उजाड़ने के लिये इतनी बड़ी तादात में जंगल काट डाले गए ।
होशंगाबाद जिला तो कई परियोजनाआें के लिये आदिवासियों को उजाड़ने व जंगलों को बर्बाद करने के लिये देश में अच्छा-खासा एक उदाहरण है । यहां पर तवा बांध, गोला बारूद की टेस्टिंग एरिया (पू्रफ रेंज) नेशनल पार्क, अभ्यारण, रेल मार्ग, सड़क, छोटे-मोटे कल - कारखाने आदि के लिये जंगल का सफाया कर दिया गया है । नर्मदा घाटी पर बने नर्मदा सागर बांध को बनाने के लिये ४५ हजार हेक्टेयर क्षेत्र के जंगलों का बलिदान दे दिया गया । अत: सच्च्े झूठे तर्क देने वालों को यह स्वीकार करने में कोई शर्म नहीं आनी चाहिये कि मध्यप्रदेश के जंगलोंको बर्बाद करने वाले जंगल में रहने वाले लोग नहीं हैं, बल्कि बांध फेक्ट्री, भवन, सड़क, आलीशान फर्नीचर, ठेकेदार आदि हैं । इस तरह के विकास की खातिर आदिवासी व जंगल दोनों को उखाड़ कर फेंका जा रहा है । प्रदेश में आज भी ऐसे सत्ताधारी लोग हैं जो लकड़ी के ठेकेदार हैं तथा इनके लकड़ी के कारोबार के फलने-फूलने से भी जंगलों को सफाया हुआ है । ***
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