शुक्रवार, 17 दिसंबर 2010

१२ ज्ञान-विज्ञान

ब्रह्मांड में बृहस्पति जैसा नया ग्रह मिला

खगोलशास्त्रियों ने एक ऐसा ग्रह खोजने का दावा किया है जो हमारे तारा समूह या गैलेक्सी से बाहर का है । बृहस्पति जैसा यह ग्रह एक ऐसे सौरमंडल से है जो कभी एक बौने तारा समूह का हिस्सा था ।
सांइस पत्रिका में छपे इस शोध के अनुसार इस बौने तारा समूह को हमारे तारा समूह यानि आकाश गंगा ने निगल लिया था । जिस तारे के चारों ओर यह ग्रह चक्कर लगा रहा है उसे एचआईपी १३०४४ का नाम दिया गया है और ये अपने जीवनकाल के अंतिम पड़ाव पर है । यह तारा पृथ्वी से २००० प्रकाश वर्ष की दूरी पर है । शोधकर्ताआें का कहना है कि ये पहला सबूत है कि ग्रह हमारे तारा समूह में नहीं बल्कि ब्रह्माण्ड के अन्य हिस्सों में भी फैले हुए हैं ।
यह खोज इसलिए अलग है क्योंकि यह ग्रह एक ऐसे सूर्य का चक्कर लगा रहा है
जो हेल्मी स्ट्रीम नामक एक तारा समूह का हिस्सा है । इस तारा समूह को आकाशगंगा ने छह से नौ अरब वर्ष पहले निगल लिया था ।
यह खोज चिली में स्थित एक दूरबीन के माध्यम से की गई है । नक्षत्रों की खोज में जुटे वैज्ञानिकों ने अलग-अलग तकनीकों से अब तक हमारे सौरमंडल के बाहर ५०० ग्रहों की खोज की है । शोधकर्ताआें का कहना है कि ये सभी हमारे अपने तारा समूह या आकाशगंगा के ही हिस्सा थे ।
नया ग्रह बृहस्पति से १.२५ गुना भारी है । वैज्ञानिकों ने इसे एक अद्भुत खोज कहा है । वैज्ञानिकों का कहना है कि इस खोज से अंदाजा मिल सकता है कि हमारा सौरमंडल अपने आखिरी दिनों में किस अवस्था में
होगा । यह ग्रह ब्रह्मांड में अन्य ग्रहों की उपस्थिति की भी जानकारी दे सकता है ।

विलुिप्त् की ओर बढ़ता हमारा राष्ट्रीय प्रतीक

जिस गुणात्मक संख्या में आबादी बढ़ रही है । उसके परिणामस्वरूप अनेक समस्याएँ उत्पन्न हो रही हैं । मशीनीकरण एवं मानवीय कृत्य के चलते प्रकृति से विभिन्न जीवों की तकरीबन चार सौ और वनस्पतियों की हजारों प्रजातियाँ विलुप्त् होने के कगार पर पहुँच गई हैं और कुछ प्रजातियाँ तो महज नाम भर की रह गई
हैं ।
बढ़ती आबादी के लिए अभ्यारण्यों को चीरकर राजमार्ग बनाया जाना, अवैध शिकार, अतिक्रमण संरक्षित क्षेत्र में आवाजाही, अनियंत्रित पर्यटन, मवेशियों का जंगलांे में चरना और स्थानीय आबादी का जंगलों में लगातार अतिक्रमण से बाघों का पर्यावास बिगड़ा है । बाघों की घटती संख्या पर प्रधानमंत्री मनमोहनसिंह ने चिंता व्यक्त करते हुए बाघों को देश की ऐतिहासिक विरासत करार दिया है । प्रधानमंत्री ने देश में वन्य जीवों के संरक्षण के लिए अनेक कार्य बिंदु और प्राथमिक परियोजनाआें के साथ राष्ट्रीय वन्य जीव कार्य योजना २००२-२०१६ शुरू की
है । इन बाघ संरक्षण केन्द्रों से जो रिपोर्ट सामने आई है। वह सबको हतप्रभ करने वाली है ं बाघों के लिए सरकार द्वारा जो सामग्री मुहैया होती है, वह बाघों तक न पहुँचकर केन्द्र के कर्मचारियोंएवं पर्यवेक्षकों द्वारा ही हजम कर लिया जाता है । सरिस्का ँवं अन्य बाघ संरक्षण केन्द्रों पर घटती बाघों की संख्या का यही मुख्य कारण सामने आया है । देश में पिछले २० वर्षोंा तक बाघों की संख्या ४३३४ तक थी, जो लगातार घटती हुई अब महज २००० ही रह गई है । संरक्षित क्षेत्रों में चार वर्षोंा में एक बार बाघों की संख्या का आंकलन किया जाता
है । गणना के लिए अनेक विधियाँ हैं परन्तु सटीक संख्या बताने की कोई वैज्ञानिक विधि नहीं है । पंजे के निशान के आधार पर ही गणना की जाती है । आधुनिकता की दौड़ में आदमी स्वार्थी, विवेकहीन और नृशंस हो गया है ।
मनुष्य आज बाघों का अवैध शिकार करने पर उतारू रहता है । अंतराष्ट्रीय बाजार में बाघ के लगभग हर अंग खाल, मांस, रक्त,
पंजे, बाल, दाँत, नाखून, खोपड़ी, हडि्डयाँ आदि का मुँह माँगा दाम मिलता है । अवैध शिकार रोकने के लिए भी सरकार ने कई योजनाएँ क्रियान्वित की हैं । बाघ हमारा राष्ट्रीय प्रतीक है । बाघ और पर्यावरण में गहरा संबंध
है । बाघ की उपस्थिति आदर्श पर्यावरणीय परिस्थिति में ही संभव है । अगर बाघ किसी जंगल को छोड़ने लगे तो इसका मतलब है उस जंगल का पर्यावरण असंतुलित हो चुका है । बाघ पर्यावरण का बैरोमीटर होता है ।

मच्छरों का डीएनए बदलेगा, डेंगू से होगा बचाव !

ब्रिटिश वैज्ञानिकों का कहना है कि डेंगू बुखार से निजात पाने के लिए उन्होेंने आनुवांशिक रूप से परिवर्तित मच्छरों के साथ प्रयोग किया
है । प्रयोगशाला के बाहर किए गए इस परीक्षण में वैज्ञानिकों ने कैरेबिया के एक छोटे से द्वीप पर करीब ३० लाख नर मच्छरों को छोड़ा । जंगलों में रहने वाली मादा मच्छरों और इन नर मच्छरों के बीच हुए प्रजनन के बाद पैदा हुए अंडे लार्वा के जन्म से पहले ही नष्ट हो गए ।
इस प्रयोग के लिए मच्छरों की डीएनए में परिवर्तन किया गया, ताकि जंगलों में रहने वाली मादा मच्छरों के साथ उनके प्रजनन का प्रभावव देखा जा सके । डेंगू एक
जानलेवा रोग है जो मच्छरों के काटने से फैलता है । विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक दुनियाभर में हर साल डेंगू के पाँच करोड़ से ज्यादा मामले सामने आते हैं । ऑक्सिटेक नामक कंपनी इस प्रयोग के जरिए मच्छरों से फैलने वाली बीमारियों जैसे मलेरिया और डेंगू को जड़ से खत्म करने की कोशिश में जुटी है ।
ऑक्सिटेक के मुताबिक इस प्रयोग के बाद कुछ महीने के अंदर ही इस इलाके में मच्छरों की संख्या में ८० प्रतिशत तक की कमी देखी गई । वैज्ञानिकों का कहना है कि डेंगू के संक्रमण में कमी के लिए यह काफी था ।
इस प्रयोग से जुड़े लोगों का कहना है कि मच्छरों की अनुवांशिकी में ये बदलाव पर्यावरण के लिए घातक हो सकते हैं । आलोचकों का कहना है कि आनुवांशिक रूप
से परिवर्तित मच्छरों को जंगलों में छोड़ने से पर्यावरण पर विनाशकारी असर पड़ेगा ।
दुनियाभर की ४० प्रतिशत आबादी पर डेंगू रोग की चपेट में आने का खतरा है । इस समय इस रोग से लड़ने के लिए कोई टीका उपलब्ध नहीं है । मच्छरों से बचने के लिए मच्छरदानी का उपयोग भी ज्यादा कारगर नहीं दिखता । क्योंकि, जो मच्छर डेंगू रोग फैलाते हैं, वे दिन के समय भी काटते हैं । कीट-पतंगों की अनुवांशिकी में बदलाव के जरिए बीमारियों को खत्म करने की इस तकनीक की शुरूआत १९५० में हुई थी ।

पृथ्वी पर था विशाल कीड़ों का साम्राज्य

जीवाश्मों और पुराने अवशेषों का अध्ययन कर वैज्ञानिक इस नतीजे पर पहुंचे हैं कि डायनासोर के पृथ्वी पर सफाए के बाद पृथ्वी पर मौजूद अन्य छोटे जीव अपने आकार में विशाल होते गए और उनकी जगह ले ली ।
वैज्ञानिकों के अनुसार करीब साढ़े छह करोड़ साल पहले डायनासोर का अंत
हुआ । इसके बाद लगभग ढाई करोड़ साल तक पृथ्वी पर उन स्तनधारी कीड़ों और जीवों का साम्राज्य रहा, जो एक किलो से बढ़कर टनों के वजनी दैत्य में परिवर्तित हो गए । विशालकाय घोड़ों और हाथियों के से आकार वाले ये जीव मूल रूप से कीड़े-मकोड़े थे,
लेकिन अपने बढ़ते आकार की बदौलत इस ग्रह पर राज करने लगे । इन जीवों को इंडीकोथीरियम और डायनोथीरियम का नाम दिया गया ।
हालांकि कुछ समय बाद कीड़ों का ये विकास यही रूक गया । इसकी कई वजह थीं । वैज्ञानिकों के अनुसार कि स्तनधारियों के लिए जरूरी है कि वे अपने शरीर का तापमान स्थिर रखें ओर ये जीव बहुत ज्यादा गर्म हो जाते थे । दूसरी वजह यह रही कि इनके बढ़ते आकार और बढ़ती भूख की वजह से धरती पर भोजन की किल्लत हो गई थी ।
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