न्याय के अधिकरण में पर्यावरण
डॉ.सुनील कुमार अग्रवाल
हमारे आर्य ग्रंथ एवं साहित्यिक कृतियां सनातन मानवीय व्यवस्था के साक्षी है और उनमें वर्णित न्यास सिद्धान्त जीव मात्र को संरक्षण प्रदान करते हैं । न्याय पूर्ण आचरण धार्मिक संस्कृति है । हमारा जीवन दर्शन न्याय शास्त्र से निर्देशित है । नीति-नियम शाश्वत है । हम यह बात शिद्दत से जानते है कि बुद्धि-विवेक ही सभ्यता में जरूरी है ।
चेतना के स्थान पर भौतिकता को प्रश्रय हमें अमानवीय बना रहा है और हमें न्याय से दूर ले जा रहा है । हम दुराग्रही भी हुए है । हमारे मन की चंचलता एवं अनिश्चितता के कारण सत्य का क्षरण हो रहा है और विश्वास टूट रहा है । टूट रहा है तन मन, और टूट रहा है पर्यावरण । अब न्याय के विशेष अधिकरण के गठन के साथ पर्यावरण को न्याय की आस बंधी है । देखना यह है कि पर्यावरण की याचिका की सुनवाई कितनी ईमानदारी से होती है । वस्तुत: यही होगा पर्यावरणीय न्याय का व्यवहारिक पक्ष ।
विगत कुछ दशकों में पर्यावरण एवं प्रकृति को मनुष्य ने बहुत नुकसान पहुंचाया है । इसलिए तो सभ्यता के विकास के साथ ही न्याय एवं अन्याय का दर्शन सामने आया है और हमारा न्याय शास्त्र समृद्ध होता गया । किन्तु न्याय को अभी तक वह दिशा नहीं मिल सकी जैसी की मिलनी चाहिए । इसीलिए आज हमारी दशा भी ठीक नहीं है । आज भी सारी कवायद के बाद भी न्यायपूर्ण वातावरण नहीं है । अन्यायी एवं आततायी ही न्याय देवी की आँख में झूल झोकनें में कामयाब है जिससे न्याय व्यवस्था हमारे जीवन मूल्यों की रक्षा करने में स्वयं को अक्षम पा रही है ।
न्याय हमारे सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक व्यवस्थाआें से जुड़ा पहलू है । न्याय के अधिकरणों का विस्तृत फलक है । अब हमारे समक्ष पर्यावरणीय न्याय की अवधारणा है । किन्तु मेरा मानना है कि न्याय की रक्षा के लिए हमें अपने जमीर (अर्न्तआत्मा) को जगाना होगा तभी सत्य और न्याय की तुलना में पर्यावरण संरक्षित रह सकेगा । हमें यह भी संज्ञान में रखना होगा कि प्रकृति का रक्षक परमात्मा भी न्यायकारी है ।
केन्द्र सरकार ने १९ अक्टूबर २०१० को राष्ट्रीय हरित न्यायाधिकरण का गठन कर दिया । सुप्रीम कोर्ट के सेवानिवृत्त न्यायाधीश लोकेश्वर सिंह पांटा को इस न्यायाधिकरण का अध्यक्ष मनोनीत किया गया है । न्यायधिकरण का मुख्यालय राजधानी दिल्ली में रहेगा तथा इसकी चार बैंच भी स्थापित की जायेगी । पर्यावरण और वन राज्य मंत्री जयराम रमेश ने न्यायाधिकरण के गठन की औपचारिक घोषणा करते हुए कहा कि भारत विश्व के उन चुनिंदा राष्ट्रों में शामिल हो गया है जहां पर्यावरण संबंधित मामलों के निपटारे हेतु राष्ट्रीय स्तर पर न्यायाधिकरण होते है ।
हरित न्यायाधिकरण स्वतंत्र रूप से कार्य करेगा । इसमें पर्यावरण और वन मंत्रालय का भी हस्तक्षेप नहीं होगा । पर्यावरण को होने वाली हानि के मद्देनजर कोई भी पक्ष, प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से याचिका प्रस्तुत कर सकेगा । न्यायाधिकरण को अधिकार होगा कि वह स्वयं संज्ञान लेकर जनहित याचिकाआें पर गौर करेगा । न्यायाधिकरण व्यक्तिगत रूप से १० करोड़ तक तथा कंपनी पर २५ करोड़ तक की दण्डात्मक कार्यवाही कर सकेगा । इसके अतिरिक्त और भी शक्तियां उसके पास रहेगी ।
दरअसल सन् १९९२ में रियो-दि-जेनेरिया में हुई ग्लोबल यूनाइटेड नेशंस कांफ्रेस ऑन एनवायरनमेंट एण्ड डेवलपमेंट के फैसले को स्वीकार करने के बाद इस कानून के निर्माण की जरूरत महसूस की गई और इस दिशा में प्रयास हुए । ऑस्ट्रेलिया और न्यूजीलैण्ड के बाद भारत तीसरा देश होगा जहॉ हरित न्यायाधिकरण जैसी संस्था काम करेगी । यह एक ऐसा न्यायिक निकाय है जो पर्यावरण से संबंधित सभी मामलों पर अपनी नजर रखेगा और उनका निपटारा भी करेगा । यह देश भर में अपनी सर्किट बेंच के जरिये काम करेगा ।
न्यायाधिकरण (ट्रिव्यूनला) के दायरे में देश में लागू पर्यावरण और जेव विविधता के सभी नियम कानून आते हैं। इसके लिए जैव विविधता कानून में भी परिवर्तन किया गया है । ट्रिब्यूनल के गठन से पूर्व जैव विविधता संबंधी अपील उच्च् न्यायालय में दाखिल की जाती थी लेकिन अब ऐसी याचिकाएं न्यायाधिकरण में ही प्रस्तुत हो सकेगी । इसके लिए कानून की धारा ५२ को समाप्त् कर धारा ५२ ए लागू कर दी गई है ।
पर्यावरण को संरक्षण प्रदान करने हेतु बहुत से कानून है किन्तु ज्यों ही कोई न्यायकारी कानून सामने आता है उसका तोड़ भी ढूंढ लिया जाता है और पीड़ित न्याय की गुहार लगाता हुआ अंतत: हार जाता है । यहां मेरा यह मानना है कि हम संवैधानिक न्याय प्रक्रिया को भले ही धोखा दे दे किन्तु नैसर्गिक न्याय (विधि के न्याय) के दण्ड से हम बच नहीं सकते क्योंकि प्रकृति में स्वनियामक सत्ता है । अत: प्रकृति के साथ किया गया अन्याय और भी अधिक विध्वंसकारी हो जाता है ।
न्याय तब तक कारगर नहीं होता जब तक कि हमारा जमीर न जागे और हम प्रकृति से खिलवाड़ करना बंद न करे । प्रश्न उठता है कि क्या दुनिया का मानचित्र हमे रचा है नहीं । इसका चितेरा तो परब्रम्हा परमात्मा है । हम जो कुछ भी प्रकृति को देते है वहींतो वह हमें वापस करती है अथवा जो कुछ प्रकृति हमें देती है वही हम उसे अर्पित कर सकते है । प्रकृति दर्शन और जीवन एक अनुगूँज है । हम जो बोलते है वही तो गूँजता है । हम जो स्थिति बनाएंगे वही तो हमें दिखलाई देगी । अत: हमें न्याय का सम्मान करना होगा । प्रकृति परक होना होगा ।
प्रकृति के शाश्वत नियम को समझना ही नैसर्गिकता है । प्रकृति विमुखता धर्म विरूद्धता है । हमें हमारी प्रकृति को निर्जरा बनाना होगा । अर्थात् हमें अपने चारों और ऐसी व्यवस्था बनानी होगी जिसमें पाप न हो दुष्टता न हो । पाप ही क्षयकारी है । हमारी प्रवृत्तियों पाप और पुण्य के द्वारा ही निर्देशित होती है । हमें इन्हें संवरना होगा अर्थात् पाप करने से बचना होगा । हमारे जो कृत्य प्रकृति एवं पर्यावरण को नुकसान पहुँचाते है उन्हें त्यागना होगा । हमें त्याग के साथ ही प्रकृति को भोगना होगा । हमें आसक्ति एवं निरक्ति के बीच रहकर मध्य मार्ग अपनाना होगा तभी विकास एवं विनाश का अंतर समझ में आयेगा । प्रकृति का कल्याण होगा । जड़ हो अथवा चेतन सबकुछ महामायामयी प्रकृति का हिस्सा है ।
अब वक्त आ गया है जबकि विकास कार्यो में भ्रष्टाचार और प्रकृतिक संसाधनों की लूट को रोकने के लिए जनपक्षीय नीतियाँ बनाई जाएं तथा लोकतांत्रिक तरीके से दबाव बनाया जाये ताकि अक्षुण्य रह सके । हमारी हरियाली विरासत अविरल एवं निर्मल रह सके । हमारी नदियां और पेड़ प्रहरी धर्म निभाहते रहे, हमारे पर्वत और धीर गंभीर रहें, हमारा सागर ।
चेतना के स्थान पर भौतिकता को प्रश्रय हमें अमानवीय बना रहा है और हमें न्याय से दूर ले जा रहा है । हम दुराग्रही भी हुए है । हमारे मन की चंचलता एवं अनिश्चितता के कारण सत्य का क्षरण हो रहा है और विश्वास टूट रहा है । टूट रहा है तन मन, और टूट रहा है पर्यावरण । अब न्याय के विशेष अधिकरण के गठन के साथ पर्यावरण को न्याय की आस बंधी है । देखना यह है कि पर्यावरण की याचिका की सुनवाई कितनी ईमानदारी से होती है । वस्तुत: यही होगा पर्यावरणीय न्याय का व्यवहारिक पक्ष ।
विगत कुछ दशकों में पर्यावरण एवं प्रकृति को मनुष्य ने बहुत नुकसान पहुंचाया है । इसलिए तो सभ्यता के विकास के साथ ही न्याय एवं अन्याय का दर्शन सामने आया है और हमारा न्याय शास्त्र समृद्ध होता गया । किन्तु न्याय को अभी तक वह दिशा नहीं मिल सकी जैसी की मिलनी चाहिए । इसीलिए आज हमारी दशा भी ठीक नहीं है । आज भी सारी कवायद के बाद भी न्यायपूर्ण वातावरण नहीं है । अन्यायी एवं आततायी ही न्याय देवी की आँख में झूल झोकनें में कामयाब है जिससे न्याय व्यवस्था हमारे जीवन मूल्यों की रक्षा करने में स्वयं को अक्षम पा रही है ।
न्याय हमारे सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक व्यवस्थाआें से जुड़ा पहलू है । न्याय के अधिकरणों का विस्तृत फलक है । अब हमारे समक्ष पर्यावरणीय न्याय की अवधारणा है । किन्तु मेरा मानना है कि न्याय की रक्षा के लिए हमें अपने जमीर (अर्न्तआत्मा) को जगाना होगा तभी सत्य और न्याय की तुलना में पर्यावरण संरक्षित रह सकेगा । हमें यह भी संज्ञान में रखना होगा कि प्रकृति का रक्षक परमात्मा भी न्यायकारी है ।
केन्द्र सरकार ने १९ अक्टूबर २०१० को राष्ट्रीय हरित न्यायाधिकरण का गठन कर दिया । सुप्रीम कोर्ट के सेवानिवृत्त न्यायाधीश लोकेश्वर सिंह पांटा को इस न्यायाधिकरण का अध्यक्ष मनोनीत किया गया है । न्यायधिकरण का मुख्यालय राजधानी दिल्ली में रहेगा तथा इसकी चार बैंच भी स्थापित की जायेगी । पर्यावरण और वन राज्य मंत्री जयराम रमेश ने न्यायाधिकरण के गठन की औपचारिक घोषणा करते हुए कहा कि भारत विश्व के उन चुनिंदा राष्ट्रों में शामिल हो गया है जहां पर्यावरण संबंधित मामलों के निपटारे हेतु राष्ट्रीय स्तर पर न्यायाधिकरण होते है ।
हरित न्यायाधिकरण स्वतंत्र रूप से कार्य करेगा । इसमें पर्यावरण और वन मंत्रालय का भी हस्तक्षेप नहीं होगा । पर्यावरण को होने वाली हानि के मद्देनजर कोई भी पक्ष, प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से याचिका प्रस्तुत कर सकेगा । न्यायाधिकरण को अधिकार होगा कि वह स्वयं संज्ञान लेकर जनहित याचिकाआें पर गौर करेगा । न्यायाधिकरण व्यक्तिगत रूप से १० करोड़ तक तथा कंपनी पर २५ करोड़ तक की दण्डात्मक कार्यवाही कर सकेगा । इसके अतिरिक्त और भी शक्तियां उसके पास रहेगी ।
दरअसल सन् १९९२ में रियो-दि-जेनेरिया में हुई ग्लोबल यूनाइटेड नेशंस कांफ्रेस ऑन एनवायरनमेंट एण्ड डेवलपमेंट के फैसले को स्वीकार करने के बाद इस कानून के निर्माण की जरूरत महसूस की गई और इस दिशा में प्रयास हुए । ऑस्ट्रेलिया और न्यूजीलैण्ड के बाद भारत तीसरा देश होगा जहॉ हरित न्यायाधिकरण जैसी संस्था काम करेगी । यह एक ऐसा न्यायिक निकाय है जो पर्यावरण से संबंधित सभी मामलों पर अपनी नजर रखेगा और उनका निपटारा भी करेगा । यह देश भर में अपनी सर्किट बेंच के जरिये काम करेगा ।
न्यायाधिकरण (ट्रिव्यूनला) के दायरे में देश में लागू पर्यावरण और जेव विविधता के सभी नियम कानून आते हैं। इसके लिए जैव विविधता कानून में भी परिवर्तन किया गया है । ट्रिब्यूनल के गठन से पूर्व जैव विविधता संबंधी अपील उच्च् न्यायालय में दाखिल की जाती थी लेकिन अब ऐसी याचिकाएं न्यायाधिकरण में ही प्रस्तुत हो सकेगी । इसके लिए कानून की धारा ५२ को समाप्त् कर धारा ५२ ए लागू कर दी गई है ।
पर्यावरण को संरक्षण प्रदान करने हेतु बहुत से कानून है किन्तु ज्यों ही कोई न्यायकारी कानून सामने आता है उसका तोड़ भी ढूंढ लिया जाता है और पीड़ित न्याय की गुहार लगाता हुआ अंतत: हार जाता है । यहां मेरा यह मानना है कि हम संवैधानिक न्याय प्रक्रिया को भले ही धोखा दे दे किन्तु नैसर्गिक न्याय (विधि के न्याय) के दण्ड से हम बच नहीं सकते क्योंकि प्रकृति में स्वनियामक सत्ता है । अत: प्रकृति के साथ किया गया अन्याय और भी अधिक विध्वंसकारी हो जाता है ।
न्याय तब तक कारगर नहीं होता जब तक कि हमारा जमीर न जागे और हम प्रकृति से खिलवाड़ करना बंद न करे । प्रश्न उठता है कि क्या दुनिया का मानचित्र हमे रचा है नहीं । इसका चितेरा तो परब्रम्हा परमात्मा है । हम जो कुछ भी प्रकृति को देते है वहींतो वह हमें वापस करती है अथवा जो कुछ प्रकृति हमें देती है वही हम उसे अर्पित कर सकते है । प्रकृति दर्शन और जीवन एक अनुगूँज है । हम जो बोलते है वही तो गूँजता है । हम जो स्थिति बनाएंगे वही तो हमें दिखलाई देगी । अत: हमें न्याय का सम्मान करना होगा । प्रकृति परक होना होगा ।
प्रकृति के शाश्वत नियम को समझना ही नैसर्गिकता है । प्रकृति विमुखता धर्म विरूद्धता है । हमें हमारी प्रकृति को निर्जरा बनाना होगा । अर्थात् हमें अपने चारों और ऐसी व्यवस्था बनानी होगी जिसमें पाप न हो दुष्टता न हो । पाप ही क्षयकारी है । हमारी प्रवृत्तियों पाप और पुण्य के द्वारा ही निर्देशित होती है । हमें इन्हें संवरना होगा अर्थात् पाप करने से बचना होगा । हमारे जो कृत्य प्रकृति एवं पर्यावरण को नुकसान पहुँचाते है उन्हें त्यागना होगा । हमें त्याग के साथ ही प्रकृति को भोगना होगा । हमें आसक्ति एवं निरक्ति के बीच रहकर मध्य मार्ग अपनाना होगा तभी विकास एवं विनाश का अंतर समझ में आयेगा । प्रकृति का कल्याण होगा । जड़ हो अथवा चेतन सबकुछ महामायामयी प्रकृति का हिस्सा है ।
अब वक्त आ गया है जबकि विकास कार्यो में भ्रष्टाचार और प्रकृतिक संसाधनों की लूट को रोकने के लिए जनपक्षीय नीतियाँ बनाई जाएं तथा लोकतांत्रिक तरीके से दबाव बनाया जाये ताकि अक्षुण्य रह सके । हमारी हरियाली विरासत अविरल एवं निर्मल रह सके । हमारी नदियां और पेड़ प्रहरी धर्म निभाहते रहे, हमारे पर्वत और धीर गंभीर रहें, हमारा सागर ।
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