रविवार, 16 अक्तूबर 2011

गांधी जंयती पर विशेष

गांधी होते तो क्या करते ?
चन्द्रशेखर धर्माधिकारी

गांधी को सामने रखकर किसी समस्या का हल ढूंढने का सबसे बड़ा लाभ संभवत: यह है कि प्रत्येक हल अहिंसा और सत्य के पैमाने पर ही निकाला जा सकता है । आज हम जिस संक्रमण काल में रह रहे हैं उसमें राज्य की हिंसा और समाज के एक वर्ग की हिंसा का आपसी संघर्ष कमोबेश पूरी दुनिया में नजर आ रहा है । हिंसा से निपटने के लिए प्रतिहिंसा को एक मात्र विकल्प मानने से स्थितियां दिन-ब-दिन बद्दतर होती जा रही है ।
एक बार मैने गांधी दर्शन के भाष्यकार व मेरे पिता दादा धर्माधिकारी से पूछा, आज गांधीजी होते तो क्या करते ? दादा ने उत्तर दिया मैंनहीं जानता कि वे क्या करते ! लेकिन तुम हो तो क्या करोगे या कर सकते हो, उसके बारे में सोचो ! गांधीजी के बाद समस्याआें का स्वरूप बदल गया है । गांधी का कोई वाद या सम्प्रदाय नहीं है, सिर्फ विचार-प्रवाह है । विचार हमेशा गतिशील होता है और उसमें विकास होता रहता है । गांधी का विचार संदर्भहीन, कालबाह्य हो गया है, ऐसा मानने वालों की संख्या रोज-रोज बढ़ रही है और हम हैं जो विचार के बदले ग्रंथ प्रामाण्यवादी और व्यक्ति प्रामाण्यवादी बन रहे है । आवश्यकता इस बात की है कि जहां गांधीजी का खून हुआ और विचार-प्रवाह रूका, वहीं से हमारे चिंतन-मंथन की शुरूआत होनी चाहिए ।
वर्तमान सभ्यता का मतलब क्या है ? वह अभिशाप है या वरदान ? अगर हम उसे संकट मानते हैं तो उसकी जड़ में जाकर हमें उसके कारण ढूंढने होगे और इलाज भी । इस संदर्भ में प्रसिद्ध तत्ववेत्ता खलील जिब्रान के एक वाक्य की ओर आपका ध्यान आकर्षित करना चाहता हॅू, वे कहते हैं - जिस तरह वृक्ष का एक भी पत्ता, समूचे झाड़ की मूक सम्मपति के बिना पीला नहीं पड़ सकता, वैसे ही हम में छिपी हुई इच्छाआें के बिना इस संकट का निर्माण नहीं हुआ है ।
आज की आर्थिक व्यवस्था और बाजार के वैश्वीकरण के माहौल में मनुष्य भी खरीद-बिक्री की वस्तु बन रहा है । हर इंसान की कीमत होती है और उसे खरीदा जा सकता है, यह वृत्ति बढ़ रही है । इमरसन का एक वाक्य है, जिसका आशय है कि सभ्यता का मापदण्ड उस समाज में स्त्रियों का प्रभाव कितना है, यही है ! आज बाजार ने स्त्री को बाजार में प्रतिष्ठित कर दिया है । वह बिकाऊ बन रही है । जितनी भी सौंदर्य स्पर्धाएं होती हैं, उनमें उसी देश की संुदरी को चुना जाता है, जिसके बाजार में उन्हें अपना माल अधिक से अधिक बेचना होता है । स्त्री का शारीरिक सौंदर्य बिक्री और विज्ञापन का आधार है । वह वस्तु बन रही है, मनुष्यत्व खो रही है । व्यक्ति जब मनुष्यत्व खोकर वस्तु रूप बन जाता है तब अपना प्रभाव खो देता है । आज तो माँ-बाप भी लड़कियों को मॉडल बनाना चाहते है ।
हमें गांधी-विचार पर आधारित नये रास्ते ढूंढने होंगे और यह ध्यान में रखना होगा कि गलत के खिलाफ संघर्ष करने की वृत्ति नहीं होगी, तो तथाकथित रचनात्मक कार्य नपुंसक साबित होगा और जिस संघर्ष में रचना और परिवर्तन करने की शक्ति नहीं होगी, वह संघर्ष भी नपुंसक माना जायेगा । पर यह नहीं होगा तो हम नई पगडंडियों का निर्माण नहीं कर सकेंगे, लकीर के फकीर ही बने रहेंगे । नई लड़ाईयां पुराने शस्त्र-साधनों से नहीं लड़ी जा सकती । गांधीजी की यही तो खासियत थी । इस संदर्भ में गांधीजी ने जो शांति-सेना का विचार रखा था और उसमें भी महिला शांति-सेना का उस पर गंभीरता से विचार कर, उसे सशक्त बनाना जरूरी है ।
विचारों का मुकाबला विचारों से करने के बदले आज गर्दन काट देने की प्रवृत्ति में बढ़ोत्तरी हो रही है । ऐसी मान्यता है कि गर्दन काट देने से विचार भी समाप्त् हो जाते हैं । शायद इसीलिए सारे महामानवों का अंत उनके बलिदान या शहादत से ही हुआ है ।
सभ्यता का मतलब क्या है ? दूसरे के जीवन में शामिल होना और दूसरे को अपने जीवन में शामिल करना ! असली सभ्यता का अर्थ है जीवन की शुद्धि और उससे जुड़ी समृद्धि । वर्तमान सभ्यता भौतिक साधनों के अमर्यादित दोहन, श्रम के प्रति विमुखता और शोषण द्वारा प्राप्त् समृद्धि पर आधारित है । गांधीजी के सत्याग्रही संग्राम से एक अभिनव मानवीय सभ्यता का उदय हुआ । सभ्यता तथा संस्कृति की गांधीजी की व्याख्या समझने में सरल है । मनुष्य को कर्तव्य पालन का मार्ग दर्शाने वाली आचार-पद्धति यानी सभ्यता और संस्कृति ! वासनाआें पर विजय पाना यानी संयम ! वर्तमान सभ्यता जरूरतों में अमर्यादित वृद्धि करना सिखाकर, परिग्रह-वृत्ति का पोषण कर रही है ।
पुराने जमाने में कहा जाता था कि गांधी ने तीन ध समाप्त् किये - धर्म, धंधा और धन । बदले में तीन झ दे गये - झंडा, झाडू और झोली ! यही गांधी की असली देन है । गांधी धर्माधंता, धनशक्ति और बाजारवाद को समाप्त् करना चाहते थे । इसलिए वे चाहते थे अन्त्योदय से सर्वोदय हो । वर्तमान सभ्यता का यह उद्देश्य नहीं है और न ही उसकी वैसी आकांक्षा है । वह तो स्वार्थपरायण है और सोचती है कि सब अपने-अपने स्वार्थ का विचार करेंगे, तो उसके जोड़ से सबकी प्रगति होगी, इसी में सबका विकास होगा ।
समस्याआें से जूझने की क्षमता न होने के कारण लोग पलायनवादी बन रहे हैं । इसलिए ज्योतिष और योगियों की शरण में जा रहे है । अब लोग योग के पीछे पागल हो रहे हैं । विज्ञान और वर्तमान सभ्यता ने जो अनिश्चितता पैदा की है, उस कारण उन्हें अतींद्रिय शक्ति की उत्कंठा है । इनके सभ्यता पर एक के बाद एक संकट गहरा रहे हैं । व्यक्तिगत ही नहीं, सामाजिक संकट गहरा रहा है । तेजस्विता, तपस्विता और तत्वनिष्ठा जिनके जीवन की बुनियाद हो, ऐसे इंसानों की और उसमें भी युवकों की भूमिका आवश्यकता है ।

कोई टिप्पणी नहीं: