बुधवार, 18 नवंबर 2015

सम्पादकीय
विकास का हिमालयी मॉडल
 हिमालय बचाओ ! देश बचाओ ! सिर्फ नारा नहीं है, बल्कि यह हिमालय क्षेत्र में भावी विकास नीतियों को दिशाहीन होने से बचाने का भी रास्ता है । चिपको आंदोलन के दौरान पहाड़ की महिलाआें ने नारा दिया कि मिट्टी, पानी और बयार । जिंदा रहने के आधार ! और ऊंचाई पर पेड़ रहेंगे । नदी ग्लेशियर टिके रहेंगे ।
    जब समझने का वक्त आ गया है कि हिमालयी समाज, संस्कृति और यहां के पर्यावरण के साथ-साथ देश की सुरक्षा के लिए तत्पर हिमालय  को मैदानोंके विकासीय दृष्टिकोण से कैसे मापा जा सकता है ?
    हॉल ही में तैयार हिमालय लोक नीति के दस्तावेज में दो बाते हैं, जिसमें आंकड़ों के जरिये बताया गया है कि हिमालय नीति की आवश्यकता क्यों है ? दूसरा, हिमालय नीति के बिन्दु क्या हैं, जिसके आधार पर एक समग्र केन्द्रीय हिमालय नीति की मांग की गई है । अगर समय रहते सरकारों ने हिमालय की चिंता नहीं की, तो बढ़ रहे जलवायु परिवर्तन का संकट ओर बढ़ेगा । साथ ही सुरंग, बांधों के श्रृखंलाबद्ध निर्माण से हिमालयी नदियां सुख जायेगी । नतीजतन हिमालयी राज्यों में पलायन की समस्या बढ़ेगी । इसकी एक वजह यह भी है कि अधिकांश हिमालयी राज्यों के निवासी जल, जमीन और सघन वनों के बीच रहकर भी इन पर अपना अधिकार खो चुके है । प्रत्येक वर्ष लगभग १२ लाख मिलीयन क्यूबिक मीटर पानी हिमालय की नदियों से बहता है, जो पूरे देश में ४० प्रतिशत जलापूर्ति करता है । अत: नदियों के उद्गम वाले हिमालयी राज्यों में नदियों का प्रवाह निरन्तर एवं अविरल बनाये रखना अनिवार्य है । हिमालय का वन क्षेत्र स्वस्थ पर्यावरण के मानकों से भी अधिक है, इसे बचाये रखने के लिए हिमालयी जैव विविधता का सरंक्षण व संवर्धन स्थानीय लोगों के साथ करने की जरूरत है । प्राकृतिक संसाधनों के बेहिसाब दोहन के चलते हिमालय के पारितंत्र पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा है, इस कारण बाढ़, भूकम्प, सूखा, वनाग्नि जैसी घटनाआें की पिछले ३० वर्षोंा से लगातार पुनरावृत्ति हो रही है ।

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