बुधवार, 18 नवंबर 2015

सामाजिक पर्यावरण
मृत्यु के अनेक मनोभाव
अनिल त्रिवेदी

    भारतीय सभ्यता में मृत्यु की अनेक प्रकार की व्याख्याएं हमारे सामने आती हैं । नचिकेता प्रसंग से आलोकित क ोपनिषद से लेकर गांधी, जे. कृष्णमूर्ति व आचार्य रजनीश मृत्यु संबंधित अपने अपने मनोभावों को सार्वजनिककर चुके हैं ।
    इस जगत में जन्म और मृत्यु एक सनातन प्राकृतिक क्रम   है । जो जन्मा है वह जायेगा ही । परंतु मृत्यु के रूप रंग और तरीके को लेकर दुनिया भर में तरह तरह के सवाल जवाब चलते ही रहते हैं । मृत्यु से विदाई या चिर बिछोह का भाव ही मन में उपजता है। लम्बे समय से हमारे साथ थे या जिसे हम जानते, पहचानते या मानते थे हमारे बीच उनका जीवित रूप हमारे बीच में कभी नहींं होगा ।
     इससे मन में दुख या शोक उत्पन्न होता है। फिर भी हमारी दुनिया कभी किसी की मौत से दबे छुपे खुश होती है तो कभी कभी खुले आम जश्न का भाव भी उत्पन्न करती है। एक ही व्यक्ति की मौत से अलग-अलग भाव उत्पन्न  होते हैं । मृृत्यु का तरीका कोई भी हो उसकी निष्पति जीवन के अंत से ही होती है। इसे हम साकार से निराकार होने का एक प्राकृतिक क्रम भी मान सकते हैं जैसे जीवन के कई रूप रंग और शैलियाँ है वैसा ही मृत्यु के साथ भी है ।
    हमारे राज्य और समाज ने जीवन और मृत्यु की मर्यादाओं को लेकर कुछ अवधारणाएं बनायी है। जीवन जीने का हक संविधान के अनुसार मूल अधिकार है । इसी कारण विधि विधान के शासन में जीवन को खत्म करने को लेकर वैसी सहज अनुकूलताएं नागरिक को उपलब्ध नहीं हैं जैसी जीवन जीने के अधिकार को संवैधानिक रूप से उपलब्ध है। दुनिया के किसी भी संविधान, विधान या विधि में मृत्यु को शायद नागरिक का मूलभूत अधिकार न तो माना गया है न ही समाज के किसी तबके या व्यक्ति ने मृत्यु को मनुष्य का मूलभूत अधिकार माना है ।
    यही कारण है कि कहीं भी किसी भी रूप में कोई सामूहिक या व्यक्तिगत मृत्यु होती है तो मन में सहज ही एक क्षण के  लिये ही चाहे उपजे, पर विषाद का भाव ही उपजता है। समूची मनुष्यता में मृत्यु के बजाय जीवन को जीने की चाहना ही प्राकृतिक रूप से होती है। पूर्ण आयु के जीवन का अंत होने पर मृत्यु को लेकर प्राय: संतोष का ही भाव होता है । पर अकाल मृत्यु से घर परिवार में मृत्यु को लेकर उपजे असंतोष को संभालना संभव नहीं होता । ईश्वर से लेकर मृत्यु की क्रूरता तक की भरपूर आलोचना या व्याख्या होती है । ईश्वर के न्याय पर भी हल्ला होता है। इसका विपरीत दृश्य भी होता है ।
    कोई गंभीर अपराध होने पर फांसी की सजा देने की खुले आम मांग होती है । फांसी पर दुनिया की सोच बटी हुई है । एक मत है कि कानून जन्म नहीं दे सकता तो उसे किसी को मृत्यु देने का हक भी नहीं है । कानून जीवन बचाने के लिये जन्मा है जीवन खत्म करने के लिये नहीं । दूसरा मत इसके विपरीत है कि मृत्यु के भय से ही राज्य समाज में शांति और व्यवस्था बनाये रख सकता है । फांसी का डर या भय नृशंस घटनाक्रम को रोकने में समर्थ हो सकता है।
    एक सैनिक की गोली से हुई मृत्यु से मनुष्य जब मरता है तो उसकी व्याख्या देश, काल और परिस्थिति अनुसार होती है । आतंकी की गोली से सैनिक की मौत को शहादत का दर्जा मिलता है और सैनिक की गोली से आतंकी की मौत से उपलब्धि का भाव उत्पन्न होता है । यह मानव मन की सहज एवं सामान्य सोच है । परंतु मौत का रूप रंग क्या है ? उस रूपरंग में देशकाल परिस्थिति अनुसार अलग-अलग व्याख्याएं मनुष्य समाज में होती रहती हैं ।
    प्राचीन समय में युद्ध काल में हमलावर के हाथ आने के बजाय या आपातकाल में अपने को आततायी के अत्याचारों से बचाने हेतु आत्मघात करने का विचार भी उपजा और उसे कुछ काल तक सामाजिक स्वीकृति भी मिली । जौहर उसका ज्वलन्त उदाहरण है । पति की मौत के बाद स्त्री की सुरक्षा का एक रूप सती प्रथा के रूप में भी भारतीय समाज में एक जमाने में जड़ जमाने में सफल हुआ था । अपने जीवन को देश, विचार, व्यक्ति या समाज के लिये कुर्बान करने के भाव ने मृत्यु के वरण के भाव को जन्म दिया ।
    गुलामी के दौर में या आजादी की लड़ाई के दौर में कई क्रान्तिकारी जीवन के अर्पण को अपना ध्येय निरुपित कर हँसते हँसते फांसी के फन्दे को चूम कर इस जगत से भौतिक रूप से विदा हो गये । परंतु देश काल की परिस्थिति में उनकी चिरबिदाई देश और क्रान्ति विचार के लिये तेजस्विता का प्रेरणा पुंज बन गयी और उन्हें अजर अमर बना  दिया । इस तरह मृत्यु मारक भी है और प्रेरक भी ।
    दण्डस्वरूप और प्रेरणास्पद मृत्यु के अलावा एक रूप व्यवस्थागत या व्यक्तिगत लापरवाही के  फलस्वरूप हमें देखने को मिलता है। गतिशीलता के युग में वायुयान रेल या मोटर वाहन आदि दुर्घटनाओं से होने वाली अंतहीन मौतें । इनके प्रति व्यवस्था और व्यक्ति के मन में एक अलग ही भाव होता है । व्यवस्था के लिये ऐसी दुर्घटनाएं मुआवजा घोषणा और जाँच घोषणा की प्रशासकीय औपचारिकता होती है और व्यक्ति या समाज के मन में केवल इतनी ही उत्सुकता पैदा होती है कि कहीं इसमें कोई अपना परिजन या परिचित तो शामिल नहीं है ।
    तेज गति या लापरवाही से वाहन चालन या आवागमन के दौरान होने वाली मौतों की संख्या स्वाभाविक मृत्यु के बाद देश दुनिया में सर्वाधिक हैं ? फिर भी देश समाज का मानस ऐसी मौतों को विकास या गति का स्वाभाविक परिणाम मान कभी तथा कथित विकास और गति के चक्र को रोकने का विचार मन में नहीं लाता । जैसे जल के प्रवाह में लोग अचानक बह जाते हंै वैसे ही आवागमन के प्रवाह में लोग दुर्घटनाग्रस्त हो दुनिया से बिदा हो जाते हैं। परंतु दुनिया अपनी गति से चलती रहती है।
    जापान में कई लोग संकल्प पूरा न होने पर अपने आप को खत्म कर लेते हैं ।  इसे हाराकिरी की संज्ञा दी गयी है । इसे आत्महत्या नहीं माना जाता पर हाराकिरी करने वाले के प्रति वीरोचित भाव होता है । आत्महत्या को कभी भी अच्छा नहीं माना जाता । आत्महत्या करने वाले के मन में आत्मग्लानि और निराशा का भाव होता है । वैसे हाराकिरी और आत्महत्या का स्वरूप एक समान है पर भाव एकदम भिन्न है । हाराकिरी करने वाले के मन में पश्चाताप नहीं होता ।
    आमरण अनशन भी किसी मांग के समर्थन में जीवन का अंत करने की घोषणा है। परंतु इसमें जीवन खत्म होने की परिस्थिति कभी कभार ही होती है । फिर भी हमारे देश में ऐसे कई लोग हुए है जिन्होंने अपने मुद्दों को मनवाने के लिये अपनी जान दी है । धार्मिक दर्शन या विचारवश भी जीवन को समाप्त कर मुक्ति या मोक्ष की राह चुनने के  दृष्टान्त आज भी अस्तित्व में है। जैन दर्शन में संलेखना और संथारे की परम्परा को जीवन के अंत के बजाय जीवन की साधना या तपस्या की पराकाष्ठा के रूप में माना जाता है । जीवन के  लिये आवश्यक अन्न जल की प्राकृतिक ऊर्जा को त्याग कर जीवन मुक्त होना, जन्म के बंधन से मुक्त होना या समाधिस्थ होना माना जाता है। राजस्थान उच्च् न्यायालय के एक न्याय निर्णय से वर्तमान में न्याय के क्षेत्राधिकार और धार्मिक मान्यता के बीच एक बहस जन्मी है जो जीवन रक्षा और मोक्ष - तपस्या या समाधि की पराकाष्ठा से उपजे सवालों से जूझ रही है ।
    मृत्यु का एक रूप नई सभ्यता और नई तकनीक से भी उजागर हुआ है । जन्म से पहले ही लिंग जांच कर मृत्यु याने भ्रूण हत्या । इसे लेकर आज की भीड़ भरी दुनिया में एक तटस्थ भाव बन गया है । इससे जीवन और मृत्यु की प्रक्रिया में मनुष्य के हस्तक्षेप का एक नया आयाम हमारे सामने प्रगट हुआ है। सामाजिक आर्थिक कारणों से प्रेरित जन्म से पूर्व ही मृत्यु से साक्षात्कार ने जन्म के अधिकार और मृत्यु की गरिमा को समूल रूप से नष्ट कर दिया है । आधुनिकविज्ञान की तकनीक और मानव मन की सुविधाजीविता ने जीवन को साकार होने से पहले ही निराकार में विलीन कर दिया है । जीवन और मृत्यु का अनन्त चक्र केवल मनुष्य ही नहीं समूचे प्राणी एवं वनस्पति जगत में एकरुपता से निरन्तर श्वास प्रश्वास की तरह चलता है ।
    मनुष्य के जीवन और मृत्यु के रंग और तौर तरीके से जन्मे मनोभाव इतने अलग अलग हैं कि मानव मन में इसको लेकर इतने अधिक मत मतान्तर हो गये हैंजिससे इसका प्राकृतिक स्वरूप ही पूरी तरह से मनुष्य मन के अंतहीन हस्तक्षेप से ग्रस्त हो गया है । परिणामस्वरूप जन्म और मृत्यु प्रकृति का सामान्य क्रम न होकर हमारे मन के राग द्वेष और हित अहित के आधार पर व्यक्ति समाज और देश के मानस पर असर डालने वाले घटनाक्रम बनते जा रहे हैं ।

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