बुधवार, 18 नवंबर 2015

विरासत
न पहाड़ समझ में आते हैं, न आपदा
सुरेश भाई

    पिछले २५ वर्षों में पहाड़ी व समुद्रतटीय राज्यों मंे बाढ़ से २० हजार से ज्यादा लोगों की जान जा चुकी है । मैदानी व अन्य इलाकों की बाढ़ को इसमें शामिल कर लें तो यह आंकड़ एक लाख से ऊपर ही    बैठेगा । परंतु हमारे विकास महारथी अपनी नीतियों पर पुनर्विचार करने को तैयार नहीं हैं ।
     वर्षा का मौसम जानलेवा हो गया है। जलवायु परिवर्तन की कई रिर्पोटों ने खुलासा भी कर दिया है कि सन् २०३० तक यदि तापमान २ डिग्री तक बढ़ेगा तो बारिश में १३ फीसदी तक की बढ़ोत्तरी हो सकती है । इसका सबसे अधिक प्रभाव हिमालयी, पश्चिमोत्तर, दक्षिण पूर्व और तटीय क्षेत्रों पर पड़ने वाला है। यह भी आशंका है कि उत्तराखंड और जम्मू कश्मीर में जलप्रलय की घटनाएं ५० फीसद् तक बढ़ सकती हैं । वर्ष २०१५ की आपदाओं ने पिछली सभी आपदाओं के आँकड़ें और भी भयावह कर दिये हैं । अब ऐसा लगता है कि प्राकृतिक आपदा के मानचित्र का पुर्ननिरीक्षण करके नये सिरे से बाढ़ व भूस्खलन प्रभावित क्षेत्रों को प्रकाश में लाने की आवश्यकता है। मणिपुर, पश्चिम बंगाल, उड़ीसा, गुजरात, जम्मू कश्मीर व हिमाचलप्रदेश में लगभग ४० लाख लोगों का जीवन बाढ़ के बीच झूल रहा है । पश्चिम बंगाल में बाँधों के जलाशयों से लगातार पानी छोड़ने के कारण यहाँ के दक्षिणी जिलों को इस बार बाढ़ ने अधिक तबाही मचाई है ।      
    वैज्ञानिक मानते हैं कि मानसून की रफ्तार बदलने और ग्लेशियरों के तेजी से पिघलने से सन् २१०० तक समुद्र का स्तर दो मीटर तक ऊपर जायेगा । यदि ऐसा हुआ तो दुनिया की ४० प्रतिशत आबादी पर सीधे संकट खड़ा हो जायेगा । वे या तो विस्थापित होंगे या उनका नामोनिशान मिट जायेगा । इस विषय पर विश्व की अग्रणी प्रवासी संस्था आई.ओ.एम. ने कहा है कि सन् २०५० तक आपदाओं की चपेट में आए एक अरब लोगों को अपने स्थान से हटना पड़ सकता है ।
     यह संकट पिछले २०-२५ वर्षों से अधिक बढ़ता चला जा रहा है। आपदाओं के कारण भारत में लगभग चालीस करोड़, लोग प्रतिवर्ष प्रभावित हो रहे हैं । ऐसी अधिकांश आबादी, पर्वतों, नदियों के किनारों पर अथवा समुद्र के तटीय क्षेत्रों में निवास करती है । ध्यान रखना जरूरी है कि हिमालयी नदियों का कहर मैदानी क्षेत्रों को बुरी तरह प्रभावित कर रहा है। यहाँ से आ रही गंगा, ब्रह्मपुत्र, झेलम, तवी, व्यास आदि नदियों ने पर्वतीय व मैदानी इलाकों में रह रहे लोगों की जिन्दगी भी तबाह करके रख दी है । पिछले २५ वर्षों में देखें तो जुलाई १९९१ में असम, जून १९९३ में मिजोरम, अरुणाचल प्रदेश, पश्चिम बंगाल, नागालैण्ड, मई १९९५ में मिजोरम, जम्मू, हिमाचल प्रदेश, अगस्त १९९८ में उत्तराखण्ड़, मई २००५ में अरुणाचल प्रदेश, अगस्त २००७ में हिमाचल, उत्तराखण्ड, अगस्त २०१२-१३ में उत्तराखण्ड और अगस्त-सितम्बर २०१४ में जम्मू कश्मीर और पुणे तथा कोसी की लगातार बाढ़ से मरने वालों की संख्या २० हजार से अधिक है ।
      उत्तरप्रदेश, बिहार, झारखण्ड़, पश्चिम बंगाल, उड़ीसा, गुजरात व महाराष्ट्र के इलाकों में जहाँ पहले बाढ़ आने का मतलब होता था कि कृषि भूमि में नमी बढ़ जायेगी और इससे उपजाऊ मिट्टी बहकर खेतों में पहुँचेगी । वहाँ अब विपरीत स्थिति यह है कि उनके खेत खलिहान तो तबाह हो ही गये, साथ ही उनके निवास भी रहने लायक नहीं रह पा रहे हैं । राज्य सरकारों के सामने स्थिति यहाँ तक पहुँच चुकी है कि अब वे करें तो क्या करें ? वे अपने किये धरे पर वर्षात की बाढ़ में पछतावा जरूर करते हैं ।
    जलवायु परिवर्तन को कोई नकार नहीं रहा है, लेकिन यह भी सच है कि पिछले छ: सात दशकों में ऐसा क्या हुआ कि वर्षाती मौसम ज्यादा ही जानलेवा हो गया है । इसमें कहीं न कहीं विकास के वर्तमान मॉडल को कई स्तरों पर चुनौती दी जा रही है । उत्तराखण्ड में १६-१७ जून, २०१३ को आई केदारनाथ आपदा के बाद उच्च्तम न्यायालय ने आपदा की सच्चईयों को जानने के लिये विशेषज्ञ समिति का गठन  किया था । रिपोर्ट पर केन्द्र की मोदी सरकार को भी हामी भरनी पड़ी । इसके लिये २४ जलविद्युत परियोजनाओं को दोषी माना गया । इसी तरह सितम्बर २०१४ में जम्मू कश्मीर में भीषण बाढ़ की तबाही का कारण नदियों के तटों को बर्बाद करनी वाली परियोजनाओं को बताया गया था । पहले इन क्षेत्रों में जहाँ पर २०-२५ घर, जो एक या दो मंजिलें होते थे, के स्थान पर अब वहाँ पर बहुमंजिली इमारतों की श्रंृखला खड़ी कर दी गई है । उत्तराखंड की चारधाम यात्रा में जहाँ तीर्थस्थलों पर सौ दो सौ लोग ही कुछ समय के लिये एकत्रित हो सकते थे, वहाँ रातों रात ८० हजार तक की संख्या में लोग पहुँच जाते हैं । एक तो बारिश के मौसम में पहाड़ियाँ बार-बार भूगर्भिक हलचलों से जर्जर हो रखी हैं, दूसरा इनके ऊपर बनाये गये बेतरतीब भवनों, आश्रमों, होटलों के अनियन्त्रित बोझ से हिमालय के तीर्थस्थल अब पर्यटकों की सुखद यात्रा में बाधक बन रहे हैं । इसी तरह पुणे का मलिण गाँव जो पर्वतीय आकार में ही बसा हुआ है को वहाँ पर विकास के नाम पर वृक्षों का कटान, खनन आदि के कारण उपजी आपदा ने बर्बाद कर दिया और सन् २०१४ में वहां १६० से अधिक लोग जिन्दा दफन हो गए थे । 
     पर्वतीय इलाकों में सड़कों के चौड़ीकरण से, नदियों में सीधे डम्पिंग करने, पंचतारा संस्कृति का विकास करने, सुरंग बाँधों का निर्माण करने और पर्यटकों की अनियंत्रित स्थिति से न निपट पाने, वनों में बार-बार आग लगना, भूमि अधिग्रहण, वनों का कटान, भूस्खलन क्षेत्रों को उचित तकनीक से न रोक पाने आदि कई कारणों से आपदा आ रही हैं । दूसरी ओर मैदानी क्षेत्रों में घनी आबादी, नालियों का अनियोजित निर्माण, नदियों को कूड़ा डम्पिंग के रूप में इस्तेमाल करने, बाँध व बैराजों का निर्माण, जैसी कई योजनायें हैं जो जल की निकासी को अवरुद्व कर रही हैं । हरित क्षेत्र और कृषि क्षेत्र का कम होना भी जलप्रलय के कारण बन रहे हैं ।
     इस प्रकार मैदानी और पहाड़ी आपदाओं से प्रभावित लोगों के  जख्म को भरने के लिये कई संस्थाएं, सरकार व कार्पोरेट मदद करने अवश्य पहुँचते हैं । ऐसे मौके पर उन्हें उस क्षेत्र में विकास के पैमाने को समझने का मौका भी मिलता है । वे बाढ़ और भूस्खलन के कारणों को तह तक जाने का प्रयास करते हैं लेकिन जैसी ही बाढ़ राहत का काम पूरा होता है फिर उस क्षेत्र में विकास के वही पुराने मानक चलने प्रारम्भ हो जाते हैं। यही स्थिति आपदा प्रभावित मैदानी इलाकों की भी हो रही है। पहाड़ों में विकास के मानक मैदानी नहीं हो सकते हैं, लेकिन अपने यहाँ तो जो विकास लखनऊ  और दिल्ली का होना है वही मानक उत्तराखण्ड, मणिपुर, मेघालय जैसे पहाड़ी और पश्चिम बंगाल के समुद्रतटीय क्षेत्रों के लिये बन जाते हैं। इस पर नीति आयोग द्वारा नये सिरे से विचार करने की आवश्यकता है।
      जब देश आजाद हुआ था तभी से योजना आयोग और संसद में हिमालय के लिये अलग नीति की माँग होती रही हैं। ये मांगंे हैंमैदानी क्षेत्रों में सुनियोजित आवासीय क्षेत्रों में पर्याप्त स्थान की उपलब्धता, खेती योग्य जमीन, पानी, जंगल का गाँवों में संतुलित बँटवारा हो, नदियों का प्रवाह बाधित न किया जाय, सहायक नदियों के जल क्षेत्रों में सघन रूप से वृक्षारोपण व जैविक खेती हो,पॉलिथीन प्रतिबन्धित हो । ऐसे विचारों पर गम्भीरतापूर्वक सोचा जाना चाहिए ।
     यह ध्यान रखना जरूरी है कि हमारे पास हिमालय पर्वत है जिसके १७ प्रतिशत क्षेत्र में बर्फ मौजूद है, लेकिन पूरे देश में जंगल अब केवल २३ प्रतिशत क्षेत्र मंे ही है, जिसके कारण बार-बार धरती की सेहत आपदा से बिगड़ रही है। सरकारों को यह समझ कब आयेगा कि जंगल को ३३ प्रतिशत कर दें, खेती को बचाकर रखें, पारम्परिक जल संरक्षण की तकनीक को बढ़ावा मिलें, ऊर्जा के वैकल्पिक स्त्रोत ढूंढ़े जायें । पानी का व्यापार नहीं, प्राकृतिक देन के रूप में रहें तथा आपदा प्रबन्धन के तरीके गाँव में हो ।

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