बुधवार, 18 नवंबर 2015

 स्वास्थ्य
इलनेस उद्योग बनाम वैलनेस उद्योग
डॉ. सुगन बरंठ

    स्वास्थ्य को उद्योग बनाने वालोें ने पहले बीमारियों का भरपूर लाभ उठाया और यह भारत का सबसे तेजी से बढ़ता उद्योग बन गया । परंतु इसके कर्त्ताधत्ताआें को समझ में आया कि अभी भी लाभ का कुछ  अंश कहीं और जा रहा है तो उन्होंने बीमारी के बजाए इसकी रोकथाम या वैलनेस को भी उद्योग में परिवर्तित कर उस पर भी कब्जा कर लिया ।
    आज हम स्वास्थ्य के बारे में जागरूक हैं लेकिन अब स्वास्थ्य एक ``उद्योग' बन चुका है । इस ''बीमारी उद्योग'` में डॉक्टर सेवा करने वाला नीतिमान व्यावसायिक नहीं, बल्कि वह सेवा देने वाला (सर्विस प्रोवाईडर) और रुग्ण ग्राहक (कस्टमर) बन चुका है । यह वैश्विक बाजारीकरण की भाषा है । सलाह दी जाती है कि यह खाओ, न खाओ, दवा खाओ और तमाम जांच भी कराते रहो । 
     कस्बे से लगाकर शहर तक बढ़ते सुपर स्पेशियलिटी अस्पताल, जांच की दुकानें और कंपनियां, फेमिली डॉक्टरों से ज्यादा विशेषज्ञ डॉक्टरों की बढ़ती संख्या और इस सारे बाजार में हमारा होता पोपट । इनसे आप भली भांति वाकिफ हैं । इस पूर्व  निर्धारित प्रक्रिया को 'बीमारी उद्योग' (इलनेस इंडस्ट्री) कहते हैं ।
    गत २५ साल में हर तहसील या प्रखण्ड के कस्बे या छोटे से शहर में 'जिम' नामक आधुनिक व्यायामशालाएँ खुली हैं । इसी काल में सारे अभिनेता उत्तम शरीर यष्टी, बंधे हुए एवं मजबूत दिखने लगे    हैं । गली कूचों के युवाओं का भी अब यही सपना बना दिया गया है। अब इस धंधे से जुड़े व्यवसाय/उद्योग जोरों पर हैं । वैश्वीकरण से समाज के एक वर्ग के पास बहुत पैसा बढ़ा है । ये लोग एकदम से आरोग्य के प्रति संवदेनशील बन गए । क्या खायंे, क्या ना खायंे इसकी चर्चाएं व्हाट्स अप, फेसबुक, ट्वीटर आदि माध्यमों में जोरों पर हैं। सलाह दी जाती है जैविक-विषमुक्त अन्न, फल, सब्जियाँ ही खाएं, देशज गाय का दूध, घी खाएं । ऐसे संदेश देती अनेक दुकानें भी खुल गई हैं ।
    तेल तो कब का ब्रांडेड हो गया है । छोटे छोटे कस्बोंे की तेल मिलों को तो काल निगल गया । नमक और दाल तक टाटा के हो गए हैं । तेल, साबुन, शेम्पू में तो कितने ही हर्बल (आयुर्वेदिक या वनस्पतिजन्य) उत्पादन बाजार में आ गए हैं । घृतकुमारी या ग्वारपाठा रस अर्थात् एलोवेरा, जामुन के सत के साथ करेला, नीम, आंवला सहित अनेक तैयार उत्पादन हम खरीद रहे हैं। असंतुलित व तनावपूर्ण जीवनशैली से, असुरक्षित जीवनवेग का जन्म हुआ है । यदि इसका लाभ ना उठाए तो वह पूंजीवाद किस काम का ? इसीलिए अब उन्होंने शुरु की 'वेलनेस इंडस्ट्री'। इस उद्योग के आज के वैश्विक आंकड़े चौंकाने वाले हैं । दुनियाभर में आज यह उद्योग सालाना १८०० लाख करोड़ तक पहुंच चुका है । अर्थात् दवा के  बाजार से भी तीन चार गुना ।
    इसमें आरोग्यपूर्ण एवं जैविक -विषमुक्त खेती उद्योग ३०० लाख करोड़ रु., आधुनिक व्यायामशाला २०० लाख करोड़ रु., सौन्दर्य बढ़ाकर उम्र छुपाने वाले उत्पादन ६०० लाख करोड़ रु, वैयक्तिक स्वास्थ्य सेवा २०० लाख करोड़ रु., वैकल्पिक औषधियाँ (आयुर्वेद, यूनानी, चीनी, नेपाली, सिद्ध आदि) ६ लाख करोड़ और बाकी जीवनशैली विषयक उत्पादन, प्रशिक्षण तथा निरोगी रहने की सेवाएँ आदि । इसके अलावा स्वास्थ्य पर्यटन (हेल्थ टूरिज्म) का व्यवसाय ३०० लाख करोड़ तक पहुंच गया है और इसमें हर वर्ष १२.५ प्रतिशत की दर से बढ़ोतरी हो रही है ।
    ब्यूटी पार्लर देहातों में पंहुच गए हैंऔर 'स्पा' नामक आविष्कार तो अब आपको शिर्डी जैसे तीर्थ स्थानों पर भी देखने को  मिलेगा । प्रत्येक पर्यटन केंद्र और आयुर्वेदिक डॉक्टर के पास ये सुविधाएं उपलब्ध हैं । यह व्यवसाय अब ३.५ लाख करोड़ तक पहुुँच गया है। केरलीयन मसाज भी आपको कमोवेश जिला स्तर पर मिलेगा । भोजन की तमाम जैविक वस्तुएँ अब सभी बड़े शहरों में आप जैविक किसानों से ऑनलाइन खरीद सकते हैं । मुंबई, पुणे में तो यह व्यापार शुरु हुए १० साल हो गए हैं । आश्चर्य नहीं कि आने वाले दिनों में कोकाकोला कंपनी ही नींबूरस, गन्ना, रस, आम का पना बाजार में लाए ।
    आज तक तो उन्होंने ही हमें जहर पिला कर कैंसर जैसे रोग बढ़ाएं और अपनी दवाइयां खूब बेची ।  जब इलनेस इंडस्ट्री की सीमा आ गयी तो अब वे वेलनेस इंडस्ट्री के उत्पादन भी हमें ही तो बेचेंगे । अभी भी रामदेव, हल्दीराम तथा ऐसी अनेक छोटी कंपनियाँ रोज हमारे घर में बनने वाले चीजें जैसे कोकम शरबत, आंवला शरबत, जेम, 'जीरो' प्रतिशत फेट के बिस्कुट, व्हीट ब्रेड, साबुन, पेस्ट तक नैसर्गिक उत्पादन के नाम पर बाजार में ले आई हैं । कोई बड़ी बहुराष्ट्रीय कंपनी इन्हें भी खरीद लें तो हमें आश्चर्य नहीं होना चाहिए । गत २५ साल में बने नवलक्ष्मीदास, स्वास्थ्य के प्रति बहुत अधिक संवेदनशील हो गए हैं । 
    वैकिल्पक औषधि एवं आयुर्वेदिक उत्पादनों की बिक्री में भारत दुनिया में दूसरे स्थान पर है। १९९६ में जब हमने गोमूत्र आधारित पहली छ: औषधियाँ बनाई, तब हम महाराष्ट्र में इसके एकमेव उत्पादक थे तथा इन्हें बिक्री के लिए नहीं बनाते थे। हमारे फार्मूले से जिसने उत्पादन शुरु किया वह सेवाभावी आदमी था, पर उसके बाद आने वाले ने कंपनियां बना डालीं । सन् २००४ में देश में इसकी ४२ कंपनियां थी जो सालाना ७२ करोड़ का व्यापार करती थी । आज ऐसी दवाएं, जैविक कीटनाशक, गोबर-गोमूत्र से बने साबुन, शैम्पू आदि बनाने वाली छोटी छोटी कंपनियों का व्यवसाय १००० करोड़ रु. से ज्यादा है । अब वह 'काऊ थेरपी' बन गया है। अब तो गोबर की       गणेश मूर्तियाँ भी बाजार में आ गयी हैं ।
    सन् २०१४ के वर्ष मंे भारत में कुल स्वास्थ्य उद्योग १६२०० करोड़ रु. का था । केवल भारत में इस आरोग्य विषयक बाजार की क्षमता का ४० प्रतिशत हिस्सा खान-पान का है। हमारे देश में आरोग्य विषयक सेवाओं की जननी कही जाने वाले आयुर्वेद, यूनानी, सिद्ध, योग (सॉरी, अब योगा कहना उचित होगा) और निसर्गोपचार के लिए गत दशक में 'आयुष' मंत्रालय की स्थापना क्या दर्शाती है ? वे रुग्ण सेवा नहीं बल्किआप बीमार ना हो इसके लिए आरोग्य उद्योग बढ़ाने में लगे हैं ।
    भारत में हजारों औषधि वनस्पतियां हैं । औषधियाँ और आरोग्यप्रद खाद्य पदार्थ बनाने       में ९००० लघु एवं मध्यम उद्योग कार्यरत हैं । वे प्रति वर्ष १२००० करोड़ के स्वास्थ्य उत्पाद बनाते हैं । छोटे उद्योगों को भारतीय बड़ी कंपनियां और भारतीय बड़ी कंपनियां को बहुराष्ट्रीय कंपनियां लील गईं । 
    इसी तर्ज पर योग का भी बाजार करने पर मेरा एक चालीस साल का मित्र बोला 'मुझे यह नुकसान वाला मुद्दा समझ में नही आया ।' मैंने कहा 'देखो । फलां फलां व्यक्ति बहुत कमाता है ।' पर परिवारिक कारणों से ह्दय रोग हो गया, दूसरे को व्यावसायिक तनावों से डायबिटीज हो गई, तीसरे को बैठे काम से मोटापे ने जकड़ लिया और चौथे को मानसिक असंतुलन हो गया । ये लोग अगर स्वास्थ्य सेवाएँ लेंगे अर्थात जिम जाएंगे, जैविक भोजन लेंगे, योगा करेंगे तो निरोगी रहकर अधिक एकाग्रता से काम करते हुआ नए नए हुनर, तंत्र कौशल सीखेंगे । तब उन्हें और कंपनी की आय में वृद्धि होेेगी । अर्थात देश की जी. डी. पी. में वृद्धि होगी । यदि ये लोग इस उद्योग की सेवाएं ना खरीदंे तो देश  का नुकसान होगा की नहीं ? वही है ९ लाख करोड़ का नुकसान ।       समझे ?
    हमंे इस पर विमर्श करना चाहिए कि स्वास्थ्य को उद्योग बनाने की चाल किसकी है ? यह ना होता तो जो रोजगार इससे पैदा हुआ है उन्हें हम क्या विकल्प देते ? बढ़ती जनसंख्या को रोजगार कैसे मिलेगा ? स्वास्थ्य उद्योग का अगला कदम और भविष्य कैसा होगा ? इससे कौन लाभान्वित होंगे और कौन बर्बादी की कगार पर धकेले जाएंगे ? विकसित देशों में इसका क्या हाल है और विकासशील देशोें के गरीबों का क्या होगा ?

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