बुधवार, 18 नवंबर 2015

हमारा भूमण्डल
कार्बन उत्सर्जन घटाने की जिम्मेदारी
प्रमोद भार्गव

    अब तक भारत सहित सारे विकासशील देशों का तर्क रहा है कि कार्बन गैसों के उत्सर्जन में विकसित देशों की भूमिका अधिक है, इसलिए इन पर रोक की जिम्मेदारी उनकी ही है, साथ ही उन्हें उत्सर्जन कम करने की तकनीक में भी निवेश करना चाहिए ।
    भारत और चीन जैसे देशों की सामान्य मान्यता यही है कि अगर वे विकसित देशों का नजरिया स्वीकार करें तो इसका उनके आर्थिक विकास पर नकारात्मक असर होगा । खासकर इस तय को जानते हुए कि भुखमरी, गरीबी, अशिक्षा और बेरोजगारी जैसी समस्याएं उनके पाले मेंअधिक हैं । 
     अपनी महत्वाकांक्षी योजना पेश करते हुए यह साफ कर दिया है कि पर्यावरण संरक्षण की दिशा में वह अपनी जिम्मेदारियों ये पीछे नहीं हटने वाला । सरकार ने जो योजना विश्व के सामने रखी है उसके मुताबिक २०३० तक देश के ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में ३३ से ३५ प्रतिशत तक की कटौती की जाएगी । यह कटौती २००५ में ग्रीनहाउस उत्सर्जन की तुलना में होगी । भारत ने एक और महत्वपूर्ण घोषणा करते हुए यह भी कहा है कि २०३० तक कुल बिजली उत्पादन का ४० प्रतिशत नवीनीकृत ऊर्जा स्त्रोतोंसे प्राप्त् होगा । कार्बन प्रदूषण कम करने की दिशा में भारत ने यह भी तय किया है कि जंगलों का क्षेत्र बढ़ाया जाएगा । भारत के ये रोडमैप, जिसे आईएनडीसी कहते हैं, संयुक्त राष्ट्र के उस प्रोटोकॉल का हिस्सा है जिसमें सभी देशों को पेरिस सम्मेलन से पहले कार्बन उत्सर्जन कम करने के लक्ष्यों की घोषणा करनी थी । पेरिस में अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन ३० नवम्बर से होना है । इसका मकसद २०२० से अमल में आने वाली जलवायु परिर्वतन संधि को अंतिम रूप देना  है ।
    गौर करनेवाली बात है कि भारत ने अपनी घोषणा का दिन दो अक्टूबर को चुना, जो गांधीजी की जयंती है । देश के सबसे बड़े आइकॉन की जयंती पर घोषणा कर भारत ने सकारात्मक संकेत दिया है । भारत आज सकल रूप से अमेरिका और चीन के बाद कार्बन का तीसरा सबसे बड़ा उत्सर्जक देश है । हालांकि यह सच्चई भी कायम है कि भारत का प्रति व्यक्ति उत्सर्जन अब भी बहुत कम है । इस बिंदु पर भारत पहले कई बार विकसित देशोंसे उलझता रहा है, लेकिन अब ज्यादा उलझाव पैदा करने की जरूरत नहीं ।
    हम पेचीदगियों में न पड़ें, यह अच्छी बात है । आखिर हम जो लक्ष्य तय कर रहे है उससे पूरी मानव जाति का भला है । हालांकि अभी यह समझना जल्दबाजी होगी कि भारत की इस घोषणा से नई संधि का रास्ता खुल गया है । कुछ मुद्दे हैं, जिन पर अब भी विकासशील और विकसित देशों में टकराव की गुंजाइश है । गौर करने वाली बात है कि इनमें भारत का रोल काफी अहम है । सबसे बड़ा सवाल तकनीक और धन का होगा । जब क्योटो प्रोटोकॉल की वार्ताएं चल रही थीं, उस समय विकसित देशों ने पिछड़े और विकासशील देशों को जलवायु परिवर्तन रोकने के उपाय करने के लिए धन और तकनीक देने का वादा किया था । यह वादा पूरी तरह से अभी पूरा नहीं हुआ है ।
    विकासशील देश इस सिद्धांत को मानते है चूंकि ऐतिहासिक रूप से विकसित देशों ने अधिक प्रदूषण फैलाया है, इसलिए उनकी जिम्मेदारी भी अधिक बनती है । विवाद का एक और बड़ा मसला विभिन्न देशों की ओर से तय योजना के अमल पर निगरानी और समीक्षा से जुड़ा हुआ है । भारत जैसे विकासशील देशों को अपेक्षा है कि इसमें उन्हें कुछ रियारत जरूर हासिल होगी । अगर विकासशील देशों की चिंताआें पर विकसित देश ध्यान नहीं देते तो     न  तो वार्ता का प्रतिफल कुछ निकलेगा और न ही पर्यावरण की दशा सुधरेगी । हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि पर्यावरण संरक्षण की दिशा में वार्ता पर वार्ता हो रही है लेकिन इसके परिणाम आशानुरूप नहीं दिख रहे । ज्यादातर वार्ताआें की सफलता विकसित देशों के रवैये पर निर्भर करती है । दरअसल विकसित देशों द्वारा क्योटो प्रोटोकाल को खारिज करने की कोशिश की जा रही है ।
    विकसित देश अपने और विकासशील देशों के बीच के मूलभूत अंतर को नजरअंदाज कर आगे बढ़ने की नीति पर चल रहे हैं । उम्मीद की जाती है कि विकसित देश कार्बन उत्सर्जन की ठोस योजना पेश करें लेकिन वे कार्बन उत्सर्जनसे जुड़े आंकड़े सामने लाने को लेकर गंभीरता नहीं दिखा रहे । उनकी पूरी कोशिश है कि क्योटो प्रोटोकाल की जगह एक नई व्यवस्था बनाई जाए । यह बिल्कुल स्पष्ट है कि ग्लोबल वार्मिंग का कारण ग्रीनहाउस गैसें हैं और इसे हर हाल में कम किया जाना चाहिए । विकसित और विकासशील देशों के बीच जो गतिरोध है उन्हें खत्म करने के लिए जरूरी है कि दोनों पक्षों की भूमिका सकारात्मक  हो ।
    विकसित देश, जिनकी अगुवाई अमेरका कर रहा है, चाहते हैं कि भारत और चीन जैसे देश लक्ष्य बनाकर क्लोराफ्लेरोकार्बनगैसों का उत्सर्जन कम करें । अब तक भारत सहित सारे विकासशील देशों का तर्क रहा है कि कार्बन गैसों के उत्सर्जन में विकसित देशों की भूमिका अधिक है और इसलिए इन पर रोक की जिम्मेदारी उनकी ही है, साथ ही उन्हें उत्सर्जन कम करने की तकनीक में भी निवेश करना चाहिए । भारत और चीन देशों की सामान्य मान्यता यही है कि अगर वे विकसित देशों का नजरिया स्वीकार करें तो इसका उनके आर्थिक विकास पर नकारात्मक असर होगा । खासकर इस तथ्य को जानते हुए कि भुखमरी, गरीबी, अशिक्षा और बेरोजगारी   जैसी समस्याएं उनके पाले मेंअधिक हैं ।
    विकसित देश बार-बार इस आंकड़े को सामने रख रहे हैं कि इस समय कार्बन उत्सर्जन की ८० फीसद वृद्धि भारत और चीन में हो रही है । लेकिन भारत और चीन के तर्क हैं कि यह दर एक तो उसकी अर्थव्यवस्था कके विकास के लिए अपरिहार्य है, दूसरा यदि यही दर एक-दो दशक तक भी जारी रही तो भी प्रति व्यक्ति उत्सर्जन अमेरिका जैसे देशों की तुलना में कम होगा । गौर करने वाली बात है कि क्योटो प्रोटोकाल के तहत जो बाते हुई, वे विकासशील देशों के नजरिये के पक्ष मेंजाती हैं । विकसित देश चाहते हैं कि विकासशील देश कार्बन उत्सर्जन में कटौती तो करें ही, इसमें आने वाली लागत का भार भी खुद वहन करें । यह बात विकासशील देशों को मंजूर नहीं । लेकिन गौर करने वाली बात यह है कि भारत और चीन दोनों को यह पता है कि उनकी नियंत्रण भूमिका में इधर काफी विस्तार हुआ है और इसलिए अन्य देशों को उनसे उम्मीदें भी अधिक हैं ।
    ये दोनों देश इस चीज से बचना चाहते हैं कि उन्हें जलवायु परिवर्तन की समस्या को लेकर अगंभीर व जिम्मेदारहीन न मान लिया जाए । खासकर जबसे अमेरिका ने १९९० के मुकाबले २०५० तक ग्रीनहाउस गैसोंके उत्सर्जन में ८० फीसद और जापान ने २५ फीसद कटौती की बात की   है । वैसे अमेरिका में एक बड़ा गतिरोध रिपब्लिकन पार्टी की ओर से आ रहा है । यह पार्टी मानती है कि गैस उत्सर्जन में कमी होने से विकास बाधित होगा । रिपब्लिकनों के विरोध के कारण वहां कटौती का प्रस्ताव पास करवा पाना मुश्किल साबित हो रहा है । पर्यावरण बचाने की मुहिम पांच-छह साल पहले कुछ हद तक पटरी पर आती दिख रही थी, लेकिन इस बीच आई आर्थिक मंदी ने इस मुहिम को नुकसान पहुंचाया । क्योंकि मंदी के बाद तमाम देशों का ध्यान अपने आर्थिक विकास को किसी तरह तेज करने पर गया, लेकिन शायद ही कहीं गंभीरता से यह प्रयास हुआ कि ऐसा पर्यावरण विनाश की शर्त पर कतई न हो ।
    विकसित देश तो इस चालाकी में लगे हुए हैं कि कैसेअपने नुकसानदायक उद्योग धंधे को विकासशील और पिछड़े देशों में शिफ्ट कर दिया जाए । लेकिन अब समय चालाकी बरतने का नहीं है । उम्मीद की जानी चाहिए कि पेरिस में जब दुनियाभर के देश इस मुद्दे पर जमा होंगे, कोई ऐसा रास्ता निकलेगा जो पूरी दुनिया के हित में होगा । सभी देशों को इस मसले पर साहस दिखाने की जरूरत है ।

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