मंगलवार, 19 जनवरी 2016

हमारा देश
भारत की प्राकृतिक संपदा की लूट
डॉ. मिथिलेश कुमार दांगी
    भारत और इंडिया के बीच की खाई लगातार चौड़ी होती जा रही है। भारत का एक वर्ग सत्ताधीशों के साथ मिलकर देश की प्राकृतिक संपदा को खुलेआम लूट रहा है । इस प्रक्रिया से देश के आम नागरिकों का आर्थिक व सामाजिक स्तर दिनांे दिन कमजोर होता जा रहा है ।
    मानव जीवन के सृष्टिकाल से ही मानव का अपने पर्यावरण के साथ अगाध संबंध है । मनुष्य अपनी जरूरत की चीजें पर्यावरण से लेता रहा है । वस्तुत: वह भी स्वयं प्रकृति का एक अंग है। परंतु जब मानव सभ्यता स्थायी हुई और पहले समाज एवं बाद में सरकार नामक संस्थाओं का गठन शुरु हुआ तभी से मानव जीवन में दूसरे शक्तिशाली मानव की दखल अंदाजी भी प्रारंभ हो गई ।
     भारत के संदर्भ में कहें तो आदिकाल से अंग्रेजों के आने तक प्राकृतिक संसाधनों की मालिकियत जनसमुदाय के हाथों में सुरक्षित    रही । परंतु अंग्रेजों के शासनकाल में सभी संसाधनों से धन वसूली की चाहत ने लोेगों से यह अधिकार छीन लिये । अंग्रेजोंे के चले जाने के बाद हालांकि संविधान में सिद्धांत: संसाधनों पर जनसमुदाय को नियंत्रण दिया गया है परंतु गैर संवैधानिक ढंग से सरकारों ने इन्हें अपने हाथों में रख लिया तथा इनके लूट की खुली छूट देशी एवं विदेशी कंपनियों को दे दी है । विकास एवं रोजगार के नाम पर हमारे देश का एक वर्ग सरकारों के इन कुकृत्यों का समर्थक एकं पोषक बना हुआ है । तथाकथित विकास के इस दौर में देश के अंदर स्पष्टत: दो देश दिख रहे हैं। इनमें से एक का नेतृत्व इसके१०-१५ प्रतिशत लोग कर रहे हैं जो देश को ``इंडिया`` कहते हैंऔर जिन्होंने देश के ७०-८० प्रतिशत संसाधनों पर कब्जा कर रखा है ।
    यह देश भारत का शोषक   है । दूसरे भाग में ८५-९० प्रतिशत लोेग निवास करते हैं जो अपने देश को भारत के नाम से जानते हैंऔर जिनके हिस्से में देश के २०-३० प्रतिशत संसाधन आ पाते हैं । इसी भारत में शोषित समाज जिनमें किसान, कारीगर, एवं अन्य मेहनतकश ग्रामीण शामिल हैं, निवास करते हैं ।
    इंडिया एवं भारत के बीच की खाई अब विकराल रूप लेती जा रही है । सबसे दुखद बात तो यह है कि केन्द्र एवं राज्य सरकारें `इंडिया` के विकास के लिए `भारत` को नेस्तनाबूत करने पर तुली हुई हैं ।  विकास के नाम पर भारत केदलितों, जनजातियों एवं किसानों से उनकी उपजाऊ जमीनें कंपनियोंके लिए छीनकर उन्हें बेदखल किया जा रहा है । भारत सरकार नए नए कानूनों एवं अध्यादेशों के माध्यम से उन्हें बर्बाद करने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ रही है । कारपोरेट शक्तियों के हाथों देश के संसाधनों को बुरे तरीके से लुटवाया जा रहा है। आज का भारत एक तरह से इंडिया का उपनिवेश बन कर रह गया है ।
    सौभाग्यवश इस लूट के खिलाफ संघर्ष करने वाले मुट्ठी भर लोग वास्तविक भारत का प्रतिनिधित्व करते हैं । परंतु दुर्भाग्य यह है कि अपने संसाधनों की रक्षा करने वाले यह तमाम संघर्षशील लोग बिखरे हुए हैं । इन लोगों की स्थिति कबीले जैसी है । प्रत्येक कबीला प्रमुख अपने आप को श्रेष्ठ तथा दूसरे नेतृत्व को कमतर समझता है । इसका परिणाम यह हो रहा है कि सभी बचाने वाले अलग अलग दिखाई पड़ते हैं जबकि संसाधनों को लूटने वाले एकजुट होकर आम जनता पर लगातार आक्रमण कर रहे हैं । समय की पुकार है कि ऐसे तमाम संघर्षशील अपने अपने कबीलों से बाहर निकलकर एकजुट हों तथा सभी प्राकृतिक संसाधनों जो जनसमुदाय के हैं, उनकी रक्षा एवं उस पर मालिकियत स्थापित करने के लिए साझा संघर्ष प्रारंभ किया जाए ।
    भारत का संविधान (अनुच्छेद ३९ बी) भी संसाधनों पर जनसमुदाय की मालिकियत की बात करता है । सर्वोच्च् न्यायालय के एक फैसले में यहां तक कह दिया गया कि जमीन मालिक ही खनिज का मालिक है सरकारें नहीं । इतने स्पष्ट फैसले के बावजूद वर्तमान मोदी सरकार ने एक और कानून बनाकर खनिज लूट को बेतहाशा बढ़ाया गया है । अब तो रायल्टी के नाम पर देश को  ठगा जा रहा है ।
    खनिजों पर मालिकियत की अनिवार्यता को समझने के लिए झारखंड़ में कोयला एवं सोना भंडार को देख सकते हैं । अन्य खनिजों की लूट को शामिल कर दिया जाए तो यह लूट लगभग १००० गुना हो    जाएगी । झारखंड सरकार के वन एवं पर्यावरण मंत्रालय द्वारा प्रकाशित पुस्तक ``ग्रीन कॉरिडोर`` के अनुसार झारखंड में सोने का भंडार ७२ मिलियन टन है यानी ७ करोड़ २० लाख टन अर्थात ७२ अरब किलोग्राम  अगर भारत की आबादी अगले दो वर्षों में १४४ करोड़ हो जाए तो भारत में प्रति व्यक्ति ५० किलोग्राम सोना भंडार सिर्फ  झारख्ंाड में है । यह भंडार यहां की सरकार ने न्यूजीलैंड की दो कंपनियों को खनन के लिए दिया    है । इसी प्रकार झारख्ंाड मेें कोयला का भंडार है ६९००० मिलियन टन जिसकी बाजार भाव ३००० रु. प्रति टन के हिसाब से कुल कीमत आती है २०७ मिलियन रुपये । इसका अर्थ हुआ २ करोड़ ७ लाख करोड़ रुपये । अर्थात् झारखंड से सिर्फ  कोयला मद में देश के एक व्यक्ति के हिस्से के एक लाख ६५ हजार रु. कंपनियों को दिए जा रहे हैं । इसी तरह समूचे देश की संपत्ति का ब्योरा लगाया जा सकता है ।
    अतएव संघर्ष के साथियों के बीच यह प्रश्न उठता है कि इस लूट के चुपचाप सहते रहंे या इसके खिलाफ एकजुट होकर इसे रोकें तथा इन संसाधनों पर जनसमुदाय के स्वामित्व की दिशा में आगे बढ़ें । हमें अब मुआवजा तथा पुनर्वास के बहकावे से ऊपर उठना होगा । तभी भारत के ७०-८० जनता की भलाई हो पाएगी तथा उन्हें इज्जत की जिंदगी नसीब हो पाएगी अन्यथा वे उजड़ते रहेंगे ।

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