मंगलवार, 19 जनवरी 2016

ज्ञान-विज्ञान
कार्बन डाईऑक्साइड और तापमान दोनों बढ़ रहे हैं
    मौसम की खबरें अच्छी नहीं है । यदि कार्बन डाईऑक्साइड के उत्सर्जन के स्तर में वृद्धि को तत्काल रोक दिया जाए, तो भी दुनिया का औसत तापमान औघोगिक युग से पहले के तापमान से १.६ डिग्री सेल्सियस ज्यादा हो जाएगा । आज तक जलवायु को लेकर जो भी बातचीतें हुई है उनमें तापमान में वृद्धि को २ डिग्री सेल्सियस तक सीमित रखने पर जोर दिया जाता रहा है । मगर वह लक्ष्य पूरा होता नहीं दिखता । 
       वायुमण्डल में कार्बन डाईऑक्साइड की मात्रा काफी हद तक वैश्विक तापमान वृद्धि के लिए जिम्मेदार है । विश्व मौसम विज्ञान संगठन ने अपनी ताजा रिपोर्ट में बताया है कि इतने सालों में पहली बार वायुमण्डल में कार्बन डाईऑक्साइड की मात्रा ४०० अंश प्रति दस लाख अंश (यानी ४०० पीपीएम) को पार कर गई ।
    दूसरी और, यूके के मौसम विभाग ने रिपोर्ट दी है कि दुनिया का तापमान औघोगिक युग से पहले की अपेक्षा १ डिग्री सेल्सियस अधिक हो चुका है । इसी के आधार पर कहा जा रहा है कि यदि कार्बन डाईऑक्साइड उत्सर्जन में और वृद्धि न हो तो भी ०.६ डिग्री की और वृद्धि से बचा नहीं जा सकेगा । विकास की वर्तमान राजनीति को देखते हुए यह तो संभव नहीं लगता कि रातों रात सारे देश कार्बन उत्सर्जन को आज के स्तर पर रोकने को तैयार हो जाएंगे ।
    वैसे कई सारी जलवायु संधियों में विभिन्न देशों ने कार्बन उत्सर्जन को लेकर वायदे किए हैं । यदि सारे देश अपने-अपने वचनों का पालन करेंगे तो भी २०३०   तक तो कार्बन उत्सर्जन बढ़ता ही जाएगा । यानी वैश्विक तपन में वृद्धि को २ डिग्री तक सीमित रखना अब संभव नहीं लगता ।
एक झील, एक मछली और एक हजार प्रजातियां
    दक्षिण-पूर्वी अफ्रीका की मालवी झील में चिक्लिड मछली की कम से कम १००० प्रजातियां पाई गई है । ये काफी मिलती-जुलती हैं और नजदीकी संबंधी भी है मगर हैं सारी की सारी अलग-अलग प्रजातियां अर्थात इनमें आपस में प्रजनन नहीं हो सकता ।
    इनका अध्ययन   करने वाले सिरेक्यूज विश्व-विघालय के क्रिस्टोफर शोल्ज का ख्याल है कि इतने छोटे से इलाके में एक ही मछली की इतनी सारी प्रजातियों का होना काफी रोमांचक है और प्रजातियों की उत्पत्ति के मॉडल्स में इसका प्रमुख स्थान है । मगर सवाल यह है कि इतनी विविधता पैदा कैसे हुई ।
     कुछ लोगों को लगता है कि पर्यावरणीय कारकों ने यह विविधता पैदा की है । मगर कुछ अन्य लोगों का विचार है कि इस विविधता के पीछे जैविक कारकों का हाथ है । उदाहरण के लिए कुछ मादाएं ऐसे नरों के प्रति वर्णाध होती है जो उन्हीं के रंंग के न हो । यानी उनमें सिर्फ वहीं रंग पहचानने की क्षमता होती है  जो उनका खुद का रंग है । यह स्थिति उनके बीच प्रजनन में बाधक बन जाएगी ।
        इस बहस को विराम देने के लिए शोल्ज और उनके साथियों ने झील में से करीब १३ लाख वर्षो की तलछट का अध्ययन किया । उन्होंने पाया कि इस अवधि में इस झील का जल स्तर कम से कम २४ बार २०० मीटर से कम हुआ था । इस तरह के नाटकीय परिवर्तनों  के कारण प्राकृतवास का स्वरूप बदल जाता है । एक तो पानी कम होने पर चट्टानी तटरेखा अंदर की ओर सिकुड़ जाती है । पानी की अम्लीयता भी बदलती है और लवणों की सांद्रता भी बदल जाती है । कई बार तो पानी कम होने पर झील टुकड़ों में बंट जाती है, उसमें टापू उभर आते हैं । ऐसी परिस्थितियां विविधता को बढ़ावा देती है ।
    मगर जो बात गौरतलब है वह यह कि हर झील फिर से अपने मूल स्वरूप में आई और ये सारी मछलियां फिर से साथ-साथ रहने लगी । मगर किसी वजह से वे एक-दूसरे से भिन्न बनी रही । ऐसा क्यों हुआ होगा, इसे समझने के लिए उनके व्यवहार में बारीक अंतरों, उनके प्रजनन व्यवहार में अंतरों और उनके भोजन लेने के अंगों में पैदा हो रहे अंतरों के जेनेटिक आधार को समझना होगा । वैसे शोल्ज का मत तो यही बना है कि झील के पानी में उतार चढ़ावों ने ही इतनी विविधता को जन्म दिया है । वे कहते है कि पास की एक अन्य झील तंजानिका झील में घोंघो की ऐसी ही जबर्दस्त विविधता है । वे दखना चाहेंगे कि क्या वहां भी इसी तरह के कारक रहे है ।
बिना मेहनत कपड़े होंगे चकाचक
    तकनीक की बदौलत हमारे रोजमर्रा के काम हर दिन आसान होते जा रहे है । ताजा उदाहरण है जर्मन उद्यमी लेना सोलिस द्वारा ईजाद डॉल्फी नामक यह उपकरण । इस किफायती उपकरण की खास बात है कि यह अल्ट्रासोनिक तरंगों से कपड़ों की धूलाई करता है । मतलब अब कपड़े धोने के लिए मेहनत  की जरूरत नहीं पड़ेगी । 
     डॉल्फी का आकार साबुन की बट्टी जितना है यह बिजली से चलने वाला एक उपकरण है । डॉल्फी की कीमत तकरीबन ६६०० रूपये और २०१६ की पहली तिमाही में कंपनी ८ हजार उपकरण बेचने की योजनाबना रही है ।  
    पहले गंदे कपडो को डिटर्जेंाट वाले पानी में डाला जाता है और इस पानी में डॉल्फी को डाल दिया जाता है । उपकरण से शक्तिशाली अल्ट्रा-सोनिक तरंगे निकलती है, जिससे उच्च् दबा पैदा होता है जो बुलबुले बनात है ।
    बुलबुले पानी में फटते है और मैल निकाल देते है । प्रक्रिया से कपडे आधे घण्टे में साफ हो जाते है ।
    धुलाई के दौरान कपड़े रगड़ने की जरूरत नहीं पड़ती । इससे बार बार धुलाई करने पर भी कपड़े खराब  नहीं होते है ।
एक झील में डायनासौर के सैकड़ों पदचिन्ह मिले
    अकस्मात ही सही मगर स्कॉटलैंड की एक तटीय झील में डायनासौर के सैकड़ों पदचिन्हों के जीवाश्म मिले है । यह झील स्काई टापू पर समुद्र तट से थोड़ी ही अंदर है । एडिनबरा विश्वविघालय के स्टीफन बु्रसेट और टॉम चेलैंड्स ने किसी अन्य चीज की तलाशा करते-करते ये पदचिन्ह खोजे हैं । चाहे यह खोज संयोगवश हुई हो मगर डायनासौर के जीवन को समझने में इससे काफी मदद मिलने की उम्मीद है । 
     दरअसल, ब्रुसेट और चेलैंडस उस इलाके में काफी समय से मछलियों के दांत और मगरमच्छों की हडि्डयों की खोज कर रहे थे । जब वे दिन का काम पूरा करके लौटने को ही थे कि उनकी नजर कुछ ग ो जैसी रचनाआें पर पड़ी । ध्यान से अवलोकन करने पर समझ में आया कि ये तो किसी जन्तु के पैरों के निशान है ।
    पदचिन्हों की साइज - ७० से.मी. से अंदाज लगा कि ये शुरूआती सौरोपोड्स ने छोड़े होंगे । सौरोपोड्स काफी बड़े जानवर होते   थे । इनका वजन करीब २०-२० टन और लंबाई १५ मीटर तक होती थी, ऊंचाई तो कई मंजिलों के बराबर होती थी । डायनासौर में सबसे मशहूर टायरेनौसैरस रेक्स (टी.रेक्स) के मुकाबले ये कहीं ज्यादा बड़े हुआ करते थे और शाकाहारी थे ।
    अनुमान है कि ये जीवाश्म मध्य जुरासिक युग (यानी करीब १७ करोड़ वर्ष पूर्व) के हैं । सौरोपोड्स की हडि्डयों के जीवाश्म तो बहुत दुर्लभ है और पदचिन्ह भी बहुत कम पाए जाते हैं । इसीलिए स्कॉटलैंड में हुई खोज महत्वपूर्ण मानी जा रही है । ब्रुसेट व चेलैंडस का विचार यह है कि सौरोपोड्स तैराक तो नहीं रहे होगें । मगर उनकी ऊंचाई काफी थी ।

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