बुधवार, 16 मार्च 2016

विशेष लेख
जलवायु परिवर्तन : कारण एवं निवारण
प्रो. कृष्ण कुमार 

सामान्यत: किसी भी स्थान की दीर्घकालीन मौसमी दशाएं जलवायु कहलाती है । जलवायु स्थिर रहती है वर्तमान समय में कुछ प्राकृतिक एवं अधिक मानव जनित कारणों से जलवायु स्थिर नहीं रह पा रही हैं । फलस्वरूप जलवायु परिवर्तन की समस्या आज प्रमुखता से विश्व में छाई हुई है । जलवायु परिवर्तन से आशय जलवायु में प्रत्यक्ष रूप से दिखने वाले बदलावों से है । यह बदलाव एक दो महीने या वर्ष में नहीं है वरन इसे होने में कई दशक या हजारों लाखों वर्षो का समय लगता है । जलवायु परिवर्तन की काली छाया मात्र हमारे प्रदेश-देश पर ही नहीं वरन् सम्पूर्ण विश्व पटल पर मंडरा रही है । वर्तमान समय में जलवायु परिवर्तन एक वैश्विक समस्या बन चुकी है । आज अधिकांश वैश्विक सम्मेलकों में जलवायु परिवर्तन का ही मुख्य मुद्दा छाया हुआ है । 
ग्लेशियरों का पिघलना, भूमण्डलीय तापन, अतिवृष्टि सूखा, सुनामी जैसी समस्याएं जलवायु में हो रहे परिवर्तन का ही परिणाम परिलक्षित करती है । जलवायु में हो रहे परिवर्तन के मूल जो कारण है उनमें कुछ कारण प्राकृतिक अवश्य हैं किन्तु अत्यधिक कारण मानव जनित ही है । प्राकृतिक कारणों में मुख्य रूप से ज्वालामुखी उदभेदन आते है जिनमें अंदर द्रवित चट्टान, लावा, भस्म तथा गैसे निकलती है । गैसों में मुख्य रूप से सल्फर डाई आक्साइड, सल्फर ट्राइआक्साइड, क्लोरीन, वाष्प, कार्बन डाई आक्साईड, हाइड्रोजन सल्फाइड तथा कार्बन मोनो आक्साइड आदि होती है । ज्वालामुखी विस्फोट के कारण धूल एवं राख के कण भी गैंसों के साथ बहुत ऊपर तक चले जाते है और वायुमण्डल में वर्षो तक विद्यमान रहकर जलवायु को प्रभावित करते   है । प्राकृतिक कारणों में महासागरीय धाराएं आती है । पृथ्वी के ७० प्रतिशत से अधिक  हिस्से में स्थित सागर, महासागरों तथा जलवायु के निर्धारण में सबसे अधिक योगदान होता है । समय-समय पर समुद्र अपना ताप वायुमण्डल में छोड़ता है जिससे जलवायु प्रभावित होती है । अत्यधिक ताप जलवायु के रूप मेें पृथ्वी पर ग्रीन हाऊस गैस के प्रभाव बढ़ाता    है । जिससे जलवायु प्रभावित होती   है । 
यहाँ उल्लेखित है कि जलवायु परिवर्तन के लिए सबसे अधिक मानवजनित कारण ही आते है उनमें सर्वप्रथम आता है कार्बन डाइआक्साइड उत्सर्जन में लगातार होती वृद्धि । बढ़ते नगरीकरण एवं औघोगिकीकरण के कारण वायुमण्डल में कार्बन डाइआक्साइड की मात्रा बढ़ रही है साथ ही वनों की अत्यधिक कटाई और दोहन के कारण पेड़ पौधों द्वारा कार्बन डाइआक्साइड  को ऑक्सीजन में परितर्वन करने की प्रक्रिया भी मंद होती आती है जिससे कार्बन डाइआक्साइड के साथ-साथ अन्य घातक गैसे जिसमें मीथेन, नाइट्रोजन आक्साइड, क्लोरो फ्लोरो कार्बन आदि सभी मिलकर ग्रीन हाऊस प्रभाव वायुमण्डल में उत्पन्न करते है जो जलवायु परिवर्तन के लिए प्रमुख कारण बन जाता है क्योंकि वायुमण्डल में स्थित ये गैसे काँच की तरह व्यवहार करती है इसमें सूर्य का ताप आ तो जाता है पर वापस नहीं जा पाता है जिससे ताप बढ़ता है और जलवायु प्रभावित होती है । 
जलवायु परिवर्तन के लिए उत्तरदायी दूसरा प्रमुख कारण है कि आधुनिक कृषि, जिसमें रासायनिक उर्वरकों का अंधाधुंध प्रयोग एवं कीटनाशकों के अत्यधिक छिड़काव के कारण एक साथ जल, मिट्टी वायु में प्रदूषण बढ़ता है । जलमग्न चावल की जुताई से तथा जुगाली करने वाले पशु भी वातावरण में मीथेन उत्सर्जन करते है इससे हरित गृह प्रभाव बढ़ता जाता है । उल्लेखनीय है कि वायुमण्डलीय मीथेन दीर्घ आवेशित विकिरणों को आवेशित करने में कार्बन डाइआक्साइड के मुकाबले २२ गुना अधिक प्रभावी होती है । 
जीवाश्म आधारित ईधन के अत्यधिक उपयोग से भी कार्बन डाइआक्साइड एवं नाइट्रोजन डाइआक्साइड जैसी गैसों का उत्सर्जन इस कदर बढ़ा है कि जिससे वायुमण्डल में हरित गृह प्रभाव वाली गैसे संचयन लगातार बढ़ रहा है जिससे वायु एवं जल प्रदूषण बहुत अधिक बढ़ा है । अम्लीकरण भी इसी का परिणाम है । वाहनों में तेल दहन से वायु में ३० प्रतिशत तक कार्बन डाइआक्साइड का उत्सर्जन बढ़ा है । दूसरी तरफ बढ़ते शहरीकरण, औघोगिकीकरण ने कृषि क्षेत्रों, वन क्षेत्रों का रकबा निरन्तर कम किया है जिससे चतुर्दिक प्रदूषण इस हद तक बढ़ाया है कि भूमण्डलीय तापन की समस्या बढ़ी है और जलवायु परिवर्तन की समस्या विकराल होती जा रही   है । 
आगामी समय में जलवायु परिवर्तन के निम्न दुष्परिणाम भोगने होंगे - 
बढ़ते ताप के कारण नदियों, तालाबों, झीलों, सागरों एवं महासागरों में वाष्पीकरण बढ़ेगा जिसमें असमय में अतिवृष्टि, बाढ़ की समस्याएं बढ़ेगी । साथ ही बढ़ते तापमान के कारण कुछ स्थानों पर वायुमण्डलीय दाब अनायास कम होंगे जिससे अचानक आंधी-तूफानों का प्रकोप भी बढ़ेगा । 
तापमान में वृद्धि के कारण पेड़ पौधों में नमी की कमी होगी जिससे वे सूखने लगेंगे । कृषि फसलों में वृद्धि हेतु तापमान की एक आवश्यकता निश्चित सीमा तक ही होती है । बढ़ते तापमान से कृषि फसलों का उत्पादन घटता जायेगा । मिट्टी में पानी की कमी से कार्बनिक पदार्थो का विघटन एवं पुनचक्रण की प्रक्रिया नहीं होगी इससे भी कृषि फसलों की उत्पादन में लगातार कमी आती जायेगी । 
एक सीमा से अधिक तापमान में वृद्धि होने में हानिकारक कीड़े मकोड़े उत्पन्न होंगे, इससे मानव सहित जीवों जन्तुआें एवं पेड़ पौधों, कृषि फसलों में रोग बढ़ेगे जिससे जीवों की अनायास मृत्यु होगी तथा फसलों की गुणवत्ता बुरी तरह प्रभावित होगी, ताप वृद्धि से हरियाली - हरीतिमा में भारी कमी आयेगी फलस्वरूप पर्यावरण में भारी असंतुलन पैदा होगा । 
भूमण्डलीय तापवृद्धि के कारण धु्रवों के हिम पिघलने लगती जिससे सागर-महासागरों का जलस्तर बढ़ेगा और तटवर्ती क्षेत्रों के जलमग्न होने का खतरा बढ़ जायेगा एवं असामयिक वर्षा ओर सूखा की संभावना भी बढ़ जायेगी । वायुमण्डल में हरित ग्रह प्रभाव बढ़ाने वाली गैसों के कारण में ओजोन परत को भारी क्षति पहुंचेगी, अम्ल वर्षा होगी । सूर्य से आने वाली पराबैगनी किरणों के अवशोषण में कमी होने से मानव सहित समस्त जीव जन्तुआें, वनस्पति में गंभीर बीमारियां बढ़ेगी । पृथ्वी पर जीवन का अस्तित्व ही खतरे में पड़   जायेगा । 
उपरोक्त दुष्परिणाम परिप्रेक्ष्य में आवश्यक हो गया है पर्यावरण असंतुलन बढ़ाने वाली, प्रदूषण बढ़ाने वालों मानवीय गतिविधियों पर अब विराम लगना चाहिए तथा प्रकृति अनुकूलन वाली, हरियाली हरितिमा विस्तार वाली तथा प्रमुख पर्यावरणीय तत्व जल, मिट्टी, वायु को परिशुद्ध रखने वाली तथा इनको संरक्षित, संवर्धित करने वाली गतिविधियों को हर हाल में बढ़ावा देना होगा । उल्लेखनीय है कि मानव मात्र की ही पर्यावरण संरक्षण-संवर्धन कारी पहल ही पृथ्वी एवं पृथ्वी पर जीवन को बचा सकता है । 

कोई टिप्पणी नहीं: