बुधवार, 16 मार्च 2016

महिला दिवस पर विशेष 
अबला, सबला और महिला 
विनोबा भावे
संस्कृत में स्त्री के लिए बहुत शब्द हैं। उनमें से एक है अबला और दूसरा है महिला । अबला के माने हैं दुर्बल, जिसकी रक्षा दूसरों को करनी पड़ेगी, रक्षणीय और महिला का अर्थ होता है महान, बहुत बड़ी ताकतवाली । इतना उन्नत शब्द, दुनिया का जितनी भाषाओं का मुझे  ज्ञान है करीब बीस पचीस भाषाओं का,उनमें किसी में मिला नहीं । इधर अबला भी कहा और उधर महिला भी कहा । मैंपूरे हिंदुस्तान में घूमा हूंं, पर मैंने अबला समिति कहीं देखी नहीं, महिला समिति देखी है। बहनों ने परीक्षा की है और महिला शब्द चुन लिया है । मतलब स्त्रियों ने तय किया कि हमारी महान शक्ति है,अल्प शक्ति नहीं । `महिला` शब्द ही बताता है कि स्त्री के बारे में भारत की क्या राय है और क्या अपेक्षा है ।
दूसरी बात, `स्त्री` शब्द `स्तृ` धातु से बना है। स्तृ का अर्थ है विस्तार करना, फैलाना । स्त्री यानी फैलाने वाली प्रेम को कुल दुनिया में फैलानेवाली । `स्त्री` शब्द में ही स्त्री का कार्य सूचित किया गया है। प्रेम का विस्तार, प्रेम की व्यापकता स्त्री के द्वारा होगी । स्त्री समाज का तारण करने वाली, तारिणी शक्ति है। 
  स्त्री की इतनी शक्ति होने पर भी समाज स्त्री की तरफ किस दृष्टि से देखता है? आज संसार में और परमार्थ में, दोनों में स्त्री टारगेट (लक्ष्य) बनी है। मध्यबिंदु में है। सांसारिकों के लिए वह भोग का लक्ष्य बनी । सारा साहित्य, सारी कला, सारे रस उसी के ईदगिर्द घूमते रहते हैं। दूसरी ओर परमार्थियों ने उसे लक्ष्य बनाया वैराग्य का । उसे बंधन में डालनेवाली माना और इसलिए उसके प्रति घृणा, तिरस्कार रखा, यहां तक कि उसकी तरफ देखना भी गलत माना ।
मैंने तो मान लिया है कि स्त्री की दुर्दशा का सारा जिम्मा पुरुषों पर है । मैं तो पुरुष के नाते सारा का सारा जिम्मा उठाने की इच्छा   करुंगा ।  लेकिन इच्छा करने पर भी वह हो नहीं सकेगा । क्यांेकि दो चेतन वस्तुओं में होने वाले परिणामों का जिम्मा एक पर ही नहीं डाला जा सकता । मैंअगर स्त्री होता, तो सहसा सब पुरुषों को मुक्त कर देता, कहता कि यह सारी जिम्मेवारी मेरी है । अगर मैं जड़ होता, स्त्री या पुरुष की तरह चेतन न होता, तो चुप  रहता । पर चूंकि चेतन हंू, इसलिए अपनी सारी की सारी जिम्मेवारी दूसरों पर डालना कैसे पसंद करूंगा ? स्त्रियां खुद आगे आयंेगी तभी उनकी शक्ति जाग सकेगी । 
वास्तव में शक्ति का जो मूल स्त्रोत है, वह न स्त्री शरीर में है, न पुरुष शरीर में है । वह अंतरात्मा में है। आत्मा स्त्री पुरुष भेदरहित है । सर्वज्ञ और सर्वशक्तिमान है। परंतु मनुष्य को भास होता है कि शक्ति हाथ में है, पांव में है, आंख-कान में है । जब तक आत्मशक्ति का भान नहीं होता तब तक हम लोग अपनी मूल शक्ति को छोड़कर उसके प्रतिबिंब को ही पकड़कर रखते हैं। हाथ, पांव, आंख और कान में जो शक्ति है, वह तो अंदर की किसी चीज के साथ उसका संबंध होने से है। वह चीज केवल `शरीर` नहीं है। वह चीज तो है आत्मा की शक्ति । वह आत्मशक्ति हाथ, पांव, आंख और कान के द्वारा प्रकट होती है। इसलिए जब आत्मशक्ति का भान होता है तब न किसी प्रकार का मोह होता है, न भय रहता है । आत्मशक्ति का भान होते ही मनुष्य पर और कोई सत्ता चल नहीं सकती । उसको परिपूर्ण स्वतंत्रता प्राप्त हो जाती है । स्त्रियों के नाक में, कान में छेद करके उनमें गहने पहनाये जाते हैं, यह सारा ईश्वर के खिलाफ अविश्वास का प्रस्ताव है ।  

कोई टिप्पणी नहीं: