बुधवार, 16 मार्च 2016

स्वास्थ्य 
महिलाआें में टी बी बरास्ता कुपोषण
रोली शिवहरे

भारतीय महिलाएं खान-पान की देशज संस्कृति और गरीबी के चलते बड़ी संख्या में तपेदिक      (टी. बी.) का शिकार हो रही हैं। बढ़ती गरीबी और कुपोषण ने इस बीमारी को जैसे पंख लगा दिए हैं और यह धीरे-धीरे महामारी की ओर कदम बढ़ाती जा रही है । आवश्यकता है कि इसकी गति को पोषक आहार से थामा जाए ।
अपने घर में सबसे बड़ी और नए अदालती फैसले के हिसाब से ``कर्ता`` चहक (उम्र १६ वर्ष), मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल की घनी आबादी वाले क्षेत्र ऐशबाग में रहती है । तीन साल पहले माँ की टीबी से मौत के बाद पिता भी अब उसके साथ नहीं रहते । पांचांे भाई-बहन उसी के आसरे ८ गुणा १० फीट के कमरे में रहते हैं। दो भाई-बहन कुपोषित हैं। वह स्वयं भी खून की गंभीर कमी का शिकार है। 
परिवार में से एक की भी टीबी की जांच नहीं हुई है । किसी को यह भी नहीं पता है कि उन्हें टीबी है भी या नहीं । वहीं चहक का कहना है कि बहुत दिनों से उसका बुखार नहीं जा रहा है और खांसी भी है । यह तो टीबी के लक्षण हैं। उसे पता ही नहीं कि टीबी की जांच कहाँ होती है! वह कहती है कि मुझे टीबी नहीं है, मैं तो यूँ ही खांसती रहती हूँ और मुझ पर पूरे घर की जिम्मेदारी है। यदि मुझे ही टीबी हो गई तो फिर इन सबको कौन सम्हालेगा ?
गौरतलब है टीबी का एक वयस्क शिकार, एक साल में १५ से २० नए शिकार बना लेता है । टीबी का जीवाणु तब और असर करता है जबकि व्यक्ति  की प्रतिरोधक क्षमता कमजोर हो । वैसे भी टीबी का पोषण के साथ भी चिर परिचित रिश्ता है। आंकड़े बताते हैं कि १९९३-९४ में ५७ प्रतिशत परिवारों को भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद द्वारा तय २१०० कैलोरी से कम ऊर्जा का भोजन मिलता था, यह संख्या वर्ष २००४-०५ में बढ़कर ६५ प्रतिशत हो गई है । यानी शहरी परिवारों की एक बडी संख्या आज भी पेट भर भोजन से मरहूम है । भारतीय परिवार के भूखे रहने का मतलब है महिलाओं और बच्चें का भूखे होना । मध्यप्रदेश की ५२ फीसदी महिलाएं खून की कमी का शिकार हैं। यह महिलाओं में टीबी की बड़ी वजह है । 
हाल ही में आई राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण के चतुर्थ चक्र की प्राथमिक रिपोर्ट (मध्यप्रदेश) कहती है कि यहां की २८.३ प्रतिशत महिलाएं ऐसी हैं कि जिनका बॉडी मॉस इंडेक्स सामान्य से कम है । विश्व स्वास्थ्य संगठन  भी मानता है कि महिलाओं में दुर्घटनाओं के बाद मृत्यु का सबसे बड़ा कारण टीबी ही है । यह बीमारी गरीबों को ज्यादा शिकार बनाती है । इसका कारण यह है कि गरीबी के चलते अधिकाँश परिवारों की पहुँच में पोषक तत्व नहीं होते। चूंकि वे अक्सर अल्पपोषित होते हैंइसलिए रोगों से लड़ने के लिए उनकी प्रतिरक्षा प्रणाली कमजोर होती है। 
वैसे तो हम सभी संक्रामक मायोबैक्टिरियम ट्यूबर-क्लोसिस रोगाणु को हमेशा अपने साथ लिए घूमते रहते हैं। यह बहुत ही खामोशी के साथ इस बीमारी की वजह बनता है । वास्तव में, भारत की आधी वयस्क आबादी निष्क्रिय टीबी संक्रमण से ग्रसित है। यह बैक्टीरिया मौके की फिराक में होता है और किसी भी व्यक्ति  की प्रतिरक्षा प्रणाली के कमजोर होते ही जैसे अल्पपोषण, एचआईवी संक्रमण, मधुमेह तथा बुढ़ापे की स्थिति में सक्रिय हो जाता है । 
इस निष्क्रिय रोगाणु को सक्रिय करने में कुपोषण एक महत्वपूर्ण कारक है । यह कुपोषित बच्चें और महिलाओं पर जबरदस्त असर करता है, क्योंकि उनकी रोग प्रतिरोधक क्षमता पहले से ही कम होती है । भारत दुनिया में एक मात्र ऐसा देश है जहाँ कि ५ वर्ष से कम उम्र के ४२ फीसदी बच्च्े कुपोषित हैं। अब जबकि यह सिद्ध हो चुका है कि कुपोषित बच्चें में टीबी होने का जोखिम सामान्य से कई गुना ज्यादा है तो इसके मायने यह हुए कि हरेक कुपोषित बच्च टीबी का शिकार हो सकता है। अतएव बच्चें में टीबी की पहचान और उसके निदान के लिए ज्यादा प्रयास करने की आवश्यकता है ।
टीबी से लड़ने के लिये वसा, विटामिन, खनिज व प्रोटीन से भरपूर खुराक की आवश्यकता होती है, जिसे जुटाना गरीब परिवारों के लिए कठिन है। कुपोषण के साथ मिलकर टीबी खराब सेहत और गरीबी के कुचक्र को और पुख्ता कर देती है । प्लसवन नाम की स्वास्थ्य पत्रिका के अध्ययन में मध्यभारत के ग्रामीण क्षेत्रों में पल्मोनरी (छाती) टीबी के ''वयस्क मरीजों में पोषणस्तर और उसका मृत्यु से सम्बन्ध`' के लेकर हिमालय चिकित्सा विज्ञान संस्थान, देहरादून के सह प्रोफेसर अनुराग भार्गव और कनाड़ा के मेक्ग्रिल विश्वविद्यालय के सहायक प्राध्यापक मधुकर पाई ने पाया कि टीबी के अधिकांश प्रकरणों में मरीजों में पोषण की कमी थी ।
इसी प्रकार वर्ष २००४ से २००९ के बीच बिलासपुर (छत्तीसगढ़) के जनस्वास्थ्य सहयोग में १६९५ मरीजों पर किये गये अध्ययन में ८५ प्रतिशत मरीजों में कुपोषण पाया गया । उपरोक्त  वर्णित अध्ययन के सह लेखक योगश जैन कहते हैं कि इस अध्ययन को भारत के एक मात्र टीबी नियंत्रण कार्यक्रम आर.एन.टी.सी.पी. द्वारा गंभीरता से लेना चाहिये, जो कि टीबी के साथ कुपोषण की बात ही नहीं करता । वहीं प्रो. भार्गव कहते हैं कि दुनिया के वे ५६ देश, जहाँ पर टीबी और कुपोषण के सर्वाधिक प्रकरण पहचाने गये हैं, वहां पर टीबी नियंत्रण कार्यक्रम में पोषण को एक अनिवार्य अंग माना गया है, पर हमारे देश में ऐसा नहीं है ।
चेन्नई के पास तिरुवल्लुर जिले में किए गए एक अध्ययन में भी सामने आया कि टीबी के लगभग आधे रोगी मध्यम या गंभीर खाद्य असुरक्षा के दायरे में थे । इसके अलावा देश में कई और अध्ययन हैं, जो कि इस बात की तस्दीक करते हैं कि पोषण और टीबी का गंभीर और अटूट रिश्ता है । जब हम इस बीमारी का उपचार करें तो हमें ``पैकेज`` के तरह ही बात करनी होगी, जिसमें उपचार के साथ-साथ पोषण अवश्य हो । विश्व स्वास्थ्य संग ठन ने टीबी मरीजों की पोषण संबंधी देखभाल व मदद के लिए दिशा निर्देश विकसित किए हैंजिसमें वह पोषण को उपचार का एक अनिवार्य अंग मानता है। चहक के परिवार के पास न तो राशनकार्ड है और न ही उनके पास पर्याप्त भोजन की उपलब्धता । वो बताती है कि उन्होंने पिछले सात माह से दाल नहीं खाई है और पैसों की कमी के चलते मांसाहार भी पिछले एक साल से नहीं किया है ।
तमाम साक्ष्यों और अध्ययन के बाद सरकार के पास अब एक मौका है कि वह टीबी के साथ पोषण पर काम करे । खाद्यसुरक्षा कानून के अंतर्गत टीबी पीड़ित के परिवारों को प्राथमिकता सूची में रखकर उन्हें पोषण सुरक्षा प्रदान की जा सकती है। कुछेक राज्यों में इन मरीजों को प्राथमिकता सूची में रखा भी गया  है । मध्यप्रदेश ने भी यह पहल की है । हालांकि केन्द्रीय स्वास्थ्य मंत्री जे.पी. नड्ढ़ा ने भी कहा है कि भारत अब टीबी के खिलाफ कमर कस चुका है और हम टीबी मरीजों को मुफ्त आहार उपलब्ध कराने पर विचार कर रहे हैं।
वैसे भी यह एक गंभीर चुनौती है क्योंकि देश की ७० फीसदी आबादी २० रुपये प्रतिदिन से कम पर गुजारा करती है और ऐसे में संतुलित भोजन की उपलब्धता इस आबादी के लिए टेढ़ी खीर है । संतुलित भोजन की अनुपलब्धता के चलते टीबी से पार पाना एक बडी चुनौती है । यह जरुरी है कि सरकार कुपोषण और टीबी के रिश्ते को सुपरिभाषित करते हुए पोषण कार्यक्रम को गति दे, ताकि  महिलाओं और नौनिहालों के आज के साथ ही साथ इनके कल को भी संवारा जा सके ।

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