गुरुवार, 18 अगस्त 2016

ग्रामीण जगत  
चलें गांव की ओर
वीरेन्द्र पैन्यूली 

भारत की आत्मा गांवों में बसती हैं इस बात पर प्रधानमंत्री से लेकर पटवारी तक सभी सहमत हैं। परंतु इस आत्मा को कौन कितना कष्ट दे सकता है यह प्रतिस्पर्धा भी हमारे देश में पूरी शिद्दत से जारी   है । हम सबको मिलकर गांव का रुख करना होगा तभी गांव और भारत दोनों बच पाएंगे । वैसे भी भारत और गांव कमोवेश पर्यायवाची ही हैं। 
प्रधानमंत्री ने १४ अक्टूबर २०१४ को सांसद आदर्श ग्राम योजना की शुरूआत की थी ।  लगभग १८ माह बाद उन्हंे अपने दल के ही सांसदों से पूछना पड़ा कि क्या वे कभी गांव जाते हैं। अर्थात सरकार के उच्च्तम स्तर पर भी यह संशय बना हुआ है कि सांसद कभी गांव जाते भी हैंकि नहीं । 
राज्यों के मुख्यमंत्रियों को भी अपने-अपने प्रशासनिक अधिकारियों से यह जानना चाहिए कि क्या वे गांवों में जाते हैं। राज्यों की प्रशासकीय कार्य नियमावली में विभिन्न स्तर के अधिकारियों के लिए निश्चित अवधि के लिए ग्राम प्रवास करने के निर्देश भी हैं। परन्तु यह सब कागजों में ही रह गया है । गांव में जिन कर्मचारियों को रहना भी होता है, उन्हंे भी आकस्मिकता के समय गांव में ढूंढ पाना मुश्किल होता है । इतना ही नहीं ग्राम सरपंचों को पंचायत सचिवों को ढूंढना पड़ता है। विद्यालयों-महाविद्यालयों, विश्वविद्यालयों के छात्र-छात्राओं व अन्य अध्ययनकर्ताओं का ग्रामीणजन से यह सवाल अवश्य रहता हैं कि क्या कभी आपके गांव में अधिकारी, विधायक या सासंद आते हैं। जबाब ज्यादातर ना कभी-कभी ना का ही होता है ।
ग्राम पंचायतों के कुछ चुने गये प्रधान व सदस्य भी गांवों में नहीं रहते हैं। गावों से ऐसा उपेक्षापूर्ण बर्ताव होता ही रहा है । जब पंचायतों के चुनाव होते हैं, तो गाड़ी भर भर आ कर वोट देकर वापस लोग शहरों को सालों सालों के लिए लौट जाते  हैं। गांवों में खुले अस्पतालों में डाक्टर तक नहीं आते हैं और स्कूलों में पढ़ाने वाले नहीं आते हैं । इसी तरह चुनाव के बाद जनप्रतिनिधि वहां नहीं आते हैं। ऐसे व्यवहारों से तो ग्रामोदय से भारत उदय नहीं होगा । और तो और आम ग्रामीण का जो अपना और अपने गांव के विकास की राह देख रहा है, उसका भी स्थाई सवाल यही रहता है कि गांव में कोई योजना आई क्या ? क्या बिजली आई ? पानी आया या राशन आया जैसे शाश्वत सवाल तो बने ही रहते हैं ।  
     गांव का छोड़ना ही गांव में आगे बढ़ने कीे राह रह गई है । गांवों को मार कर उन्हे भाहर बनाकर ही गांव के विकास की सोच को ही यदि जारी रखना है तो ग्रामोदय से भारत उदय के नारे का क्या अर्थ है ? गांव में जो खेती के लिए रह भी रहा है, उसे भी परिवार को जिन्दा रखने का रास्ता केवल आत्महत्या में ही दिख रहा    है । भले ही एनजीओ को कितना ही कोसा जाये, किन्तु उनके कारण ही परियोजनाओं को चलाने के नाम से ही सही गांवों में कुछ लोगों का जाना व काम होता दिखाई रहा है । 
अन्यथा पलायन से स्थितियां तो ऐसी हो गई हैं कि सामुदायिकता अथवा श्रमदान से सरकारी व गैरसरकारी परियोजनाओं में जो काम होना है उसे भी कागजी कार्यवाही करके बाहर के लोगों से करवाना पड़ता है । अन्यथा गांववासियों के माध्यम से जो विकास कार्य होने हैं, वो तो कई गांवों में हो ही ना । मनरेगा में भी काम हो इसके लिए भी कोई गांवों में बाहर के लोगों को ही काम में लगाना पड़ रहा है । यह हकीकत कई राज्यों की है। गांवों में खेती के काम के लिए मजदूर नहीं है । 
आशाजनक यह है कि कई गांव के प्रवासी ऐसी मुहिम भी चला रहें हैंजिससे गांवों में लोगों का जाना बढ़े । करोड़ों करोड़ लोग गांव आते जाते रहेंगे, तो ऐसे सवाल कमजोर पड़ जायेंगे कि हमारे अकेले के जाने से क्या होगा । हमारा संवेदनशील होना ही गांवों को अस्त होने से बचा सकेगा । गांवों का बचना जैवविविधता व हरितमा बचाने व जलवायु बदलाव से लड़ने के लिए बहुत जरूरी है । पारम्परिक व लोक  ज्ञान की निरन्तरता के लिए भी उनका अस्तित्व जरूरी है । परन्तु गांव में लोग तभी रह सकेंगे । जब वहां के और उनके आसपास के प्राकृतिक संसाधन व साझा सम्पदा के प्रबंधन में गांव वालों प्रमुखता हो । 
जनसुनवाइयो व ई गवर्नंेस को गांव सुराज का अंग माना    जाये । आप हम गांव की राह पकड़ेंगे तो गांव भी मजबूती की राह     पकड़ेंगे । विडम्बना यह है कि जहां आम ग्रामीण गांवों को छोड़ रहा है वहीं कार्पोरेट घराने रूपी माफिया गांवों में इतनी तेजी से व सरकारी सांठ गांठ से घुसकर खेती की जमीन को ही नहीं बल्कि ग्राम समाज की जमीन, जलस्त्रोतों, चारागाहों पर कब्जा कर रहे हैं । ऐसे तत्वों से भी निपटने के लिए जगह जगह आन्दोलन व गांव बचाओ जैसे अभियान चल रहे हैं। सरकारी मदद के बजाय आन्दोलनकारी मुकदमे झेल रहे हैं। क्या ऐसे ही ग्रामोदय होगा ?

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