गुरुवार, 18 अगस्त 2016

हमारा भूमण्डल
कृषि पर बेढ़ंगी चाल
मार्टिन खोर

विकसित देशों का पूरा रवैया आत्मकेन्द्रित और अत्यन्त स्वार्थपरक है । कृषि नीतियों में दोमंुही व्यवस्था बनाकर वे अपना उल्लू सीधा कर रहे हैं। इससे विकासशील देशों की अर्थव्यवस्था तो चौपट हो ही रही है वहां की कृषि और कृषक दोनों पर खतरा मंडरा रहा है ।
विकसित देश सामान्यता मुक्त व्यापार के गुणगान करते और संरक्षणवाद के पाप गिनाते रहते    हैं। परंतु वास्तविकता यह है कि अनेक विकसित देश दोहरे मापदंड अपना रहे हैं। जिन क्षेत्रों में वे मजबूत हैंवहां पर मुक्त व्यापार पर जोर देते हैंऔर जहां कमजोर हैंवहां संरक्षणवादी रवैया अपनाते हैं।   सबसे बद्तर स्थिति यह है कि वह एक ही क्षेत्र में इस तरह से नियम बनाते हैंजिसकी बदौलत विकासशील देशों पर उदारवाद थोप दिया जाता   है । परंतु स्वयं उन्हें अत्यधिक संरक्षण की अनुमति प्राप्त हो जाती है ।
इसका एक असाधारण उदाहरण ``कृषि`` है जिसमें अमीर देश प्रतिस्पर्धात्मक नहीं हैं । यदि इस क्षेत्र में ``मुक्त व्यापार`` को प्रचलन में लाया जाए तो वैश्विक कृषि व्यापार का बड़ा हिस्सा अधिक कार्यकुशल विकासशील देशों के प्रभुत्व में    होता । परंतु आज तक कृषि व्यापार पर महत्वपूर्ण विकसित देशों का प्रभुत्व बना हुआ है ।
अनेक दशकों से उन्हें कृषि हेतु व्यापार उदारीकरण नियमों से छूट मिलती रही । सन् १९९५ में विश्व व्यापार संगठन (डब्लू टी ओ) के गठन के साथ ही यह छूट समाप्त हो जानी चाहिए थी । इसके अलावा यह उम्मीद की जा रही थी कि अमीर देश अपनी कृषि को वैश्विक प्रतिस्पर्धा के लिए खोल देंगे। परंतु वास्तविकता यह है कि डब्लू टी ओ कृषि समझौते के अन्तर्गत उन्हें अत्यधिकसीमाशुल्क लगाने और उच्च् सब्सिडी दोनों की अनुमति मिली हुई है । इन सब्सिडी के माध्यम से वहां के किसान अपने उत्पाद कम कीमत में बेचने में सक्षम हो जाते हैं । यह मूल्य अक्सर लागत से भी कम होता है । इसके बावजूद उन्हें पर्याप्त मात्रा में राजस्व (जिसमें सब्सिडी भी शामिल है) प्राप्त हो जाता हैं और वे कृषि व्यापार में बने रहते हैं ।
विकासशील देशों पर इसके चार नकारात्मक प्रभाव पड़ते हैं। पहला, ऐसे देश जो कि कृषि के संदर्भ में प्रतिस्पर्धी होते हैं, वह भी अमीर देशों के बाजार में पैठ  नहीं बना   पाते । दूसरा, विकासशील देशों को विश्व के अन्य बाजारों से भी हाथ धोना पड़ता है । क्योंकि वे वही कृषि उत्पादन कृत्रिम सस्ते मूल्यों पर निर्यात करते हैं । तीसरा, उत्पाद के सस्ता निर्यात करने की वजह से विकसित देश प्रतिस्पर्धी स्थानापन्न उत्पाद की मांग भी कम कर देते   हैं । जैसे अमेरिका द्वारा सोयाबीन पर सब्सिडी देने से सोयाबीन का तेल सस्ता हो जाता है । यदि ऐसा नहीं हो तो मलेशिया और इण्डोनेशिया के  पाम तेल को ज्यादा बड़ा बाजार उपलब्ध हो सकता है। चौथा, इन सस्ते उत्पादों (जैसे अमेरिका और यूरोप से चिकन) ने तमाम विकासशील देशों में प्रवेश पा लिया है जिसके परिणामस्वरूप वहां के स्थानीय किसानों की आजीविका संकट में पड़ गई है ।
सन् २००१ में डब्लू टी ओ ने दोहा विकास एजेंडा जारी किया जिसका मुख्य लक्ष्य था विकसित देशों के कृषि क्षेत्र को मुक्त   करवाना । अनेक वर्षों तक ऊर्जा लगाकर ऐसी प्रणाली विकासित की गई जिसके माध्यम से कृषि व्यापार को मुक्त बनाया जा सकें । इतना ही नहीं इस पर व्यापक सहमति भी बन गई थी । परंतु यूरोप की शह पर अमेरिका ने अब यह स्पष्ट कर दिया है कि दोहा राउंड (दौर) को किसी निष्कर्ष पर ले जाने में उसकी कोई रुचि नहीं है । भविष्य में डब्लू टी ओ के समझौते नए आधार पर होगे और वह वर्तमान दस्तावेजो पर आधारित नहीं होंगे । क्रिस हॉर्समेन ने अपने एक लेख में विश्लेषण किया है कि क्यों अमेरिका वर्तमान दस्तावेजों को स्वीकार नहीं कर रहा है । एक तरह की सब्सिडी की अधिकतम सीमा घटाने से अमेरिका को बिना अनुमति वाली सब्सिडी में ५८ प्रतिशत तक का वृद्धि करना होगी । 
इसके पता चल जाता है कि अमेरिका वर्तमान कर तालिका से क्यों बचना चाहता है और क्यों नए तरह से समझौते पर पहुंचना चाहता है। अमेरिका की शक्तिशाली कृषि लॉबी की वजह से वह दोहा दौर में जो घरेलू सब्सिडी की नई सीमा तय की गई थी। उससे संबंधित अपनी घरेलू नीति (जो कि सन् २०१४ के कृषि कानून में निहित है) में परिवर्तन नहीं कर सकता । इसी लेख में बताया गया कि किस तरह यूरोपियन यूनियन ने डब्लू टी ओ नियमों के बेहत्तर अनुपालन हेतु उपलब्ध कराई जा रही सब्सिडी के प्रकार में परिवर्तन किया है । इसमें यूरोपियन यूनियन देशों को सन् २००४ से २०१३ के मध्य अपनी घरेलू सब्सिडी को ८० अरब यूरो (९१ अरब डॉलर) तक सीमित करने की बात कही गई है ।
डब्लू टी ओ के गठन के दो दशक पश्चात भी अमीर देशों ने कृषि संरक्षण का उच्च्स्तर कायम कर रखा है । इस बात की बहुत ही कम संभावना है कि वे अपनी व्यापार प्रणाली में व्यापक फेरबदल लाएं । क्योंकि बड़े स्तर पर सब्सिडी में कमी से उनकी कृषि व्यवहार्य नहीं रह पाएगी । दूसरी ओर गरीब देशो के पास इतना धन नहीं है कि वह अमीर देशों द्वारा दी जा रही सब्सिडी का मुकाबला कर सकें । यदि वे अपने देश के किसानों और खाद्यसुरक्षा को बचाना चाहते हैं तो उन्हें अपने यहां सीमा शुल्क को उस स्तर तक ले जाना होगा जिससे कि सब्सिडी वाले सस्ते उत्पाद देश में प्रविष्ठ ही न हो सकें । परंतु जिन विकासशील देशों ने अमेरिका और यूरोपीय यूनियन के साथ मुक्त व्यापार समझौते कर लिए हैं उन्हें अपने यहां सीमा शुल्क या तो शून्य पर लाना होगा या अत्यन्त कम दर पर लगाना होगा । 
विकासशील देशों के आग्रह पर कृषि सब्सिडी को मुक्त व्यापार समझौतों की कार्यसूची से बाहर रखा गया है । 
इसके अलावा अमेरिका और यूरोपीय संघ कई अन्य क्षेत्रों में भी विकासशील देशों के विरुद्ध संरक्षणवादी कदम उठा रहे हैं। उदाहरण के लिए अमेरिका ने सफलतापूर्वक  डब्लू टी ओ में भारत के खिलाफ मामला दायर कर दिया हैं । भारत का राष्ट्रीय सौर ऊर्जा मिशन में घरेलू उत्पाद जैसे सोलर सेल एवं मॉडुल्स की अनिवार्यता के माध्यम से स्थानीय फर्मांे की मदद कर रहा है । इस तरह की आपत्तियों से भारत एवं अन्य विकासशील देशों को जलवायु परिवर्तन से निपटना कठिन हो जाएगा । 
हाल ही में यूरोपीय संसद ने चीन को डब्लू टी ओ में एक बाजार अर्थव्यवस्था का दर्जा देने से इंकार कर दिया । हालांकि डब्लू टी ओ चीन द्वारा सन् २००१ सदस्यता ले लेने के १५ वर्ष पश्चात उसे बाजार अर्थव्यवस्था के रूप में मान्यता दे चुका है । चीन को यह दर्जा देने से इंकार करने के बाद अन्य देशों के लिए यह आसान हो जाएगा कि वह चीन के खिलाफ एंटीडंपिंग के मामले उठा सकेंगे । और चीन के निर्यात पर अधिक सीमाशुल्क ठोंक सकेंगे । हालांकि चीन और भारत इसके विरुद्ध संघर्ष कर रहे हैं ।  भारत ने मई में घोषणा कर दी है कि वह अमेरिका के खिलाफ १६ मामले लगाएगा जिसमें उसने डब्लू टी ओ के  नियमों की अवहेलना करते हुए अपने नवीकरण ऊर्जा कार्यक्रम के  अन्तर्गत सब्सिडी उपलब्ध करवाई    है । 
वैसे चीन अमेरिका के खिलाफ डब्लू टी ओ में एक मामला जीत भी चुका है जिसमें अमेरिका ने गलत तरीके से १५ चीनी उत्पादों जिसमंे सौर पैनल, स्टील सिंक एवं थर्मल पेपर शामिल थे, पर बराबरी का शुल्क लगाया था । परंतु अमेरिका ने निर्णय का पालन नहीं किया । अब चीन डब्लू टी ओ मेें कार्यवाही कर रहा है जिससे कि अमेरिका निर्णय का पालन करने को बाध्य हो ।
यह असंभव प्रतीत हो रहा है कि अमीर देश अपनी कृषि पर अत्यन्त संरक्षणवादी रुख में कमी करंेगे । साथ ही यह भी प्रतीत हो रहा है कि वे विकासशील देशों के उत्पाद अथवा नीतियों के खिलाफ संरक्षणवादी रुख अपनाए रखेंगे । यह वास्ताविकता है कि मुक्त व्यापार को व्यवहार में लाने और बड़बोलेपन में बहुत बड़ी खाई है ।

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