बुधवार, 16 मार्च 2016


प्रसंगवश
पर्यावरण शिक्षा को लेकर लापरवाह है राज्य 
देशभर के स्कूल कॉलेजोंऔर विश्वविघालयों में पर्यावरण को अनिवार्य विषय बनाए जाने और इसके लिए यूजीसी नियमों के मुताबिक प्रशिक्षित शिक्षक नियुक्त किए जाने की मांग पर सुप्रीम कोर्ट ने केन्द्र सरकार व सभी राज्य सरकारों को नोटिस जारी कर जवाब मांगा है । प्रधान न्यायाधीश टीएस ठाकुर की अध्यक्षता वाली पीठ ने सरकारों को ये नोटिस एमसी मेहता की अर्जी पर जारी किया । एमसी मेहता ने पर्यावरण प्रदूषण के मुद्दे पर सुप्रीम कोर्ट में वर्ष १९९१ में जनहित याचिका दाखिल की थी । जिस पर कोर्ट समय-समय पर आदेश देता रहा है । श्री मेहता ने कहा है कि सुप्रीम कोर्ट ने उस मामले में २२ नवम्बर, १९९१ को पर्यावरण संरक्षण के बारे में विस्तृत आदेश दिए थे । उसमें कोर्ट ने सभी विश्वविघालयों और कॉलेजों तथा स्कूल स्तर पर पर्यावरण को अनिवार्य विषय की तरह पढ़ाने के निर्देश  दिए थे । 
इसके बाद १८ दिसम्बर २००३, १३ जुलाई २००४, ६ अगस्त २००४ को भी कोर्ट ने आदेश दिये थे । लेकिन सरकारों ने इस आदेश का ठीक से पालन नहीं किया ज्यादातर जगह पर्यावरण की पढ़ाई के नाम खानापूर्ति हो रही है । कॉलेजों और विश्वविद्यालयों में इसके लिए यूजीसी मानकों के मुताबिक प्रशिक्षित शिक्षक या प्रोफेसर नहीं हैं । दूसरे विषयों जैसे संस्कृत,हिन्दी, अंग्रेजी, इलेक्ट्रॉनिक्स, राजनीति शास्त्र, समाज शास्त्र, गणित, शारीरिक शिक्षा, गृह विज्ञान या कम्प्यूटर साइंस आदि के टीचर ही पर्यावरण विषय पढ़ा रहे हैं । यूजीसी गाइडलाइन के मुताबिक पर्यावरण पढ़ाने वाले शिक्षक पर्यावरण विज्ञान में एमएससी होने चाहिए । 
उन्होनें पर्यावरण विज्ञान में नेशनल इलिजिबिलिटी टेस्ट (नेट) परीक्षा पास की हो या फिर वे इस विषय में पीएचडी हो । श्री मेहता का कहना है कि प्रशिक्षित शिक्षकों के बगैर बच्चें को पर्यावरण के प्रति संवेदनशील नहीं बनाया जा सकता । अभी तक यूजीसी ११ विश्वविघालयों पर कार्रवाई कर चुका है । मेहता ने आरटीआई के जरिए एकत्रित सूचना के हवाले से विभिन्न राज्यों और विश्वविद्यालयों की स्थिति का भी हवाला दिया है । चार साल पहले आरटीआई के जवाब में दी गई सूचना के मुताबिक यूजीसी पर्यावरण विषय की अनिवार्य पढ़ाई के आदेश का पालन न करने वाले ११ विश्वविद्यालयोंपर कार्रवाई कर चुका है । 
सम्पादकीय
परागण में सहायक प्रजातियां खतरे में 
फल व बीज उत्पादन के लिए पहला कदम परागण कहलाता है । एनसाइक्लोपीडिया ब्रिटेनिका के अनुसार पराग बीजवाले पौधो के नर भाग, परागकोष में बनता है और कई तरीकों (हवा, पानी, कीट-पतंगे, वगैरह) से मादा भाग, स्त्री केसर तक पहुंचाया जाता है और यही पर निषेचन होता  है । कुछ बीज वाले पौधे या तो नर होते है या मादा, मगर अधिकांश पौधे दोनों होते है यानी उनमें पराग और ब्रीजांड दोनों होते है । कुछ पौधे अपने ही बीजाड़ में परागण करते है, जबकि दूसरे अपने पराग को मिलते-जुलते दूसरे पौधे तक या फिर अपनी ही जाति के दूसरे पौधे तक पर-परागण के जरिए पहुंचाते है । 
पिछले दिनों (२२-२८ फरवरी) मलेशिया की राजधानी कुआलालपुंंर में १०० से ज्यादा देशों के प्रतिनिधियों ने मधुमक्खियों, तितलियों और पक्षियों की परागण प्रजातियों पर विस्तृत विचार विमर्श किया । यह १२४ यूएन मेम्बर नेशंस वाले जैव विविधता और पारिस्थितिकी तंत्र सेवाआें पर अंतर सरकारी विज्ञान-नीति मंच इंडीपेडेंट वर्किग ग्रुप का आयोजन था । इस सम्मेलन में पहली बार इतने बड़े पैमाने पर दुनिया भर के प्रतिनिधियों ने पराग परिवहन करने वाली प्रजातियों के अस्तित्व पर मंडराते खतरे को चिन्हित किया । बैठक में एक विस्तृत रिपोर्ट भी पेश की गई, जिसे दो साल की मेहनत और लगभग ३००० वैज्ञानिक शोधों के आधार पर विश्व के ७७ विशेषज्ञोंने तैयार किया है । 
परागण करने वाली प्रजातियों के बिना भविष्य में दुनिया चॉकलेट, कॉफी और वनीला आइस्क्रीम के अलावा ब्लूबैरीज, ब्राजीलियाई बादाम, गॉला और कॉक्स सेब जैसे हेल्दी फूड्स खाने से वंचित रह सकती है । पराग के फैलाने वाली प्रजातियों और उनकी संख्या में निरन्तरहोती जा रही कमी का नुकसान इससे भी कहीं ज्यादा उस आजीविका और संस्कृति को पहुंचेगा, जो परागण प्रजातियों से जुड़ी हुई है । पराग परिवहन करने वाली प्रजातियों जैसे, मधुमक्खियों, पक्षियों, चमगादड़ों, भृंगों, तितलियों आदि में कमी का मतलब लाखों लोगों की आजीविका के साथ-साथ सैकड़ों बिलियन डॉलर के नुकसान का संकट भी पेश कर सकता है । 
सामयिक
खाने में कुछ तो गड़बड़ है 
सुश्री चेतना जोशी
आजकल अखबारों में, टेलिविजन में भोजन विशेषकर सब्जियों में बहुत ही भयानक कीटनाशकों की, जहरीले रंगों की उपस्थिति की खबरें भी आती रहती  है । ऐसी खबरें विचलित तो करती हैं पर फिर करें तो क्या करें । 
दूसरे विकल्पों की अनुपस्थिति में हम वही सब खाते रहते हैं । कीटनाशक हैं तो साथ में पौष्टिक तत्व भी हैं । खाना छोड़ें भी तो कैसे? पर कुछ नए शोधों की जानकारी ने तो नई ही परेशानी खड़ी कर दी है । शोध जो ये साबित कर रहे हैंकि सब्जियों और अनाजों में पोषक तत्वों की मात्रा भी अब लगातार घटती ही जा रही है ।
बचपन में ही मां ने मन मंे डाल दिया था कि खाना तो पौष्टिक होना चाहिए । फिर ये भी समझा दिया कि ज्यादा विज्ञापित और दिखने में लाजवाब चीजें तो शरीर के लिए किसी काम की होती ही नहीं । गाजर आंखों के लिए अच्छी है, रेशेदार भोजन पाचन  ठीक रखता है। पूर्णतया स्वस्थ रहने के लिए हरी पत्तेदार साग-सब्जियां जरूरी हैं। वगैरह, वगैरह ।
ऐसी शिक्षाएं बचपन में ही मिल जाएं तो कथित तौर पर पौष्टिकता से लबलबाई हुई सब्जियों और दालों की तरफ रुझान हो जाना स्वाभाविक है। धीरे-धीरे फिर वे स्वादिष्ट भी लगने लगती हैं । मन इधर-उधर बाजार में सजी भोजन सामग्री पर ज्यादा नहीं भागता । खाने-पीने का कुछ अनुशासन भी आ जाता है और एक संतोष-संतुष्टि का भाव भी कि मैं तो पौष्टिक भोजन ही कर रहा हूं । 
आजकल अखबारों में, टेलिविजन में भोजन विशेषकर सब्जियों में बहुत ही भयानक कीटनाशकों की, जहरीले रंगों की उपस्थिति की खबरें भी आती रहती  हैं । ऐसी खबरें विचलित तो करती हैं पर फिर करें तो क्या करें । दूसरे विकल्पों की अनुपस्थिति में हम वही सब खाते रहते हैं । कीटनाशक हैं तो साथ में पौष्टिक तत्व भी हैं । खाना छोड़ें भी तो कैसे? पर कुछ नए शोधों की जानकारी ने तो नई ही परेशानी खड़ी कर दी है। शोध जो ये साबित कर रहे कि सब्जियों और अनाजों में पोषक तत्वों की मात्रा भी अब लगातार घटती ही जा रही है। ये सब्जियां और अनाज अब पहले जैसे पौष्टिक नहीं रहे । कीटनाशक बोनस में !
इस विषय को अच्छी तरह से समझने की कोशिश ने मेरी आंखें ही खोल दीं । पता लगा डॉ. डेविस और उनके शोध में संलग्न साथियों का, जिन्होंने समय के साथ सब्जियों और अनाजों की पोषक तत्वों की मात्रा में आए बदलावों को जानने की, मापने की ठान ली । इन लोगों ने तैंतालीस तरह की अलग-अलग सब्जियों और अनाजों में मौजूद पोषक तत्वों की मात्राआंे में पचास साल के समय में आए अंतर का तुलनात्मक अध्ययन किया है । इनमें आलू, प्याज, टमाटर, मूली, सरसों, पालक, फल्ली और मक्का आदि शामिल थे । 
शोध से निष्कर्ष निकला कि इन सब्जियों और अनाजों में उपस्थित छह पोषक तत्वों की मात्राओं में पचास सालों में काफी कमी आई हैं । आयरन की मात्रा में पन्द्रह फीसदी की कमी पाई गई । कैल्शियम की मात्रा में सोलह फीसदी तथा विटामिन बी और सी की मात्रा में अड़तीस और बीस फीसदी तक की कमी मिली । यह शोध जर्नल ऑफ दी अमेरिकन कॉलेज ऑफ न्यूट्रीशन में प्रकाशित हुआ है। शोधकर्ताओं के अनुसार पोषक मात्रा में आई हुई कमी की वजह सब्जियों और अनाजों की पैदावार को बढ़ाने के लिए की गई कवायदें हैं। भले ही इन कवायदों का इरादा ऐसा था नहीं । 
अब इसीलिए ऐसी घटनाओं को अनिच्छित दुष्प्रभाव भी कहा जाता है । वैज्ञानिकों ने इसके पीछे पौधों के वातावरण यानी इनवायरमेंटल तथा जैनेटिक, दो प्रकार के प्रभावों को सक्रिय माना । इनमें से पौधे के वातावरण द्वारा जनित प्रभाव को तो जैरल एवं बेवर्ली नामक वैज्ञानिकोंने वर्ष १९८१ में ही समझा देने की कोशिश की थी । वह सब भी एक महत्वपूर्ण परंतु साधारण से मालूम पड़ने वाले प्रयोग के माध्यम से । 
इन वैज्ञाानिकों ने लाल रसभरी फल के कई सारे पौधे बोए । सभी पौधों को बढ़ने और फलने-फूलने के लिए बिलकुल समान वातावरण दिया । अंतर रखा तो बस एक चीज में । जिस मिट्टी में पौधे लगाए, उसमें अलग-अलग मात्रा में फास्फोरस डाल दिया । मिट्टी के अलग-अलग नमूनों में मात्रा १२ पीपीएम (पार्ट्स-पर-मिलियन) से लेकर अधिक से अधिक ४४ पीपीएम तक रखी । यह पीपीएम क्या बला है, उसे भी समझ लें : मिट्टी में १ पीपीएम मात्रा में उपस्थिति होने का मतलब है कि एक किलोेग्राम मिट्टी में वह पदार्थ एक मिलीग्राम मात्रा में उपस्थित है। किलो में चुटकी भर भी नहीं, राई बराबर बस ।
पौधे बढ़ते रहे । वैज्ञानिकों ने आठ महीने के बाद उन पौधों में फास्फोरस की मात्रा का अध्ययन किया तो पाया कि फास्फोरस की सामान्य मात्रा (१२ पीपीएम) में बढ़े हुए पौधों के मुकाबले ४४ पीपीएस फास्फोरस वाली मिट्टी में बढ़े हुए पौधों में फास्फोरस की सघनता बीस फीसदी तक अधिक थी । मिट्टी में ज्यादा फास्फोरस था तो पौधों में भी उसकी मात्रा ज्यादा होना लाजमी ही है । पर चौंकाने वाली बात यह सामने आई कि ऐसे पौधों में अन्य पोषक तत्वों जैसे पोटेशियम, कैल्शियम, मैगनिशियम, मैग्नीज, जिंक तथा कॉपर और बोरोन की मात्रा में बीस फीसदी से लेकर पचपन फीसदी तक की कमी आ गई थी ।
फास्फोरस की बढ़ी हुई मात्रा की वजह से पौधों का शुष्क द्रव्यमान भी बढ़ गया था । वैज्ञानिकों ने माना कि अधिक उर्वरण ने पौधों को तेजी से तो बढ़ाया पर साथ ही उसमें खनिज पदार्थों की सघनता को कम कर दिया । चंूकि पोषक तत्वों की मात्रा में कमी पौधों के वातावरण में भिन्नता की वजह से थी, उन्होंने इसको `वातावरण द्वारा प्रेरित तरलीकरण` का नाम दिया ।
अब ये समझना आसान है कि मिट्टी को मिले हुए अधिक उर्वरण का साग-सब्जियों तथा फल और अनाजों की पोषक तत्वों की मात्रा से कैसा टेढ़ा संबंध है। ऐसे शोधों का हिंदुस्तान में अभाव है। इंग्लैंड तथा अमेरिका के शोध इस पर रोशनी डालते हैं । इन देशों में ब्रौकली, हरे रंग की फूलगोभी काफी खाई जाती है । ये कैल्शियम का एक बेहतरीन स्त्रोत मानी जाती है। इसकी विभिन्न प्रजातियों में कैल्शियम की मात्रा क्या समान बनी हुई है या ये भी बदल गई है ? 
ये सब जानने के  लिए वैज्ञानिकों ने सन् १९८० और १९९० के दशक में निकाली गई इसकी २७ प्रजातियों का अध्ययन किया । पाया गया कि ब्रौकली की इन प्रजातियों में कैल्शियम की मात्रा सन् १९५० में ब्रौकली में मौजूद मात्रा के मुकाबले ७७ प्रतिशत तक कम हो गई है। इतना बड़ा अंतर करीब ४६ वर्षों के अंतराल में । `ब्रौकली खाओ-पौष्टिक है` ऐसा कहना तो जैसे कहावत मात्र हो गया हो । फिर ऐसा ही चला तो आगे आने वाले वर्षों में कितना कैल्शियम बचेगा भला ।
ब्रौकली तो वैसे भी हम कम ही खाते हैं । हम तो देसी सब्जियां, अनाज, फल ही ज्यादा पसंद करते  हैं । ऐसा सोचकर भी फायदा नहीं । हम ब्रौकली के साथ हो रही दुर्घटना से बच नहीं सकते । गेहूं तो खाते हैं न हम । यह कार्बोहाइड्रेट के अलावा जिंक और आयरन जैसे खनिजों का भी अच्छा स्त्रोत है । डॉ. गार्विन और उनके साथियों के मुताबिक जब भी गेहूं की पैदावार में एक किलोग्राम का मुनाफा हुआ तो उसमें मौजूद आयरन और जिंक की मात्रा ३ नैनो ग्राम तक कम हो गई । उन्होंने गेहूं की १४ तरह की प्रजातियों के अध्ययन के बाद ये निष्कर्ष निकाले हैं । ये १४ प्रजातिया अमेरिका में करीब १०० वर्षों के दौरान विकसित हुई तथा फली-फूली हैं । तो आधुनिक कृषि विज्ञान ने प्रति एकड़ गेहंू की पैदावार बढ़ाई और साथ ही साथ उसी अनुपात में उसकी पौष्टिकता घटाई ।
जैसे गेहूं वैसा ही हमारा कृषि और बागवानी का विज्ञान सब्जियों पेड़, पौधों में फलों के साथ कर रहा है । उनकी संख्या ज्यादा से ज्यादा हो, फल दिखने में भी सुंदर हों, आकार में भी बड़े से बड़े हों- वैज्ञानिक इन सभी गुणोंे का समावेश अपने बनाए बीजों में कराना चाहता है। पर बीजों में पोषण भी अधिक से अधिक हो, ऐसा उसकी प्राथामिकता में अमूमन नहीं होता । फलों, सब्जियों और अनाजों का ८० फीसदी से भी ज्यादा भाग कार्बोहाईड्रेट होता है । 
जब एकब्रीडर उपज को बढ़ाने का जतन करता है तो वह उसके कार्बोहाईड्रेट को ही बढ़ाता है । एक किस्म के बाद दूसरी किस्म विकसित की जाती है । फल बड़े से बड़ा और संख्या में अधिक से अधिक होता चला जाता है । इन सबके बीच पौधों में मिट्टी से खनिज को लेने की क्षमता या प्रोटीन और विटामिन आदि पोषक तत्वों को बनाने की क्षमता नहीं बढ़ती और इस तरह पोषक पदार्थों की मात्रा कहीं पीछे ही छूट जाती है । जिस आधुनिक कृषि विज्ञान ने यह सब दिया है, उसी ने इसे एक नया नाम भी दिया है : `जैनेटिक डाईल्यूशन इफैक्ट`। पोषक तत्वों से कथित तौर पर लबलबाए हुए भोजन को खाने के बाद भी हमारा शरीर स्वस्थ क्यों नहीं रह पाता, इसका भी यही कारण है ।
    हम जो खाते हैं, वही हम बन जाते हैं - ऐसा गांधीजी ने कहा था । हम क्या खा रहे हैं और जो खा रहे हैं, वह हमें क्या बना रहा है, इस बारे में विचारने की जरूरत है । 
हमारा भूमण्डल 
जी.एम. फसल : बासी कढ़ी में फिर उबाल  
भारत डोगरा
जी. एम. बैंगन के विरोध में मिली सफलता के बाद लगने लगा था कि जी. एम. का जिन्न बोतल में बंद हो गंया है । पिछले दिनों जी. एम. सरसों को लेकर उठे विवाद के बाद वन एवं पर्यावरण मंत्रालय के निकट भविष्य में इसके व्यावसायिक उत्पादन की अनुमति से इंकार किया था । लेकिन अगले ही दिन कृषि मंत्री ने जी एम सरसों को लेकर पुन: अनिश्चितता का वातावरण बना दिया है ?
इन दिनों भारत में जी.एम. (जीन संवर्धित) खाद्य फसलों के प्रसार के लिए बहुत शक्तिशाली तत्व सक्रिय हैंऔर सरसों की जी एम फसल को स्वीकृति दिलवाने के प्रयास बहुत तेज हुए हैं । गौरतलब है जी. एम. फसलें कृषि, पर्यावरण व स्वास्थ्य के लिए बहुत खतरनाक सिद्ध हो सकती हैं ।
जी.एम. फसलों के विरोध का एक मुख्य आधार है कि यह फसलें स्वास्थ्य व पर्यावरण की दृष्टि से सुरक्षित नहीं हैंतथा इनका असर जेनेटिक प्रदूषण के माध्यम से अन्य सामान्य फसलों व पौधों में फैल सकता है । इस विचार को बहुराष्ट्रीय इंडिपेंडेंट साइंर्स पैनल (स्वतंत्र विज्ञान मंच) ने बहुत सारगर्भित ढंग से व्यक्त किया है। उनके अनुसार `जी.एम. फसलों के बारे में जिन लाभों का वायदा किया गया था वे प्राप्त नहीं हुए हैंव यह फसलें खेतों में अधिक  समस्याएं पैदा कर रहीं   हैं। इन फसलों का प्रसार होने पर ट्रान्सजेनिक प्रदूषण से बचा नहीं जा सकता है । अत: जी.एम. फसलों व गैर जी.एम. फसलों का सहअस्तित्व संभव नहीं है । सबसे महंवपूर्ण यह है कि जी.एम. फसलों की सुरक्षा प्रमाणित नहीं हो सकी है। इसके विपरीत इस बात के पर्याप्त प्रमाण प्राप्त हो चुके हैंजिनसे इन फसलों की सुरक्षा संबंधी गंभीर चिंताएं उत्पन्न होती हैं । यदि इनकी उपेक्षा की गई तो स्वास्थ्य व पर्यावरण की जो क्षति होगी उसकी पूर्ति नहीं हो सकती है। जी.एम. फसलों को अब दृढ़ता से अस्वीकृत कर देना चाहिए ।`
दुखद है कि वैज्ञानिकोंके जो विचार सही बहस के लिए सामने आने चाहिए थे, उन्हें दबाया गया है। यह कहा गया है कि संयुक्त राज्य अमेरिका में जो अनेक जी.एम. फसलों को स्वीकृति मिली, वह काफी सोच-समझकर ही दी गई होगी । परंतु हाल में ऐसे प्रमाण सामने आए हैं कि यह स्वीकृति बड़ी बहुराष्ट्रीय कंपनियों के दबाव में दी गई व इनके लिए सरकारी तंत्र द्वारा अपने वैज्ञानिकों की जी.एम. फसलों संबंधी चेतावनियों को दबा दिया गया ।
जब वर्ष १९९२ में अमेरिकी खाद्य व दवा प्रशासन ने जी.एम. उत्पादों के पक्ष में नीति बनाई तो इस प्रतिकूल वैज्ञानिक राय को गोपनीय रखा गया । पर सात वर्ष बाद जब इस सरकारी एजेंसी के गोपनीय रिकार्ड को एक अदालती मुकदमे के कारण खुला करना पड़ा व ४४००० पृष्ठों में बिखरी हुई नई जानकारी सामने आई तो पता चला कि वैज्ञानिकों की जो राय जी.एम. फसलों व उत्पादों के प्रतिकूल होती थी, उसे वैज्ञानिकोंके विरोध के बावजूद नीतिगत दस्तावेजों से हटा दिया जाता था । इन दस्तावेजों से यह भी पता चला कि खाद्य व दवा प्रशासन को राष्ट्रपति के कार्यालय से आदेश थे कि जी.एम. फसलों को आगे बढ़ाया जाए ।  
ब्रिटेन में वैज्ञानिकों के अनुसंधान से पता चला कि विकसित किए जा रहे जी.एम. आलू की एक किस्म के प्रयोगों के दौरान चूहों के स्वास्थ्य पर व्यापक क्षति देखी गई  है । खुलासा होने पर तो सरकार ने यह परियोजना ही बंद कर दी उसके प्रमुख वैज्ञानिक की छुट्टी कर दी व उसकी अनुसंधान टीम छिन्न-भिन्न कर दी गई। ऐसे अनेक उदाहरण उपलब्ध हैं जहां प्रतिष्ठित वैज्ञानिकों को केवल इस कारण परेशान किया गया है या उनका अनुसंधान बाधित किया गया क्योंकि उनके अनुसंधान से जी. एम. फसलों के खतरे पता चलने लगे थे ।  
कृषि व खाद्य क्षेत्र में जेनेटिक इंजीनियरिंग की तकनीक मात्र लगभग छ:-सात बहुराष्ट्रीय कंपनियों (व उनकी सहयोगी या उप-कंपनियों) के हाथ में केन्द्रित है । इन कंपनियों का मूल आधार पश्चिमी देशों व विशेषकर संयुक्त राज्य अमेरिका में है । इनका उद्देश्य जेनेटिक इंजीनियरिंग के माध्यम से विश्व कृषि व खाद्य व्यवस्था पर ऐसा नियंत्रण स्थापित करना है जैसा विश्व इतिहास में आज तक संभव नहीं हुआ है। उन्हें अमेरिकी सरकार का भरपूर समर्थन मिलता रहा है क्योंकि अपने कमजोर होते आर्थिक आधार के  बीच अमेरिकी सरकार को अपना नियंत्रण मजबूत करना और भी जरूरी लगता है । इन कंपनियों का इस समय सबसे बड़ा व महत्वपूर्ण शिकार स्थल भारत है क्योंकि उन्हें पता है कि इसके बाद अन्य विकासशील देशों पर उनका हमला और आसान हो जाएगा ।
प्रमाणित वैज्ञानिक जानकारी दबाने के प्रमाण सामने आने पर अब अनेक वैज्ञानिक यह कह रहे हैंकि जब तक बड़ी बहुराष्ट्रीय कंपनियों के असर में सरकार रहेगी तब तक उचित जानकारी सामने आ ही नहीं सकेगी । एक समय ऐसा था जब इन मामलों में भारत के सजग स्वाभिमानी तेवर विकासशील देशों को साम्राज्यवादी ताकतों का सामना करने के लिए प्रेरणा देते थे। आज चर्चा अन्तर्राष्ट्रीय सभा-सम्मेलनों में इस बात की होती है कि भारत का सरकारी तंत्र किस हद तक भ्रष्ट बहुराष्ट्रीय कंपनियों के आगे झुक चुका है ।    
इस कुप्रयास व षड़यंत्र के विरुद्ध सर्वोच्च् न्यायालय में भी लंबी लड़ाई लड़ी गई है । न्यायालय ने जैव तकनीक के ख्याति प्राप्त वैज्ञानिक प्रो. पुष्प भार्गव को जेनेटिक इंजीनियरिंग एप्रूवल कमेटी (जी.ई.ए.सी) के कार्य पर निगरानी रखने के लिए नियुक्त किया । प्रो. भार्गव सेन्टर फार सेल्यूलर एंड मालीक्यूलर बॉयलाजी हैदराबाद के पूर्व निदेशक व राष्ट्रीय ज्ञान आयोग के उपाध्यक्ष रहे हैं । अपने बयान में विश्व ख्याति प्राप्त इस वैज्ञानिक ने देश को चेतावनी दी है कि चंद शक्तिशाली व्यक्तियों द्वारा अपने व बहुराष्ट्रीय कंपनियों (विशेषकर अमेरिकी) के हितों को जेनेटिक रूप से बदली गई (जीएम) फसलों के माध्यम से आगे बढ़ाने के प्रयासों से सावधान रहें । उनके अनुसार इस प्रयास का अंतिम लक्ष्य भारतीय कृषि व खाद्य उत्पादन पर नियंत्रण प्राप्त करना है और इस षडयंत्र से जुड़ी एक मुख्य कंपनी का कानून तोड़ने व अनैतिक कार्यों का चार दशक का रिकार्ड है । 
अत: अमेरिकी सरकार के निर्णयों से कहीं अधिक महत्वपूर्ण उन स्वतंत्र वैज्ञानिकों के बयान हैं जिन्होंने बार-बार जी.एम. फसलों के खतरों के बारे में चेतावनी दी है। भारत सरकार को चाहिए कि वह इन स्वतंत्र वैज्ञानिकों के बयानों की रिपोर्टों का बहुत ध्यान से अध्ययन करने के बाद ही इस विषय पर कोई निर्णय ले । इनमें से अनेक वैज्ञानिक अमेरिका के हैं । अमेरिका के किसानों, पर्यावरणविदों, सामाजिक कार्यकर्ताओं में जी.एम.फसलों का विरोध जोर पकड़ रहा है ।
ज्ञाातव्य हैंजी.एम. फसलों का थोड़ा बहुत प्रसार व परीक्षण भी बहुत घातक हो सकता है । सवाल यह नहीं है कि उन फसलों को थोड़ा बहुत उगाने से उत्पादकता बढ़ने के नतीजे मिलेंगे या नहीं । मूल मुद्दा यह है कि इनसे जो सामान्य फसलें हैं वे भी संश्लेषित या प्रदूषित हो सकती हैं । यह जेनेटिक प्रदूषण बहुत तेजी से फैल सकता है व इस कारण जो क्षति होगी उसकी भरपाई नहीं हो सकती है। इसके बाद अच्छी गुणवत्ता व सुरक्षित खाद्यों का जो बाजार है, जिसमें स्थानीय फसलों की बेहतर कीमत मिलती है, वह हमसे छिन  जाएगा । 
विशेष लेख
जलवायु परिवर्तन : कारण एवं निवारण
प्रो. कृष्ण कुमार 

सामान्यत: किसी भी स्थान की दीर्घकालीन मौसमी दशाएं जलवायु कहलाती है । जलवायु स्थिर रहती है वर्तमान समय में कुछ प्राकृतिक एवं अधिक मानव जनित कारणों से जलवायु स्थिर नहीं रह पा रही हैं । फलस्वरूप जलवायु परिवर्तन की समस्या आज प्रमुखता से विश्व में छाई हुई है । जलवायु परिवर्तन से आशय जलवायु में प्रत्यक्ष रूप से दिखने वाले बदलावों से है । यह बदलाव एक दो महीने या वर्ष में नहीं है वरन इसे होने में कई दशक या हजारों लाखों वर्षो का समय लगता है । जलवायु परिवर्तन की काली छाया मात्र हमारे प्रदेश-देश पर ही नहीं वरन् सम्पूर्ण विश्व पटल पर मंडरा रही है । वर्तमान समय में जलवायु परिवर्तन एक वैश्विक समस्या बन चुकी है । आज अधिकांश वैश्विक सम्मेलकों में जलवायु परिवर्तन का ही मुख्य मुद्दा छाया हुआ है । 
ग्लेशियरों का पिघलना, भूमण्डलीय तापन, अतिवृष्टि सूखा, सुनामी जैसी समस्याएं जलवायु में हो रहे परिवर्तन का ही परिणाम परिलक्षित करती है । जलवायु में हो रहे परिवर्तन के मूल जो कारण है उनमें कुछ कारण प्राकृतिक अवश्य हैं किन्तु अत्यधिक कारण मानव जनित ही है । प्राकृतिक कारणों में मुख्य रूप से ज्वालामुखी उदभेदन आते है जिनमें अंदर द्रवित चट्टान, लावा, भस्म तथा गैसे निकलती है । गैसों में मुख्य रूप से सल्फर डाई आक्साइड, सल्फर ट्राइआक्साइड, क्लोरीन, वाष्प, कार्बन डाई आक्साईड, हाइड्रोजन सल्फाइड तथा कार्बन मोनो आक्साइड आदि होती है । ज्वालामुखी विस्फोट के कारण धूल एवं राख के कण भी गैंसों के साथ बहुत ऊपर तक चले जाते है और वायुमण्डल में वर्षो तक विद्यमान रहकर जलवायु को प्रभावित करते   है । प्राकृतिक कारणों में महासागरीय धाराएं आती है । पृथ्वी के ७० प्रतिशत से अधिक  हिस्से में स्थित सागर, महासागरों तथा जलवायु के निर्धारण में सबसे अधिक योगदान होता है । समय-समय पर समुद्र अपना ताप वायुमण्डल में छोड़ता है जिससे जलवायु प्रभावित होती है । अत्यधिक ताप जलवायु के रूप मेें पृथ्वी पर ग्रीन हाऊस गैस के प्रभाव बढ़ाता    है । जिससे जलवायु प्रभावित होती   है । 
यहाँ उल्लेखित है कि जलवायु परिवर्तन के लिए सबसे अधिक मानवजनित कारण ही आते है उनमें सर्वप्रथम आता है कार्बन डाइआक्साइड उत्सर्जन में लगातार होती वृद्धि । बढ़ते नगरीकरण एवं औघोगिकीकरण के कारण वायुमण्डल में कार्बन डाइआक्साइड की मात्रा बढ़ रही है साथ ही वनों की अत्यधिक कटाई और दोहन के कारण पेड़ पौधों द्वारा कार्बन डाइआक्साइड  को ऑक्सीजन में परितर्वन करने की प्रक्रिया भी मंद होती आती है जिससे कार्बन डाइआक्साइड के साथ-साथ अन्य घातक गैसे जिसमें मीथेन, नाइट्रोजन आक्साइड, क्लोरो फ्लोरो कार्बन आदि सभी मिलकर ग्रीन हाऊस प्रभाव वायुमण्डल में उत्पन्न करते है जो जलवायु परिवर्तन के लिए प्रमुख कारण बन जाता है क्योंकि वायुमण्डल में स्थित ये गैसे काँच की तरह व्यवहार करती है इसमें सूर्य का ताप आ तो जाता है पर वापस नहीं जा पाता है जिससे ताप बढ़ता है और जलवायु प्रभावित होती है । 
जलवायु परिवर्तन के लिए उत्तरदायी दूसरा प्रमुख कारण है कि आधुनिक कृषि, जिसमें रासायनिक उर्वरकों का अंधाधुंध प्रयोग एवं कीटनाशकों के अत्यधिक छिड़काव के कारण एक साथ जल, मिट्टी वायु में प्रदूषण बढ़ता है । जलमग्न चावल की जुताई से तथा जुगाली करने वाले पशु भी वातावरण में मीथेन उत्सर्जन करते है इससे हरित गृह प्रभाव बढ़ता जाता है । उल्लेखनीय है कि वायुमण्डलीय मीथेन दीर्घ आवेशित विकिरणों को आवेशित करने में कार्बन डाइआक्साइड के मुकाबले २२ गुना अधिक प्रभावी होती है । 
जीवाश्म आधारित ईधन के अत्यधिक उपयोग से भी कार्बन डाइआक्साइड एवं नाइट्रोजन डाइआक्साइड जैसी गैसों का उत्सर्जन इस कदर बढ़ा है कि जिससे वायुमण्डल में हरित गृह प्रभाव वाली गैसे संचयन लगातार बढ़ रहा है जिससे वायु एवं जल प्रदूषण बहुत अधिक बढ़ा है । अम्लीकरण भी इसी का परिणाम है । वाहनों में तेल दहन से वायु में ३० प्रतिशत तक कार्बन डाइआक्साइड का उत्सर्जन बढ़ा है । दूसरी तरफ बढ़ते शहरीकरण, औघोगिकीकरण ने कृषि क्षेत्रों, वन क्षेत्रों का रकबा निरन्तर कम किया है जिससे चतुर्दिक प्रदूषण इस हद तक बढ़ाया है कि भूमण्डलीय तापन की समस्या बढ़ी है और जलवायु परिवर्तन की समस्या विकराल होती जा रही   है । 
आगामी समय में जलवायु परिवर्तन के निम्न दुष्परिणाम भोगने होंगे - 
बढ़ते ताप के कारण नदियों, तालाबों, झीलों, सागरों एवं महासागरों में वाष्पीकरण बढ़ेगा जिसमें असमय में अतिवृष्टि, बाढ़ की समस्याएं बढ़ेगी । साथ ही बढ़ते तापमान के कारण कुछ स्थानों पर वायुमण्डलीय दाब अनायास कम होंगे जिससे अचानक आंधी-तूफानों का प्रकोप भी बढ़ेगा । 
तापमान में वृद्धि के कारण पेड़ पौधों में नमी की कमी होगी जिससे वे सूखने लगेंगे । कृषि फसलों में वृद्धि हेतु तापमान की एक आवश्यकता निश्चित सीमा तक ही होती है । बढ़ते तापमान से कृषि फसलों का उत्पादन घटता जायेगा । मिट्टी में पानी की कमी से कार्बनिक पदार्थो का विघटन एवं पुनचक्रण की प्रक्रिया नहीं होगी इससे भी कृषि फसलों की उत्पादन में लगातार कमी आती जायेगी । 
एक सीमा से अधिक तापमान में वृद्धि होने में हानिकारक कीड़े मकोड़े उत्पन्न होंगे, इससे मानव सहित जीवों जन्तुआें एवं पेड़ पौधों, कृषि फसलों में रोग बढ़ेगे जिससे जीवों की अनायास मृत्यु होगी तथा फसलों की गुणवत्ता बुरी तरह प्रभावित होगी, ताप वृद्धि से हरियाली - हरीतिमा में भारी कमी आयेगी फलस्वरूप पर्यावरण में भारी असंतुलन पैदा होगा । 
भूमण्डलीय तापवृद्धि के कारण धु्रवों के हिम पिघलने लगती जिससे सागर-महासागरों का जलस्तर बढ़ेगा और तटवर्ती क्षेत्रों के जलमग्न होने का खतरा बढ़ जायेगा एवं असामयिक वर्षा ओर सूखा की संभावना भी बढ़ जायेगी । वायुमण्डल में हरित ग्रह प्रभाव बढ़ाने वाली गैसों के कारण में ओजोन परत को भारी क्षति पहुंचेगी, अम्ल वर्षा होगी । सूर्य से आने वाली पराबैगनी किरणों के अवशोषण में कमी होने से मानव सहित समस्त जीव जन्तुआें, वनस्पति में गंभीर बीमारियां बढ़ेगी । पृथ्वी पर जीवन का अस्तित्व ही खतरे में पड़   जायेगा । 
उपरोक्त दुष्परिणाम परिप्रेक्ष्य में आवश्यक हो गया है पर्यावरण असंतुलन बढ़ाने वाली, प्रदूषण बढ़ाने वालों मानवीय गतिविधियों पर अब विराम लगना चाहिए तथा प्रकृति अनुकूलन वाली, हरियाली हरितिमा विस्तार वाली तथा प्रमुख पर्यावरणीय तत्व जल, मिट्टी, वायु को परिशुद्ध रखने वाली तथा इनको संरक्षित, संवर्धित करने वाली गतिविधियों को हर हाल में बढ़ावा देना होगा । उल्लेखनीय है कि मानव मात्र की ही पर्यावरण संरक्षण-संवर्धन कारी पहल ही पृथ्वी एवं पृथ्वी पर जीवन को बचा सकता है । 
रहन-सहन
ग्रीन बिल्डिंग से पर्यावरण बचाने की कोशिश
मनीष वैद्य
तथाकथित विकास की अंधी दौड़ में पर्यावरणीय हितों की लम्बे समय से अनदेखी हुई है ।  दुर्भाग्य से हमारे यहां निर्माण को ही विकास का पर्याय मान लिया गया और यही वजह है कि पर्यावरण लगातार हाशिए पर रहा । 
विकास इस अवधारणा और प्राथमिकताआें ने बीते कुछ सालों में ही हमारे सामने जो पर्यावरणीय संकट खड़े किए हैं, वे हमारे जीवन और सेहत के लिए ही भारी पड़ने लगे हैं । हम साफ हवा और पानी तक को मोहताज हो गए हैं । अब पर्यावरण बचाने और प्रदूषण के दुष्प्रभाव को कम करने के लिए हरित भवन (ग्रीन बिल्डिंग) पर जोर दिया जा रहा है । इसमें बिजली-पानी का कम से कम खर्च तथा वातानुकूलित होने से भी इसका चलन तेजी से बढ़ रहा है । 
इको फ्रेंडली ग्रीन बिल्डिंग यानी हरित भवन खास तौर पर पर्यावरण को ही ध्यान में रखकर बनाए जाते हैं । निर्माण प्रक्रिया से प्रकृति और पर्यावरण के नुकसान को कम करने की दिशा में सबसे कारगर साबित हो रही है ग्रीन बिल्डिंग अवधारणा । और आने वाले भविष्य के लिए यह सबसे जरूरी कदम भी है । ये हमारे पर्यावरण या पारिस्थितिकी तंत्र को किसी तरह का नुकसान नहीं पहुंचाते हैं । ये ऊर्जा के बेतहाशा क्षय को भी रोकते हैं, कचरा निस्तारण और प्राकृतिक आपदाआें से बचने के भी उपाय होंगे ऐसे मकानों में करीब १० डिग्री तक तापमान को भी कम कर सकेंगे । 
इनमें ऊर्जा और पानी बचाने पर जोर होता है । इनके आसपास बड़ी संख्या में पेड़-पौधे लगाए जाते हैं ताकि तापमान को नियंत्रित किया जा सके । इनमें पेड़ पौधों के लिए भी पर्याप्त् जगह रखी जाती है, साथ ही बालकनी, खिड़की, गैलरी, छत और ओपन टेरेस में भी गमलों के जरिए छोटे-छोटे पौधे लगाने का प्रावधान किया गया है । 
हमारे देश में हरियाली को करीब ३० से ३५ फीसदी तक बढ़ाने की जरूरत है, जबकि सिंगापुर जैसे छोटी जगह पर हरियाली ४९ फीसदी तक है । इनमें प्रकृति और पर्यावरण के नजरिए से यह खास तौर पर ध्यान रखा जाता है कि यहां रहने वाले लोगों को उजाले और साफ हवा के लिए बिजली और अन्य संसाधनों का इस्तेमाल कम से कम करना   पड़े । इनका तापमान भी ठंडा बना रहता है और सबसे बड़ी बात तो यह है कि इन सब फायदों के बाद भी इनकी लागत सामान्य मकानो की कीमत के मुकाबले महज तीन फीसदी ही ज्यादा होगी यानी अंतर बहुत कम   है । 
ग्रीन अवधारणा के मकानों में पर्यावरण को बिना नुकसान पहुंचाए अधिक से अधिक प्राकृतिक संसाधनों का इस्तेमाल किया जाता  है । जैसे सूरज का उजाला मकान के अधिकांश हिस्से को रोशन कर सके ताकि बिजली की खपत कम हो । रात में जहां जरूरी हो वहां भी कितने वॉट का बल्ब या ट्यूबलाइट की जरूरत है तथा जहां जरूरी न हो वहां खपत कम हो, इसका भी ध्यान रखा जाता है । इसी तरह खिड़कियां आदि ऐसी बनाई जाती है कि लगातार हवा मिलती   रहे । ऐसे मकानों में प्राकृतिक हवा के प्रवेश और निकासी के लिए जतन किए जाते हैं, ताकि पंखे, कूलर और एसी चलाए बिना भी आसानी से प्राकृतिक हवा पर जगह मिलती रहे । गर्मियों में बिना किसी संसाधन के मकान को ठंडा रखने की तकनीक भी इनमें होती है । 
फ्लाई ऐश की टाइल्स अपेक्षाकृत ठंडी होती हैं और गर्मियों में जब गर्म हवा और धूप की वजह से मकान की बाहरी दीवारें काफी गर्म हो जाती है, तो ऐसे में फ्लाई ऐश अंदर की सतह को ठंडा बनाए रखती है । इसके अलावा भूजल स्तर बढ़ाने के लिए इनमें प्राकृतिक रीचार्ज तथा सीवरेज की अत्याधुनिक तकनीकों का भी उपयोग किया जाता है । इनके निर्माण में भूकंपरोधी तकनीकों का भी इस्तेमाल किया जा रहा है । इन तमाम वजहों से यह खासा लोकप्रिय हो रहा है । 
इनमें पानी की बचत पर सबसे ज्यादा ध्यान दिया गया है । इनमें बरसाती पानी को जमीन में सहेजने और वाटर रिचार्जिंग के साथ पानी के पुन: उपयोग पर भी जोर दिया गया है । सीवरेज ट्रीटमेंट कर दैनिक उपयोग के लिए इस्तेमाल पानी को साफ बनाकर इसे रिसाय-किल किया जा सकेगा । इस तरह के प्रोजेक्ट में बिजली की बचत के लिए सौर ऊर्जा का उपयोग करने के लिए सोलर प्लेट भी लगाई जा रही है । 
ग्रीन बिल्डिंग अवधारण भारत जैसे देशों के लिए नई हो सकती है लेकिन विदेशों में इसका चलन करीब २० साल पहले ही शुरू हो चुका है । हमारे देश में भी अब इसकी तरफ लोगों खासकर बिल्डर्स का ध्यान गया है । देश के अलग-अलग शहरों में करीब तीन हजार से ज्यादा ग्रीन बिल्डिंग प्रोजेक्ट पर काम चल रहा है । बीते पांच सालों में ही बैंगलुरू, हैदराबाद, पंचकूलातथा चण्डीगढ़ के साथ इन्दौर और भोपाल जैसे शहरों में भी इसे लेकर लोगों की उत्सुकता बढ़ी  है । इसके लिए बाकायदा इण्डियन ग्रीन बिल्डिंग कौंसिल अलग-अलग शहरों में जाकर बिल्डर्स और लोगों को इसके फायदे गिना रही है । 
पंचकूला के आईटी पार्क में बीत साल ऐसी ही एक ग्रीन बिल्डिंग बनकर तैयार हो चुकी है । इसमें डबल ग्लास पैनल, फ्लाई ऐश स्लेब तथा सोलर पेनल के साथ सभी बारीकियों का ध्यान रखा गया है । यहां काम करने वालों को इसमें काम करना बेहद रास आ रहा है । यह ऊर्जा संरक्षण का भी नायाब नमूना है । यहां कई प्रोजेक्ट पर भी काम चल रहा है ।
इन दिनों बड़े शहरों के बिल्डर्स इन ग्रीन बिल्डिंग के फायदे अपने ग्राहकों को बताकर उन्हें इसके लिए प्रेरित भी कर रहे हैं । यह पर्यावरण, बिल्डर्स और ग्राहकों तीनों के लिए फायदे का सौदा साबित हो रहा है । इसका चलन बड़े महानगरों और अन्य बड़े शहरों में तेजी से बढ़ रहा है । इनमें से कई प्रोजेक्ट तो बनकर तैयार भी हो चुके है । सरकार भी इसे बढ़ावा देने में कोई कसर नहीं छोड़ रही है । कुछ बड़ी सरकारी बिल्डिंग को भी ग्रीन बिल्डिंग ही बनाया जा रहा है । २०२५ तक इसका दायरा और बढ़ाने के लिए विभिन्न शहरों में इसके लिए कांफ्रेंस की जा रही हैं, तो आर्किटेक्चर के विद्यार्थियों को भी इसके फायदे बताए जा रहे हैं । 
हालांकि कुछ बिल्डर्स अपने प्रोजेक्ट में सिर्फ ग्रीन शब्द जोड़कर ही अपने ग्राहकों को धोखा दे रहे   हैं । ऐसे में ग्राहकों को इसके मायने गंभीरता से समझने की जरूरत है और जागरूक होने की भी । इसके लिए इण्डियन ग्रीन बिल्डिंग कौंसिल ने बकायदा रजिस्ट्रेशन और रेटिंग जैसी व्यवस्था भी लागू की है । हमने अब तक पर्यावरण को जिस निर्ममता से बर्बाद किया है, उसे सुधारने की दिशा में ग्रीन बिल्डिंग एक जरूरी कदम साबित हो सकता है । 
हमारे यहां एक तरफ जहां हरियाली और बरसात तेजी से घट रहे हैं, वहीं हवा भी लगातार जहरीली होती जा रही है । बीते दिनों कुछ शहरों में वायु और जल प्रदूषण के जो भयावह आंकड़े हमारे सामने आए हैं, उनसे साफ है कि अब सिर्फ बातों से हालात सुधरने वाले नहीं हैं । अब नए सिरे से इस पर एक्शन की जरूरत   है । हमारे यहां कार्बन डाईऑक्साइड का उत्सर्जन बड़ी मात्रा में हो रहा    है । हमने शहरों में सीमेंट-कांक्रीट के बड़े-बड़े जंगल तो खड़े कर लिए हम हम अपने जीवन के लिए सबसे जरूरी पर्यावरण को लगातार नुकसान पहुंचाते रहे । हम पेड़ों को लगातार काटते रहे पर कभी एक पौधे को पेड़ बनाने के बारे में नहीं सोचा । 
हमने अपनी नदियां गंदी कर दी पर कभी इन्हें साफ-सुथरा बनाने का नहीं सोचा । हमने बरसात का पानी व्यर्थ ही बह जाने दिया पर कभी उसे सहेजने की दिशा में कोई पहल नहीं की । हमें नलों से पानी क्या मिलने लगा हमने अपने प्राकृतिक कुएं-कुण्डियां ही बिसरा दी, उन्हेंकूड़ादान में तबदील कर दिया । हतना ही नहीं हमने अपने सांस लेने के लिए सबसे जरूरी हवा को भी कभी साफ बनाए रखने पर सोचा नहीं और न कोई कदम उठाया । यही वजह है कि शहर अब लोगों के रहने लायक नहीं बचे । उनमें न पर्याप्त् पानी है और न ही साफ-सथुरी ताजी हवा । गर्मियों में तो शहरों के कई मकान भट्टी की तरह तपते हैं । ऐसी स्थिति में जरूरी है कि हम इस नई पहल का स्वागत करें । 
जनजीवन
सिरसा नदी का संकट
कुलभूषण उपमन्यु 
पिछले कुछ वर्षों मंे हिमाचल प्रदेश ने स्वयं को विकसित औद्योगिक राज्य की श्रेणी में लाने के लिए अपनी पर्यावरणीय श्रेष्ठता को नजरअंदाज किया । इसका परिणाम यह हुआ है कि वहां का पूरा वातावरण जिनमें नदियां भी शामिल है भयानक रूप से प्रदूषित होती जा रही है ।
सिरसा नदी हरियाणा के पंचकुला जिले के कालका के पास के क्षेत्रों से निकल कर उत्तर-पश्चिम की ओर बहते हुए बहती में हिमाचल में प्रवेश करती है । बहती बरोटीवाला, नालागढ़ जो हिमाचल प्रदेश का प्रमुख औद्योगिक  क्षेत्र है, से गुजरते हुए यह पंजाब में प्रवेश करती है और रोपड़ के पास चक-देहरा में सतलुज नदी में मिल जाती है। बाहरी शिवालिक क्षेत्र में बहने के कारण यह बहुविध पारिस्थितिकीय भूमिका निभाती है । 
शिवालिक क्षेत्र आमतौर पर पानी के अभाव वाला क्षेत्र माना जाता है । एक सदानीरा नदी का इस क्षेत्र में होना ही अपने आप में प्रकृति की अद्भुत देन से कम नहीं है। सिंचाई, पेयजल, भूजल पुनर्भरण, जलीय जीवों के संुदर आवास के अलावा इस नदी में किसी समय कई पनचक्कियां भी चलती थीं जहां सिंचाई की कुहलें नहीं पहुंचती थीं वहां लोगों ने नलकूप लगा कर सिंचाई की व्यवस्था कर ली थी ।
प्रदेश के विकास के लिए औद्योगिकरण को बहुत जरूरी और रोजगार पैदा करने वाला माना जाता है । किन्तु यदि यह हमारे वातावरण, नदियों और भूजल को ही प्रदूषित कर दे तो  इससे बहुत सा रोजगार छीना भी जाता है। रहने के हालात कठिन हो जाते हैं । बीमारियों की भरमार हो जाती है । टिकाऊ विकास की व्यवस्थाएं नष्ट हो जाती हैं । ऐसा विकास थोड़े समय का तमाशा बन कर रह जाता है। इसलिए औद्योगीकरण के विपरीत प्रभावों को कम करने के लिए राष्ट्रीय और प्रादेशिक स्तर पर प्रदूषण नियंत्रण बोऱ्डों के माध्यम से मार्गदर्शिका जारी की जाती है। औद्योेगिक वर्ग लाभ कमाने के लालच में कई बहुत जरूरी सावधानियांे की जानबूझ कर अनदेखी कर जाता है। इस वजह से वायु प्रदूषण भी एक बड़ा खतरा बन कर उभरता है । 
प्रदूषित वायु के भी कुछ अंश बारिश में धुल कर नदिया सें, और जलस्त्रोतों में मिल जाते हैंऔर उन्हें भी प्रदूषित कर देते हैं। बी. बी. एन क्षेत्र भी इन विसंगतियों से अछूता नहीं है और इसका सबसे बड़ा शिकार सिरसा नदी हुई है । दिल्ली विश्वविद्यालय के चौहान और साथियों द्वारा किये गए अध्ययन और उसके बाद हुए अध्ययनों से कई महत्वपूर्ण बातें समाने आई है । पहले अध्ययन में जैव अनुश्रवण अध्ययन किया गया था । इसके अंतर्गत जलीय जैव विविधता का सूचिकरण करके नदी प्रदूषण स्तर का पता लगाया जाता  है । 
इस अध्ययन में  तीन क्षेत्रों बहती से ऊपर का क्षेत्र जहां औद्योगिक कचरा नहीं पंहुचता है। जगातखाना जहां से औद्योगिक कचरा शुरू हो जाता है और धनौली जहां औद्योगिक कचरे वाले क्षेत्र को लांघ कर नदी पंजाब में प्रवेश करती है। इन तीन स्थलों का नमूना अध्ययन किया गया इसमें पाया गया कि बहती के ऊपर वाले क्षेत्र से जगातखाना तक आते आते जैविक प्रदूषण, दो गुना हो जाता है । धनौली तक आते आते प्रदूषण का स्तर तीन गुना हो जाता है यानी खतरे के स्तर के ऊपर पंहुच जाता हैं । इसके कारण संवेदनशील जलीय जीव प्रजातियां लुप्त होती जाती है ।
सिरसा नदी की सहायत खड्डे, बलद, चिकनी खड्ड, छोटा काता नाला, पल्ला नाला, जटा नाला और संधोली खड्ड हैं । नई, खड्डों का भी हाल औद्योगिक प्रदूषण के चलते खराब हो चुका है । बी.बी. एन क्षेत्र लगभग ३५०० हैक्टेयर में फैला हुआ है । इसमें लगभग २०६३ उद्योग है इनमें से १७६ लाल श्रेणी के, ७७९ संतरी श्रेणी के और ११०८ हरी श्रेणी के हैं । यह वर्गीकरण इनकी प्रदूषण फैलाने की क्षमता के आधार पर किया गया है। लाल श्रेणी में थर्मल प्लांट, धागा उद्योेेग, स्टोन क्रशर, एल्युमीनियम स्मेल्टर, लेड-एसिड-बैटरी, और बायलर उद्योग आदि आते हैं । संतरी श्रेणी में ईट भट ा, नदी से रेत-बजरी-पत्थर आदि निकालने, ढांचागत निर्माण, और फार्मेसी आदि उद्योग रखे गए हैं । हालांकि प्रदूषण फैलाने में संतरी श्रेणी के उद्योगों का योेगदान भी कम नहीं है । बी.बी.एन क्षेत्र में प्रदूषण नियंत्रण प्रावधानों का उद्योगों द्वारा ठ ीक से पालन न करने के चलते ही केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने इसे ``खतरनाक स्तर तक प्रदूषित`` क्षेत्रों की सूची में डाला है ।
खतरनाक कचरे को यहां वहां नदियों में डालना, प्रदूषित जल को खेतों व नदियों में छोड़ देना, अवैध खनन, आदि प्रमुख समस्याएं हैं । इनका सम्मिलित प्रभाव कृषि, पशुपालन जलीय जैवविविधता, स्वास्थ्य, और स्वच्छता पर पड़ना स्वाभाविक ही है प्रशासन और प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड की, पर्यावरणीय गाइड लाइन को लागू करने की सामर्थ्य, पर भी प्रश्न चिन्ह लग गया है । नदी और उसकी सहायक खड्डों में प्रदूषित पानी छोड़ने के साथ कुछ उद्योगों द्वारा प्रदूषित जल को जमीन के भीतर इंजेक्ट करने की भी सुचनाएं हैं । ६० प्रतिशत उद़्योगों में जल उपचार संयंत्र ही नहीं लगे हैं । बघेरी क्षेत्र में हवा में पारे, लेड, और केडमियम की मात्रा सुरक्षित स्तर से काफी ज्यादा है। बारिश में घुल कर पारा नदी जल और भूजल मंे पहुंच जाता है मछली के शरीर में पहुंच कर पारा, मिथाइल पारे में बदल जाता    है । 
यह शरीर में मस्तिष्क, हद्य, फेफड़े, और गुर्दे को नुकसान पहंुचाता है । और रोगरोधी व्यवस्था को भी खराब करता है। नदियों के किनारे एक्सपायर दवाइयों की और अन्य खतरनाक ठोस कचरे की डंपिंग आम बात है । यह ``खतरनाक अपशिष्ट नियम २००६`` का उल्लंघन है । केंधुवाल में एक सांझा प्रदूषित जल संशोधित संयंत्र स्थापित करने की बात है । कुल इकाइयां २०६३  हैं । शेष का क्या होगा । सिरसा नदी का जल ``ई`` श्रेणी का पाया गया   है । यह जल के घोषित उपयोगों में से किसी के योग्य नहीं है। इसमें ऑक्सीजन की मात्रा इतनी कम है कि मछली जिंदा नहीं रह सकती । ई-कोलाई की मात्रा इतनी ज्यादा है कि यह पीने योग्य नहीं है ।
क्रशर उद्योग के लिए सिरसा नदी और उसकी सहायक खड्डे बुरी तरह से खनन का शिकार हो चुकी हैं । ज्यादातर खनन अवैध है । नदी खनन से प्राप्त रेत, बजरी, पत्थर का प्रयोग हिमाचल और सीमा से सटे पंजाब के क्रशरों में भी अवैध रूप से होता है। खनन माफिया से स्थानीय राजनीतिज्ञों के तार भी जुड़े हो सकते हैं । इसीलिये उनके हौंसले  इस कदर बढ़े हुए हैं की कुछ समय पहले अवैध खनन पर छापा मारने वाले तहसीलदार पर ही तलवारों से हमला हो गया था । इन खड्डो का तल    ३ से १२ मीटर तक गहरा हो गया है । 
इसी कारण किशनपुर-हरिरायपुर, भुद्द और सन्धोली विभागीय सिंचाई योजनायें असफल हो गई हैं । इससे ४१५ हैक्टेयर भूमि सिंचाई से वंचित हो गई है । भूजल २०० फूट तक नीचे चला गया है। वहां भी पानी प्रदूषित है । परिणामस्वरूप कृषि बर्बाद हो गई है, खेतों में काम करना कठिन है । चर्मरोगों और प्रदूषित जलजनित रोगों का प्रकोप बढ़ रहा है। स्थिति की गंभीरता को समझा जाना चाहिए । 
परंतु इन सवालों को उठाने वालों को विकास विरोधी  हराने के प्रयास किये जाते हैं । ताकि कोई बोलने का साहस न करे । किन्तु एक नदी को मरने से बचाना सबका सांझा हित है। अनुमान लगाएं कि जब जीवनदाई नदियां ही विषैली हो जांएगी तो जीवन कैसे चलेगा । यह राष्ट्रीय सुरक्षा के बराबर जरूरी मामला है । 
कृषि जगत
खेसारी दाल : एक सोचा समझा षडयंत्र 
डॉ. ज्योति प्रकाश
कृषि तथा पोषण विज्ञानियों की खेसारी समर्थक लॉबी से मिलीभगत, खेसारी में मौजूद नुकसानदायी रसायन बीओएए के बजाए ओडीएपी नामक रसायन बताना, दरअसल इस दाल से होने वाले लंगडापन की जिम्मेदारी से मुक्त होने का सोचा समझा षडयंत्र है। ऐसे में खाद्य सुरक्षा से जुड़ी संस्थाओं को अपनी निष्पक्ष स्वायत्ता प्रमाणित करने के गंेभीर दायित्व का निर्वाह करना है ताकि गरीब जनता को इस दाल से होने वाले खतरों से बचाना है ।
गौरतलब है खेसारी दाल को लेकर परोसे जाने वाले झूठों की फेहरिस्त अन्तहीन है । जैसे, अपने में मौजूद बीओएए के कारण खेसारी, लाख प्रयासों के बाद भी, जब नुकसानदायक होने की अपनी सदियों पुरानी पहचान से मुक्ति नहीं पा सकी । ऐसे में इसको सुरक्षित बताने में जुटी लॉबी ने बताया कि खेसारी में नुकसानदायी बीओएए होता ही नहीं है और असल में तो, खेसारी में ओडीएपी (ऑक्जेलिल डाईअमीनो प्रोपियॉनिक एसिड) नामक रसायन होता है । 
यह खेसारी को, पिछले दरवाजे से, लंगडा बनाने की जिम्मेदारी से मुक्त कराने का एक सोचा समझा षडयंत्र था । बीओएए के  खेसारी में पाये जाने तथा इसके लंगडा बना देने वाले दुष्प्रभाव पर पर्याप्त  ठोस वैज्ञानिक आधारों को इकट्ठा कर चुके होने से मेरा चौंकना स्वाभाविक था । तब, आगे की जाँच-पडताल से पता चला कि खेसारी-समर्थक लॉबी की सुविधा के लिए, वैज्ञानिकों ने परस्पर मिलीभगत कर, बीओएए को ओडीएपी वाला एक नया नाम दे दिया था ।
राजनेताओं की बेबसी तो फिर भी समझी जा सकती है । लेकिन वैज्ञानिकों की...?
कृषि तथा पोषण विज्ञानियों की खेसारी समर्थक लॉबी से मिलीभगत को खेसारी घोटाले की दूसरी महत्वपूर्ण कड़ी कहा जा सकता है । बिना कोई प्रयोग किये कथित प्रयोग के महत्वपूर्ण परिणामों को पा लेने से लगाकर अपने ही शोध से निकले परिणामों को नकार देने तक इस मिलीभगत की एक लम्बी सूची है । और चोटी के समझे जाने वाले देश के विज्ञानी इसमें शामिल घपलेबाजों के सिरमौर रहते आये   हैं । बीती सदी में अनेक अन्तर्राष्ट्रीय फोरमों में, इन विज्ञानियों की पूरी कलई उतारी भी जा चुकी है । 
खेसारी को लेकर दशकों तक छिड़ी रही बहस से अनभिज्ञ नयी पीढ़ी के लिए यह तथ्य चौंकाने वाला होगा कि आज जिस 'पोषण विज्ञानी` डॉ. शान्तिलाल कोठारी का नाम खेसारी की खेती को प्रतिबन्ध से मुक्ति दिलाने वाले 'हीरो` की तरह सुर्खियों में है वह, अपनी तमाम शैक्षणिक योग्यताओं तथा महिमा मण्डित विशेषज्ञाताओं के साथ, बीती सदी में छिड़ी तीखी बहसों के बीच उस समय भी मौजूद थे जब योजना आयोग अपने उपाध्यक्ष डॉ. एम जी के मेनन के निजी दिशा निर्देश में खेसारी की सच्चई को उसकी जड़ तक तलाशने में जुटा हुआ था । लेकिन भूख हड़ताल की सार्वजनिक धमकियों से आगे, उनके पास ऐसा एक भी ठोस वैज्ञानिक तर्क अथवा तथ्य नहीं था जो आयोग को खेसारी की खेती के पक्ष में सन्तुष्ट करा पाया हो । इसके उलट, कोठारी आज भी खेसारी की खेती और खेसारी के कारण लंगडेपन से प्रभावित व्यक्तियों को लेकर ऐसे कुतर्क देते मिल जाते हैंजिन्हें सुनकर, चिकित्सा, विष विज्ञान तथा कृषि विज्ञान के जानकार उनकी नीयत पर तो नहीं फिर भी उनकी शैक्षणिक योग्यताओं पर प्रश्नचिन्ह लगाने को विवश हो जाते हैं ।
फिर भी, खेसारी का जहर नये सिरे से फन उठा रहा है इसे कुचलना ही होगा । नहीं तो, ऐसा अनर्थ होगा जिससे मुक्ति  की कोई राह कभी नहीं ढूँढी जा सकेगी । यह तर्क भी एक छलावा है कि खेसारी आम आदमी को भोजन में प्रोटीन की कमी से मुक्ति दिलायेगी । दरअसल, खेसारी में मौजूद ट्रिप्सिन इन्हिबिटर नामक एक प्राकृतिक विशिष्ट शरीर के पाचन तंत्र में मौजूद ट्रिप्सिन नामक उस एन्जाइम को अपना काम करने से रोक देता है जो भोजन में शामिल प्रोटीन को पचाने की क्रिया में अहम भूमिका निभाता है। सरल शब्दों में इसका तात्पर्य है कि खेसारी में चाहे जितना भी प्रोटीन क्यों ना हो, सामान्य घरेलू स्थितियों में खायी जाने वाली यह महान समृद्ध दाल शरीर के लिए निरी निरुपयोगी ही रहेगी । क्योंकि, शरीर उसके प्रोटीन-भण्डार को ग्रहण ही नहीं कर   पायेगा ।
वहीं, इस महत्वपूर्ण सवाल पर भी दावेदारों ने अपने होंठ सिले हुए हैं कि समेकित (क्यूमिलेटिव, यानि धीरे-धीरे शरीर में इकट्ठी होकर) असर करने वाली खेसारी में नगण्यै जहर का क्या मतलब    होगा ? 'समेकित प्रभाव` का मतलब है कि जितना भी यह विष खाया जायेगा, वह पूरा का पूरा, खाने वाले के शरीर में इकट्ठा होता जायेगा । अर्थात, खेसारी खाने वाले को एक दिन ऐसा भी देखने को मिल सकता है जब उसके शरीर में एकत्रित हुए इस विष की मात्रा उसके स्वास्थ्य के लिए 'सुरक्षित` सीमा-रेखा को लांघ ले । और इस तरह, वह लेथारिज्म से प्रभावित हो जाये ।
सच्चई से भरे इस तर्क से बचाव का ब्रह्मास्त्र भी पोषण विज्ञानियों ने तलाश रखा है । प्रसिद्ध विज्ञान पत्रिका लेन्सैट ने गेटाहन एवं उनके सहयोगियों द्वारा सन् २००३ में लिखे शोधपत्र का उल्लेख करते हुए कहा कि नये प्रकार के (सुरक्षित) तिवडे को खाने वालों को सुरक्षा की केवल कुछ 'छोटी-मोटी` शर्तों का पालन करना होगा । इन शर्तों का सार यह है कि खाने से पहले तिवडा को भिगोकर इतनी देर रखना होगा जिससे उसमें खमीर उठने लगे । उसके बाद, इस खेसारी को एण्टी ऑक्सिडेण्ट वाले बीजों की तरी (ग्रेवी) में मिलाने और सल्फर अमीनो एसिड वाले अनाजों के साथ मिलाकर खाने से, उसको खाने से होने वाले पक्षाघात की सम्भावना 'कम` हो जाती है ।
स्पष्ट है, खतरे की चेतावनी देने वाले क्लिष्ट तकनीकी और वैज्ञानिक  कारण स्वयं वैज्ञानिक दस्तावेजों में ही पर्याप्त मात्रा में सुलभ हैं ।
खेसारी से जुडे 'व्यवसाय` की तह तक जाने पर, यह सच्चई उजागर हो जाती है कि अतीत का सारा खेल मिलावट के व्यवसाय का रहा है। हाँ, इस मिलावट के प्रकार अलग-अलग अवश्य रहे हैं । इस सबके बीच महत्वपूर्ण खबर यह भी है कि फूड सेटी एण्ड स्टैण्डर्ड अथॉरिटी ऑफ इण्डिया (एफएसएसएआई) ने निर्णय लिया है कि वह अपने स्तर पर, स्वतंत्र रूप से, पहले यह जाँचेगी कि खेसारी मानव खाद्य के लिए सच में सुरक्षित है या नहीं ? उसका कहना है कि अपने इस मूल्यांकन के बाद ही वह खेसारी की खेती पर से प्रतिबन्ध उठाने की इण्डियन काउन्सिल ऑफ एग्रीकल्चर रिसर्च (आईसीएआर) तथा आईसीएमआर की अनुसंशाओं को अपनी सहमति देगी ।
जैसा कि हमारे देश में सदा से होता आया है, एफएसएसएआई पर प्रत्यक्ष-परोक्ष दबाव बढ़ाने का घृणित खेल भी आरम्भ हो गया है । वायदा बाजार के आसरे देश में दालों की कृत्रिम रूप से फैलायी गयी कमी को खेसारी के सहारे दूर कर पाने का कुतर्क इस खेल का ऐसा आसान हथियार है । यह एक ऐसा हथियार है जिसका सहारा लेकर जनमानस को खेसारी के पक्ष में आसानी से उद्वेलित किया जा सकेगा । इसके बाद जनदबाव की आड़ ले, खेसारी पर प्रतिबन्ध को उठाने की विवशता दिखाना बहुत सरल हो जायेगा । वहीं दूसरी ओर, यह एक ऐसा हथियार भी है जिसे स्वास्थ्य विज्ञान के ठोस तर्कों से काट पाना केवल इस कारण कठिन होगा क्योंकि छलावे वाले इस हथियार के साथ उसका कोई  ठोस वैज्ञानिक तर्क कभी रखा ही नहीं जायेगा । 
एफएसएसएआई के सामने परीक्षा की ऐसी कठिन घड़ी है जब उसे अपनी निष्पक्ष स्वायंत्ता प्रमाणित करने के गम्भीर दायित्व का निर्वाह करना है । बड़ा सवाल तो यह भी है कि क्या एफएसएसएआई ऐसा मंच है भी या नहीं जिसे एक सिद्ध दोषी फसल के सुरक्षित होने अथवा नहीं होने का कोई प्रमाण पत्र देने का नैतिक अथवा वैधानिक अधिकार प्राप्त है ? इस सबसे इतर महत्वपूर्ण यह है कि खेसारी बोई, काटी और बेची ही नहीं जानी चाहिए । 
पर्यावरण परिक्रमा
नर्मदा घाटी में दुर्लभ जीवाश्म मिले 
खोजकर्ताआें ने नर्मदा घाआी क्षेत्र में समुद्री प्रवाल के दुर्लभ जीवाश्म पहली बार ढंूढ निकालने का दावा किया है, जिससे इस क्षेत्र में अलग-अलग कालखंडों में भौगोलिक और जैव विविधता का नया अध्याय खुल गया है । खोजकर्ता समूह मंगल पंचायत परिषद के प्रमुख एवं जीवाश्म वैज्ञानिक विशाल वर्मा ने बताया कि हमें नर्मदा घाटी क्षेत्र के धार जिले में समुद्री प्रवाल के जीवाश्म मिले हैं । यह पहला मौका है, जब इस क्षेत्र में समुद्री प्रवाल के जीवाश्म पाए गए हैं। 
श्री वर्मा ने कहा कि अनुमान हैं कि ये समुद्री प्रवाल करीब नौ करोड़ वर्ष पुराने हैं । इनकी खोज से इसको बल मिलता है कि मौजूदा नर्मदा घाटी क्षेत्र में करोड़ों वर्ष पहले टेथिस सागर (अब विलुप्त्) की एक भुजा लहराया करती थी । हम समुद्री प्रवालों के जीवाश्मों के आधार पर पता लगाने की कोशिश कर रहे हैं कि नर्मदा घाटी क्षेत्र में करोड़ों वर्ष पहले कौन-सी प्रजातियों के समुद्री जीव-जन्तु मौजूद रहे होंगे । उन्होनें बताया कि उनके खोजकर्ता समूह का धार जिले में जिस जगह जीवाश्म मिले हैं, वह स्थान मान नदी के बेसिन का हिस्सा है । मान नर्मदा की सहायक नदी है । मंगल पंचायत परिषद ने पहली बार दुनिया का ध्यान तब खीचा था, जब उसने २००७ में धार जिले में डायनोसारों के २५ घोसले ढूंढे थे । इनमें डायनोसरों के अंडो के जीवाश्म बड़ी तादाद में मिले थे । 
प्रदेश सरकार धार जिले में करीब १०८ हेक्टेयर के उस क्षेत्र को राष्ट्रीय डायनोसोर जीवाश्म उद्यान के रूप में विकसित करने की परियोजना पर काम कर रही है, जहां इन जीवों ने सहस्त्राब्दियों पहले अपने घोंसले बनाए थे । 
वर्मा ने बताया, हम समुद्री प्रवालों के जीवाश्मों को धार जिले में बन रहे राष्ट्रीय डायनोसोर जीवाश्म उद्यान को दान करेंगे, ताकि भूगर्भ वैज्ञानिक, शोधार्थी और विद्यार्थी इनका अध्ययन कर सके । 
पाकिस्तान संसद सौर ऊर्जा से रोशन होगी
पाकिस्तान की संसद अब पूरी तरह सौर ऊर्जा से जगमगाने वाली यह दुनिया की पहली संसद बन गई है । प्रधानमंत्री नवाज शरीफ व पाकिस्तान में चीन के राजदूत सुन वेइडोग ने पिछले दिनों बटन दबाकर संसद की सौर ऊर्जा प्रणाली का उद्घघाटन किया । 
इस प्रोजेक्ट ने चीन ने ५.५ करोड़ डॉलर (करीब २८ करोड़ रूपये) की मदद दी है । संसद के सौर ऊर्जा संयंत्र से ८० मेगावॉट बिजली का उत्पादन होगा । नेशनल असेबली के स्पीकर सरदार अयाज सादिक ने बताया संसद को ६२ मेगावॉट बिजली की ही जरूरत है । बाकी १८ मेगावॉट बिजली नेशनल ग्रिड को दी जाएगी । इससे संसद के बिजली बिल में २.८ करोड़ रूपये की सालाना बचत होगी । 
इस मौके पर प्रधानमंत्री शरीफ ने कहा, पाकिस्तान मे बिजली संकट को मैंखुद देख रहा हॅू । लेकिन मेरी कोशिश है कि पाकिस्तान का बिजली संकट २०१८ तक पूरी तरह खत्म हो जाए । अभी संसद भवन की छत पर सौर ऊर्जा संयंत्र लगाया गया है इससे संसद भवन की उनकी जरूरत को पूरी बिजली मिलेेगी । निजी और सार्वजनिक क्षेत्र के अन्य संस्थानों को भी यह तरीका अपनाना चाहिए । 
चीन ने २०१५ में पाकिस्तानी संसद को वैकल्पिक ऊर्जा  स्त्रोत उपलब्ध कराने में मदद की पेशकश की थी । उस वक्त चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग पाकिस्तान यात्रा पर गए थे । दुनिया में अभी इजरायल समेत कुछ अन्य देशों के संसद भवन सौर ऊर्जा पर निर्भर है लेकिन ये आंशिक रूप से ही हो पाये है । 
वैज्ञानिकों ने दक्षिणी धु्रव पर उगाई सब्जी 
दक्षिणी धु्रव (अंटार्कटिक) की विपरीत परिस्थितियों में चीन के वैज्ञानिकों ने वहां हरी सब्जी उगाने में सफलता प्राप्त् की है । अंटार्कटिक में चीन के दूसरे अनुसंधान केन्द्र झोंगशान स्टेशन पर २०१३ में एक ग्रोथ चेम्बर स्थापित किया गया    था ।
यहां चीनी वैज्ञानिकों ने ४०० दिन का एक रिसर्च प्रोजेक्ट शुरू किया है । प्रोजेक्ट में हिस्सा ले रहे शोधार्थियों को अंटार्कटिक में काम करने के दौरान वहां हरी सब्जी उगाने वाले वांग झेंग पिछले महीने ही देश लौटे है । उन्होनें बताया कि दक्षिणी धु्रव पर अब नियमित हरी सब्जी उगाकर खाई जा सकती है । रिसर्च प्रोजेक्ट के दौरान पता चला कि वहां उत्पादकता इतनी कम है कि मौजूदा वैज्ञानिकों को भोजन के लिए पर्याप्त् सब्जियां नहीं मिल सकती । 
पेशे से हड्डी रोग विशेषज्ञ वांग झेग खेती के बारे में नहीं जानते थे, लेकिन साथियों की जरूरत ने उन्हें वनस्पति विज्ञान को समझने का मौका दिया । उनका और साथियों का प्रयास सफल हुआ । अब उनके १८ वैज्ञानिक साथियों को खाने में कम से कम एक समय खीरा, सलाद या पत्ता गोभी दिया जाता है । 
दक्षिणी धु्रव पर पड़ने वाला अंटार्कटिक महाद्वीप बहुत ही विपरीत परिस्थितियां वाला स्थान है । सदियों में यहां सप्तहों तक सूरज नहीं निकलता, वहीं गर्मियों में दिसम्बर के अंत से मार्च के अंत तक सूर्यास्त ही नहीं होता है । 
दुनिया का पहला डेंगू वैक्सीन तैयार 
मच्छरों की वजह से होने वाली बीमारियों में डेंगू को सबसे ज्यादा घातक माना जाता है । विकासशील देशों में हर साल इस बीमारी की वजह से सैकड़ों जाने जा रही है । सिर्फ एशियाई देशों की बात करें तो यहां डेगू के इलाज पर प्रत्यक्ष तथा अप्रत्यक्ष रूप से ६.३ बिलियन अमरीकी डॉलर खर्च हो रहे हैं । 
स्थिति इसलिए भी खराब है क्योंकि इस बीमारी का अब तक कोई इलाज नहीं था । इससे बचाव ही इसका इलाज माना जाता है । लेकिन अब वैज्ञानिकों ने इस बीमारी का इलाज खोज लिया है और इससे निदान का वैक्सीन बना लिया गया है । सैनोफी नाम की एक दवा कम्पनी ने डेंगवैक्सीया नाम का टीका विकसित कर लिया है, जो डेंगू पीड़ितों के इलाज में मददगार साबित हो सकता है । इस वैक्सीन की पहली खेप को पिछले दिनों फिलीपींस भेजा गया है । फिलीपींस सरकार ने दिसम्बर २०१५ को सभी जांचे पूरी होने के बाद डेंगवैक्सीया को देश में मान्यता दे दी थी । 
डेंगवैक्सीया नामक यह वैक्सीन डेगू से संंबंधित सभी प्रकार की बीमारियों में कारगर साबित हुआ है और इसे ९ साल से ४५ वर्ष पीड़ितों को लगाया जा सकता है । 
डेंगवैक्सीया को एक साल की अवधि में तीन खुराकों के रूप में लगाया जा सकता है । 
कैंसर का टीका बना
कैंसर काप टीका बनकर तैयार हो गया है । वैज्ञानिकों का दावा है कि इससे कैंसर मरीज की प्रतिरोधक क्षमता बढ़ जाती है और शरीर के अंदर के ट्यूमर का खात्मा हो जाएगा । कैंसर से बचाने के लिए पहली बार ब्रिटिश महिला केली पॉटर (३५) को टीका लगाया गया है । गत वर्ष जुलाई में केली को एडवास्ड सर्वाइकल कैंसर होने की पुष्टि हुई  थी । डॉक्टरों के मुताबिक केली का कैंसर चौथे स्टेज में पहुंच चुका    था । केली को लंदन के गाइज अस्पताल में ९ फरवरी को यह टीका लगाया गया । जिन मरीजों पर ट्रायल हो रहा है, उनका इलाज कीमोथैरेपी के जरिए भी किया जाएगा । ट्रायल के लिए ३० लोगों की लिस्ट है ।
वैज्ञानिकों का दावा है कि इस वैक्सीन में एक खास तरह का प्रोटीन एंजाइम होता है, जो कैंसर के सेल्स को तोड़कर धीरे-धीरे उसे खत्म कर देता है । उम्मीद की जा रही है कि हम वैक्सीन की सफलता के बाद कैंसर का इलाज और आसान हो जाएगा । ट्रायल के ३० लोगों की लिस्ट है । यह ट्रायल अगले २ साल तक चलेगी । 
केली को टीके के बाद ट्रीटमेंट पूरा करने के लिए हॉस्पिटल के सात राउंड लगाने पड़े । डॉक्टरों ने चेताया कि उनमें फ्लू के लक्षण आ सकते है । हालांकि अभी ऐसा हुआ नहीं है । 
अब आरक्षित वन में भी मना सकेंगे पिकनिक
म.प्र. में वन्य जीवन देखने के लिए अब नेशनल पार्क और सेंचुरी जाने की जरूरत नहीं पड़ेगी । शुल्क देकर पर्यटक अपने नजदीक अपने नजदीक के आरक्षित जंगलोंमें इन्हें देख सकेंगे । पर्यटक इन जंगलों में रात भी गुजार सकेंगे और पिकनिक भी मना सकेंगे । ऐसे इलाकों को मनोरंजन क्षेत्र व वन्यप्राणी अनुभव क्षेत्र के रूप में विकसित करने के नियम जारी कर दिए है । सभी डीएफओ से ऐसे स्थानों का चयन कर सूची मांगी है । 
वन अधिकारियों के अनुसार टाइगर रिजर्व, नेशनल पार्क और सेंचुरी में पर्यटकों के बढ़ते दबाव को कम करने के लिए यह व्यवस्था बनाई गई है । हालांकि यह नियम संरक्षित क्षेत्रों (टाइगर रिजर्व, नेशनल पार्क और सेंचूरी) में शामिल आरक्षित वन क्षेत्रों पर लागू नहीं होंगे । 
वन विभाग मनोरंजन क्षेत्रों में पर्यटकों को कैंपिंग, ट्रेकिंग, बोटिंग, फोटोग्राफी, जिप लाइनिंग, प्रकृति पथ, हाईकिंग, वर्डवाचिंग, वन्यप्राणी सफारी पेड़ों की शाखाआें पर बनी झोपड़ियों में रात गुजारने की सुविधाएं उपलब्ध कराएगा । 
ग्रामीण जगत 
पारंपरिक बनाम आधुनिक कृषि शिक्षा प्रणाली 
अरूण डिके 
मौसम में बदलाव, उसकेे कारण अकाल, बाढ़, खेतों में बार-बार बिजली गिरने से किसानों की होती मौतें, महंगी खेती, किसानों की बढ़ती आत्महत्याएँ और किसानों का पलायन यह सब भारत के लिए अशुभ संकेत हैंऔर हमें सोचने के लिए मजबूर कर देते हैंकि क्या हमारी कृषि शिक्षा प्रणाली का पुनर्मूल्यांकन जरुरी नहीं है ?
अतीत को खंगालने से पता चलता है कि भारत कभी भी कृषि प्रधान देश नहीं था । ये तमगा तो अंग्रेजांे ने अपने स्वार्थ के लिए हमारे ऊपर लगाया है और उसका भरपूर उपयोग पश्चिमी राष्ट्रों ने हम पर भीमकाय उद्योग लगाकर लिया ।
हमारा देश प्रारंभ से ही उद्योेग प्रधान देश रहा है । हर गाँव में, घर-घर में छोटे-छोटे उद्योग चलते थे जो हमारी रोजमर्रा की जरुरतों को पूरा करने के लिए पर्याप्त थे । तब हमारा समाज बड़ा था और उद्योग छोटे थे इसलिए वे उद्योग नियंत्रण में थे । 
गांव मंे जो कारीगर थे उनकी जरूरतें अन्न बांटकर पूरी कर ली जाती थी और खाद्यान्न बिकता नहीं था । अन्नं बहुकुर्विता (अधिक अन्न उपजाओ) हमारी प्रार्थना हुआ करती थी ताकिअपनी संतुष्टि होने के बाद बचा हुआ दान हो सके । फसल काटने के पहले भी किसान इदं न मम् (यह मेरा नहीं है) की भावना से फसल काटकर घर में लाता था । हमारे समाज में धनसंग्रह करने वाले भी थे और उन्हें धन से विमुख करने वाले साधु, संत और सूफी भी हुआ करते थे जिन्हें प्रेम से खाना खिलाया जाता था । फिर वह मन्दिरों में हो, मस्जिदों में हा या गुरूद्वारे में । यही चीज अंग्रेजों को रास नहीं आती   थी । नाराज होकर अंग्रेजों ने उनकी शासकीय मदद में कटौती कर दी और किसानों पर लगान शुरू  कर दिया ।
हमारी ग्रामीण अर्थव्यवस्था इतनी वैज्ञानिक और सुदृढ़ थी कि आम लोगों के लिए भरपूर अनाज के अलावा हर गांव में चरणोई और तालाब हुआ करते थे। चरणोई का स्थान भी बारह वर्षों बाद बदल दिया जाता था और चरणोई कमजोर खेत में ली जाती थी ताकि वहाँ पशुओं के गोबर और गौमूत्र से वह खेत उर्वरक हो जाए और जहाँ पहले चरणोई हुआ करती थी वहाँ अनाज लगाया जाता था ।
आज जिस अन्न सुरक्षा को लेकर वैश्विक संकट है वह हमारी ग्रामीण अर्थव्यवस्था की रीढ़ की हड्डी थी जिसे अंग्रेजों ने तोड़ा और अपने देश की मिलों का पेट भरने हमारे किसानों से कपास, गन्ना और नील की खेती करवाई । अपने जहाजों के लिए उन्होेंने बड़े पैमाने पर जंगल कटवाये । इतना ही नहीं जो तिलहनी फसलों की खली किसान पशुओं को खिलाते थे या भूमि में पुन: डालते थे उसे भी मुद्रा का लालच देकर निर्यात करवाया गया जिससे किसानों की भूमि की उर्वरा शक्ति कम होती गई ।
अंग्रेजों के जाने के बाद भी वही सिलसिला चलता रहा । आज भी बड़े पैमाने पर सोयाबीन की खली का निर्यात हो रहा है और दिन-ब-दिन जिवांश कम होने से भूमि मर रही है।
स्वतंत्रता मिलने के बाद जितने कृषि महाविद्यालय इस देश में प्रारंभ हुए उनमें जैविक खादों को छोड़ रासायनिक खादों और कीटनाशकों पर अनुसंधान चलते रहे जिससे किसान खेतों से बेदखल होते गए ।
यह कितनी शर्मनाक बात है कि जिन पाठ्यक्रमों का कुछ ईमानदार अंग्रेज अधिकारी और वैज्ञानिकोंने ही विरोध किया था उनकी पूरी अनदेखी हमारे भारतीय राजनेताओं और योजनाकारों ने    की । सन् १८७१ में पहला कृषि महाविद्यालय सांईदास पेठ  (चेन्नई) में और दूसरा सन् १८७६ मंे पुणे के विज्ञान महाविद्यालय में आंशिक रूप से प्रारंभ हुआ था । उन दिनों बाम्बे प्रेसीडेंसी के कर्ताधर्ता डब्ल्यु.आर. राबर्टसन ने इन महाविद्यालयों के पाठ्यक्रम देखकर अपनी राय दी थी कि ये पाठ्यक्रम इंग्लैंड की खेती के लिये उपयुक्त है क्योंेकि कोई भी भारतीय किसान खेतों में गाद भरना, अमोनियम सल्फेट डालना, जानवरों को सूखा चारा खिलाना और गायों को मोटा नहीं करता है फिर ये पाठ्यक्रम यहां क्यों लागू किया जा रहा है । 
यदि यह पाठ्यक्रम लागू किया गया तो यहां से निकला कोई भी विद्यार्थी खेतों में नहीं जाएगा । वह ५० रु. माहवार की नौकरी करना पसंद करेगा । इसी प्रकार सर अलबर्ट हॉवर्ड ने १९४० में लंदन में प्रकाशित उनकी पुस्तक एग्रीकल्चरल टेस्टामेंट (खेती का वसीयतनामा) में यह बात लिखी थी कि यहाँ के कॉलेजों से निकले वैज्ञानिक जैविक खादों को छोड रासायनिक खादों पर यदि अनुसंधान करने लगे तो किसान खेतों से बाहर हो जाएंगे । 
सर हॉवर्ड ने तो यह भी कहा था कि खेतों का भविष्य ऐसे गिने चुने पुरुष महिलाओं के हाथों में सांैपना चाहिये जिन्होंने सचमुच अनुसंधान कर उसे व्यावहारिक रूप दिया हो । विज्ञान और व्यवहार का तालमेल होना चाहिये ।
क्यों जरूरी है कि बैंकों का कई लाख करोड़ रुपया हजम करने वाले बड़े-बडे औद्योगिक घरानों से ही हम वो चीजें क्यों उत्पादित कराएं जो हमारे गांवों में आसानी से पैदा होती थी । गांव-गांव में किसानों के समूह आज किसान कंपनी बनाकर वे चीजें उत्पादित कर रहे हैं जो शुद्ध और सस्ती हैं । इन उत्पादों का कच्च माल तो खेतों में ही पैदा होता था और आज भी हो सकता है। शीतपेय, सौंदर्य प्रसाधन, तेल, साबुन, पौष्टिक नाश्ता ये सब किसान आसानी से खेतों में ही तैयार कर सकता है । 
कृषि महाविद्यालयों को नाम मात्र फसलों पर अनुसंधान करने के बजाय उन फसलों पर और उनसे उत्पादित कुटीर उद्योगों को अपने पाठ्यक्रम में शामिल करना चाहिए जिससे किसान, गांव दोनों समृद्ध होंगे और अन्तत: देश  भी । 
ज्ञान-विज्ञान
क्या पक्षी गाने का रियाज करते हैं ?
युरोप के कई पक्षी प्रवास करके जाड़ा अफ्रीका में बिताते हैं जब यूरोप में बहुत ठंड होती है । आम तौर पर माना जाता है कि युरोप में जाड़ों में भोजन की कमी के चलते ये पक्षी  दक्षिण की ओर प्रवास कर जाते हैं जहां पर्याप्त् भोजन मिल जाता है । मगर कैम्ब्रिज विश्वविघालय की मार्जोरी सोरेंशन का मत है कि मामला सिर्फ भोजन तक सीमित नहीं है । 
       यह देखा गया है कि ये प्रवासी पक्षी अफ्रीका पहुंचकर खूब तो हैं । यह थोड़ा उलझन में डालने वाला व्यवहार है । आम तौर पर पक्षी गीत गाते हैं ताकि प्रणय साथी को आकर्षित कर सके । अफ्रीका में तो ये पक्षी प्रजनन करते नहीं । तो फिर वहां बैठकर गाने का क्या फायदा ? गाना गाने में तो ऊर्जा और समय खर्च होगा, जिनका उपयोग भोजन की तलाश में किया जा सकता था । फिर ये गाते क्यों    हैं ?
इस संबंध में तीन परिकल्पानएं रही हैं । एक तो हो सकता है कि अफ्रीका के जंगलों में वे अपने इलाके की रक्षा के लिए गाते हैं । दूसरा विचार यह था कि हो सकता है कि वे सिर्फ इसलिए गाते हो कि उनका टेस्टोस्टेरोन स्तर बढ़ जाता है । हालांकि गाने का कोई फायदा न हो । तीसरा कारण यह भी सोचा गया कि शायद वे युरोप लौटकर साथी को आकर्षित करने के लिए गाना गाने का रियाज अफ्रीका में करते हो । कई पक्षियों के गीत बहुत पेचीदा होते है । इसलिए रियाज वाली बात में भी कुछ दम तो है । 
सोरेंसन की टीम ने अफ्रीका जाकर जांच करने की ठान ली । उन्होनें ग्रेट रीड वार्बलर नामक पक्षी पर ध्यान केन्द्रित किया । इनका गीत काफी पेचीदा होता है । टीम ने पाया कि अफ्रीका में ग्रेट रीड वार्बलर के इलाके एक-दूसरे के इलाकों में फैले होते हैं और कोई दूसरा पक्षी उनके इलाके में आए तो वे ज्यादा आक्रामक व्यवहार नहींदर्शाते । यानी इलाके की रक्षा करने के लिए गीत गाने की बात सही नहीं हो सकती । 
यह भी पाया गया कि जाड़ो में अफ्रीका जाने वाले पक्षियों के गाने  और उनके टेस्टोस्टेरोन स्तर का कोई संबंध नहीं है । तो एक ही परिकल्पना बच गई कि शायद ये पक्षी अफ्रीका में गाने का रियाज करते हैं । 
जब पक्षियों की ५७ प्रजातियों की तुलना की गई तो पता चला कि अफ्रीका में सबसे ज्यादा वही पक्षी गाते हैं, जिनके गीत जटिल होते हैं । यह भी देखा गया कि जिन पक्षियों के पंख आकर्षक होते हैं वे अफ्रीका प्रवास के दौरान ज्यादा नहींगाते । मगर जिनके पंख फीके रंग के होते हैं उनमे गाने की प्रवृत्ति ज्यादा होती है । इस सबके आधार पर सोरेसन के दल ने दी अमेरिकन नेचुरेलिस्ट शोध पत्रिका मेंमत व्यक्त किया है कि ये पक्षी अफ्रीका पड़ाव के दौरान न सिर्फ गाने का रियाज करते हैं बल्कि अपने गीतों में नए सुरों को जोड़ते हैं जिन्हें वे अगले प्रजनन काल में गांएगे । 
इस मामले में अन्य वैज्ञानिकों का कहना है कि अभी इसके पक्ष में कोई पुख्ता प्रमाण नहीं है मगर यह एक विचारणीय प्रस्ताव है । 

सौर ऊर्जा के लिए तटीय क्षेत्रों का इस्तेमाल
नवीन और नवीकरणीय ऊर्जा क्षेत्र में २०२२ तक १७५ गीगावाट बिजली के उत्पादन के निर्धारित लक्ष्य को हासिल करने के अगले पांच वर्ष में दूरदराज के क्षेत्रों के साथ ही ७६०० किलोमीटर लम्बे तटीय क्षेत्र का भी इस्तेमाल किया जाएगा । 
सरकार ने संसद में पेश आर्थिक सर्वेक्षण रिपोर्ट में कहा है कि इस लक्ष्य को हासिल करने की चुनौतियां जबरदस्त है लेकिन उनसे चरणबद्ध तरीके से निपटा जाएगा और इसके लिए सौर नगर बसाने, सोलर पार्क विकसित करने तथा रूफटॉप जैसी कई योजनाआें की पहल शुरू की जा चुकी है । इस पहल की बदौलत सौर ऊर्जा का उत्पादन गीगावाट मे शुरू हो चुका है जो एक उपलब्धि है । नवीन एवं नवीकरणी ऊर्जा क्षेत्र में २०२२ तक सौर ऊर्जा उत्पादन का जो लक्ष्य निर्धारित किया है उसमें १०० गीगावाट सौर ऊर्जा से, ६० गीगावाट पवन ऊर्जा से तथा शेष लघु पनबिजली और बॉयमास से पैदा की जानी है । इनमें अब तक सौर ऊर्जा में ही ज्यादा ध्यान दिया गया है । इस क्रम में राष्ट्रीय सौर मिशन के तहत रूफ टॉप योजना के लिए अगले पांच वर्ष में ५००० करोड़ रूपये खर्च करने का लक्ष्य तय किया गया है । 
     ग्रिड से संबंद्ध  प्रणाली के लिए पहले ५०० करोड़ रूपये के बजट का प्रावधान था और इसे बढ़ाकर अब पांच हजार करोड़ रूपए किया गया   है । इसी तर्ज पर सोलर पार्क शुरू किए गए हैं । इसके लिए २०१४ में२५ सोलर पार्क शुरू करने की घोषणा की गई है और अगले पांच साल में इससे २० हजार मेगावट बिजली के उत्पादन का लक्ष्य है । सौर मिशन के तहत ६० सौर नगरोंको विकसित किया जाएगा और इनमें से ५६ नगरों की परियोजनाआें के लिए अनुमोदन प्रदान किए जा चुके हैं । 
सरकार ने सौर ऊर्जा उत्पादन का काम विभिन्न संस्थानों को सौंपा है । इस क्रम में राष्ट्रीय सौर ऊर्जा मिशन के तहत एनटीपीसी की १५००० मेगावाट की ग्रिड से संबंद्ध सौर पीवी पावर परियोजना को भी मंजूरी दी गई है । देश में सौर ऊर्जा के क्षेत्र में कामगारों की कमी नहीं रहे इस दिशा में भी विशेष ध्यान दिया गया है और अगले पांच साल में ५० हजार लोगों को इस क्षेत्र में प्रशिक्षित करने का लक्ष्य निर्धारित किया गया  है । देश के दूरदराज के क्षेत्रों में सौर पार्क तथा सौर नगर खोलने के साथ ही सरकार ने समुद्र तट से लगी । ७६०० लम्बी किलो मीटर जमीन का इस्तेमाल भी इस काम के लिए करने का लक्ष्य बनाया है । तटीय क्षेत्रोंमें चलने वाली हवा का इस्तेमाल पवन ऊर्जा उत्पादन के लिए हो इस दिशा में सरकार विस्तृत योजना तैयार कर रही है । 

मरीज को एंटीबायोटिक देने का फैसला कैसे करें ?
एंटीबायोटिक औषधियों का काम बैक्टीरिया संक्रमण का सामना करना होता है मगर यह देखा गया है कि ये दवाइयां ऐसे मरीजों को भी दे दी जाती है जिन्हें वायरस संक्रमण की वजह से तकलीफ हो रही है । गौरतलब है कि एंटीबायोटिक दवाइयां  वायरस के खिलाफ कदापि कारगर नहीं होती । मगर कई मर्तबा इन दोनों तरह के संक्रमणों के लक्षण एक जैसे होने की वजह से डॉक्टर के लिए फैसला करना मुश्किल होता है कि कब एंटीबायोटिक दवा दें और कब न दें । अब एक आसान-सा परीक्षण विकसित किया गया है जो इस फैसलेमें डॉक्टर की मदद कर सकता है । 
मसलन, जब कोई व्यक्ति सांस संबंधी तकलीफ या बुखार के साथ अस्पताल पहुंचता है तो यह कहना मुश्किल होता है कि ये लक्षण बैक्टीरिया की वजह से हो रहे हैं, वायरस की वजह से हो रहे हैं या शरीर की किसी अंदरूनी दिक्कत की वजह से । तथ्य यह है कि अधिकांश सांस संबंधी तकलीफें वायरस संक्रमण की वजह से होती  हैं । अनुमान है कि तीन-चौथाई मामलों में मरीज को एंटीबायोटिक गलत स्थिति में दे दी जाती है । परिणाम यह होता है कि बैक्टीरिया में प्रतिरोध क्षमता विकसित होती है और धीरे-धीरे वह बेशकीमती दवाई नाकाम होने लगती है । 
डयूक विश्वविघालय के इफ्राइम त्सालिक और उनके साथियों ने शरीर में जीन्स की अभिव्यक्ति के आधार पर यह पता करने की कोशिश की कि संक्रमण बैक्टीरिया का है या वायरस का । उन्होनें इसके लिए आपात वार्ड के २७३ मरीजों को चुना । इनमें से कुछ तो बैक्टीरिया संक्रमण था, कुछ को वायरस संक्रमण । इसके अलावा ४४ स्वस्थ व्यक्तियों की जांच भी की गई । 
     उन्होनें पाया कि कुछ जीन्स ऐसे हैं जो वायरस संक्रमण के प्रति एक खास तरह की प्रतिक्रिया देते हैं । अन्य कुछ जीन्स ऐसे हैं जो बैक्टीरिया संक्रमण के दौरान सक्रिय होते हैं । और उनका यह परीक्षण ८७ प्रतिशत मामलों में सही साबित हुआ । इस अध्ययन का विवरण साइन्स ट्रांसलेशन मेडिसिन में प्रकाशित किया गया है । फिलहाल इस तरह के जीन परीक्षण के नतीजे मिलने में १० घंटे का समय लगता है । 
स्वास्थ्य 
महिलाआें में टी बी बरास्ता कुपोषण
रोली शिवहरे

भारतीय महिलाएं खान-पान की देशज संस्कृति और गरीबी के चलते बड़ी संख्या में तपेदिक      (टी. बी.) का शिकार हो रही हैं। बढ़ती गरीबी और कुपोषण ने इस बीमारी को जैसे पंख लगा दिए हैं और यह धीरे-धीरे महामारी की ओर कदम बढ़ाती जा रही है । आवश्यकता है कि इसकी गति को पोषक आहार से थामा जाए ।
अपने घर में सबसे बड़ी और नए अदालती फैसले के हिसाब से ``कर्ता`` चहक (उम्र १६ वर्ष), मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल की घनी आबादी वाले क्षेत्र ऐशबाग में रहती है । तीन साल पहले माँ की टीबी से मौत के बाद पिता भी अब उसके साथ नहीं रहते । पांचांे भाई-बहन उसी के आसरे ८ गुणा १० फीट के कमरे में रहते हैं। दो भाई-बहन कुपोषित हैं। वह स्वयं भी खून की गंभीर कमी का शिकार है। 
परिवार में से एक की भी टीबी की जांच नहीं हुई है । किसी को यह भी नहीं पता है कि उन्हें टीबी है भी या नहीं । वहीं चहक का कहना है कि बहुत दिनों से उसका बुखार नहीं जा रहा है और खांसी भी है । यह तो टीबी के लक्षण हैं। उसे पता ही नहीं कि टीबी की जांच कहाँ होती है! वह कहती है कि मुझे टीबी नहीं है, मैं तो यूँ ही खांसती रहती हूँ और मुझ पर पूरे घर की जिम्मेदारी है। यदि मुझे ही टीबी हो गई तो फिर इन सबको कौन सम्हालेगा ?
गौरतलब है टीबी का एक वयस्क शिकार, एक साल में १५ से २० नए शिकार बना लेता है । टीबी का जीवाणु तब और असर करता है जबकि व्यक्ति  की प्रतिरोधक क्षमता कमजोर हो । वैसे भी टीबी का पोषण के साथ भी चिर परिचित रिश्ता है। आंकड़े बताते हैं कि १९९३-९४ में ५७ प्रतिशत परिवारों को भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद द्वारा तय २१०० कैलोरी से कम ऊर्जा का भोजन मिलता था, यह संख्या वर्ष २००४-०५ में बढ़कर ६५ प्रतिशत हो गई है । यानी शहरी परिवारों की एक बडी संख्या आज भी पेट भर भोजन से मरहूम है । भारतीय परिवार के भूखे रहने का मतलब है महिलाओं और बच्चें का भूखे होना । मध्यप्रदेश की ५२ फीसदी महिलाएं खून की कमी का शिकार हैं। यह महिलाओं में टीबी की बड़ी वजह है । 
हाल ही में आई राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण के चतुर्थ चक्र की प्राथमिक रिपोर्ट (मध्यप्रदेश) कहती है कि यहां की २८.३ प्रतिशत महिलाएं ऐसी हैं कि जिनका बॉडी मॉस इंडेक्स सामान्य से कम है । विश्व स्वास्थ्य संगठन  भी मानता है कि महिलाओं में दुर्घटनाओं के बाद मृत्यु का सबसे बड़ा कारण टीबी ही है । यह बीमारी गरीबों को ज्यादा शिकार बनाती है । इसका कारण यह है कि गरीबी के चलते अधिकाँश परिवारों की पहुँच में पोषक तत्व नहीं होते। चूंकि वे अक्सर अल्पपोषित होते हैंइसलिए रोगों से लड़ने के लिए उनकी प्रतिरक्षा प्रणाली कमजोर होती है। 
वैसे तो हम सभी संक्रामक मायोबैक्टिरियम ट्यूबर-क्लोसिस रोगाणु को हमेशा अपने साथ लिए घूमते रहते हैं। यह बहुत ही खामोशी के साथ इस बीमारी की वजह बनता है । वास्तव में, भारत की आधी वयस्क आबादी निष्क्रिय टीबी संक्रमण से ग्रसित है। यह बैक्टीरिया मौके की फिराक में होता है और किसी भी व्यक्ति  की प्रतिरक्षा प्रणाली के कमजोर होते ही जैसे अल्पपोषण, एचआईवी संक्रमण, मधुमेह तथा बुढ़ापे की स्थिति में सक्रिय हो जाता है । 
इस निष्क्रिय रोगाणु को सक्रिय करने में कुपोषण एक महत्वपूर्ण कारक है । यह कुपोषित बच्चें और महिलाओं पर जबरदस्त असर करता है, क्योंकि उनकी रोग प्रतिरोधक क्षमता पहले से ही कम होती है । भारत दुनिया में एक मात्र ऐसा देश है जहाँ कि ५ वर्ष से कम उम्र के ४२ फीसदी बच्च्े कुपोषित हैं। अब जबकि यह सिद्ध हो चुका है कि कुपोषित बच्चें में टीबी होने का जोखिम सामान्य से कई गुना ज्यादा है तो इसके मायने यह हुए कि हरेक कुपोषित बच्च टीबी का शिकार हो सकता है। अतएव बच्चें में टीबी की पहचान और उसके निदान के लिए ज्यादा प्रयास करने की आवश्यकता है ।
टीबी से लड़ने के लिये वसा, विटामिन, खनिज व प्रोटीन से भरपूर खुराक की आवश्यकता होती है, जिसे जुटाना गरीब परिवारों के लिए कठिन है। कुपोषण के साथ मिलकर टीबी खराब सेहत और गरीबी के कुचक्र को और पुख्ता कर देती है । प्लसवन नाम की स्वास्थ्य पत्रिका के अध्ययन में मध्यभारत के ग्रामीण क्षेत्रों में पल्मोनरी (छाती) टीबी के ''वयस्क मरीजों में पोषणस्तर और उसका मृत्यु से सम्बन्ध`' के लेकर हिमालय चिकित्सा विज्ञान संस्थान, देहरादून के सह प्रोफेसर अनुराग भार्गव और कनाड़ा के मेक्ग्रिल विश्वविद्यालय के सहायक प्राध्यापक मधुकर पाई ने पाया कि टीबी के अधिकांश प्रकरणों में मरीजों में पोषण की कमी थी ।
इसी प्रकार वर्ष २००४ से २००९ के बीच बिलासपुर (छत्तीसगढ़) के जनस्वास्थ्य सहयोग में १६९५ मरीजों पर किये गये अध्ययन में ८५ प्रतिशत मरीजों में कुपोषण पाया गया । उपरोक्त  वर्णित अध्ययन के सह लेखक योगश जैन कहते हैं कि इस अध्ययन को भारत के एक मात्र टीबी नियंत्रण कार्यक्रम आर.एन.टी.सी.पी. द्वारा गंभीरता से लेना चाहिये, जो कि टीबी के साथ कुपोषण की बात ही नहीं करता । वहीं प्रो. भार्गव कहते हैं कि दुनिया के वे ५६ देश, जहाँ पर टीबी और कुपोषण के सर्वाधिक प्रकरण पहचाने गये हैं, वहां पर टीबी नियंत्रण कार्यक्रम में पोषण को एक अनिवार्य अंग माना गया है, पर हमारे देश में ऐसा नहीं है ।
चेन्नई के पास तिरुवल्लुर जिले में किए गए एक अध्ययन में भी सामने आया कि टीबी के लगभग आधे रोगी मध्यम या गंभीर खाद्य असुरक्षा के दायरे में थे । इसके अलावा देश में कई और अध्ययन हैं, जो कि इस बात की तस्दीक करते हैं कि पोषण और टीबी का गंभीर और अटूट रिश्ता है । जब हम इस बीमारी का उपचार करें तो हमें ``पैकेज`` के तरह ही बात करनी होगी, जिसमें उपचार के साथ-साथ पोषण अवश्य हो । विश्व स्वास्थ्य संग ठन ने टीबी मरीजों की पोषण संबंधी देखभाल व मदद के लिए दिशा निर्देश विकसित किए हैंजिसमें वह पोषण को उपचार का एक अनिवार्य अंग मानता है। चहक के परिवार के पास न तो राशनकार्ड है और न ही उनके पास पर्याप्त भोजन की उपलब्धता । वो बताती है कि उन्होंने पिछले सात माह से दाल नहीं खाई है और पैसों की कमी के चलते मांसाहार भी पिछले एक साल से नहीं किया है ।
तमाम साक्ष्यों और अध्ययन के बाद सरकार के पास अब एक मौका है कि वह टीबी के साथ पोषण पर काम करे । खाद्यसुरक्षा कानून के अंतर्गत टीबी पीड़ित के परिवारों को प्राथमिकता सूची में रखकर उन्हें पोषण सुरक्षा प्रदान की जा सकती है। कुछेक राज्यों में इन मरीजों को प्राथमिकता सूची में रखा भी गया  है । मध्यप्रदेश ने भी यह पहल की है । हालांकि केन्द्रीय स्वास्थ्य मंत्री जे.पी. नड्ढ़ा ने भी कहा है कि भारत अब टीबी के खिलाफ कमर कस चुका है और हम टीबी मरीजों को मुफ्त आहार उपलब्ध कराने पर विचार कर रहे हैं।
वैसे भी यह एक गंभीर चुनौती है क्योंकि देश की ७० फीसदी आबादी २० रुपये प्रतिदिन से कम पर गुजारा करती है और ऐसे में संतुलित भोजन की उपलब्धता इस आबादी के लिए टेढ़ी खीर है । संतुलित भोजन की अनुपलब्धता के चलते टीबी से पार पाना एक बडी चुनौती है । यह जरुरी है कि सरकार कुपोषण और टीबी के रिश्ते को सुपरिभाषित करते हुए पोषण कार्यक्रम को गति दे, ताकि  महिलाओं और नौनिहालों के आज के साथ ही साथ इनके कल को भी संवारा जा सके ।
महिला दिवस पर विशेष 
अबला, सबला और महिला 
विनोबा भावे
संस्कृत में स्त्री के लिए बहुत शब्द हैं। उनमें से एक है अबला और दूसरा है महिला । अबला के माने हैं दुर्बल, जिसकी रक्षा दूसरों को करनी पड़ेगी, रक्षणीय और महिला का अर्थ होता है महान, बहुत बड़ी ताकतवाली । इतना उन्नत शब्द, दुनिया का जितनी भाषाओं का मुझे  ज्ञान है करीब बीस पचीस भाषाओं का,उनमें किसी में मिला नहीं । इधर अबला भी कहा और उधर महिला भी कहा । मैंपूरे हिंदुस्तान में घूमा हूंं, पर मैंने अबला समिति कहीं देखी नहीं, महिला समिति देखी है। बहनों ने परीक्षा की है और महिला शब्द चुन लिया है । मतलब स्त्रियों ने तय किया कि हमारी महान शक्ति है,अल्प शक्ति नहीं । `महिला` शब्द ही बताता है कि स्त्री के बारे में भारत की क्या राय है और क्या अपेक्षा है ।
दूसरी बात, `स्त्री` शब्द `स्तृ` धातु से बना है। स्तृ का अर्थ है विस्तार करना, फैलाना । स्त्री यानी फैलाने वाली प्रेम को कुल दुनिया में फैलानेवाली । `स्त्री` शब्द में ही स्त्री का कार्य सूचित किया गया है। प्रेम का विस्तार, प्रेम की व्यापकता स्त्री के द्वारा होगी । स्त्री समाज का तारण करने वाली, तारिणी शक्ति है। 
  स्त्री की इतनी शक्ति होने पर भी समाज स्त्री की तरफ किस दृष्टि से देखता है? आज संसार में और परमार्थ में, दोनों में स्त्री टारगेट (लक्ष्य) बनी है। मध्यबिंदु में है। सांसारिकों के लिए वह भोग का लक्ष्य बनी । सारा साहित्य, सारी कला, सारे रस उसी के ईदगिर्द घूमते रहते हैं। दूसरी ओर परमार्थियों ने उसे लक्ष्य बनाया वैराग्य का । उसे बंधन में डालनेवाली माना और इसलिए उसके प्रति घृणा, तिरस्कार रखा, यहां तक कि उसकी तरफ देखना भी गलत माना ।
मैंने तो मान लिया है कि स्त्री की दुर्दशा का सारा जिम्मा पुरुषों पर है । मैं तो पुरुष के नाते सारा का सारा जिम्मा उठाने की इच्छा   करुंगा ।  लेकिन इच्छा करने पर भी वह हो नहीं सकेगा । क्यांेकि दो चेतन वस्तुओं में होने वाले परिणामों का जिम्मा एक पर ही नहीं डाला जा सकता । मैंअगर स्त्री होता, तो सहसा सब पुरुषों को मुक्त कर देता, कहता कि यह सारी जिम्मेवारी मेरी है । अगर मैं जड़ होता, स्त्री या पुरुष की तरह चेतन न होता, तो चुप  रहता । पर चूंकि चेतन हंू, इसलिए अपनी सारी की सारी जिम्मेवारी दूसरों पर डालना कैसे पसंद करूंगा ? स्त्रियां खुद आगे आयंेगी तभी उनकी शक्ति जाग सकेगी । 
वास्तव में शक्ति का जो मूल स्त्रोत है, वह न स्त्री शरीर में है, न पुरुष शरीर में है । वह अंतरात्मा में है। आत्मा स्त्री पुरुष भेदरहित है । सर्वज्ञ और सर्वशक्तिमान है। परंतु मनुष्य को भास होता है कि शक्ति हाथ में है, पांव में है, आंख-कान में है । जब तक आत्मशक्ति का भान नहीं होता तब तक हम लोग अपनी मूल शक्ति को छोड़कर उसके प्रतिबिंब को ही पकड़कर रखते हैं। हाथ, पांव, आंख और कान में जो शक्ति है, वह तो अंदर की किसी चीज के साथ उसका संबंध होने से है। वह चीज केवल `शरीर` नहीं है। वह चीज तो है आत्मा की शक्ति । वह आत्मशक्ति हाथ, पांव, आंख और कान के द्वारा प्रकट होती है। इसलिए जब आत्मशक्ति का भान होता है तब न किसी प्रकार का मोह होता है, न भय रहता है । आत्मशक्ति का भान होते ही मनुष्य पर और कोई सत्ता चल नहीं सकती । उसको परिपूर्ण स्वतंत्रता प्राप्त हो जाती है । स्त्रियों के नाक में, कान में छेद करके उनमें गहने पहनाये जाते हैं, यह सारा ईश्वर के खिलाफ अविश्वास का प्रस्ताव है ।