गुरुवार, 16 फ़रवरी 2017

विज्ञान हमारे आसपास
तारे : उद्भव और विकास
डॉ. विजयकुमार उपाध्याय

सन १९४४ की एक रात वाल्टर वादे नामक एक अमरीकी खगोल वैज्ञानिक कैलिफोर्निया में माउंट विल्सन की चोटी पर स्थित अपनी दूरबीन से ब्रह्मांड का अध्यन कर रहे थे । 
द्वितीय विश्व युद्ध पूरे जोर-शोर से चल रहा था । उस कारण माउंट विल्सन की तराई पर स्थित पेसाडोना तथा लॉस एंजिल्स नगर की बत्तियां बुझी हुई थी । वाल्टर वादे अपनी दूरबीन को अधिकतम दूरी पर स्थित बिन्दु पर केन्द्रित करने का प्रयास कर रहे थे । इस कार्य में ब्लैक आउट के कारण सुविधा हो रही थी । यह काम नगरों में जलती बत्तियों के कारण पहले संभव नहीं हो पाया था । लंबे एक्सप्रोजर के कारण फोटोग्राफिक प्लेट पर बहुत धुंधले तारे से आने वाले प्रकाश को भी ग्रहण करना संभव हो गया । 
वाल्टर वादे २० लाख प्रकाश वर्ष की दूरी पर स्थित एंड्रोमेडा नामक मंदाकिनी (गैलेक्सी)की ओर अपनी दूरबीन की सहायता से लिए गए फोटोग्राफ मेंअरबों तारों से निर्मित एंड्रोमेडा मंदाकिनी का स्पष्ट चित्र आया । इससे लगभग २० वर्ष पूर्व एडविन हबल ने इसी दूरबीन का उपयोग कर इसी मंदाकिनी का चित्र लिया था । इस चित्र में पाया गया था कि मंदाकिनी के बाहरी भाग में स्थित कुंडलाकार भुजाएं (स्पाइरल आर्म्स) असंख्य तारों से बनी हुई है । साथ ही इसमें सबसे अधिक चमकीले तारे गर्म नीले तारे हैं । ये गर्म नीले तारे खगोलीय आकाशदीप के समान दिखाई पड़ते है । 
वादे की रूचि मुख्य रूप से एंड्रोमेडा मंदाकिनी के केन्द्रीय धंुधले भाग के अध्ययन में थी । वादे के पूर्व जितने खगोलविदों ने इस क्षेत्र के चित्र लिए थे उनमें भी अलग-अलग तारे दृष्टिगोचर नहीं होते थे । इससे इतना तो स्पष्ट था कि एंड्रोमेडा के केन्द्रीय भाग में वैसे चमकीले नीले तारे मौजूद नहीं थे जैसे कि हबल द्वारा इस मंदाकिनी के बाहरी भाग में चित्रित किए गए थे । 
वादे जानना चाहते थे कि क्या एंड्रोमेडा के केन्द्रीय भाग में कोई तारा मौजूद है ? और यदि कोई तारा मौजूद है तो वह किस प्रकार का है ? वादे को आशा थी कि एंड्रोमेडा के केन्द्रीय भाग में लाल दानव तारे मौजूद हो सकते हैं । ये तारे एंड्रोमेडा के बाहरी भाग में मौजूद नीले तारों के समान चमकीले नहीं हो सकते । पृथ्वी से एंड्रोमेडा की अत्यधिक दूरी के कारण इसके केन्द्रीय भाग में स्थित ये तारे काफी धंुधले दिखाई पड़ते हैं । संभवत: ये इतने धंधुले होंगे कि बहुत आदर्श परिस्थिति में ही चित्रित किए जा सकेंगे । 
लाल प्रकाश के प्रति संवेदनशील फोटोग्राफिक प्लेट का उपयोग करते हुए वादे ने बिल्कुल अंधेरी रात में एंड्रोमेडा मंदाकिनी के केन्द्रीय भाग का चित्र प्राप्त् करने में सफलता प्राप्त् कर ली । इस चित्र में असंख्य धंुधले तारे दिखाई पड़ रहे   थे । 
वादे द्वारा किए गए अध्ययनों से प्राप्त् निष्कर्ष काफी महत्वपूर्ण है । इससे यह पता चला है कि किसी भी मंदाकिनी में मूल रूप से दो प्रकार के तारे होते हैं । इन दो प्रकार के तारों में मुख्य अंतर उनकी आयु का है । एक प्रकार के तारे नए हैं जबकि दूसरे प्रकार के तारे पुराने । इन्हीं निष्कर्षो के आधार पर तारों के निर्माण तथा विकास संबंधी सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया गया है । इन सिद्धान्तों में यह बताया गया है कि तारे कैसे उत्पन्न होते हैं । समयानुसार उनमें क्या-क्या परिवर्तन आते हैं, तथा पुराने हो जाने पर उनका क्या होता है । 
खगोलविदों की धारणा है कि किसी भी तारे के जीवन की शुरूआत संभवत: किसी डार्क नेबुला मेंहोती  है । कोई भी ऐसा नेबुला किसी खौलते हुए द्रव के समान संक्षुब्ध रहता है जिसमें संवहन धाराएं उठती गिरती रहती हैं । ऐसे नेबुला में गैस तथा धूल कणों के छोटे-छोटे गोले अथवा पॉकेट बन जाते हैं । इस प्रकार नेबुला में जब कोई गोला बन जाता है तो उसमें मौजूद कणों के आपसी गुरूत्वाकर्षण बल के कारण यह गोला संकुचित तथा घना होने लगता है । यह गोला जैसे-जैसे अधिक से अधिक घना तथा संकुचित होता जाता है वैसे-वैसे इसका भीतरी दाब तथा तापमान लगातार बढ़ते जाते हैं । अंत में दाब तथा तापमान इतने अधिक हो जाते हैं कि इसके कारण हाइड्रोजन गैस हीलियम में परिवर्तित होने लगती है । इसके फलस्वरूप ऊर्जा उत्पन्न होने लगती है । इस प्रकार यह गोला एक तारा बन जाता है । 
किसी भी अंधेर नेबुला में किसी गोले या पॉकेट का निर्माण एक तारे के सम्पूर्ण जीवन इतिहास की घटना है । जब किसी तारे का निर्माण हो जाता है तो उसके भीतर उत्पन्न होने वाली ताप ऊर्जा के कारण उस तारे के आयतन मेंप्रसार होने लगता है । इस प्रकार जब प्रसार बल तथा तारे के भीतर मौजूद संकुचन बल साम्यावस्था में आ जाते हैं तो यह तारा एक स्थिर अवस्था में पहुंच जाता है । हमारा सूर्य अभी इसी प्रकार की साम्यावस्था में है । 
किसी भी तारे के ऐसी स्थिति मेंपहुंचने पर उस तारे के भीतर की नाभिकीय भट्टी अपनी पूरी क्षमता के साथ काम करने लगती है तथा तारा अपने चारोंओरअंतरिक्ष में अपनी ऊर्जा को विकरित करता है । तारे के क्रोड में मौजूद हाइड्रोजन गैस नाभिकीय ईधन का काम करती है जिसके जलने से हीलियम रूपी राख पैदा होती है । 
अब एक प्रश्न यह उठता है कि किसी तारे द्वारा इस प्रकार ऊर्जा उत्पादन की स्थिर अवस्था कब तक बनी रहती है । बहुत अधिक भारी भरकम तारे अपने क्रोड के बहुत ऊंचे तापमान के कारण अपने ईधन भण्डार का उपयोग बहुत शीघ्र कर लेते हैं । अनुमान है कि ऐसे तारों का सम्पूर्ण ईधन सिर्फ १० लाख से २० लाख वर्षो की अवधि में समाप्त् हो जाता है । हमारे सूर्य जैसे कुछ कम भारी तारे अपने सम्पूर्ण ईधन भण्डार का उपयोग १० अरब से २० अरब वर्षोमें कर लेते हैं । अनुमान है कि अपनी उत्पत्ति के समय से अब तक हमारा सूर्य अपने ईधन भण्डार का लगभग आधा भाग उपयोग में ला चुका है । सूर्य से भी अधिक हल्के तारे अपने सम्पूर्ण ईधन भण्डार का उपयोग लगभग ५० से ६० अरब वर्षो में करते हैं । 
अब एक महत्वपूर्ण प्रश्न यह उठता है कि किसी तारे में मौजूद सम्पूर्ण हाइड्रोजन ईधन समाप्त् हो जाने के बाद क्या होता है ? वैज्ञानिकों की धारण है कि जब किसी तारे का सम्पूर्ण हाइड्रोजन भण्डार समाप्त् हो जाता है तो उसका पुन: संकुचन होने लगता है । इस संकुचन के कारण तारे के क्रोड का तापमान बढ़ने लगता है । इस स्थिति में क्रोड के बाहर स्थित आवरण में मौजूद हाइड्रोजन भण्डार नाभिकीय भट्टी को एक बार फिर ईधन की आपूर्ति करने लगता है । इसके कारण तारा अधिक प्रकाशमान हो जाता है। ऐसी परिस्थिति में तारे के भीतर से लगने वाला प्रसार बल बाहर से भीतर की ओर लगने वाले संकुचन बल से अधिक हो जाता है । इसके कारण तारा फैलने लगता है । तारे के फैलने के कारण इसक बाहरी सतह धीरे-धीरे ठण्डी होने लगती    है । इस प्रकार यह तारा लाल रंग का एक विशाल तारा बन जाता है । इस विशाल तारे को लाल दानव (रेड जाएंट) तारा कहा जाता है । 
लाल दानव अवस्था के बाद तारे के जीवन में ऐसी परिस्थिति आती है जब तारा बार-बार फैलने तथा बार-बार सिकुडने लगता है । ऐसे तारे को पल्सर कहा जाता है । इस प्रकार बार-बार फैलता तथा सिकुड़ता तारा अपने जीवन के अगले चरण में नवतारा (नोवा) बन जाता है । नवतारा की अवस्था में तारे की बाहरी परत तारे से टूट कर अलग हो जाती है तथा अंतर्तारकीय अंतरिक्ष में खो जाती है । बाहरी परत के टूट जाने के बाद तारे का जो केन्द्रीय भाग बच जाता है वह आकार में काफी छोटा (लगभग पृथ्वी के आकार के बराबर) तथा काफी चमकीला रहता है । 
ऐसे तारे को श्वेत वामन (व्हाइट डवार्फ) तारा कहा जाता है । श्वेत वामन तारे काफी सघन होते  हैं । इनका घनत्व काफी अधिक होता है । अनुमान है कि औसत तौर पर श्वेत वामन तारे का घनत्व हमारे सूर्य से लगभग दो लाख गुना अधिक होता है । उनका द्रव्यमान सामान्य तौर पर सूर्य का लगभग आधा तथा उनका व्यास पृथ्वी के व्यास के आधे से चार गुना तक पाया जाता है । श्वेत वामन तारे मेंनाभिकीय ऊर्जा स्त्रोत बिल्कुल ही नहीं बचा रहता । इस कारण इनमें ऊर्जा का उत्पादन नहीं होता । परन्तु पहले की अवशिष्ट ऊर्जा को ये विकिरण द्वारा धीरे-धीरे बाह्य अंतरिक्ष में भेजते रहते हैं । तथा शनै: शनै: ठण्डे होते रहते हैं । इस प्रकार ये प्रकाशित होकर बिल्कुल काले पड़ जाते हैं । 
नोबेल पुरस्कार से सम्मानित भारतीय मूल के अमरीकी वैज्ञानिक सुबह्मण्यम चन्द्रशेखर का मत था कि किसी भी संकुचनशील तारे के परमाणुआें के भीतर एक संपीडन रोधी बल उस तारे के संकुचन को एक सीमा के बाद रोक देगा । इसके कारण श्वेत वामन तारे का निर्माण होगा । परन्तु चन्द्रशेखर की धारण थी कि सभी तारे श्वेत वामन तारे नहीं बन सकते । 
हमारे सूर्य के सापेक्ष सिर्फ चार गुना तक भारी तारे ही श्वेत वामन तारे बन सकते हैं। इससे अधिक भारी किसी भी तारे में उपर्युक्त संपीड़न को इसके इलेक्ट्रॉनों द्वारा रोकने की सामर्थ्य एक सीमा के बाद समाप्त् हो जाएगी । सघन हो जाएंगे तथा उनका गुरूत्वाकर्षण बल इतना अधिक हो जाएगा कि इसकी सतह से किसी भी वस्तु का ब्राह्य अंतरिक्ष में पलायन संभव नहीं   होगा । यहां तक कि प्रकाश    किरणें भी इससे बाहर नहीं निकल पाएंगी । 
इस कारण से ये बिल्कुल भी नहीं दिखाई पड़ेगे । ऐसे तारे कृष्ण विवर (ब्लैक होल) कहे जाते  हैं । जिस समय डॉ. सुब्रह्मण्यम चन्द्रोखर ने कृष्ण विवरण संबंधी अपनी परिकल्पना प्रस्तुत की संसार के अधिकांश खगोलविदोंने उनकी खिल्ली उडाई थी तथा कृष्ण विवर के अस्तित्व को असंभव तथा हास्यास्पद बताया था । परन्तु आज से लगभग चार दशक पूर्व किए गए अत्याधुनिक खगोल वैज्ञानिक प्रेक्षणों से कृष्ण विवर के अस्तित्व की पुष्टि हुई तथा चन्द्रशेखर सुब्रह्मण्यम को भौतिक शास्त्र के नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया । 
तारे के जीवन का अंतिम चरण सुपरनोवा अवस्था का होता    है । इस अवस्था में तारों के अन्दर भंयकर तथा शक्तिशाली विस्फोट होता है । यह विस्फोट हजारों मेगाटन क्षमता वाले परमाणु बम के विस्फोट 
से भी अधिक भंयकर तथा शक्तिशाली होता है । 

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