शुक्रवार, 17 नवंबर 2017

सम्पादकीय 
वैज्ञानिक के लिए प्रकाशन की सीमा का सुझाव 
पिछले दिनों वैज्ञानिक प्रकाशन को लेकर सुझाव सामने आया है कि प्रत्येक वैज्ञानिक के लिए शोध पत्रों की एक अधिकतम सीमा तय कर दी जानी चाहिए और इसके साथ ही प्रत्येक वैज्ञानिक के लिए आजीवन शब्दों की कुल संख्या भी निश्चित होनी चाहिए । 
कहा जाता है कि आजकल शोध पत्र प्रकाशित करने का उद्देश्य बदल चुका है । पहले ये शोध पत्र ज्ञान को साझा करने के लिए प्रकाशित किए जाते थे, मगर आज कई शोध पत्र सिर्फ प्रकाशनों की संख्या बढ़ाने के लिए प्रकाशित किए जाते हैं - कुछ लोगों ने इसे प्रकाशन - मुद्रा की संज्ञा दी है । कई शोधकर्ता शोध पत्रों में अपने नाम छपवाने की कीमत अदा कर देते है तो कई शोध पत्रिकाएं शोध पत्र छापने की कीमत वसूलती है । 
यह भी देखा गया है कि शोधकर्ता शोध पत्र का प्रकाशन सुनिश्चित करने के लिए सनसनीखेज मगर संदिग्ध परिणामों का सहारा भी लेते हैं । इसके चलते शोध में गहनता की कमी आ जाती है और कई किस्म के गोरखधंधे शुरू हो जाते है । इन्हीं सब समस्याआें के मद्देनजर ऑस्ट्रेलिया के एक लेखक माइकल मैकगिर ने सुझाव दिया है कि हर वैज्ञानिक के लिए शब्द सीमा निर्धारित होनी चाहिए । जरा कल्पना कीजिए कि हर वैज्ञानिक को शुरू से ही मालूम होगा कि वह अपने पूरे कैरियर में कितने शब्द प्रकाशित कर सकेगा या कर सकेगी । मैकगिर का विचार है कि जब शब्द सीमा निश्चित होगी तो वैज्ञानिक अपने शोध में ज्यादा सावधान रहेंगे और एकदम जरूरी व महत्वपूर्ण होने पर ही प्रकाशन करेगे । 
अलबत्ता, इस सुझाव के अन्य पहलू है जो हानिकारक हो सकते    है । विज्ञान में अपने परिणामों को प्रकाशित करने में अत्यधिक सावधानी शायद नवाचारी विचारों को सामने आने से रोकेगी । वैज्ञानिक लोग वही परिणाम प्रकाशित करेगे जिन्हेें सकारात्मक माना जाता है इसलिये सुझाव की व्यावहारिकता को भी देखना होगा । 

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