शुक्रवार, 17 नवंबर 2017

ज्ञान-विज्ञान
दिल की धड़कन आपकी पहचान है 
आजकल बायोमेट्रिक पहचान की बड़ी धूम है । उंगलियों के निशानों से आगे बढ़कर हम आंखों की पुतलियों के पैटर्न से इन्सान की पहचान करने लगे है और अब एक सम्मेलन में बताया कि प्रत्येक व्यक्ति के दिल की धड़कन भी अनूठी होती है और इसका उपयोग व्यक्ति की पहचान के लिए किया जा सकता है । 
   शोधकर्ताआें ने एक यंत्र बनाया है जिसमें कम शक्ति के डॉपलर राडार का इस्तेमाल किया गया है । यह यंत्र व्यक्ति के दिल की ज्योमिति का विश्लेषण करता है । इसके अन्तर्गत यह देखा जाता है कि दिल की आकृति कैसी है और वह फैलता व सिकुड़ता किस तरह है । इन सारी चीजों को मिलाकर जो तस्वीर उभरती है वह हर व्यक्ति के लिए अलग-अलग होती है । 
इन तकनीक का विकास करने वाले बफेली विश्वविघालय के वेनयाआें जू का कहना है कि यह तकनीक काफी भरोसेमंद है क्योंकि इसमें दो तरह के मापदंडों का इस्तेमाल किया गया है । पहला तो एक स्थिर माप है यानी दिल का आकार और दूसरा एक गतिशील माप  है । गतिशील माप के तहत दिल के धड़कने के पैटर्न का विश्लेषण किया जाता है । जू का कहना है कि यदि इस मशीन के सामने कोई दूसरा व्यक्ति बैठ जाए तो मशीन पहचान लेगी कि जो व्यक्ति बैठा है उसका दिल भिन्न है । 
चेन सॉन्ग और उनके साथियों का कहना है कि उन्होंने इस विधि की जांच १०० लोगों पर की है और इसने ९८ प्रतिशत मामलों में सही परिणाम दिए है । यह मशीन अपने काम में कुछ विकिरण का उपयोग करती है । जू का कहना है कि इस विकिरण की शक्ति स्मार्टफोन से निकलने वाले विकिरण से बहुत कम होती है और यह कदापि हानिकारक नहीं है । अभी शोधकर्ताआें का विचार है कि इसे स्मार्टफोन का हिस्सा बना दिया जाए, ताकि वह आपको पहचान   सके । 
चमगादडों का दृष्टिभ्रम
चमगादड़ देखने के लिए प्रकाश का कम, आवाजों का ज्यादा उपयोग करते है । उनमे एक यंत्र होता है जो तीखी आवाज पैदा करता है । जब यह आवाज किसी चीज से टकराकर लौटती है तो चमगादड को पता चल जाता है कि रास्ते में कोई वस्तु है । वापिस लौटने वाली आवाज का विश्लेषण करके वे यह समझ पाते हैं कि वस्तु कितनी दूरी पर है पर उसका डील-डील कैसा, वह कठोर है या मुलायम है । इसी प्रतिध्वनि-दृष्टि के चलते वे रात में भी हलचल कर सकते है । किन्तु कभी-कभी यह प्रतिध्वनि दृष्टि धोखा भी दे देती है और चमगादड़ किसी दीवार खिड़की वगैरह से जा टकराता है । 
ध्वनि पर भी परावर्तन के नियम लागू होते है । इसका मतलब है कि आवाज जिस कोण पर किसी सतह से टकराएगी उतने ही कोण से वह वापिस लौटेगी किन्तु दूसरी दिशा में । अर्थात यदि हम उस सतह पर एक लंबवत रेखा खींचे तो प्रतिध्वनि इस लंब के दूसरी ओर उतना ही कोण बनाएगी जितना आने वाली ध्वनी ने बनाया था । इसका मतलब तो यह हुआ कि यदि चमगादड़ की आवाज किसी सतह से तिरछी टकराएगी तो वापिस उस तक नहीं पहुंचेगी  । किन्तु  अधिकांश सतहें एकदम चिकनी नहीं होती । इसलिए परावर्तन के बाद ध्वनि एक ही दिशा में नहीं लौटती बल्कि फैल जाती है । इसमें से कुछ ध्वनि तो वापिस चमगादड़ तक पहुंच ही जाती है ं 
दिक्कत तब होती है जब सतह एकदम चिकनी हो । ऐसी चिकनी सतह से टकराने के बाद ध्वनि फैलती नहीं बल्कि एक ही दिशा में जाती   है । परावर्तन के नियम के अनुसार यह प्रतिध्वनि चमगादड की ओर नहीं बल्कि उससे दूर जाएगी । इसीलिए जब ध्वनि सामने एकदम चिकनी सतह (जैसे कांच) से टकराती है तो उसकी प्रतिध्वनि लौटकर चमगादड़ तक नहीं   पहुचती । उसे लगता है कि सामने मैदान साफ है और वह उड़ता चला जाता है, चिकनी सतह से टकराने के लिए । उसे तो सतह के बहुत पास पहुंचने के बाद ही पता चलता है कि सामने रूकावट है । 
इस समस्या को समझने के लिए स्टीफन ग्रीफ ने कई वर्षो पहले चिकनी आड़ी सतहों पर चमगादों के साथ कुछ प्रयोग किए थे । प्रयोग के दौरान जमीन पर चिकनी तश्तरियां रखी गई थी । देखा गया कि चमगादड़ इनमें से कुछ पीने की कोशिश कर रहे थे । आम तौर पर प्रकृति में ऐसी चिकनी आड़ी सतहें झीलों और तालाबों की होती है, इसलिए चमगादड़ ऐसी सतहों को पानी की उपस्थिति का सुराग मानते है । 
अब ग्रीफ और उनके साथियों ने इसी प्रकार के प्रयोग खड़ी चिकनी सतहों पर किए तो पाया कि चमगादड़ उड़ते उड़ते उनसे टकरा जाते है । ग्रीफ का ख्याल है कि प्रकृति में चमगादड़ों को ऐसी सतहों का अनुभव नहीं है । साइन्स में प्रकाशित शोध पत्र में ग्रीफ ने कहा है कि ऐसी खड़ी चिकनी सतहें उनके परिवेश में मानव निर्मित पर्यावरण के कारण ही आई है । उन्हें इनके खतरे से बचाने के लिए कुछ उपाय करना जरूरी है । 

गोरेपन की क्रीम में एक्टिवेटेड चारकोल हानिकारक
आजकल आपने टीवी पर देखा होगा कि गोरा बनाने वाली कुछ क्रीम्स के विज्ञापनों में जोर-शोर से प्रचार किया जा रहा है कि उनमें एक्टिवेटेड चारकोल है जो सारी गंदगी वगैरह को सोखकर आपका रंग साफ कर सकता है । 
इस संदर्भ में हावड़ा (पश्चिम बंगाल) स्थित इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ इंजीनियरिंग साइंस एंड टेक्नॉलॉजी के शोधकर्ताआेंद्वारा किया गया एक अध्ययन आंखे खोल देने वाला है । अध्ययन के मुताबिक एक्टिवेटेड माइक्रोकार्बन युक्त फेसक्रीम जिसका कई विज्ञापन सौंदर्य सामग्री की तरह प्रचार कर रहे हैं, लंबे समय तक उपयोग के बाद त्वचा को नुकसान पहुंचा सकता है । इसके असर से कैंसर भी हो सकता है । 
   एक्टिवेटेड कार्बन पावडर का लम्बे समय से उद्योग में उपयोग होता रहा है । इसका उपयोग पानी को साफ करने जैसे कामों में किया जाता है । पर गोरा करने वाली फेसक्रीम में इसका इस्तेमाल हाल ही में शुरू हुआ है । शोधकर्ताआें ने बताया कि ३ अंतर्राष्ट्रीय कंपनियों के लोकप्रिय ब्रांड के माइक्रोकार्बनयुक्त क्रीम के नमूनों की सूक्ष्मदर्शीय और वर्णक्रम विश्लेषण जांच में रिडयूस्ट ग्रेफीन कण पाए गए है । ये कण वास्तव में कार्बन के अत्यन्त महीन (नैनो आकार के) कण होते है । 
रिपोर्ट के मुताबिक रिडयूस्ट ग्रेफीन सामान्य तौर पर निष्क्रिय रहते है । पर हवा में उपस्थित ऑक्सीजन के संपर्क में आकर क्रियाशील हो उठते हैं । इसके परिणामस्वरूप क्रियाशील ऑक्सीजन मूलक (रिएक्टिव ऑक्सीजन स्पीशीज) बनते है । क्रियाशील ऑक्सीजन मूलक त्वचा के लिए विषैले होते है । 
इनके विषैले प्रभाव के अध्ययन के लिए एस. मैती व उनके साथी वैज्ञानिकों ने वयस्क मानव त्वचा कोशिकाआें को नैनो आकार के ग्रेफीन कणोंके विलयन के साथ २०० वॉट की रोशनी में १२ घंटे के लिए रखकर जांच की । 

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