शुक्रवार, 17 नवंबर 2017

कृषि जगत
किसान आयोग बनाये जाने की जरूत 
विजय जड़धारी 

किसानों के संकट के लिए राष्ट्रीय कृषि नीति एवं हरित क्रांति ज्यादा जिम्मेदार है । पूर्ववर्ती सरकारों ने खेती के विकास के नाम पर किसानों के शोषण के बीज बोए तो तात्कालिक सरकार उन्हें पाल पोस रही है । दुर्भाग्य की बात है कि देश की संसद भी इस मुद्दे पर मौन है । सरकारों को उपज बढ़ाने की जरूर चिंता रही किंतु उत्पादक किसान की नहीं ।
सन् २०१७ महात्मा गांधी के नील की खेती के विरूद्ध चंपारण सत्याग्रह का शताब्दी वर्ष है । आजाद भारत में इस वक्त किसानों का स्वर्णकाल होना चाहिए था किंतु आज किसान नई खेती की गुलामी से त्रस्त होकर आत्महत्या करने और सड़कों पर आंदोलन के लिए मजबूर है । 
सरकार की इस सीधी मार से विपक्ष और मीडिया जागा है, किंतु सरकार एवं कृषि व्यवसाय में लगी देशी व बहुराष्ट्रीय कंपनियों को मिली छूट की अदृश्य किंतु घातक मार से १९९५ से अब तक ३ लाख १८ हजार से अधिक पीड़ित किसान आत्महत्या कर चुके हैं । लाखों किसान खेती छोड़कर पलायन कर चुके हैं। किसान की नई पीढ़ी खेती छोड़े, इस तरह की स्थिति और शिक्षा प्रणाली बनी है ।
हरित क्रांति के दुष्परिणामों से सबक लेकर किसान, बुद्धिजीवी एवं वैज्ञानिक जीएम बीजों के विरूद्ध आंदोलन चला रहे हैं। इस समय उनकी बात सुनी जानी थी किंतु सरकार की जेनेटिक इंजीनियरिंग एप्रूवल समिति ने जीएम सरसों को मंजूरी देकर उनके जले घावों पर नमक छिड़कने का काम किया है। भूतपूर्व पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश ने तो बीटी बैंगन पर जन सुनवाई कर इस तकनीकी पर रोक लगा दी थी, अभी गेंद पर्यावरण मंत्रालय के पाले में है। यदि जीएम सरसों को मंजूरी मिलती है तो यह भारतीय खेती, स्वास्थ्य और पर्यावरण के सर्वनाश का कारण बनेगा । सरकार की उपेक्षा से पीड़ित किसानों की दुर्दशा पर सर्वोच्च् न्यायालय की दखल के बाद किसानों में नई आशा का संचार हुआ है ।
  खेती किसान की जीवन पद्धति और संस्कृति रही है । आजादी से पहले व कुछ दिन बाद तक किसान पैसे से भले ही गरीब थे किंतु विविधतायुक्त  खेती, फसलों, खानपान, अच्छा स्वास्थ्य, पशुधन, हल-बैल, देसी बीज, गोबर की खाद व सामूहिक श्रम आदि के  मामले में अमीर और आत्मनिर्भर थे। बिना लागत की खेती थी, कोई भी किसान खेती के संसाधनों के लिए कर्जदार नहीं था । १९७० के दशक में सरकार एवं वैज्ञानिकों द्वारा हरित क्रांति के नाम पर अमरीका से लाए गए बीज व रासायनिक खाद के मिनी किट मुफ्त में बांटे गए, नए बीजों से बढ़ी उपज का चमत्कार देखकर किसान फूले नहीं समाए, लेकिन कुछ ही दिनों बाद फसलों पर बीमारी आने लगी तो कीटनाशक जहरों को दवा के रूप में प्रचारित किया और नये बीजों के  साथ नए खरपतवार आए तो पीछे से खरपतवारनाशी व बैलों की जगह ट्रेक्टर आए । 
जब घर के बीज लुप्त हो गए तो मुफ्त का खेल भी    खत्म । अब सभी संसाधन खरीदकर लेने पड़े । घर की खेती अमरीकी बीज कंपनी मोंसेंटों के जाल में फंसकर पराई हो गई । खेती की लागत बढ़ने से किसान की गांठ  का पैसा खत्म हुआ तो किसान पहले साहूकारों के जाल में फंसा फिर सरकार ने बैंकिंग सुविधा देकर किसान क्रेडिट कार्ड के मार्फत और आसानी से कर्ज उपलब्ध करवाया । किसान विविधता की खेती छोड़कर एकल नगदी फसलें उगाकर आमदनी बढ़ाने का प्रयास करने लगे किंतु वही आमदनी अठन्नी खर्चा रूपया वाली कहावत सच निकली । कृषि उपज से मंडियों के व्यापारी मालामाल बने तो बीज, खाद, कीटनाशक और ट्रेक्टर खरीद से देसी-विदेशी बहुराष्ट्रीय कंपनियों का कारोबार अरबों में पहुँच गया, जहरयुक्त खानपान से किसान एवं उपभोक्ता खतरनाक बीमारियों के जाल में फंसे तो दवा उद्योग चरम पर पहुंचा । किसान इतनी कंगाली में पहुँचा कि आज १२ लाख ६० हजार करोड़ रूपए का कर्ज बैंकों एवं साहूकारों का किसानों पर है ।
किसानों पर सिर्फ कर्ज की मार ही नहीं है, ऊपर से आधुनिक विकास से उत्पन्न जलवायु और मौसम परिवर्तन की मार भी है। असमय अतिवृष्टि बाढ़, सूखा व ओलावृष्टि आदि ने किसान की कमर तोड़ दी है। पहाड़ों में तो आजकल बादल बम बनकर कब कहाँ किस पहाड़ी पर बमबारी कर गाँव खेती उजाड़ देते हैं, पता नहीं । सरकार इसे दैवीय आपदा कहती है, किंतु इससे उत्पन्न क्षति की पूर्ति कभी भी नहीं होती, मौसम की मार से यदि कुछ बच भी गया तो जंगली जानवरों की मार भी कम घातक नहीं है । दिन को बंदरों की टोलियाँ तो रात को सुअर और नीलगायों के झुंड लहलहाती फसलों को चौपट कर देते हैं ।
केंद्र सरकार २०२२ तक किसानों की आय दोगुना करने की बात करती है किंतु इसका गणित आज तक नहीं समझाया गया, किस तरह किसानों के साथ यह कैसा अन्याय है कि सोने, चांदी, उद्योगों से उत्पन्न वस्तुओं के दाम, कर्मचारी व अधिकारियों व हमारे जनप्रतिनिधियों आदि के वेतन, भत्ता और पेंशन सैकड़ों-हजारों गुना बढ़े हैं। वहीं किसान की उपज के दाम दस-बीस गुना से भी अधिक नहीं बढ़े । 
किसानों को इसलिए भी दबाया जाता है कि किसान आंदोलन, ट्रेड यूनियन की तरह संगठित नहीं है किंतु इस बार का किसान आंदोलन नए दौर में है। प्रधानमंत्री फसल बीमा की खूब चर्चा होती है किंतु इसकी असफलता का नमूना देखिए हेंवलघाटी टिहरी गढ़वाल के  सब्जी उत्पादक किसानों ने १५० की प्रीमियम देकर जनरल इंश्योरेंस कंपनी से बीमा करवाया, फसल खराब होने पर कंपनी ने ७० रूपए का चेक दिया, जिसका ३५ रूपए कलेक्शन चार्ज बैंक ने ले लिया, किसान को क्या मिला, कुछ किसानों ने दुखी होकर ये चेक प्रधानमंत्री को भेज दिये । 
उत्तरप्रदेश और महाराष्ट्र की सरकारों ने अपने किसानों के आंशिक कर्जे माफ किए हैं । उत्तराखंड में चुनावी वायदा करने के बावजूद भी किसानों के कर्ज माफ नहीं किए । फलस्वरूप कर्ज के बोझ तले नगदी फसल उगाने वाले दो किसानों ने पहली बार आत्महत्या कर ली । हालांकि यहाँ अधिकतर किसान बिना कर्ज-बिना लागत की बारहनाजा जैसी फसलें उगाते हैं ।
कर्जमाफी समस्याग्रस्त किसान का अधिकार है किंतु इसका लाभ भी किसान को नहीं, बल्कि व्यवसायिक कंपनियों को मिलता    है । २००८ में कांग्रेस सरकार ने किसानों के ७१ हजार करोड़ के कर्ज माफ किए । इसके बावजूद भी किसानों की आत्महत्याएँ अब तक जारी हैं । दरअसल, कर्ज माफी का पैसा सीधे बैंक खाते में जाता है। किसान साहूकार या प्रायवेट फायनेंस कंपनी से भी कर्ज लेते हैं, उसकी भरपाई नहीं हो पाती । किसान का एक ही फायदा है उसे कर्ज मुक्ति  का एनओसी मिल जाता है, उसे अगली फसल उगाने के बीज, खाद, कीटनाशक, ट्रेक्टर व तेल आदि चाहिए वह उसे बैंक उसकी केसीसी पर चुटकी में कर्ज दे देता है । और वह कर्ज का पैसा भी संसाधनों की खरीद और साहूकार के ब्याज में चला जाता है । किसान को धेला भी नहीं बचता । अगली फसल भगवान भरोसे है, कर्ज घटने की बजाय बढ़ता जाता है । 
किसान और खेती तब बचेगी जब खेती की जीवन पद्धति और संस्कृति की नीति वाली कृषि नीति बनेगी, बिना लागत, कम लागत, कर्ज मुक्त खेती होगी । किसान को सम्मान की नजर से देखा जाएगा । पूर्व प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने नारा दिया था-जय जवान, जय किसान । उनके बाद की सरकारों ने इस नारे को बदलकर आत्महत्या कर किसान कर दिया । 
किसानों की आत्महत्या और आज की खेती की समस्या, किसी राष्ट्रीय आपदा से कम नहीं है। केंद्र सरकार व राज्य सरकारें किसानों के प्रति संवेदनशील नहीं है, इसलिए सर्वोच्च् न्यायालय के मार्गदर्शन में संवेदनशील कृषि वैज्ञानिकों, अनुभवी किसानों, न्यायविदों, समाजकर्मियों का एक किसान आयोग बनाया जाना चाहिए ।

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