शुक्रवार, 17 नवंबर 2017

विशेष लेख
विज्ञान की सामाजिकता 
सुन्दर सरूकाय

विज्ञान निहित रूप से और मूलत: सामाजिक है । हालांकि जीवन में आज भी एक तनहा वैज्ञानिक, एक प्रतिभा के धनी व्यक्तित्व की छवि हावी है किन्तु यह छवि आधुनिक वैज्ञानिक कामकाज में सही नहीं बैठती है । 
विज्ञान का कामकाज अब निहित रूप से इतना सामाजिक हो चला है कि व्यक्तियों के स्तर पर ही नहीं बल्कि संस्थाआें और राष्ट्रों के स्तर पर भी विज्ञान को एक सहयोगी गतिविधि के रूप में देखा जाता है । अब ना केवल सह-लेखकों द्वारा लिखे गए शोध पत्र एक सामान्य सी बात हो गई है बल्कि प्रत्येक शोध-पत्र में सह-लेखकों की संख्या बढ़ती ही जा रही है । कुछ शोध पत्र तो १-१ हजार से ज्यादा सह-लेखकों वाले भी है । 
प्रकृति को अपने अध्ययन का विषय मानने की जिद के चलते विज्ञान के अंदर सामाजिक तत्व के महत्व को अक्सर अनदेखा किया जाता है । विज्ञान की व्यापक समझ के तहत विज्ञान-अध्ययनों, खास तौर से विज्ञान के समाज शास्त्र की भी उपेक्षा हुई है ।  इन अध्ययनों ने बार-बार विज्ञान के विमर्श और कामकाज दोनों की सामाजिक प्रकृति को उजागर किया है । 
विज्ञान की गाथाआें में अक्सर विज्ञान करने की व्यक्ति की क्षमता पर इतना जोर दिया जाता है कि सामाजिक तत्व ओझल हो जाता है । इन गाथाआंे में व्यक्तियों कीे सृजन क्षमता को अत्यधिक महत्व दिया जाता है और समाज मात्र एक सहायक की भूमिका अदा करता है । किन्तु यह दृष्टिकोण वैज्ञानिक गतिविधियों की सामाजिकता को सही तरीके से नहीं पकड पाया है । 
विज्ञान में सामाजिक तत्व का पहला एहसास संस्थाआें से इनके जुड़ाव में नजर आता है । आधुनिक विज्ञान, हम आज जिस तरह से उसे काम करते देखते हैं, वह न सिर्फ (विश्वविद्यालयों और वैज्ञानिक प्रयोगशालाआें में) नवीन ज्ञान के निर्माण का ऋणी है बल्कि १६६० मे स्थापित रॉयल सोसायटी जैसी संस्थाआें, विभिन्न राष्ट्रीय अकादमियों और अंतर्राष्ट्रीय संगठनों का भी आभारी है । इन संस्थाआें का एक प्रमुख काम था कि विज्ञान को अपने संरक्षकों तथा समाज के लोगों के बीच स्वीकार्य बनाना । 
यह तो शुरू से ही माना गया था कि विज्ञान को जन सामान्य के बीच संप्रेषित और प्रदर्शित  प्रयोगों के सार्वजनिक प्रदर्शन करने की एक व्यापक संस्कृति थी ताकि लोग कुछ धनराशि देकर प्रयोगों का प्रदर्शन देख सके । विज्ञान पर जोर देने के शुरूआती प्रयास इस बात  को लेकर बहुत सचेत थे कि विज्ञान को सार्वजनिक बनाया जाए और उसका महत्व समाज को दिखाया जाए । 
अलबत्ता, विज्ञान की सामाजिकता से मेरा आशय विज्ञान के इस पहलू से नहींहै । विज्ञान के शुरूआती सार्वजनिक प्रदर्शनों में भी वैज्ञानिक व्यक्तिगत रूप से महत्वपूर्ण शख्सियत हुआ करते थे । विज्ञान का विकास न्यूटन जैसी व्यक्तिगत हस्तियों के आसपास ही हुआ । संस्थाआें को ऐसे स्थानों के रूप में देखा गया जहां व्यक्ति निर्बाध रूप से विज्ञान के काम कर सके । विज्ञान के प्रति आकर्षण उस समय भी   कुछ असाधारण व्यक्तित्व की  कल्पना से जुड़ा था जो विज्ञान के महान नए विचारों की रचना करते थे । 
हालांकि तब भी यह स्पष्ट था कि विज्ञान के महान विचार व्यक्तियों और संस्थाआें के सामाजिक नेटवर्क, और दुनिया भर में काम कर रहे वैज्ञानिकों की साझा सामाजिक परिपाटी से ही उपजते है ।  दरअसल पिछले दो शताब्दियों में विज्ञान के अलावा किसी अन्य मानवीय गतिविधि में अन्तर्राष्ट्रीय सहयोग की ऐसी मिसाल पेश नहीं हुई है । यहां तक कि विश्व युद्धों के दौरान भी वैज्ञानिक उन अवधारणाआें पर काम कर रहे थे जिनको युद्धरत देशों के वैज्ञानिक साथियों ने विकसित किया था । 
उदाहरण के लिए ब्रिटिश प्रायोगिक व सैद्धांतिक वैज्ञानिकों द्वारा क्वांटम और सापेक्षता के सिद्धांत पर जर्मन सहयोगियों के साथ काम से विज्ञान की सामाजिक परिपाटी के महत्व को पता चलता है जो राजनैतिक बंटवारे से ऊपर उठ सकती है । आज भी कई वैज्ञानिक ऐसे देशों के वैज्ञानिकों की मदद कर रहे हैं जिनके बीच राजनैतिक धु्रवीकरण व्याप्त् है । एक तरह से देखे तो यह एक विडंबना है क्यों कि यही वैज्ञानिक अस्त्र-शस्त्र की तकनीक की खोज में भी सबसे आगे हे है और उनके देश उनकी घनघोर सुरक्षा करते है । 
यद्यपि विज्ञान की सामाजिकता, इन संस्थाआें के जरिए स्थापित किए जाने पर निर्भर है किन्तु इसके आगे भी जाती है । वैज्ञानिक कार्य प्रणाली ही नहीं बल्कि, वैज्ञानिक ज्ञान भी मूलभूत रूप से सामाजिक है तो स्वयं वैज्ञानिक ज्ञान की सामाजिक प्रकृति को कैसे समझा जाए ? अव्वल तो वैज्ञानिक ज्ञान का उत्पादन सामाजिक रूप से होता है । यहां तक कि सैद्धांतिक कार्य भी एक सामाजिक उत्पादन है जिसकी शुरूआत वैज्ञानिकों द्वारा प्रयुक्त भाषा, अवधारणआें और सिद्धांतांं   की साझा सामाजिक समझ से होती है । 
वैज्ञानिक ज्ञान की संभावना ही इस बात पर निर्भर करती है कि सामाजिकता का अधिकतम इस्तेमाल कैसे किए जाए । शोध पत्रिकाआें, प्रकाशनों और उद्वरित करने की संस्कृति आज के विज्ञान के बहुत जरूरी अंग हैं और ये अलग-अलग तरीके हैं जिनके माध्यम से सामाजिकता वैज्ञानिक ज्ञान के उत्पादन का एक अंतरंग हिस्स बन जाती है । 
कम से कम दो मूलभूत कारण हैं जिनकी वजह से विज्ञान की हमारी समझ में सामाजिकता को अहमियत प्राप्त् नहीं हो पाती ।  पहला कारण यह है कि रचनात्मकता और स्वायत्तता का प्रमुख अभिकर्ता व्यक्ति को ही माना जाता है । और दूसरा कारण यह विश्वास है कि प्राकृतिक का दायरा मूलत: सामाजिक के दायरे से अलग है । विज्ञान प्राथमिक रूप से प्राकृतिक दुनिया के सत्य की खोज करता है, यह दावा प्राकृतिक को सामाजिक से ज्यादा महत्व देता है । अलबत्ता, व्यक्ति के महत्व और प्राकृतिक के अर्थ दोनोंसे संबंधित इन विश्वासों को चुनौतियां मिली है। विज्ञान के अन्दर सामाजिक के सवाल पर एक अलग दृष्टिकोण भी है जो विज्ञान-टेक्नॉलाजी और समाज के परस्पर संबंधों को लेकर ब्रूनो लाटोर और अन्य के कार्य से उभरा है । इन दृष्टिकोणों में एक महत्वपूर्ण समझ यह है कि प्राकृतिक और सामाजिक के बीच, इंसान और गैर इंसान के बीच विभेद तर्को के आगे टिक नहीं पाता है । 
भूगोल विशेषज्ञ तो यह लगातार इंगित करते रहे हैं कि प्रकृति में कुछ भी प्राकृतिक नहीं   है । प्राकृतिक और प्राकृतिक के निर्माण का विचार ही सामाजिक यप से निर्मित हुआ है । प्रकृति की परिभाषा वास्तव में बहुत फिसलन भरी है और विभिन्न प्राकृतिक विज्ञानों में अलग-अलग है तो प्राकृति के बारे में वैज्ञानिक सत्य के दावों को अधिक से अधिक इसी रूप में देखा जा सकता है कि वे प्राकृतिक के समाजीकृत स्वरूप के सत्य है । 
इसको एक अलग ढंग से भी कहा जा सकता है कि प्रत्येक विषय स्वयं अपने लिए विमर्श के विषय रचता है । इन्हींपर उसका अध्ययन केन्द्रित होता है । विज्ञान के केन्द्र में प्रकृति है, लेकिन विज्ञान का प्रत्येक विषय प्रकृति को लेकर स्वतंत्र राय बनाना है । वास्तव में प्रकृति के बारे में विभिन्न विषयों को यह विशिष्ट नजरिया ही अलग-अलग्र करता है, लगभग उतना ही जितना कि विधि जैसे अन्य तत्व करते हैं । भौतिकी के लिए प्रकृति कुछ नियमोंसे भरपूर है और इसीलिए भौतिकी के लिए प्रकृति की परिभाषा में प्रकृति के नियम एक बहुत जरूरी तत्व है । 
लेकिन प्रकृति के नियमों की सार्थकता को लेकर बहुत सारे आधारभूत प्रश्न है । क्या ये नियम प्रकृति को परिचालित करते है ? क्या ये नियम प्रकृति के उद्देश्यों को परिचालित करते है ? यदि ऐसा है तो कैसे ? या ये केवल प्रकृति की कुछ प्रक्रियाआें के बारे में बातचीत करने के तरीके है ? जीव विज्ञान के लिए प्रकृति का विचार वैसा नहीं होगा जैसा भौतिकी के लिए है और     जीव विज्ञान में प्रकृति को लेकर भौतिकी के समान कोई नियम नहीं है । 
कहने का मतलब यह है कि हालांकि हम भौतिकी और जीव विज्ञान दोनों में एक ही शब्द प्रकृति का इस्तेमाल करते हैं, किन्तु दोनों विषयों में इसके अर्थ सर्वथा अलग-अलग होते हैं । इसी तरह से रसायन विज्ञान में प्रकृति का अर्थ भौतिकी के प्रकृति के अर्थ से अलग है हालांकि रसायन शास्त्र में बहुत सारी भौतिकी भी मिलती है । दरअसल, रसायन शास्त्र को भौतिकी का एक सीमित रूप बताने का विरोध बहुत हद तक प्रकृति के भिन्न अर्थ की वजह से भी है । 
यह सही है कि विज्ञान में सामाजिक को केन्द्र बिन्दु बनाने वाले दृष्टिकोणों के आलोचक भी हैं तो भी इस नजरिए से सोचना उपयोगी होगा क्योंकि यह प्राकृतिक और सामाजिक के बीच के भेद को तोड़ता है । यह तर्क महत्वपूर्ण है कि वस्तुए भी क्रिया करती है और यह वैज्ञानिक वस्तुआें के कार्यो और प्रकृति पर टिका है । असल में, विज्ञान टेक्नॉलाजी समाज के परस्पर संबंधों के अध्ययन उस तर्क में अग्रणी रहे है जो उस पारंपरिक मत को अस्वीकार करता है कि वैज्ञानिक और टेक्नॉलाजिकल तत्वों से स्वतंत्र सामाजिक का कोई अस्तित्व है । 
उनकी दलील है कि आधुनिक समाज का निर्माण जितना व्यक्तियों की अंतक्रियाआें से होता है उतना ही विज्ञान और तकनीक की वस्तुआें द्वारा भी होता है, और हम सामाजिक को मात्र इस रूप में परिभाषित नहीं कर सकते है कि वह केवल कुछ लोगों को समूह है, उसमें हमें विज्ञान व टेक्नॉलाजी की रचनाआें को भी शामिल करना  होगा । तो समाज केवल लोगों का समूह नहीं है, बल्कि सारे जीवों और वस्तुआें का मिला-जुला रूप है । दुसरे शब्दों में, वैज्ञानिक वस्तुआें का खुद अपना भी सामाजिक जीवन होता है, जैसा कि किसी वैज्ञानिक का अपना सामाजिक जीवन होता है । 
इस तरह विज्ञान की सामाजिक प्रकृति को स्पष्ट रूप से स्वीकारने के कई परिणाम है । प्रकृति के इस विशिष्ट नजरिए का आव्हान अक्सर विज्ञान को विभिन्न नैतिक चुनौतियों से सुरक्षित रखने के लिए किया जाता है । इस तर्क का उपयाग नैतिक सवालों को विज्ञान के दायरे से बाहर रखने के लिए किया जाता है कि विज्ञान तो केवल प्राकृतिक विश्व के सत्य की खोज करता     है, और इंसान (और समाज)    इसमें सिर्फ एजेंट की भूमिका निभाते हैं । 
वैज्ञानिक ज्ञान और वैज्ञानिक कामकाज में सामाजिक तत्व पर जोर क्यों दिया जाए ? विज्ञान के लम्बे इतिहास में और विज्ञान को जिस ढंग से जनता के बीच प्रस्तुत किया जाता है, उसमें समाज के केन्द्रीय महत्व को अक्सर ओझल कर दिया जाता  है । विज्ञान को प्रकृति के विशिष्ट नजरिए पर केन्द्रित करके विज्ञान को नैतिकता और जवाबदेही के प्रश्नों से सुरक्षा मिल जाती हैं यदि विज्ञान को सिर्फ दुनिया के बारे में जानकारी उत्पन्न करने की गतिविधि के रूप में देखा जाए तो वैज्ञानिक इस जानकारी को खोजने की जिम्मेदारी से बच सकते है । 
तर्क यह दिया जाता है कि दुनिया के बारे में जो सत्य विज्ञान खोजता है उसके लिए विज्ञान को जवाबदेह नहीं ठहराया जाना चाहिए क्योंकि इस ज्ञान से जुड़ी समस्याआें के लिए तो लोग जिम्मेदार हैं । 
उदाहरण के तौर पर कहा जाता है कि चाकू उपयोगी भी हो सकता है और हानिकारक भी । इसके आधार पर यह दावा किया जाता है कि विज्ञान तो मूल्य-निरपेक्ष है । इस उदाहरण मे थोड़ी खेाट है चाकू मूल रूप से एक सामाजिक वस्तु है, और यह सामाजिक दुनिया में उसके द्वारा निर्धारित अर्थो में काम करता है जिसमें उसके उपयोगी और हानिकारक दोनों ही पहलू शामिल होते है । 
सामाजिक होने का अर्थ है कि समाज से संबंधित अन्य तत्वों से भी संबंध रहेगा । इसलिए सामाजिक होने का मतलब ही है कि समाज के अन्य तत्वों के प्रति जवाबदेही । विज्ञान में नैतिकता का विचार विज्ञान की मूलभूत सामाजिकता को स्वीकार करने से ही आया है । 
यह नैतिक दृष्टिकोण कहता है कि विज्ञान केवलप्राकृतिक विश्व के प्रति नहीं, बल्कि उस समुदाय के प्रति भी जवाबदेह है जिसके अन्तर्गत विज्ञान के क्रियाकलाप होते हैं । समाज के अन्य घटकों के प्रति संवेदनशील होने की जवाबदेही का मतलब है कि जीने और जानने के अन्य तौर-तरीके के प्रति भी संवेदनशीलता होना । 

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