शनिवार, 15 दिसंबर 2007

५ हमारा आसपास

दूर होती कौए की कांव-कांव
आशीष दशोत्तर
विकास के इस दौर में कई संदर्भ हमसे बिछुड़ते जा रहे हें । ये सन्दर्भ कभी प्रकृति के रूप में हमसे जुदा हो रहे हैं, कभी पर्यावरण के रूप में तो कभी पक्षियों के रूप में । हर नुकसान के लिए विकास की अनबूझी दौड़ जिम्मेदार है, मगर इस दौड़ को कम करने की कोशिश कहीं से नहीं हो रही है । अब पूरी दुनिया के लिए चिंताजनक बात यह है कि इस धरती से निरीह पक्षियों की कई प्रजातियां विलुप्त् होती जा रही हैं । विलुप्त् होती जा रही इन प्रजातियों को बचाने के लिए किए जा रहे सभी प्रयास फुस्सी साबित हो रहे हैं। पशु-पक्षी के अध्ययन में जुटे वैज्ञानिकों और संस्थाआे द्वारा समय-समय पर जो जानकारियां एकत्र की जा रही हैं, वह यह साबित करने के लिए काफी है कि विलुप्त् होती जा रही प्रजातियों को संरक्षित करने के लिए किए जा रहे प्रयास नाकाफी हैं। जो पशु-पक्षी हमारे घर-आंगन में विचरते थे, वे अब कहीं नहीं दिखते हैं । घर-आंगन में फुदकने वाली चिड़ियां या कौए अब नहीं दिखते हैं । मीठी तान सुनाने वाली कोयल की कूक भी अब सुनाई नहीं देती हैं । पेड़-पौधों की घटती संख्या को लेकर बर्ड लाइफ इंटरनेशनल के विशेषज्ञों ने एशियाई देशों में इस सम्बन्ध में अध्ययन किया । इस अध्ययन में कई महत्वपूर्ण जानकारियां मिली और चिंताजनक तथ्य भी सामने आए । एशिया में मुख्य रूप से ढाई हजार से अधिक प्रजातियों के पक्षी पाए जाते हैं, जिनमें से सवा तीन सौ पक्षी विलुप्त् होने की कगार पर हैं । चिंता की बात यह है कि कौआ भी इसी विलुप्त् होने वाली प्रजाति में शामिल किया गया है। सिर्फ भारत की ही बात करें तो यहां ७३ प्रजातियां खतरे में बताई गई हैं । एशिया के अन्य देशों में हालत और भी दयनीय हैं । हमारे देश में कौआे को काफी महत्व दिया गया है । पौराणिक आख्यानों से लेकर वर्तमान सन्दर्भो में कौए की प्रासंगिकता बनी हुई है । श्राद्ध पक्ष में तो बाकायदा कौआे को बुलाकर खिलाया जाता है । इन परम्पराआे के बीच हमें यह बात खटकती है कि कौआे की संख्या निरंतर कम होती जा रही है । जिन शहरों में पर्यावरणीय दृष्टि से स्थितियां अब भी ठीक हैं, वहां कौआे को देखा जा सकता है, मगर अधिकांश शहरों में और शहर बनते गांवों में कौआे की संख्या घटती जा रही है । प्राकृतिक असंतुलन की मार कौऐ जैसे निरीह पक्षी पर भी पड़ रही है और ये पक्षी बीते समय की बात होते जा रहे हैं । अब बच्चें को कौए की कविता पढ़ाने से पहले खुद को इस बात के लिए तैयार करना पड़ता है कि अगर बच्च कौए को देखने की जिद करने लगे तो उसे क्या जवाब दिया जाएगा । जब उसे हम कौआ दिखा नही सकते हैं तो हमें क्या हक हैं उसे कौए की कविता सिखाने का । जिसकी रक्षा हम नहीं कर सके, उसके किस्से-कहानियां बच्चें को याद करने के लिए मजबूर करते वक्त हमें आत्मग्लानि होती है । श्राद्ध पक्ष में कौआे को आवाज तो दी जाती है, मगर यह जानते हुए कि कौए है ही नहीं, तो आएंगे कैसे? कमोबेश यह स्थिति कौए की ही नहीं, हर उस पक्षी की हैं जो निरीह है, सरल है और जिसका प्राकृतिक संतुलन बनाए रखने में अहम् योगदान है । विकास की इस परिभाषा में विनाश की आहट भी समाहित है । प्रकृति में प्रतिदिन घुलते जहर से न सिर्फ पेड़-पौधे बल्कि जीव-जन्तु और मनुष्य भी स्वच्छ वायु से मोहताज होता जा रहा है । कौआ गंदगी को साफ करने वाला पक्षी है, मगर मनुष्य ऐसे पक्षी को ही समाप्त् करने वाला बनता जा रहा है । कौआें की घटती संख्या हमारे लिए ही नहीं, पूरी दुनिया के लिए चिंता का विषय बन गया है । श्रेष्ठता में आगे - कौआ कोर्डेटा संघ के वर्ग एब्ज के गम-पैसेरीफार्मिस में आता है । सामान्यत: हमारे देश मंे इसकी दो प्रजातियां पाई जाती हैं। घरों के आसपास दिखने वाला देशी कौआ होता है जिसे कोर्वस स्प्लेंडेंस कहा जाता है । जंगली कौए को कोर्वस मेक्रोरिहकोज कहते हैं । जंगली कौआ पूरी तरह काला होता है । देशी कौआ घूसर रंग का होता है । भगवान कृष्ण के हाथ से माखन-रोटी छीन ले जाने वाले जिस कौए का जिक्र किया गया वह काग देशी कौआ है । वैसे दुनिया में कौए की सौ से अधिक प्रजातियां पाई जाती है । कौआ घोंसला पेड़ों पर बनाता है और अप्रैल से जून के मध्य अण्डे देता है । पौराणिक कथाआे में तो कौए को अमरता प्रदान की गई है, मगर पक्षी वैज्ञानिकों के अनुसार कौए औसत उम्र ६९ वर्ष होती है । इसकी लंबी चोंच, पंख एवं पैर होते हैं । इनकी सहायता से कौए को भोजन, उड़ान एवं पकड़ में सहयोग मिलता है । कौए का आकार सामान्यत: ३२ से ४२ सेंटी मीटर का होता है, मगर देशी कौए छोटे और जंगी कौए का आकर कई बार अधिक भी देखा गया है । सामूहिकता, एकजुटता और सतर्कता में कौए को अन्य पक्षियों से आगे पाया जाता है ।चालाक, चपल और स्वच्छता पसंद - कौआे को प्राय: धूर्तता के लिए जाना जाता है, मगर ये चालाक और चपल भी होते हैं । यह बात अलग है कि कोयल इनकी चालाकी को धता बताते हुए अपने अण्डों की रक्षा कौआे से करवाने में सफल रहती है । कौए को स्वच्छता पसंद भी कहा जाता है । शहरों में बढ़ती अस्वच्छता के लिए कौआें की घटती संख्या को भी जिम्मेदार समझा जाता है । कौए जहां होते हैं, वहां वे गंदगी को समाप्त् करने में सहायक बन जाते हैं । कीड़े-टिडि्डयों को ये चट कर जाते है । खेतों की जुताई करते समय अक्सर कौए चौकस रहते हैं । इनकी निगाह उन कीड़ों पर रहती है जो जुताई के समय जमीन से बाहर निकलते हैं । प्राय: यही कौआ खड़ी फसल के लिए नुकसानदायक होता है और खेतों में खड़ी फसल के बीच पक्षियों को मानव का भ्रम कराने के लिए जो आकृति खड़ी की जाती है, उसे स्थानीय भाषा में `काग भगौड़ा' भी कहा जाता है । अन्य पक्षियों के अण्डों के लिए, छोटे चूजों के लिए कौए हानिकारक होते हैं, मगर अपनी कौम के लिए काफी सक्रिय होते हैं । जब कोई कौआ संकट में होता है तो ये कांव-कांव की आवाज निकालकर सभी को इकट्ठा कर लेते हैं । यह शोर काफी कर्कश होता है । कौए को अक्सर एक आँख से देखते हुए पाते हैं, जबकि वह ऐसा करते हुए अपनी बुद्धिमानी को दर्शाता है । उसकी बुद्धिमानी के किस्से तो भारतीय पौराणिक कथाआे में खूब मिलते हैं । रामायण में जो काकभुशुण्डी की जो भूमिका है, वह किसी समझदार और विद्वान पात्र से कम नहीं है। यहां तक कि यह पात्र रक्षा में भी आगे बताया गया है। महाभारत और पंचतंत्र की कथा में भी कौआ उपस्थित है । श्राद्ध पक्ष में कौआे को बाकायदा आमंत्रित किया जाता है और उन्हें खीर-पुड़ी खिलाई जाती है । ऐसा समझा जाता है कि कौए के माध्यम से पितरों को ही भोजन पहुंचता है । घर की मुंडेर पर कौए का बैठना यह संकेत देता है कि यह किसी के आगमन की सूचना है । इसे भय और अनिष्ट के रूप में मानते हुए गलत जानकारी देकर बला टालने की कोशिश की जाती है । वहीं आंगतुक की राह भी देखी जाती है । प्राचीन कथाआे से लेकर आधुनिक कथाआे, फिल्मों में भी कौए को लेकर संवाद या गीत प्रस्तुत किए जाते रहे हैं । कौए की उपस्थिति हमारे समाज में सदा से रही है । यह भी गौर करने लायक है कि कौए जैसा स्थान किसी अन्य पक्षी को नहीं मिल पाया है । कौआ दिखने में काला होता है, इसकी आवाज कर्कश होती है, फिर भी इसका जिक्र हमेशा होता है । कौए की तेज नजरों के तो जासूस भी कायल होते हैं । कौआे के देखने की शैली अजीब होती है । मगर वह सतर्क होता है । जमीन पर पड़ी खाद्य सामग्री हो या कीड़े, वह तुरंत देख लेता है और चतुराई से उसे उठा लेता है। आश्चर्य इस बात का है कि समाज में इस कदर रच बस गए इस पक्षी की संख्या निरंतर घटती जा रही है । श्राद्ध पक्ष में अब कौआे को खोजना पड़ता है। पहले स्थिति यह थी कि आवाज लगाते ही कौआे का झुण्ड आ जाया करता था, अब श्राद्ध पक्ष तो ठीक सामन्य दिनों में भी कौए नहीं दिखते हैं । कौआे की घटती संख्या प्राकृतिक असंतुलन को तो दर्शाता ही है, मानवीय असंवेदनशीलता को भी स्पष्ट करती है । कौआ मनुष्य के लिए कभी हानिकारक नहीं रहा है, मगर मनुष्य की विकासशील सोच के आगे कौआ हार रहा है । जरूरत इस बात की है कि कौए जैसे कम होते जा रहे प्राणियों की रक्षा की जाए और मानव को संवेदनशील बनाया जाए । यदि ऐसा होता है तभी कौआे की कांव-कांव सुनाई देती रहेगी ।

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