संकट में हैं जीवनदायिनी नदियां
सनत मेहता
नदियों को जीवनदायिनी संबोधन देने वाले प्रख्यात साहित्यकार काका कालेलकर ने अपने लेखन में देश की नदियों को लोकमाता के रूप में रेखांकित कर भारतवर्ष की पौराणिक संस्कृति को उजागर किया है । इतिहास गवाह है कि हजारों साल पहले यहां आवासीय व्यवस्था का श्रीगणेश नदियों के किनारे से ही हुआ। यही कारण है कि हड़प्पा के दौरान विकसित संस्कृति को आज सिंधु संस्कृति के रूप में विश्वभर में जाना जाता है । विदेशी विद्वानों ने सिंधु संस्कृति को `इन्डस सिविलाइजेशन' कहा है । गंगा सनातन संस्कृति में मोक्षदायिनी मानी जाती है । गंगा की महत्ता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि मरणासन्न व्यक्ति के मुख में गंगाजल की बूंदें न डाली जाएं तो माना जाता है कि मरणोपरांत उसकी आत्मा को शांति नहीं मिलेगी । बहरहाल, भारत ने औद्योगिक क्रांति के बल पर विकास की बुलंदी तो हासिल कर ली परंतु इस उपलब्धि से निकले प्रदूषण नामक जिन्न ने जीवनदायिनी नदियों की स्वच्छता को नष्ट कर दिया । दूसरे शब्दों में मौजूदा सुख सुविधाएं व विकास देश को नदियों की स्वच्छता सुंदरता की कीमत पर प्राप्त् हुआ है । इस विकास के दुष्परिणाम भी नए-नए रूप में सामने आ रहे हैं । शहरी जीवन की चमक से अभिभूत होकर ग्रामीण शहरों का रूख कर रहे हैं, जिससे शहरों पर दबाव दिनोदिन बढ़ता जा रहा है । प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से यह दबाव जीवनदायिनी नदियों पर ही पड़ रहा है । अत्यधिक प्रदूषित होने की वजह से अब जीवनदायिनी नदियां अपनी संतानों की रक्षा करना तो दूर स्वयं का अस्तित्व भी बचाने में लाचार नजर आ रही हैं । पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने अपने कार्यकाल के दौरान मोक्षदायिनी गंगा को गंदगी से मुक्त करने हेतु बड़े जोर-जोर से विदेशी सहायता लेकर अभियान चलाया था । अभियान कमोबेश शुरू हुआ और समाप्त् भी हो गया परंतु आज भी गंगा मैया का अशीर्वाद लेने जाने वाले किसी भी भक्त को शायद ही शुद्धता का आभास होता हो । कहने का अर्थ है कि स्थिति में कोई सुधार नहीं हुआ, उलटे हालात दिनोदिन चिंतनीय होते जा रहे है। गंगोत्री की स्वच्छ तरल गंगा का नीर काशी पहुंचते-पहुंचते मलिन हो जाता है । देश में अनेक स्तरों पर नदियों के शुद्धिकरण के लिए आज तक करोड़ों रूपए खर्च हो चुके है । क्रियान्वयन की ठोस योजना के अभाव में उक्त प्रयासों के अपेक्षित परिणाम हासिल नहीं हुए, बल्कि यदि तीन काम सही होते हैं तो अन्य तेरह बिगड़ जाते है। एक अन्य बड़ा अवरोध सरकार व अलग-अलग संगठनों का नदियों की सफाई के काम में असंतुलित तालमेल है। इससे नदियों की सफाई की ठोस योजना को अमलीजामा पहनाना असंभव ही हो जाता है । उदाहरण के लिए यमुना को ही लें तो इस नदी के किनारे हमारी राजधानी है । दिल्ली नगरपालिका, दिल्ली सरकार ही नहीं परतु खुद भारत सरकार और देश के शासन की बागडोर संभालने वाली संसद भी दिल्ली में ही बैठती है । फिर भी यमुना किस हद तक प्रदूषित हो चुकी है, इसका अंदाजा एक प्रमुख पर्यावरण संस्था के उस बयान से लगाया जा सकता है जिसमें उसने कहा कि `यमुना नदी मर चुकी है, सिर्फ आधिकारिक घोषणा ही बाकी है । गंगा, यमुना, सरस्वती की ऐसी हालत ? यमुना के शुद्धिकरण के पीछे आज तक दो हजार करोड़ रूपए खर्च हो चुके हैं । यमुना के शुद्धिकरण हेतु सत्रह शुद्धिकरण प्लांट कार्य कर रहे हैं । इस पर भी१९९३ से २००३ के दशक में यमुना का प्रदूषण घटने के बजाय बढ़कर दोगुना हो गया । वजह है सत्रह में से ग्यारह प्लांटों के अपनी क्षमता से कम में काम करना । दिल्ली की गटर व्यवस्था पर डेढ़ करोड़ की आबादी का मल-मूत्र आदि ढोने का भार है परंतु इसकी क्षमता मात्र ५५ प्रतिशत गंदा पानी ही वहन करने की है । खैर, यह मान भी लें कि दिल्ली के सभी सत्रह प्लांट पूरी क्षमता से कार्यरत हो जाते हैं फिर भी समस्या का हल नहीं निकलेगा, क्योंकि गटर कनेक्शन के बिना लगभग १५०० क्षेत्रों का पानी सीधा यमुना में ही जाएगा । इस मुद्दे पर विशेषज्ञों का मत है कि मौजूदा समय में नदियां जनता व उद्योगों द्वारा छोड़े जाने वाले गंदे पानी से प्रदूषित होती हैं । गंदा पानी छोड़े जाने का दैनिक औसत करीब ३०० करोड़ लीटर है । इसे नदी समा नहीं पाती है । फलत: नदियों के गंदे पानी को इंटरनेट पर उपलब्ध पृथ्वी के नक्शे पर देखा जा सकता है । राष्ट्रीय स्तर पर देखें तो देश की शहरी आबादी ८० प्रतिशत गंदा पानी नदियों में छोड़ती है, जिससे अधिकांश नदियों में प्रदूषण का स्तर सामान्य से कई गुना बढ़ गया है । नदियों की इस स्थिति से देश की अर्थव्यवस्था पर पड़ने वाला बोझ मामूली नहीं है । जानकारों का तो यहा तक कहना है कि देश में अधिकांश जलजन्य रोग नदियों में बढ़ रहे प्रदूषण के कारण ही हो रहे हैं । कुल मिलाकर नदियों के प्रदूषित होने की वजह से भारत को सकल घरेलू उत्पाद के लगभग चार प्रतिशत जितनी धनराशि का घाटा उठाना पड़ता है । स्वतंत्रता दिवस के राष्ट्रीय संबोधन में स्वयं प्रधानमंत्री ने इस स्थिति को राष्ट्रीय शर्म की संज्ञा दी थी । राजनेता व शासनाधीश इस हकीकत को सामने रखते ही तपाक से जवाब देते हैं कि विशेषज्ञों की सलाह के अनुसार सीवेज ट्रीटमेंट व्यवस्था सुनिश्चित की जा रही है लेकिन दिल्ली में ग्रामीण इलाकों से रोजाना पंहुचने वालों की ओर ध्यान देने की जहमत कोई नहीं उठाता है । कहने का तात्पर्य है कि समस्या के समाधान हेतु विशेषज्ञों की सलाह के साथ-साथ कार्य योजनाआे के क्रियान्वयन के लिए जिम्मेदार संस्थाआे में तालमेल सुनिश्चित करने की जरूरत है । इसके अभाव में यही पता नहीं लगेगा कि गलती किसने की है और समस्या विकराल रूप धारण करती जाएगी । नुकसान होने पर जिम्मेदार संस्थाएं एक दूसरे को दोषी ठहराती रहेंगी । वैसे भी किसी एक कार्य क्षेत्र की संस्थाआे में सबसे तेज होड़ एक-दूसरे से अधिक अनुदान प्राप्त् करने की होती है, जिससे काम प्रभावित होता है । माना कि यदि यह काम होता है, इसका बोझ न तो नागरिक कर के रूप में उठाने को तैयार होंगे, न तंत्रवाहक इतनी बड़ी धनराशि बिना शर्त देंगे । कमोबेश राजनीतिक इच्छाशक्ति का अभाव रही सही संभावनाआे पर भी पानी फेर देगा । दूसरे अर्थ में जीवनदायिनी नदियों में हिमायल से आने वाला निर्मल जल प्रदूषित होता रहेगा । समय रहते इसका निदान नहीं किया गया तो वह दिन दूर नहीं जब आगामी मार्च में जल दिवस पर प्रधानमंत्री, वैज्ञानिकों एवं तकनीकी सलाहकारों व इंजीनियरों को हम और जनता से कोई न कोई अपील करते दिखेंगे । संक्षेप में काका कालेलकर ने जिन नदियों को जीवनदायिनी (लोकमाता भी) के विशेषण से नवाजा, उन्हें स्वच्छ करने में हम बहुत देर कर चुके हैं ।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें