शनिवार, 15 दिसंबर 2007

८ कृषि जगत

कृषि : भारतीय संस्कृति का पर्याय
जी.के. मेनन
कृषि भारतीय संस्कृति की आत्मा है । भारत में कृषि को लेकर जो नैराष्य विद्यमान है उससे भारत स्वमेव आत्माहीन होता जा रहा है । आज की सबसे बड़ी आवश्यकता कृषि को न केवल पुर्नस्थापित करने की है बल्कि उसे सम्मान प्रदान करने की भी है । हमारा देश कई मामलों में अनूठा है । यह एक सर्वज्ञात बात है कि भारत एक प्राचीनतम देश है परंतु प्रकृति ने जिस उदारता और करूणा से इसकी रचना की है वह उल्लेखनीय है । भारत में मौसम की सम्यकता अद्वितीय है । सर्दी, गर्मी और बरसात के चार-चार माह के तीन मौसम, दो-दो महीनों की छ: ऋतुएं, इसी सम्यकता का जीता-जागता प्रमाण हैं । हमारे देश में सर्वाधिक वर्षा का क्षेत्र चेरापूंजी भी है और वहीं दूसरी ओर मरूभूमि भी अपनी सुंदरता से प्रकृतिप्रेमियों की लुभाती है । बर्फ की सफेद चादरों से ढका हिमालय है तो हरियाली से आच्छादित कई पर्वत श्रृंखलाएं नयनों को आनंद देने के लिए सदियों से खड़ी हैं । कन्याकुमारी के समुद्रीतट से लेकर हिमालय तथा अरब की खाड़ी से बंगाल के सुंदरवन के डेल्टा तक जैव विविधता की अनूठी संपदा से संपन्न विशाल क्षेत्र के क्षेत्रफल का मात्र २.४ प्रतिशत भू-भाग भारत के पास है परंतु वैश्विक जैव और वानस्पतिक विविधता में भारत की भागीदारी ८ प्रतिशत है । पर्वत श्रृंखलाएं अनेक तरह की झीलें, रेगिस्तान, वर्षावन, उष्णकटिबंधीय वन, डेल्टा, घास के मैदान, बर्फ की चोटियां, कलकल बहती छोटी, मध्यम और बड़ी हजारों नदियां, प्रवाल की खूबसूरत चट्टानें और विशाल लंबा समुद्र तट हमारे देश में है । इसी तरह राजस्थान में रेतीला रेगिस्तान है और लेह में बर्फीला रेगिस्तान अपनी अनूठी छटा बिखेरता है । केरल में सघन वर्षावन (साइलेंट वेली सहित) हैं तो अरूणाचल में दुर्गम गहन वन हैं जो दुर्लभ वन्य जीवों और वनस्पतियों की धरोहर को संजोए हुए हैं। भारत में सूक्ष्म और अति सूक्ष्म जीव-जंतुआे की इतनी प्रजातियां हैं कि अभी तक इनकी पूरी खोज और पहचान तक नहीं की जा सकी है । दुनिया में जैव विविधता के चिन्हित अठारह स्थलों में से दो भारत में है - वेस्टर्न घाट ओर इस्टर्न हिमालय । हमारे यहां वनस्पतियों की सैंतालीस हजार से भी ज्यादा प्रजातियां हैं तो जंतुआे की ८९ हजार से भी अधिक प्रजातियों की पहचान की जा चुकी है । कई सूक्ष्म और अति सूक्ष्म जीव-जंतु जमीन के नीचे रह कर धरती को पौष्टिक और ह्यूमस युक्त बनाने में अपना जीवनदान भी देते हैं । ऐसी अनुपम प्राकृतिक संपदा समूचे विश्व में अन्य किसी देश के पास नहीं है । इसी तारतम्य में यह बताना समीचीन होगा कि जो परंपराएं रीति-रिवाज या मान्यताएं हमारी सांस्कृतिक धरोहर के रूप में पीढ़ियों को हस्तांतरित होती रही हैं वे एक के बाद एक वैज्ञानिक रूप से निरंतर सत्यापित भी हो रही हैं । दृष्टा ऋषि मुनियों द्वारा प्रतिपादित भारतीय जीव पद्धति न केवल मानव जाति बल्कि प्राणी मात्र को सर्वांगीण रूप से स्वस्थ और निश्चित रखने वाली वैज्ञानिक जीवन पद्धति है । ग्रामीण अर्थव्यवस्था ओर गो -आधारित कृषि भविष्य में एक सुदृढ़ और सुनिश्चित सुखकारक अर्थव्यवस्था सिद्ध होगी, यह एक सहज भविष्य कथन है। धरती और मिट्टी की उर्वरा शक्ति के साथ परस्पर समन्वय वाली जैविक खाद ने किसानों के मन में तेजी से विश्वास अर्जित कर इसके संकेत दे दिए हैं । रासायनिक खाद के घातक प्रयोगों ने न केवल धरती की उर्वरता पर नकारात्मक प्रभाव डाले हैं वरन् किसानों के स्वास्थ्य, समृद्धता और परिश्रमशीलता पर भी वज्राघात कर उन्हें आत्महत्या की ओर ढकेला है । धीरे-धीरे जैविक खाद की सार्थकता और सफलता के प्रति जागृति का जयघोष सर्वत्र विस्तारित हो रहा है । हमारी कृषि वनस्पतियों की संपदा तो चकित कर देने वाली हैं । १६७ फसल प्रजाति और ३५० वन प्रजातियां हैं । चावल की प्रजाति की तीस हजार से पचास हजार किस्में है, वहीं ज्वार- बाजरे की पांच हजार से ज्यादा हैं, और तो और कालीमिर्च जैसी औषधीय वनस्पति की पाँच सौ से अधिक किस्में यहां मिलती हैं । इसी तरह से गो-विद्या, मधु विद्या, पक्षी विद्या, सर्प - विद्या , जल -विद्या, परिवहन विद्या ,वन विविद्या और भू-विद्या संबंधी जीवजंतुआे की संख्या भी अनगिनत हैं । पशुआे में गाय की ही सैकड़ों किस्में हैं, जिनमें से ३० किस्मों को राष्ट्रीय किस्मों की श्रेणी में भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद ने उल्लेख किया है । हमारी कृषि व्यवस्था में जो जैव- विविधता पीढ़ी दर पीढ़ी चली आ रही थी, अब कृषि प्रजातियों के साथ आनुवांशिक छेड़छाड़ से उसके लिए नया खतरा उत्पन्न हो गया है । ज्यादा उत्पादन और जल्दी पैसा कमाने के लोभ में किसान फसलों की हायब्रिड और जीन संवर्धित बायो टेक्नालाजी आधारित किस्मों का उपयोग ज्यादा करने लगे हैं । इन किस्मों को ज्यादा रासायनिक उर्वरकों , कीटनाशकों, जल और ऊर्जा तथा मशीनीकरण की आवश्यकता होती है, जो अक्सर विदेशों से आयात होती है या देश में स्थित विदेशी कंपनियों से या देशी बहुराष्ट्रीय कंपनियों द्वारा ही उत्पादित हैं । भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद या प्रादेशिक कृषि गोपालन विश्वविद्यालयों में भारतीय कृषि या गोपालन पर बहुत कम या नहीं के बराबर ही अनुसंधान , शिक्षा या प्रचार-प्रसार होता है । दुर्भाग्यवश इन अध्ययनशालाआे और अनुसंधानशालाआे ने विदेशी पाठ्यक्रम को ही अपनाया है । अधिकांश यूरोपीय और अमेरिकी देशों में कृषि भूमि अधिक है और खेती करने वाले किसान कम है, इसलिए मशीनीकरण वहां आवश्यक है। लेकिन हमारे देश में ६० प्रतिशत से अधिक छोटे या सीमांत किसान हैं जिनके पास दो हेक्टेयर से कम कृषि भूमि है और मात्र २-३ पशुधन है । हमें यह सदैव याद रखना होगा कि भारतीय कृषि विदेशी परिभाषा की मोहताज नहीं है , यह हमारी जीवन शैली है । पर्यावरण रक्षा के साथ मानव और पशु शक्ति, पारंपरिक नवीनीकृत ऊर्जा , ब्रह्माण्ड एवं आकाशीय शक्ति सभी प्रकार के जीवांश के पुन: चक्रीकरण के माध्यम से मृदा-संरक्षण और जल पुनर्भरण आदि हमारे प्राचीन कृषि- गोपालन व्यवसाय के अनिवार्य अंग थे । इसलिए १०००० वर्षों तक कृषि करने के बाद भी हमारी धरती शक्तिहीन और बंजर नहीं हुई, आज भी जीवित है । कृषि, गोपालन, फलोद्यान , ग्रामोद्योग, जल संरक्षण व जल पुनर्भरण , ये सब हमारे आत्म निर्भर स्वावलंबी , कृषि उद्योग के अंग हैं । मधुमक्खी पालन, तेलघानी, आटाचक्की, पानी चड़स , चर्खा, बुनाई, गुड़ बनाना, बांस की टोकरी, सुपड़ा आदि तथा रस्सी, चप्पल, जूता, मटका, इंर्ट, लोहारी, सुतारी, सुनारी उद्योग हमारे हर गांव या कस्बे में हुआ करते थे, जो आज तथाकथित विकास की जद़्दोजहद में बंद हो गए हैं । इसलिए गांवों में बेरोजगार ज्यादा हो गए हैं । याद रखिए ! भारत भूमण्डलीकरण की बात करने वाला सबसे पहला देश है। वैदिक काल से ही हम सर्वे भवन्तु सुखिन:, वसुधैव कुटुम्बकम् और सबै भूमि गोपाल की का आनंद घोष करते रहे हैं । इन पावन नारों मंे मातृत्व, मित्रत्व, भातृत्व और वात्सल्य का भाव रहा है । जबकि आज भूमण्डलीकरण की आड़ में कुटिलतापूर्वक अपने व्यापारिक हितों की पूर्ति हेतु विकासशील देशों के लोगों को बकायदा ठगा जा रहा है । इस बात को जानते हुए भी हम स्वयं को, अपनी संस्कृति को, अपने देश की अखण्डता को , विदेशी व्यापारियों के हाथों में सौंपते चले जा रहे हैं । यह जान लेना चाहिए कि अब जो परतंत्रता आएगी वह कालजयी होगी क्योंकि किसी मंगल पांडे को यह पता नहीं चलेगा कि उसकी संस्कृति के साथ खिलवाड़ हो रहा है । यदि ग्रामीण संस्कृति को पुनर्जीवित नहीं किया गया और गांवों के बेरोजगारों का शहर - पलायन नहीं रोका गया तो वह दिन दूर नहीं जब हम फिर से पूरी तरह (आर्थिक सांस्कृतिक, सामाजिक, भौगोलिक आदि) गुलाम हो जाएेंगें । गांव आधारित उद्योग - धंधों को नई वैज्ञानिक तकनीकी के साथ पुन: जीवित करें ताकि हर गांव संपन्न और स्वावलंबी हो । भारतीय कृषि व गोपालन का सशक्तिकरण आज की आवश्यकता है इसे नजर अंदाज करना भविष्य के लिये आत्मघाती होगा ।

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