शनिवार, 15 दिसंबर 2007

आवरण




संपादकीय

एक लाख करोड़ खर्च के बाद भी सिंचित क्षेत्र में कमी
केन्द्रीय कृषि मंत्रालय की रिपोर्ट के अनुसार सन् १९९१-९२ से २००३-०४ तक नहरों से शुद्ध सिंचित इलाकों में कोई बढ़ोत्तरी नहीं हुई हैं । जबकि इस अवधि में देश ने नहर आधारित सिंचित इलाकों में बढ़ोत्तरी के उद्देश्य से बड़ी व मध्यम सिंचाई परियोजनाआे में रूपये ९९६१० करोड़ व्यय किये हैं । इस पूरे व्यय से पिछले १२ सालों में देश के बड़े बांधों की नहरों द्वारा शुद्ध सिंचित इलाके में एक भी एकड़ की बढ़ोत्तरी नहीं हुई है । यह बहुत गंभीर चिंता का कारण होना चाहिए । सन् १९९१-९२ में पूरे देश में नहर द्वारा शुद्ध सिंचित इलाका १७७.९ लाख हेक्टेयर था । उसके बाद २००३-०४ तक जिसके आंकड़े मौजूद हैं के सभी सालों में नहरों द्वारा शुद्ध सिंचित इलाका १७७.९ लाख हेक्टेयर से कम रहा है यानि वह लगातार कम हो रहा है । जल संसाधन मंत्रालय ने ११वीं योजना में प्रस्ताव किया है कि बड़ी एवं मध्यम सिंचाई परियोजनाआे के लिए १६५९०० करोड़ रूपयों का आवंटन किया जाये । अब तक उपलब्ध तथ्य दिखाते हैं कि इससे सार्वजनिक धन की पूरी तरह बर्बादी ही होगी । सिंचित क्षेत्र में कमी के अनेक कारण है । विश्व बैंक की २००५ की रिपोर्ट `इंडियाज वाटर इकॉनामी : ब्रैसिंग फॉर ए ट्रबूलेंट फ्यूचर' यह दिखाती है कि भारत के सिंचाई ढांचों के रख-रखाव के लिए सालाना वित्तीय आवश्यकता १७००० करोड़ रूपयों की है लेकिन इस हेतु आवश्यकता से १० प्रतिशत से भी कम राशि उपलब्ध होती है एवं इनमें से ज्यादातर ढांचो के भौतिक रख-रखाव में इस्तेमाल नहीं होती है । इन आंकड़ों से साफ पता चलता है कि देश में प्रति वर्ष बड़ी सिंचाई परियोजनाआे पर व्यय होने वाले हजारों करोड़ की राशि से कोई अतिरिक्त सिंचित इलाका विकसित नहीं हो रहा है । सिंचित इलाके में वास्तविक बढ़ोत्तरी पूरी तरह भू-जल सिंचाई से हो रही है । वास्तव में ९९६१० करोड़ रू. के अफलदायी निवेश द्वारा सिंचाई में कोई बढ़ोत्तरी नहीं होना पिछले दशक में भारत की घटती कृषि विकास दर का प्रमुख कारण है । बताया जा रहा है कि त्वरित सिंचाई लाभ कार्यक्रम (ए.आई.बी.पी.) में अप्रैल १९९६ से मार्च २००४ तक व्यय किये गये १४६६९ करोड़ रू. से कोई अतिरिक्त सिंचित इलाका नहीं जुड़ा है । इस तरह जल संसाधन मंत्रालय का यह दावा कि उपरोक्त अवधि में ए.आई.बी.पी. से २६.६० लाख हेक्टेयर अतिरिक्त सिंचित इलाका जुड़ा है सही नहीं है । इससे जवाबदेही के कई मुद्दे उठते हैं एवं इसके लिए जल संसाधन मंत्रालय, योजना आयोग एवं राज्यों में जो जिम्मेदार अधिकारी हैं उनको ढेर सारे सवालों का जवाब जनता को देना होगा ।

प्रसंगवश

क्या इन्सान को अंतरिक्ष में भेजना ज़रूरी है ?
कई अंतरिक्ष वैज्ञानिक यह सवाल उठा रहे हैं कि क्या मानव को अंतरिक्ष में भेजकर हम कोई ऐसा ज्ञान प्राप्त् कर पाते हैं तो मानवरहित अभियानों से प्राप्त् नहीं किया जा सकता। अंतरिक्ष वैज्ञानिक फिलिप बॉल को लगता है कि मानवरहित अंतरिक्ष अभियानों से ऐसी कोई जानकारी नहीं मिलती जो तत्काल जरूरी हो या जिससे विज्ञान छलांग लगाने लगे । खासकर यह बात तब ज्यादा महत्वपूर्ण हो जाती है जब मानवरहित अंतरिक्ष अभियान के सस्ते विकल्प मौजूद हैं । जैसे हाल ही में युरोपियन स्पेस एजेंसी का फोटॉन-३ मिशन सफलतापूर्वक संपन्न हुआ। इस अभियान की खास बात यह थी कि युरोप के करीब ४५० छात्रों ने इसमें भाग लिया और कई महत्वपूर्ण प्रयोग किए गए । जैसे, इस अभियान के दौरान यह समझने के प्रयास किए गए कि अंतरिक्ष से बैक्टीरियानुमा जीव के पृथ्वी पर पहुंचने की कितनी संभावना है । वैसे इनमें से कोई भी प्रयोग ऐसा नहीं था जिससे विज्ञान में किसी नाटकीय प्रगति की अपेक्षा की जाए मगर मानवसहित अभियानों में भी तो यही स्थिति होती है । मानवसहित अंतरिक्ष अभियान कम से कम दस गुना महंगे होने के अलावा खतरों से भरे भी होते हैं । अंतत: अधिकांश वैज्ञानिक शोध धीमे-धीमे क्रमश: ही होता है और छात्रों का जुड़ाव फोटॉन-३ मिशन का अतिरिक्त लाभ था । फोटॉन-३ मिशन पूरी तरह यंत्रचालित था । अत: यह सवाल उठ रहा है कि जब यह संभव है तो मानव मिशन भेजे ही क्यों जाएं । जैसे यदि यह देखना है कि शून्य गुरूत्व की स्थिति में अंतरिक्ष यात्रियों की हडि्डयों की वृद्धि पर क्या असर पड़ता है, तो पहली बात तो यह है कि आप यह क्यों देखना चाहते हैं ? बताया जाता है कि इससे भविष्य में अंतरिक्ष यात्रियों को बेहतर तैयारी के साथ भेजा जा सकेगा । मगर यदि रोबोट्स वही काम कर देते हैं तो इन्सानों को वहां भेजना ही नहीं पड़ेगा । दूसरी बात यह है कि ऐसे ही अध्ययन जंतुआे के ऊतकों की मदद से भी किए जा सकते है । फोटॉन-३ मिशन में ऐसा एक प्रयोग किया भी गया है । दूसरी ओर, रॉयल एस्ट्रॉनॉमिकल सोसायटी ने अपनी रिपोर्ट में कहा है कि मानव अभियान बहुत जरूरी हैं क्योंकि इनसे हमें चिकित्सा संबंधी विशिष्ट जानकारी मिलती है । वैसे सोसायटी ने स्पष्ट नहीं किया है कि यह `विशिष्ट' जानकारी क्या है । लगता है मानवसहित अंतरिक्ष अभियानों का ग्मैलर ही उनकी शक्ति है ।

२ हमारा भूमण्डल

मनुष्य ने पेड़ों पर ही सीखा था चलना
प्रवीण कुमार
`मुर्गी पहले या अंडा' की तरह ही एक यह सवाल भी उठता रहा है कि मानव के पूर्वजों (चिम्पैंजी या ओरांगुटान) ने पेड़ पर रहने के दौरान ही दो पैरों पर चलना सीख लिया था या फिर जमीन पर उतरने के बाद उन्होंनेऐसा किया ? हाल ही में किए गए अध्ययन इस पहेली को सुलझाने का दावा करते हैं । उनके अनुसार पेड़ों पर रहने के दौरान ही हमारे पूर्वज दो पैरों पर चलने लगे थे । हालांकि इसके बाद भी वे लंबे अर्से तक पेड़ों को नहीं छोड़ पाए । बाद में जलवायु परिवर्तन की वजह से उन्हें धरती पर उतरना पड़ा । बर्मिगहैम विश्वविद्यालय (ब्रिटेन) से सुज़ाना थोर्प और उनके साथियों ने सुमात्रा (इंडोनेशिया) के गुनुंग लेंसर नेशनल पार्क में एक साल के दौरान ओरांगुटान पर करीब ३,००० अवलोकन किए । इसमें उन्होंने पाया कि जब वे पेड़ की सबसे पतली शाखा (४ से.मी. से कम व्यास वाली) पर होते हैं तो अपने पिछले पैरों पर चलने का प्रयास करते हैं। इस समय उनके हाथ उनका मार्गदर्शन करते हैं । मध्यम गोलाई वाली शाखा (४ से २० से.मी. के बीच व्यास वाली) पर वे दो पैरों पर चलने को प्रवृत्त होते हैं, लेकिन शाखाआें से लटकने व झूलने के दौरान शरीर के वज़न को संभालने में वे हाथों का इस्तेमाल करते हैं । मात्र २० से.मी. से मोटी शाखाआे पर ही वे चारों पैरों से चलते हैं । सुश्री थोर्प कहती हैं कि पतली शाखाआे पर चलने की क्षमता फलों तक उनकी पहुंच को आसान बना देती है । यह क्षमता उन्हें एक पेड़ से दूसरे पेड़ तक छलांग लगाने में भी सहायता करती हैं क्योंकि ऐसा करने के लिए उन्हें शाखाआे के पतले हिस्सों के जरिए ही जाना पड़ता है । ग्रेट एप्स, जैसे चिम्पैंजी, बोनोबो, गोरिल्ला, ओरांगुटान और गिब्बन में से केवलओरांगुटान ही ऐसे हैं जो अब भी पेड़ों पर ही रहते हैं । इससे वे हमारे पूर्वज बंदरों पर पड़ने वाले विभिन्न दबावों को समझने के लिए बेहतर मॉडल है । हालांकि अनुवांशिक रूप से देखा जाए तो ओरांगुटान हमारे पूर्वज बंदरों में सबसे दूर के `रिश्तेदार' हैं, जबकि सबसे निकट के रिश्तेदार चिम्पैंजी माने जाते हैं । करीब ६० लाख साल पहले बोनोबो और चिम्पैंजी से अलग होकर मनुष्य का विकास होना शुरू हुआ था, जबकि ओरांगुटान से तो मानव काफी पहले यानी करीब एक करोड़ साल पहले ही अलग हो गया था, इसक बावजूद ओरांगुटान की चाल हम मनुष्यों की चाल से काफी निकट है । वे सीधे होकर चलते हैं, जबकि चिम्पैंजी घुटनों व धड़ को झुकाकर चलते हैं । इससे लगता है कि जब मनुष्य के आदिम पूर्वजों ने जंगल छोड़ा होगा तो उसे ओरांगुटान के इसी कौशल का लाभ मिला होगा । इसे दूसरे शब्दों में यों भी कहा जा सकता है कि धरती पर उतरने से पहले ही आदिम पूर्वजों ने पेड़ों पर ही दो पैरों पर चलना सीख लिया था । जब मायोसीन काल (२.४ करोड़ से ५० लाख साल पहले) में जलवायु में परिवर्तन से जंगलों का घनत्व कम होना शुरू हुआ, तो चिपैंजी व गोरिल्ला एक पेड़ से दूसरे पेड़ तक घुटनों के बल जाने लगे, जबकि अन्य मानव पूर्वज छोटे पेड़ों व धरती पर पड़े फलों को बीनने के लिए दो पैरों का इस्तेमाल कर चलने लगे । लंदन स्थित नेचुरल हिस्ट्री म्यूजियम में जीवाश्म विशेषज्ञ क्रिस स्ट्रिंगर कहते हैं कि थोर्पे का यह विचार नया तो नहीं है, लेकिय यह मानव के दो पैरों पर खड़ा होकर चलने संबंधी विकास यात्रा को समझने में महत्वपूर्ण है । शुरूआती मानव के जीवाश्म बहुत कम मिलते हैं, लेकिन दोपाएपन के विकास संबंधी हालिया विचार की पुष्टि वर्ष १९९२ में अदिस अबासा (इथियोपिया) के पास स्थित एक गांव अरामिस में प्राप्त् होमिनिड या मनुष्य सदृश जीवाश्म से होती है । इसे ऑस्ट्रेलोपेथिकस रैमिडस नाम दिया गया था । यह जीवाम चिम्पैंजी के काफी करीब है । इस प्रकार का जीवाश्म इससे पहले कभी प्राप्त् नहीं किया जा सका था । इसके छोटे कपाल और कृदंत (कैनाइन) के आकार से साफ हो जाता है कि यह प्रजाति बंदर से पहले ही अलग हो गई थी और उसका मानव के रूप में विकास होना ही प्रारंभ हो चुका था । यह जीवाश्म जिस तरह से लकड़ियों के बीच मिला है, उससे भी सिद्ध हो जाता है कि मानव के दूरस्थ पूर्वज जंगल छोड़ने से पहले से ही दो पैरों पर चलने लगे थे । ऑस्ट्रेलोपेथिकस रैमिडस की अनुमानित आयु ४४ लाख साल आंकी गई है, यानी ल्यूसी या आस्ट्रेलोपेथिकस अफारेन्सिस से भी ८ लाख साल पुराना । यह जीवाश्म वर्ष १९७४ में इथियोपिया के अफार व हादर क्षेत्र में पाया गया था। इसे ल्यूसी नाम बीटल्स के गीत ल्यूसी इन दी स्काय विद डायमंड्स से दिया गया था । यह एक मादा का जीवाश्म था । उसके कमर के घेरे से ही पता चलता था कि वह पूरी तरह से दौ पैरों पर चलने वाली प्रजाति का जीवाश्म था । उसके अंदरूनी कान की अर्द्ध वृत्ताकार नलियों से स्पष्ट था कि ल्यूसी ने उछलने व चलने जैसे जटिल कार्य की बजाय ऊपर चढ़ने का काम ज्यादा किया होगा । कान की अर्द्ध वृत्ताकार नलियां दो पैरों पर चलने के दौरान संतुलन बनाए रखने में अहम भूमिका निभाती हे ।दो पैरों पर चलने के लाभ :- चलने में चारों पैरों का इस्तेमाल करने से गति बढ़ जाती है, लेकिन यह भी तय है कि दो पैरों की गति का अपना विशेष महत्व होगा, अन्यथा चार पैरों से दो पैरों में स्वाभाविक प्राकृतिक बदलाव नहीं होता । दो पैरों पर चलने से शरीर के कद में बढ़ोत्तरी हुई । ऊंचेकद से खतरे को दूर से भी देखा जा सकता है और इस प्रकार शत्रु से बचने के लिए अधिक समय मिल जाता है । यही नहीं, सीधे खड़े होकर चलने से शरीर का वजन सभी अंगो पर बराबर पड़ता है, यानी शरीर संतुलित रहता है । इस प्रकार बंदर से मनुष्य में परिवर्तन के क्रम में दौ पैरों की गति एक अहम पड़ाव था । गति संबंधी तीन परिवर्तनों हाथों के सहारे झूलना, आंशिक दोपाया चाल और घुटनों के बल चलने के साथ-साथ एक अहम बदलाव और आया । घ्राण शक्ति कम होती गई और देखने की क्षमता में इजाफा हुआ । यही नहीं, परिवर्तन की हर घटना के बाद मस्तिष्क का आकार भी बढ़ता गया । बंदर प्रजाति के मस्तिष्क का आकार ४०० घन से.मी. होता है जो आधुनिक मनुष्य में बढ़कर १५०० घन से.मी. हो गया है । जैसे-जैसे प्रारंभिक मनुष्य ने दिमाग का इस्तेमाल शुरू किया, उसके शरीर का आकार घटता गया, क्योंकि अब उसे बलिष्ठ शरीर की जरूरत कम पड़ने लगी थी । उसने अपने आसपास के उपादानोंजैसे औजारों व सामान ढोने वाले जानवरों का इस्तेमाल करना सीख लिया था । उसने शिकार करना, पशुआें को चराना और पशुआे के शवों का इस्तेमाल करना भी शुरू कर दिया था । आधुनिक मानव जिस जीनस होमो से संबंध रखता है, उसके जीवाश्मों से पता चलता है कि उसका मस्तिष्क व शरीर दोनों आकार में बड़े थे, लेकिन दांत छोटे थे। इससे साफ है कि होमो जीनस ऑस्ट्रेलोपेथिकस की तुलना में दांतों का इस्तेमाल कम करती थी, क्योंकि वह रेशेदार की बजाय पौष्टिक भोजन खाती थी । दो पैरों की चाल के विकास को प्रकृति से इसलिए भी समर्थन मिला क्योंकि इसमें ऊर्जा की खपत कम होती है । इसकी पुष्टि ट्रेडमिल अध्ययन से भी होती है जिसमें मनुष्य की दो पैरों की गति और चिम्पैंजी की घुटनों के बल चाल का अध्ययन किया गया । इसमें चिम्पैंजी को भी दो पैरों पर चलना सिखाया गया था। शोध पत्र के लेखकों में से एक डेविड राइच्लेन के अनुसार यह अध्ययन इस तथ्य का समर्थन करता है कि ऊर्जा की बचत ने दोपाया चाल के विकास में अहम भूमिका निभाई है । यह अध्ययन हाल ही में प्रोसीडिंग्स ऑफ द नेशनल एकेडमी ऑफ साइंसेस में प्रकाशित हुआ है । सीधे तनकर खड़े होने की मुद्रा की वजह से हाथ मुक्त हो गए जिनका इस्तेमाल फल एकत्र करने और छोटे बच्चें को संभालने में होने लगा । एकत्रित फलों में हिस्सेदारी से पारिवारिक जीवन और पारस्परिक संवाद की नींव पड़ी । कहते हैं इस संवाद से भाषा विकास में भी मदद मिली । ऐसा भी नहीं है कि यह सब कुछ वरदान ही साबित हुआ । तने हुए शरीर का पूरा वजन नीचे की ओर पड़ता है जिससे मेरूदंड की मुलायम डिस्क को नुकसान पहुंचता है । ये मुलायम डिस्क शॉक एब्जॉर्बर का काम करती हैं और भार को पूरे मेरूदंड पर संतुलित कर देती हैं । वृद्धावस्था में डिस्क में से पानी सूख जाता है और वे सख्त हो जाती हैं । ऐसी स्थिति में इन डिस्क पर असामान्य दबाव पड़ने पर वे टूट जाती हैं या उनमें बाहर की ओर उभार आ जाता है । इसी समस्या को आज हम `स्लिप्ड डिस्क' के नाम से जानते हैं । मानव निर्मित कोई भी स्प्रिंग मेरूदंड या रीढ़ की हड्डी से बेहतर काम नहीं कर सकती । जैसे-जैसे हम बूढ़े होते जाते हैं, वैसे-वैसे मेरूदंड के लचीलेपन में कमी आती जाती है । कंधे भी झुकते जाते हैं और इस प्रकार व्यक्ति का पूरा शरीर भी ढलता जाता है । यानी कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि स्वाभाविक प्राकृतिक लाभों ने `सुपर-बंदर' बनाने में भूमिका जरूर निभाई, लेकिन इसकी कीमत भी चुकानी पड़ी है ।

३ विशेष लेख

पर्यावरण और भारतीय दर्शन

डॉ. सुनील कुमार अग्रवाल

दर्शन का अर्थ अमूर्त का चिंतन करने का प्रयास है । जिसके द्वारा आत्मा, परमात्मा, प्रकृति और संपूर्ण जीवन के रहस्य को परिभाषित और उद्भाषित किया जाता है । दर्शन अनेकानेक जिज्ञासाएं जगाता है जैसे जीवन क्या है ? जीवन का हेतु क्या है ? संसार की प्रकृति क्या है? मनुष्य का इस संसार में अवतरण का उद्देश्य क्या है ? ईश्वरीय स्वरूप क्या है ? विकृति क्या है? जीवन-मृत्यु का रहस्य क्या है ? क्या इस दृश्यमान जगत से इतर कोई और लोक भी है ? यथार्थ क्या है? कल्पनाएं क्या है? पूर्नजन्म क्या है? कैसे रह पायेगी प्रकृति हमारी चिर संगनी ? कैसे संरक्षित और सुरक्षित रह सकेगा हमारा पर्यावरण ? इन्हीं तमाम जिज्ञासा मूलक प्रश्नों के गूढ़ार्थो पर चिंतन मनन करना और किसी निष्कर्ष पर ठहरना ही दर्शन है । सत्य से साक्षात्कार ही दर्शन है । सम्यक दृष्टि को पाना ही दर्शन है । संसार का प्रत्येक व्यक्ति अपने संचित अनुभवों के साथ सत्य को जानने का जिज्ञासु होता है । अत: सभी जन जन्मजात दार्शनिक ही होते है । आर.डब्ल्यू. सेलर्स नाम के विचारक ने दर्शन को वह प्रयास बतलाया है जिसके द्वारा हम अपनी प्रकृति के संबंध में क्रमबद्ध ज्ञान द्वारा सूक्ष्म दृष्टि प्राप्त् करने की चेष्टा करते है । सृष्टि मेंसूक्ष्मदर्शी से विशालकाय सभी जीवों में जीवन का अक्षिम मिलता है किंतु जीवन यापन की जीवन जीने की कला जानने वाला ही तो सच्च योगी होता है । वह जीवन को सुंदरतम, अक्षय एवं पर्यावरण तथा प्रकृति से प्रतिपालित अभिव्यक्ति देता है । वह प्रकृति के अन्तरण चेतन्य और प्रकृतिमान बर्हिरंग, दोनों ही रूपिकाआे में सत्य शिव सुन्दर होता है । वह यर्थाथ जीवी होता है । परमार्थ कर्म करता है । शुभाशुभ दोनों ही स्थितियों में सत्य बोलता है । धर्म का आचरण करता है । लोभ का संभरण करता है वह स्वयं को जानता है ब्रह्म को जानता है समस्त सृष्टि में ब्रह्म का दर्शन करता है । आत्म प्रकाशित ओर आत्म प्रभाषित रहता है । वहीं व्यक्ति दूसरों को जान सकता है जो स्वयं को जानता हो , अपनी प्रकृति और पर्यावरण को जानता हो । वह जिज्ञासु होता है तथा उसे अपनी क्षमताआे का ज्ञान होता है । उसे इस बात का भी अनुमान होता है कि वह क्या कुछ और जान सकता है। वह संभावनाशील होता है। वह महिमावंत होता है । वह जानता है कि उसके जीवन का हेतु क्या है, उसे क्या करना चाहिए, उसका पुरूषार्थ क्या है, उसका धर्म क्या है । वस्तुत: वह मर्मज्ञ प्रकृति योगी होता है वह अपने कंधोंपर मृत संवेदनाएं नहीं ढोता है वरन वह आशान्वित रहता है और आशा ही जगाता है । यथार्थ का दर्पण दिखाता है और आदर्श का रास्ता भी । वह भक्ति में विश्वास रखता है विभक्ति में नहीं । वह संघात में विश्वास रखता है आघात में नहीं । वह परमात्मा में अटल विश्वास रखता है । जो परमात्मा में श्रृद्धा रखता है वहीं परात्पर प्रकृति और पर्यावरण को संरक्षित रख सकता है और उसे परिबर्धित कर सकता है । वस्तुत: यही षड् दर्शन का मूल है किंतु हम मूलत्व को भूलकर आकाश कुसुम सजाना चाहते हैं और दूसरी ओर पर्यावरण घ्वंस में संलग्न है । हमें अपनी कुत्साआे को विराम देना ही होगा । प्रकृति को संजोना ही होगा। दर्शन का संबंध विज्ञान से घनिष्ठता का होता है । चूंकि विज्ञान हमें वास्तविकता से परिचित कराता है । यथार्थ का दर्पण दिखाता है । विज्ञान का आधार सुविकसित सुव्यवस्थित ज्ञान होता है जो सदैव प्रकृति और पर्यावरण की चेतना संजोता है । सत्य का संबंध वातावरण से होता है । वह विचारशीलता, विश्वास, रीतियों-नीतियों तथा मूल्यों पर आधारित होता है । पर्यावरण परिरक्षण में आदर्शवाद हमारे दार्शनिक चिंतन का प्रथम सहकार है क्योंकि आदर्शवाद की धारणा है कि भौतिक जगत की अपेक्षा आध्यात्मिक जगत (स्प्रिचुअल वर्ल्ड) अधिक उत्कृष्ट एवं महान है क्योंकि भौतिक जगत मृर्त्य है मरण धर्मा है नाशवान है नश्वर है असत्य है जबकि आध्यात्मिक जगत विचार भावों, आदर्शो, मूल्यों तथा नीतियों पर आधारित है । ज्ञान मन और आत्मा से अभिव्यक्त है। जब हम गहन चिंतन करते हैं तो विचार हमें यथार्थ का बोध कराते है हम यथार्थवादी हो जाते है यथार्थवाद (रीयलिज्म) पदार्थो वस्तुआे के अस्तित्व संबंधी दृष्टिकोण देता है । जो कुछ भी जगत में दृश्य है वही सत्य है कहता है । प्रायोजनवादी (प्रेगमेटिज्म) प्रगतिशीलता को प्रमुखता देता है और क्रियाआे एवं चेष्टाआे पर आधारित होता है । इन सबको सम्यक दृष्टि से दार्शनिक रस्क ने देखा है और अपना नवयथार्थवादी दृष्टिकोण दिया है - ``नव यथार्थवाद का उद्देश्य एक ऐसे दर्शन का प्रतिपादन है जो सामान्य जीवन के सत्य तथा भौतिक विज्ञान के निष्कर्ष के अनुकूल हो ।'' यहाँ इस चिंतन की चर्चा इसलिए की गई है कि पर्यावरण अनुकूलता ही जीवन के लिए नितांत जरूरी है । प्रकृतिवादी (नेचुरेलिस्टक) प्रकृति मनुष्य तथा पदार्थो में केवल प्रकृति को ही सर्वाधिक महत्वपूर्ण मानते है और प्रकृति की ओर लौटने का संदेश देते है । उनके अनुसार प्रकृति में गुरूतत्व होता है प्रकृति ही प्रथम शिक्षिका होती है । प्रकृति और पर्यावरण के कारक हमारी प्रवृत्तियों के विकास में सहायक होते हैं और वही सर्वाधिक प्रभावी भी होते है । हमारा जीवन इतना भौतिकतावादी हो गया है कि प्रकृति की ओर लौट पाना असम्भव प्रतीत होता है । रूसों ने प्रकृति की समीपता पाने पर जोर दिया है । आज आदमी कृत्रिम होकर रह गया है । यंत्रों के बीच काम करता हुआ स्वयं भी यांत्रिक होकर रह गया है । भौतिकतावादी हो गया है । रूसों ने अपनी पुस्तक ``एमील एण्ड एज्यूकेशन'' में सटीक टिप्पणी की है - ``प्रकृति के निर्माता के हाथों में सभी वस्तुएं अच्छे रूप में मिलती है, परन्तु मानव के सम्पर्क में आते ही वे सब दूषित हो जाती है।'' वास्तव में प्रकृति सत्य है शिव है सुन्दर है और महिमावंत है । यह हमारा पाप है कि हमने सौन्दर्यीपृक्त प्रकृति का चेहरा बिगाड़ा है उसमें अतिशय प्रदूषण कर डाला है । यदि दार्शनिक दृष्टि और आध्यात्मिक चिंतन से देखा जाये तो सम्पूर्ण विश्व ही वृहत परितंत्र है और मनुष्य इस तंत्र का एक घटक है साथ ही मनुष्य एक कारक भी है । यदि हमें अपने देह यंत्र को शक्ति सम्पन्न एवं महिमावंत रखना है तो दैहिक यंत्र को ब्रह्मांडीय यंत्र से तालमेल बनाये रखना होगा । गीता में भी कृष्ण ने स्वयं कहा है कि देह यंत्र में आरूढ़ हुए सम्पूर्ण प्राणियों की अर्न्तयामी परमात्मा अपनी माया से, उनके कर्मो के अनुसार भ्रमण कराता हुआ सब प्राणियों के हृदय में स्थित है । (गीता १८/६१) हमारा समग्र जीवन दर्शन प्रभु महिमा का प्रकाशक है । सामवेद में लिखा है -``अरण्योनिर्हितो जातवेदा: ।'' अर्थात सर्वज्ञ परमात्मा रूपी अग्नि, ज्ञान और भक्ति रूपी अरणियों में अथवा देहरूपी अधरारणि में रखा हुआ है। जैसे अरिणयों की रगड़ से अग्नि उत्पन्न होती है वैसे ही ज्ञान और भक्ति के संघात से प्रभु के दर्शन होते हैं । जब हम जीवन दर्शन की बात करते हैं तो कुछ भारतीय व्यक्तित्व हमारे मानस पटल पर स्वयं उभर आते हैं जिन्होंने भारतीय चिंतन की धारा को वैश्विक स्तर पर प्रवाहित किया और प्रकृतिएवं पर्यावरण को व्यापक अर्थवत्ता प्रदान की। महात्मा गांधी उनमें से एक हैं जो सदैव ईश्वरवादी रहे । उन्होंने आत्मा को परमात्मा का अंश मानते हुए राम-रहीम में अभेद दृष्टि का उद्भाष किया :- ``ईश्वर अल्लाह तेरो नाम, सबको सन्मति दे भगवान ।'' गाँधीजी ने ही कहा था कि ``प्रकृति पेट तो सबका भर सकती है किन्तु लालच किसी एक का भी पूरा नहीं कर सकती।'' उन्होंने सत्य अहिंसा प्रेम निर्भयता सजगता शालीनता सच्चिरत्रता और सत्याग्रह की शक्ति को पहचाना, यही था गाँधीजी का व्यवहारिक दर्शन जो सम्पूर्ण परिवेश के रक्षक रूप में आज भी प्रासंगिक है । महान कवि चिंतक विचारक रवीन्द्रनाथ टैगोर का जीवन दर्शन भी आदर्शवाद पर अवलम्बित रहा । सत्यम् शिवम् सुन्दरम् को प्रतिपादित करते हुए उन्होंने ईश्वर को सर्वोच्च् मानव के रूप में स्वीकार कर सृष्टि को ब्रह्म विवर्त अभिव्यक्ति के रूप में ग्रहण किया । उनका विश्वास अद्वैतवाद में अटल रहा । उन्होंने कहा कि हमें ईश्वर को खोजते हुए सत्य को वरण करने का प्रयास करना चाहिए । टैगोर ने सदैव मनुष्य और प्रकृति के बीच समन्वय की बात की, नैतिक मूल्यों को सर्वोपरि माना और राष्ट्रवाद को ऊपर माना। आध्यात्मिक चिंतक और विश्लेषक अरविन्द घोष भी आदर्शवादी थे उन्होंने अपने चिंतन में वेद-वेदान्त को पर्याप्त् महत्व दिया । उन्होंने विकास का लक्ष्य, अखण्ड चिन्मय दिव्य शक्ति और प्रकाश को माना । उन्होंने प्रकृति को संरक्षित, संस्कृति को वरणीय और विकृति को त्याज्य बतलाया । उन्होंने संशय व्यक्त किया कि भौतिक विकासवादी मानव कहीं अतिवादी होकर अपनी सहचरी प्रकृति को ही न झपटने लगे । उनका संशय सत्य सिद्ध हो रहा है यही हमारी चिंता और चिंतन का विषय है । स्वामी विवेकानंद ने जीवन को चुनौती के रूप में संघर्ष का पर्याय माना। उनके अनुसार संघर्ष में उत्तरजीवी ही विजयी होता है । समर्थ ही विजयी होता है । उन्होंने आदर्शात्मक स्थिति में रहते हुए वीरता का आव्हान किया और कहा -``याद रखें वीरता उसमें नहीं है कि हम किसको कितना डरा सकते है ।'' हमें इस बात का गर्व होना चाहिए कि ऐसे पग चिन्ह और पथरेख हमारे जीवन दर्शन की शाश्वत विभूतियों से हमें प्राप्त् हैं । फिर भी हम विनाश के बारूद के ढेर पर खड़े आक्रांत और भयाक्रांत है । इस डर का कारण हमारा अर्न्तमन है । इसी भयता को झटक कर हमें मंगलमयता का वरण करना है । सृष्टि का आदि धारक एवं भर्ता ऋत है, ऋतु चक्र है । जो नियति से निर्धारित है और वही हमारी चेतना को संपादित करता है । नियति का विधान ही भौतिक जगत को संचालित करता है और आध्याम्तिकता के मूल में स्थित परम् सत्य है । देखो ! प्रभु रचित काव्यमय सृष्टि नित्य नूतन और अक्षर जीती है ।``देवस्य पश्य काव्यं न ममार न जीर्यति ।'' इस जैव अजैव सोमित्र जगत की गहनतम दैहिक दैविक भौतिक माँग है उन्नयन और प्रगति । यही तो प्रकृति की परात्पर गति है । यदि इसमें हमारी सन्मति हो तो सब कुछ आदर्श स्थिति में रहे । प्रकृति और पर्यावरण भी अक्षुण्य रहे प्राकृतिक उपादान भी प्रफुल्लित रहे और चहुँओर आह्लाद का प्रेमास्पद पान रहे । चराचर जगत में जो गति, प्रगति, विकास, परिवर्तन नर्तन, और हलचल है वह सब जीवन का और जीवंतता का लक्षण है। हम सभी इसके साथ श्रेयसता से जुड़े रहे और परमात्म चैतन्य रहें ।

४ जल जगत

संकट में हैं जीवनदायिनी नदियां
सनत मेहता
नदियों को जीवनदायिनी संबोधन देने वाले प्रख्यात साहित्यकार काका कालेलकर ने अपने लेखन में देश की नदियों को लोकमाता के रूप में रेखांकित कर भारतवर्ष की पौराणिक संस्कृति को उजागर किया है । इतिहास गवाह है कि हजारों साल पहले यहां आवासीय व्यवस्था का श्रीगणेश नदियों के किनारे से ही हुआ। यही कारण है कि हड़प्पा के दौरान विकसित संस्कृति को आज सिंधु संस्कृति के रूप में विश्वभर में जाना जाता है । विदेशी विद्वानों ने सिंधु संस्कृति को `इन्डस सिविलाइजेशन' कहा है । गंगा सनातन संस्कृति में मोक्षदायिनी मानी जाती है । गंगा की महत्ता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि मरणासन्न व्यक्ति के मुख में गंगाजल की बूंदें न डाली जाएं तो माना जाता है कि मरणोपरांत उसकी आत्मा को शांति नहीं मिलेगी । बहरहाल, भारत ने औद्योगिक क्रांति के बल पर विकास की बुलंदी तो हासिल कर ली परंतु इस उपलब्धि से निकले प्रदूषण नामक जिन्न ने जीवनदायिनी नदियों की स्वच्छता को नष्ट कर दिया । दूसरे शब्दों में मौजूदा सुख सुविधाएं व विकास देश को नदियों की स्वच्छता सुंदरता की कीमत पर प्राप्त् हुआ है । इस विकास के दुष्परिणाम भी नए-नए रूप में सामने आ रहे हैं । शहरी जीवन की चमक से अभिभूत होकर ग्रामीण शहरों का रूख कर रहे हैं, जिससे शहरों पर दबाव दिनोदिन बढ़ता जा रहा है । प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से यह दबाव जीवनदायिनी नदियों पर ही पड़ रहा है । अत्यधिक प्रदूषित होने की वजह से अब जीवनदायिनी नदियां अपनी संतानों की रक्षा करना तो दूर स्वयं का अस्तित्व भी बचाने में लाचार नजर आ रही हैं । पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने अपने कार्यकाल के दौरान मोक्षदायिनी गंगा को गंदगी से मुक्त करने हेतु बड़े जोर-जोर से विदेशी सहायता लेकर अभियान चलाया था । अभियान कमोबेश शुरू हुआ और समाप्त् भी हो गया परंतु आज भी गंगा मैया का अशीर्वाद लेने जाने वाले किसी भी भक्त को शायद ही शुद्धता का आभास होता हो । कहने का अर्थ है कि स्थिति में कोई सुधार नहीं हुआ, उलटे हालात दिनोदिन चिंतनीय होते जा रहे है। गंगोत्री की स्वच्छ तरल गंगा का नीर काशी पहुंचते-पहुंचते मलिन हो जाता है । देश में अनेक स्तरों पर नदियों के शुद्धिकरण के लिए आज तक करोड़ों रूपए खर्च हो चुके है । क्रियान्वयन की ठोस योजना के अभाव में उक्त प्रयासों के अपेक्षित परिणाम हासिल नहीं हुए, बल्कि यदि तीन काम सही होते हैं तो अन्य तेरह बिगड़ जाते है। एक अन्य बड़ा अवरोध सरकार व अलग-अलग संगठनों का नदियों की सफाई के काम में असंतुलित तालमेल है। इससे नदियों की सफाई की ठोस योजना को अमलीजामा पहनाना असंभव ही हो जाता है । उदाहरण के लिए यमुना को ही लें तो इस नदी के किनारे हमारी राजधानी है । दिल्ली नगरपालिका, दिल्ली सरकार ही नहीं परतु खुद भारत सरकार और देश के शासन की बागडोर संभालने वाली संसद भी दिल्ली में ही बैठती है । फिर भी यमुना किस हद तक प्रदूषित हो चुकी है, इसका अंदाजा एक प्रमुख पर्यावरण संस्था के उस बयान से लगाया जा सकता है जिसमें उसने कहा कि `यमुना नदी मर चुकी है, सिर्फ आधिकारिक घोषणा ही बाकी है । गंगा, यमुना, सरस्वती की ऐसी हालत ? यमुना के शुद्धिकरण के पीछे आज तक दो हजार करोड़ रूपए खर्च हो चुके हैं । यमुना के शुद्धिकरण हेतु सत्रह शुद्धिकरण प्लांट कार्य कर रहे हैं । इस पर भी१९९३ से २००३ के दशक में यमुना का प्रदूषण घटने के बजाय बढ़कर दोगुना हो गया । वजह है सत्रह में से ग्यारह प्लांटों के अपनी क्षमता से कम में काम करना । दिल्ली की गटर व्यवस्था पर डेढ़ करोड़ की आबादी का मल-मूत्र आदि ढोने का भार है परंतु इसकी क्षमता मात्र ५५ प्रतिशत गंदा पानी ही वहन करने की है । खैर, यह मान भी लें कि दिल्ली के सभी सत्रह प्लांट पूरी क्षमता से कार्यरत हो जाते हैं फिर भी समस्या का हल नहीं निकलेगा, क्योंकि गटर कनेक्शन के बिना लगभग १५०० क्षेत्रों का पानी सीधा यमुना में ही जाएगा । इस मुद्दे पर विशेषज्ञों का मत है कि मौजूदा समय में नदियां जनता व उद्योगों द्वारा छोड़े जाने वाले गंदे पानी से प्रदूषित होती हैं । गंदा पानी छोड़े जाने का दैनिक औसत करीब ३०० करोड़ लीटर है । इसे नदी समा नहीं पाती है । फलत: नदियों के गंदे पानी को इंटरनेट पर उपलब्ध पृथ्वी के नक्शे पर देखा जा सकता है । राष्ट्रीय स्तर पर देखें तो देश की शहरी आबादी ८० प्रतिशत गंदा पानी नदियों में छोड़ती है, जिससे अधिकांश नदियों में प्रदूषण का स्तर सामान्य से कई गुना बढ़ गया है । नदियों की इस स्थिति से देश की अर्थव्यवस्था पर पड़ने वाला बोझ मामूली नहीं है । जानकारों का तो यहा तक कहना है कि देश में अधिकांश जलजन्य रोग नदियों में बढ़ रहे प्रदूषण के कारण ही हो रहे हैं । कुल मिलाकर नदियों के प्रदूषित होने की वजह से भारत को सकल घरेलू उत्पाद के लगभग चार प्रतिशत जितनी धनराशि का घाटा उठाना पड़ता है । स्वतंत्रता दिवस के राष्ट्रीय संबोधन में स्वयं प्रधानमंत्री ने इस स्थिति को राष्ट्रीय शर्म की संज्ञा दी थी । राजनेता व शासनाधीश इस हकीकत को सामने रखते ही तपाक से जवाब देते हैं कि विशेषज्ञों की सलाह के अनुसार सीवेज ट्रीटमेंट व्यवस्था सुनिश्चित की जा रही है लेकिन दिल्ली में ग्रामीण इलाकों से रोजाना पंहुचने वालों की ओर ध्यान देने की जहमत कोई नहीं उठाता है । कहने का तात्पर्य है कि समस्या के समाधान हेतु विशेषज्ञों की सलाह के साथ-साथ कार्य योजनाआे के क्रियान्वयन के लिए जिम्मेदार संस्थाआे में तालमेल सुनिश्चित करने की जरूरत है । इसके अभाव में यही पता नहीं लगेगा कि गलती किसने की है और समस्या विकराल रूप धारण करती जाएगी । नुकसान होने पर जिम्मेदार संस्थाएं एक दूसरे को दोषी ठहराती रहेंगी । वैसे भी किसी एक कार्य क्षेत्र की संस्थाआे में सबसे तेज होड़ एक-दूसरे से अधिक अनुदान प्राप्त् करने की होती है, जिससे काम प्रभावित होता है । माना कि यदि यह काम होता है, इसका बोझ न तो नागरिक कर के रूप में उठाने को तैयार होंगे, न तंत्रवाहक इतनी बड़ी धनराशि बिना शर्त देंगे । कमोबेश राजनीतिक इच्छाशक्ति का अभाव रही सही संभावनाआे पर भी पानी फेर देगा । दूसरे अर्थ में जीवनदायिनी नदियों में हिमायल से आने वाला निर्मल जल प्रदूषित होता रहेगा । समय रहते इसका निदान नहीं किया गया तो वह दिन दूर नहीं जब आगामी मार्च में जल दिवस पर प्रधानमंत्री, वैज्ञानिकों एवं तकनीकी सलाहकारों व इंजीनियरों को हम और जनता से कोई न कोई अपील करते दिखेंगे । संक्षेप में काका कालेलकर ने जिन नदियों को जीवनदायिनी (लोकमाता भी) के विशेषण से नवाजा, उन्हें स्वच्छ करने में हम बहुत देर कर चुके हैं ।

५ हमारा आसपास

दूर होती कौए की कांव-कांव
आशीष दशोत्तर
विकास के इस दौर में कई संदर्भ हमसे बिछुड़ते जा रहे हें । ये सन्दर्भ कभी प्रकृति के रूप में हमसे जुदा हो रहे हैं, कभी पर्यावरण के रूप में तो कभी पक्षियों के रूप में । हर नुकसान के लिए विकास की अनबूझी दौड़ जिम्मेदार है, मगर इस दौड़ को कम करने की कोशिश कहीं से नहीं हो रही है । अब पूरी दुनिया के लिए चिंताजनक बात यह है कि इस धरती से निरीह पक्षियों की कई प्रजातियां विलुप्त् होती जा रही हैं । विलुप्त् होती जा रही इन प्रजातियों को बचाने के लिए किए जा रहे सभी प्रयास फुस्सी साबित हो रहे हैं। पशु-पक्षी के अध्ययन में जुटे वैज्ञानिकों और संस्थाआे द्वारा समय-समय पर जो जानकारियां एकत्र की जा रही हैं, वह यह साबित करने के लिए काफी है कि विलुप्त् होती जा रही प्रजातियों को संरक्षित करने के लिए किए जा रहे प्रयास नाकाफी हैं। जो पशु-पक्षी हमारे घर-आंगन में विचरते थे, वे अब कहीं नहीं दिखते हैं । घर-आंगन में फुदकने वाली चिड़ियां या कौए अब नहीं दिखते हैं । मीठी तान सुनाने वाली कोयल की कूक भी अब सुनाई नहीं देती हैं । पेड़-पौधों की घटती संख्या को लेकर बर्ड लाइफ इंटरनेशनल के विशेषज्ञों ने एशियाई देशों में इस सम्बन्ध में अध्ययन किया । इस अध्ययन में कई महत्वपूर्ण जानकारियां मिली और चिंताजनक तथ्य भी सामने आए । एशिया में मुख्य रूप से ढाई हजार से अधिक प्रजातियों के पक्षी पाए जाते हैं, जिनमें से सवा तीन सौ पक्षी विलुप्त् होने की कगार पर हैं । चिंता की बात यह है कि कौआ भी इसी विलुप्त् होने वाली प्रजाति में शामिल किया गया है। सिर्फ भारत की ही बात करें तो यहां ७३ प्रजातियां खतरे में बताई गई हैं । एशिया के अन्य देशों में हालत और भी दयनीय हैं । हमारे देश में कौआे को काफी महत्व दिया गया है । पौराणिक आख्यानों से लेकर वर्तमान सन्दर्भो में कौए की प्रासंगिकता बनी हुई है । श्राद्ध पक्ष में तो बाकायदा कौआे को बुलाकर खिलाया जाता है । इन परम्पराआे के बीच हमें यह बात खटकती है कि कौआे की संख्या निरंतर कम होती जा रही है । जिन शहरों में पर्यावरणीय दृष्टि से स्थितियां अब भी ठीक हैं, वहां कौआे को देखा जा सकता है, मगर अधिकांश शहरों में और शहर बनते गांवों में कौआे की संख्या घटती जा रही है । प्राकृतिक असंतुलन की मार कौऐ जैसे निरीह पक्षी पर भी पड़ रही है और ये पक्षी बीते समय की बात होते जा रहे हैं । अब बच्चें को कौए की कविता पढ़ाने से पहले खुद को इस बात के लिए तैयार करना पड़ता है कि अगर बच्च कौए को देखने की जिद करने लगे तो उसे क्या जवाब दिया जाएगा । जब उसे हम कौआ दिखा नही सकते हैं तो हमें क्या हक हैं उसे कौए की कविता सिखाने का । जिसकी रक्षा हम नहीं कर सके, उसके किस्से-कहानियां बच्चें को याद करने के लिए मजबूर करते वक्त हमें आत्मग्लानि होती है । श्राद्ध पक्ष में कौआे को आवाज तो दी जाती है, मगर यह जानते हुए कि कौए है ही नहीं, तो आएंगे कैसे? कमोबेश यह स्थिति कौए की ही नहीं, हर उस पक्षी की हैं जो निरीह है, सरल है और जिसका प्राकृतिक संतुलन बनाए रखने में अहम् योगदान है । विकास की इस परिभाषा में विनाश की आहट भी समाहित है । प्रकृति में प्रतिदिन घुलते जहर से न सिर्फ पेड़-पौधे बल्कि जीव-जन्तु और मनुष्य भी स्वच्छ वायु से मोहताज होता जा रहा है । कौआ गंदगी को साफ करने वाला पक्षी है, मगर मनुष्य ऐसे पक्षी को ही समाप्त् करने वाला बनता जा रहा है । कौआें की घटती संख्या हमारे लिए ही नहीं, पूरी दुनिया के लिए चिंता का विषय बन गया है । श्रेष्ठता में आगे - कौआ कोर्डेटा संघ के वर्ग एब्ज के गम-पैसेरीफार्मिस में आता है । सामान्यत: हमारे देश मंे इसकी दो प्रजातियां पाई जाती हैं। घरों के आसपास दिखने वाला देशी कौआ होता है जिसे कोर्वस स्प्लेंडेंस कहा जाता है । जंगली कौए को कोर्वस मेक्रोरिहकोज कहते हैं । जंगली कौआ पूरी तरह काला होता है । देशी कौआ घूसर रंग का होता है । भगवान कृष्ण के हाथ से माखन-रोटी छीन ले जाने वाले जिस कौए का जिक्र किया गया वह काग देशी कौआ है । वैसे दुनिया में कौए की सौ से अधिक प्रजातियां पाई जाती है । कौआ घोंसला पेड़ों पर बनाता है और अप्रैल से जून के मध्य अण्डे देता है । पौराणिक कथाआे में तो कौए को अमरता प्रदान की गई है, मगर पक्षी वैज्ञानिकों के अनुसार कौए औसत उम्र ६९ वर्ष होती है । इसकी लंबी चोंच, पंख एवं पैर होते हैं । इनकी सहायता से कौए को भोजन, उड़ान एवं पकड़ में सहयोग मिलता है । कौए का आकार सामान्यत: ३२ से ४२ सेंटी मीटर का होता है, मगर देशी कौए छोटे और जंगी कौए का आकर कई बार अधिक भी देखा गया है । सामूहिकता, एकजुटता और सतर्कता में कौए को अन्य पक्षियों से आगे पाया जाता है ।चालाक, चपल और स्वच्छता पसंद - कौआे को प्राय: धूर्तता के लिए जाना जाता है, मगर ये चालाक और चपल भी होते हैं । यह बात अलग है कि कोयल इनकी चालाकी को धता बताते हुए अपने अण्डों की रक्षा कौआे से करवाने में सफल रहती है । कौए को स्वच्छता पसंद भी कहा जाता है । शहरों में बढ़ती अस्वच्छता के लिए कौआें की घटती संख्या को भी जिम्मेदार समझा जाता है । कौए जहां होते हैं, वहां वे गंदगी को समाप्त् करने में सहायक बन जाते हैं । कीड़े-टिडि्डयों को ये चट कर जाते है । खेतों की जुताई करते समय अक्सर कौए चौकस रहते हैं । इनकी निगाह उन कीड़ों पर रहती है जो जुताई के समय जमीन से बाहर निकलते हैं । प्राय: यही कौआ खड़ी फसल के लिए नुकसानदायक होता है और खेतों में खड़ी फसल के बीच पक्षियों को मानव का भ्रम कराने के लिए जो आकृति खड़ी की जाती है, उसे स्थानीय भाषा में `काग भगौड़ा' भी कहा जाता है । अन्य पक्षियों के अण्डों के लिए, छोटे चूजों के लिए कौए हानिकारक होते हैं, मगर अपनी कौम के लिए काफी सक्रिय होते हैं । जब कोई कौआ संकट में होता है तो ये कांव-कांव की आवाज निकालकर सभी को इकट्ठा कर लेते हैं । यह शोर काफी कर्कश होता है । कौए को अक्सर एक आँख से देखते हुए पाते हैं, जबकि वह ऐसा करते हुए अपनी बुद्धिमानी को दर्शाता है । उसकी बुद्धिमानी के किस्से तो भारतीय पौराणिक कथाआे में खूब मिलते हैं । रामायण में जो काकभुशुण्डी की जो भूमिका है, वह किसी समझदार और विद्वान पात्र से कम नहीं है। यहां तक कि यह पात्र रक्षा में भी आगे बताया गया है। महाभारत और पंचतंत्र की कथा में भी कौआ उपस्थित है । श्राद्ध पक्ष में कौआे को बाकायदा आमंत्रित किया जाता है और उन्हें खीर-पुड़ी खिलाई जाती है । ऐसा समझा जाता है कि कौए के माध्यम से पितरों को ही भोजन पहुंचता है । घर की मुंडेर पर कौए का बैठना यह संकेत देता है कि यह किसी के आगमन की सूचना है । इसे भय और अनिष्ट के रूप में मानते हुए गलत जानकारी देकर बला टालने की कोशिश की जाती है । वहीं आंगतुक की राह भी देखी जाती है । प्राचीन कथाआे से लेकर आधुनिक कथाआे, फिल्मों में भी कौए को लेकर संवाद या गीत प्रस्तुत किए जाते रहे हैं । कौए की उपस्थिति हमारे समाज में सदा से रही है । यह भी गौर करने लायक है कि कौए जैसा स्थान किसी अन्य पक्षी को नहीं मिल पाया है । कौआ दिखने में काला होता है, इसकी आवाज कर्कश होती है, फिर भी इसका जिक्र हमेशा होता है । कौए की तेज नजरों के तो जासूस भी कायल होते हैं । कौआे के देखने की शैली अजीब होती है । मगर वह सतर्क होता है । जमीन पर पड़ी खाद्य सामग्री हो या कीड़े, वह तुरंत देख लेता है और चतुराई से उसे उठा लेता है। आश्चर्य इस बात का है कि समाज में इस कदर रच बस गए इस पक्षी की संख्या निरंतर घटती जा रही है । श्राद्ध पक्ष में अब कौआे को खोजना पड़ता है। पहले स्थिति यह थी कि आवाज लगाते ही कौआे का झुण्ड आ जाया करता था, अब श्राद्ध पक्ष तो ठीक सामन्य दिनों में भी कौए नहीं दिखते हैं । कौआे की घटती संख्या प्राकृतिक असंतुलन को तो दर्शाता ही है, मानवीय असंवेदनशीलता को भी स्पष्ट करती है । कौआ मनुष्य के लिए कभी हानिकारक नहीं रहा है, मगर मनुष्य की विकासशील सोच के आगे कौआ हार रहा है । जरूरत इस बात की है कि कौए जैसे कम होते जा रहे प्राणियों की रक्षा की जाए और मानव को संवेदनशील बनाया जाए । यदि ऐसा होता है तभी कौआे की कांव-कांव सुनाई देती रहेगी ।

६ पर्यावरण परिक्रमा

मौसम परिवर्तन से गेहँू का उत्पादन घटा
मौसम परिवर्तन पर अंतरशासकीय पैनल के अध्यक्ष राजेन्द्रकुमार पचौरी के अनुसार पृथ्वी के तापमान में वृद्धि के कारण गेहँू के उत्पादन में गिरावट आई है । इस वर्ष का नोबेल शांति पुरस्कार जीतने वाले पर्यावरणविद् ने हिमालय के ग्लेशियर पिघलने पर भी चिंता जताई है । श्री पचौरी ने कहा - आधी सदी के दौरान तापमान में असाधारण बढ़ोत्तरी हुई है । हाल के वर्षो में इसने और गति पकड़ी है । स्पष्ट ही यह हमारे लिए बड़ी चिंता का विषय है । भारत में भी तापमान वृद्धि के प्रभाव दिखाई देने लगे हैं । तापमान में ०.६८ डिग्री सेल्सियस की वृद्धि दर्ज हुई है । मानसून के बाद और शीतकाल में इसे स्पष्ट महसूस किया जा रहा है । इसका कृषि पर गंभीर प्रभाव पड़ा है । खासकर गेहँू का उतपादन घटा है । श्री पचौरी ने कहा कि हिमालय क्षेत्र में ग्लेशियर तेजी से पिघल रहे हैं । इससे देश के उत्तरी भागों में जलसंकट का खतरा मंडरा रहा है । हमारी अधिकांश नदियों का उद्गम इन ग्लेशियरों से ही होता है । समुद्र के जल स्तर में भी तेजी से वृद्धि हो रही है । बीसवीं सदी में इसमें १७ सेमी का इजाफा हुआ । इससे अंदाज लगाया जा सकता है कि २१वीं सदी में जलस्तर १८ से ५९ सेंटीमीटर तक बढ़ जाएगा । अगर यही क्रम जारी रहा तो आने वाले वर्षो में मारीशस और बांग्लादेश जैसे मुल्कों के अस्तित्व को खतरा है । श्री पचौरी के अनुसार आगामी वर्षो में पृथ्वी का तापमान १.८ से ४ डिग्री सेल्सियम तक बढ़ेगा । यह हमारे हाथों से उत्पन्न एक गंभीर समस्या होगी । इसके लिए हमें ग्रीनहाऊस गैसों पर लगाम कसनी होगी । २०१५ तक अगर दुनिया ने कार्बन के प्रदूषण पर रोक नहीं लगाई तो तापमान में भारी वृद्धि का अंदेशा है ।
दिल्ली में हवा की सेहत हुई खराब
राजधानी की फिजा में पिछले दो सालों में तेजी से बदलाव आया है । यहाँ हवा में खतरनाक गैसों की मात्रा दो साल में काफी बढ़ गई है । हवा की सेहत बिगड़ने से दिल्ली के रहवासियों में श्वसन संबंधी बीमारियाँ भी तेजी से फैलनेलगी हैं । यह कहना है कि एक प्रमुख पर्यावरण रिसर्च ग्रुप का । सेंटर फॉर सांइस एंड एनवायरर्नमेंट (सीएसई) ने दिल्ली की हवा में घातक गैसों की बढ़ती मात्रा पर चिंता जाहिर करते हुए सरकार को कहा है कि वह वाहन प्रदूषण रोकने के उपाय जल्द से जल्द करे । इसके लिए नई ट्रांसपोर्टेशन पॉलिसी तैयार करे और उसे सख्ती से अमल में लाए । दिल्ली में प्रदूषण का स्तर वर्ष २००१ में कम होने लगा था, जब सरकार ने सभी पब्लिक ट्रांसपोर्टेशन वाहनों के लिए आदेश जारी कर उन्हें कम्प्रेस्ड नेचुरल गैस (सीएनजी) का इस्तेमाल करने को कहा । लेकिन रिचर्स ग्रुप का कहना कुछ और ही है । ग्रुप की रिसर्च कहती है कि शहर की हवा तेजी से और भी प्रदूषित हो रही है । भारत की अर्थव्यवस्था में जिस तेजी से उछाल आ रहा है उसी तेजी से शहरों में कारों व अन्य वाहनों की संख्या भी बढ़ रही है । दिल्ली में हर दिन औसतन ९६३ नए निजी वाहन रजिस्टर्ड हो रहे हैं । इस आँकड़े में तब और उछाल आएगा जब बाजार में सस्ती कारें आ जाएँगी । सीएसई की निदेशक सुनीता नारायण का कहना है कि हमें प्रदूषण रोकने के उपाय जल्दी और सख्ती से करना होंगे वरना दिल्ली की हवा साँस लेने लायक नहीं रह जाएगी । पर्यावरण रिसर्च ग्रुप का कहना है कि प्रदूषण का स्तर बढ़ने का सीधा असर स्वास्थ्य पर पड़ेगा । माइक्रोस्कोपिक डस्ट फेफड़ों में पहुँचकर नई-नई बीमारियों को जन्म देंगी । अस्थमा, फेफड़ों संबंधी रोग, क्रॉनिक ब्रोंकाइटिस और हृदय संबंधी बीमारियाँ तो हो ही रही हैं प्रदूषण के कारण कैंसर भी हो सकता है ।
यूका का जहरीला कचरा गुजरात नहीं लेगा
गुजरात प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड व गुजरात वन एवं पर्यावरण विभाग द्वारा जारी पत्रों केमुताबिक गुजरात सरकार ने स्पष्ट तौर पर भोपाल के यूनियन कार्बाइड के जहरीले कचरे को अंकलेश्वर के इन्सिनरेटर में निष्पादन के लिए अनुमति देने से मना कर दिया है । गुजरात सरकार द्वारा भोपाल के कचरे को लेने से मना करना इस बात को रेखांकित करता है कि यूनियन कार्बाइड के कचरे का भारत में सुरक्षित निष्पादन संभव नहीं है । भोपाल के पर्यावरण संगठनों की मांग है कि सरकार डाव केमिकल को बाध्य करे कि वह भोपाल के पानी-मिट्टी में घुले जहर को साफ करे और जहरीले कचरे के सुरक्षित निष्पादन के लिए उसे अमेरिका ले जाए । संगठनों ने बताया कि सन् २००३ में तमिलनाडु प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने यूनीलीवर कंपनी को अपने कोडायकनाल के थर्मामीटर के कारखाने में पारायुक्त कचरे को अमेरिका ले जाने के लिए बाध्य किया था । संगठनों ने म.प्र. प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड और यूनियन कार्बाइड के बीच हुए पत्राचार की प्रतियाँ पेश करते हुए यह बताया कि सन् १९९१ में म.प्र. प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने स्वयं कार्बाइड के जहरीले कचरे को विदेश भेजने की अनुशंसा की थी ।
छोटी नाक पकड़ेगी जहरीले रसायन
जहरीले पदार्थ और अवयव को आसानी से तलाश लेगी एक छोटी-सी नाक । इसे अमेरिका के मैसाचुसेट्स इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी ने इलेक्ट्रानिक तरीके से तैयार किया है, इसलिए इसे `इलेक्ट्रॉनिक नाक' कहा गया है । कार्बन मोनोऑक्साइड हो या घातक इंडिस्ट्रयल सॉल्वेंट या विस्फोटक हो, सभी को यह नाक सूँघ निकालेगी । हैरी टूलर नाम के अनुसंधानकर्ता ने इसे तैयार किया है । इसमें नई इंकजेट प्रिंटिंग तकनीकी इस्तेमाल की गई है । यह महीन सेंसर फिल्म माइक्रोचिप में प्रिंट करता है। इसी प्रक्रिया से अति संवेदनशील हुआ जा सकता है । यह गैस सेसिंग टेक्नोलॉजी है । यहाँ के प्रोफेसर टुलर ने अपनी यह शोध अलबर्टा की कॉन्फ्रेंस में पेश की । सेंसर में प्रोटोटाइप में सेरामिक सामग्री बेरियम कार्बोनेट की पतली परतें थी, जो गैस और गंध की पहचान कर सकती है । श्री टुलर कहते हैं कि यह नाक रासायनिक पर्यावरण को भाँपने में बेहद कारगर है । ऐसा नहीं है कि यह केवल जहरीले अवयव को ही पकड़ेगा, वरन यह आसानी से परफ्यूम और अन्य गंध में भेद कर सकता है । ठीक उसी तरह से जैसे हम कॉफी और मच्छली की गंध में अंतर करते हैं ।
पशु-पक्षियों के लिए आश्रम
मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल के निकट बीमार और अशक्त पशु-पक्षियों की देखभाल तथा इलाज के लिए एक आश्रम तैयार किया जा रहा है । भोपाल की एक गैर सरकारी स्वयंसेवी संस्था `युवक कौमी एकता कमेटी' वृद्धाश्रम की तर्ज पर पुण्यधाम के नाम से एक आश्रम तैयार कर रही है जहाँ आवारा और बीमार पशु-पक्षियों को रखा जाएगा। इनकी देखरेख पशु विशेषज्ञों की निगरानी में की जाएगी । संस्था के अध्यक्ष अश्विनी श्रीवास्तव ने यह जानकारी दी । उन्होंने बताया कि भोपाल के समीप परवलिया क्षेत्र में लगभग पाँच एकड़ जमीन पर पशुआें के लिए तैयार किए जा रहे इस पुण्यधाम आश्रम में पाँच सौ पशु-पक्षियों के रखने की व्यवस्था की जाएगी। जनभागीदारी से निर्मित किए जा रहे इस आश्रम पर लगभग पाँच लाख रूपए का व्यय आएगा । श्री श्रीवास्तव ने बताया कि आमतौर पर शौक एवं देखादेखी में लोग पशु-पक्षी पाल लेते हैं लेकिन जब वे बीमार या अशक्त हो जाते हैं तो उन्हें सड़कों पर छोड़ दिया जाता है । ऐसी स्थिति में यह पशु या तो दुर्घटना में अथवा बीमारी के कारण सड़कों पर ही दम तोड़ देते हैं । संस्थान द्वारा कराए गए एक शोध में पाया गया कि बीमार और अशक्त पशुआे को लावारिस हालत में सड़कों पर छोड़ देने के कारण वातावरण दूषित होता है और इससे बीमारियाँ फैलती है । ऐसे बीमार एवं अशक्त पशुआे को सड़कों पर छोड़ देने से दुर्घटनाआे का खतरा भी बना रहता है । कभी-कभी ऐसी दुर्घटनाआे में पशुआे की भी मौत हो जाती है । श्रीश्रीवास्तव ने बताया कि संस्था द्वारा स्थापित किए जा रहे इस पुण्यधाम में इलेक्ट्रिक शवदाह की भी व्यवस्था रहेगी जहाँ पशुआे की स्वाभाविक मृत्यु होने पर उन्हें तत्काल जलाया जाएगा। इस व्यवस्था से पशुआे की मृत्यु पर वातावरण को दूषित होने से बचाया जा सकेगा ।
मिट्टी की घटती गुणवत्ता गरीब देशों के सामने बड़ी चुनौती
भूमि के अंधाधुंध इस्तेमाल के कारण मिट्टी की लगातार घटती गुणवत्ता पूरी दुनिया खास तौर पर गरीब देशों के सामने बड़ी चुनौती बनती जा रही है । चौथी ग्लोबल इन्वायरमेंट आउटलुक रिपोर्ट के अनुसार १९८१ के बाद से एकत्र उपग्रहीय आंकड़ों का इस्तेमाल करने से हाल ही में पता चला है कि अफ्रीका, दक्षिण पूर्व एशिया, दक्षिण चीन, दक्षिण पूर्व ब्राजील और पेम्पास में मिट्टी की गुणवत्ता में क्षरण चिंता का सबसे बड़ा कारण है । रिपोर्ट के अनुसार आने वाले समय में आबादी में बढ़ोत्तरी, आर्थिक विकास और शहरीकरण के कारण भोजन, जल, ऊर्जा और कच्च्े माल की मांग बढ़ती जायेगी । इसके कारण भूमि संसाधनों की मांग और उनको खतरा भी बढ़ने की आशंका है । रासायनिक प्रदूषण के कारण भी भूमि की गुणवत्ता दिनोदिन खराब होती जा रही है। रिपोर्ट के अनुसार यूरोप में पुराने औद्योगिक क्षेत्रों में रासायनिक तत्वों से दूषित हुई मिट्टी आम बात है । एक अनुसार के मुताबिक वहां ऐसे २० लाख क्षेत्र हैं, जिनमें से एक लाख को तुरंत उपचार की जरूरत है । भूमि अपरदन और पोषक तत्वों का क्षरण भी कृषि योग्य भूमि के लिए बड़ा खतरा है । भूमि अपरदन के कारण उत्पादन कम हो जाता है और उस स्थान में हटी मिट्टी में जहा जमा होती है, वहां भी मिट्टी हटाने पर काफी व्यय होता है । इसके अलावा मिट्टी के जमाव के कारण कई स्थानों पर जल निकाय भी इस्तेमाल लायक नहीं रह जाते है ।

७ कविता

बोधिसत्व
डॉ. किशोरीलाल व्यास
वासंती पातों के
यौवन भरे रहित रूधिर-सा
ऊर्जा-पूरित, जिजीविषा के उत्स-सा
पत्ते-पत्ते की धमनियों में
मैं बहना चाहता हँू ।
सूरज की संजीवनी ऊर्जा को
मेरे अन्तस्थल में
हरे वृक्षों की तरह समेट लँू
ऊपर से तपूँ
भीतर से धरा से जुड़ जाऊं
रूप-रस-गंध का
आत्मीयता से युक्त-पय
मेरी माता से
कण-कण पाऊं
मृत-मृत्तिका से
प्राण-मय हो जाऊं ।
जुड़ जाऊं सारे चर-अचर से
पर्वतों से, काननों से
झर झर झरते झरनों से
सरसराती गंध पगी मलय पवनों से
नील-उन्मुक्त गगन से
पशु-पक्षियों से,
कण-कण से,
क्षण-क्षण से
और अद्वैत हो जाऊं ।
पेड़ों का मौन-प्रणव-नाद
गुंजायमान हो मेरी चेतना में
अनहद - नाद-सा
ओर मैं बोधिसत्व हो जाऊं !

८ कृषि जगत

कृषि : भारतीय संस्कृति का पर्याय
जी.के. मेनन
कृषि भारतीय संस्कृति की आत्मा है । भारत में कृषि को लेकर जो नैराष्य विद्यमान है उससे भारत स्वमेव आत्माहीन होता जा रहा है । आज की सबसे बड़ी आवश्यकता कृषि को न केवल पुर्नस्थापित करने की है बल्कि उसे सम्मान प्रदान करने की भी है । हमारा देश कई मामलों में अनूठा है । यह एक सर्वज्ञात बात है कि भारत एक प्राचीनतम देश है परंतु प्रकृति ने जिस उदारता और करूणा से इसकी रचना की है वह उल्लेखनीय है । भारत में मौसम की सम्यकता अद्वितीय है । सर्दी, गर्मी और बरसात के चार-चार माह के तीन मौसम, दो-दो महीनों की छ: ऋतुएं, इसी सम्यकता का जीता-जागता प्रमाण हैं । हमारे देश में सर्वाधिक वर्षा का क्षेत्र चेरापूंजी भी है और वहीं दूसरी ओर मरूभूमि भी अपनी सुंदरता से प्रकृतिप्रेमियों की लुभाती है । बर्फ की सफेद चादरों से ढका हिमालय है तो हरियाली से आच्छादित कई पर्वत श्रृंखलाएं नयनों को आनंद देने के लिए सदियों से खड़ी हैं । कन्याकुमारी के समुद्रीतट से लेकर हिमालय तथा अरब की खाड़ी से बंगाल के सुंदरवन के डेल्टा तक जैव विविधता की अनूठी संपदा से संपन्न विशाल क्षेत्र के क्षेत्रफल का मात्र २.४ प्रतिशत भू-भाग भारत के पास है परंतु वैश्विक जैव और वानस्पतिक विविधता में भारत की भागीदारी ८ प्रतिशत है । पर्वत श्रृंखलाएं अनेक तरह की झीलें, रेगिस्तान, वर्षावन, उष्णकटिबंधीय वन, डेल्टा, घास के मैदान, बर्फ की चोटियां, कलकल बहती छोटी, मध्यम और बड़ी हजारों नदियां, प्रवाल की खूबसूरत चट्टानें और विशाल लंबा समुद्र तट हमारे देश में है । इसी तरह राजस्थान में रेतीला रेगिस्तान है और लेह में बर्फीला रेगिस्तान अपनी अनूठी छटा बिखेरता है । केरल में सघन वर्षावन (साइलेंट वेली सहित) हैं तो अरूणाचल में दुर्गम गहन वन हैं जो दुर्लभ वन्य जीवों और वनस्पतियों की धरोहर को संजोए हुए हैं। भारत में सूक्ष्म और अति सूक्ष्म जीव-जंतुआे की इतनी प्रजातियां हैं कि अभी तक इनकी पूरी खोज और पहचान तक नहीं की जा सकी है । दुनिया में जैव विविधता के चिन्हित अठारह स्थलों में से दो भारत में है - वेस्टर्न घाट ओर इस्टर्न हिमालय । हमारे यहां वनस्पतियों की सैंतालीस हजार से भी ज्यादा प्रजातियां हैं तो जंतुआे की ८९ हजार से भी अधिक प्रजातियों की पहचान की जा चुकी है । कई सूक्ष्म और अति सूक्ष्म जीव-जंतु जमीन के नीचे रह कर धरती को पौष्टिक और ह्यूमस युक्त बनाने में अपना जीवनदान भी देते हैं । ऐसी अनुपम प्राकृतिक संपदा समूचे विश्व में अन्य किसी देश के पास नहीं है । इसी तारतम्य में यह बताना समीचीन होगा कि जो परंपराएं रीति-रिवाज या मान्यताएं हमारी सांस्कृतिक धरोहर के रूप में पीढ़ियों को हस्तांतरित होती रही हैं वे एक के बाद एक वैज्ञानिक रूप से निरंतर सत्यापित भी हो रही हैं । दृष्टा ऋषि मुनियों द्वारा प्रतिपादित भारतीय जीव पद्धति न केवल मानव जाति बल्कि प्राणी मात्र को सर्वांगीण रूप से स्वस्थ और निश्चित रखने वाली वैज्ञानिक जीवन पद्धति है । ग्रामीण अर्थव्यवस्था ओर गो -आधारित कृषि भविष्य में एक सुदृढ़ और सुनिश्चित सुखकारक अर्थव्यवस्था सिद्ध होगी, यह एक सहज भविष्य कथन है। धरती और मिट्टी की उर्वरा शक्ति के साथ परस्पर समन्वय वाली जैविक खाद ने किसानों के मन में तेजी से विश्वास अर्जित कर इसके संकेत दे दिए हैं । रासायनिक खाद के घातक प्रयोगों ने न केवल धरती की उर्वरता पर नकारात्मक प्रभाव डाले हैं वरन् किसानों के स्वास्थ्य, समृद्धता और परिश्रमशीलता पर भी वज्राघात कर उन्हें आत्महत्या की ओर ढकेला है । धीरे-धीरे जैविक खाद की सार्थकता और सफलता के प्रति जागृति का जयघोष सर्वत्र विस्तारित हो रहा है । हमारी कृषि वनस्पतियों की संपदा तो चकित कर देने वाली हैं । १६७ फसल प्रजाति और ३५० वन प्रजातियां हैं । चावल की प्रजाति की तीस हजार से पचास हजार किस्में है, वहीं ज्वार- बाजरे की पांच हजार से ज्यादा हैं, और तो और कालीमिर्च जैसी औषधीय वनस्पति की पाँच सौ से अधिक किस्में यहां मिलती हैं । इसी तरह से गो-विद्या, मधु विद्या, पक्षी विद्या, सर्प - विद्या , जल -विद्या, परिवहन विद्या ,वन विविद्या और भू-विद्या संबंधी जीवजंतुआे की संख्या भी अनगिनत हैं । पशुआे में गाय की ही सैकड़ों किस्में हैं, जिनमें से ३० किस्मों को राष्ट्रीय किस्मों की श्रेणी में भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद ने उल्लेख किया है । हमारी कृषि व्यवस्था में जो जैव- विविधता पीढ़ी दर पीढ़ी चली आ रही थी, अब कृषि प्रजातियों के साथ आनुवांशिक छेड़छाड़ से उसके लिए नया खतरा उत्पन्न हो गया है । ज्यादा उत्पादन और जल्दी पैसा कमाने के लोभ में किसान फसलों की हायब्रिड और जीन संवर्धित बायो टेक्नालाजी आधारित किस्मों का उपयोग ज्यादा करने लगे हैं । इन किस्मों को ज्यादा रासायनिक उर्वरकों , कीटनाशकों, जल और ऊर्जा तथा मशीनीकरण की आवश्यकता होती है, जो अक्सर विदेशों से आयात होती है या देश में स्थित विदेशी कंपनियों से या देशी बहुराष्ट्रीय कंपनियों द्वारा ही उत्पादित हैं । भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद या प्रादेशिक कृषि गोपालन विश्वविद्यालयों में भारतीय कृषि या गोपालन पर बहुत कम या नहीं के बराबर ही अनुसंधान , शिक्षा या प्रचार-प्रसार होता है । दुर्भाग्यवश इन अध्ययनशालाआे और अनुसंधानशालाआे ने विदेशी पाठ्यक्रम को ही अपनाया है । अधिकांश यूरोपीय और अमेरिकी देशों में कृषि भूमि अधिक है और खेती करने वाले किसान कम है, इसलिए मशीनीकरण वहां आवश्यक है। लेकिन हमारे देश में ६० प्रतिशत से अधिक छोटे या सीमांत किसान हैं जिनके पास दो हेक्टेयर से कम कृषि भूमि है और मात्र २-३ पशुधन है । हमें यह सदैव याद रखना होगा कि भारतीय कृषि विदेशी परिभाषा की मोहताज नहीं है , यह हमारी जीवन शैली है । पर्यावरण रक्षा के साथ मानव और पशु शक्ति, पारंपरिक नवीनीकृत ऊर्जा , ब्रह्माण्ड एवं आकाशीय शक्ति सभी प्रकार के जीवांश के पुन: चक्रीकरण के माध्यम से मृदा-संरक्षण और जल पुनर्भरण आदि हमारे प्राचीन कृषि- गोपालन व्यवसाय के अनिवार्य अंग थे । इसलिए १०००० वर्षों तक कृषि करने के बाद भी हमारी धरती शक्तिहीन और बंजर नहीं हुई, आज भी जीवित है । कृषि, गोपालन, फलोद्यान , ग्रामोद्योग, जल संरक्षण व जल पुनर्भरण , ये सब हमारे आत्म निर्भर स्वावलंबी , कृषि उद्योग के अंग हैं । मधुमक्खी पालन, तेलघानी, आटाचक्की, पानी चड़स , चर्खा, बुनाई, गुड़ बनाना, बांस की टोकरी, सुपड़ा आदि तथा रस्सी, चप्पल, जूता, मटका, इंर्ट, लोहारी, सुतारी, सुनारी उद्योग हमारे हर गांव या कस्बे में हुआ करते थे, जो आज तथाकथित विकास की जद़्दोजहद में बंद हो गए हैं । इसलिए गांवों में बेरोजगार ज्यादा हो गए हैं । याद रखिए ! भारत भूमण्डलीकरण की बात करने वाला सबसे पहला देश है। वैदिक काल से ही हम सर्वे भवन्तु सुखिन:, वसुधैव कुटुम्बकम् और सबै भूमि गोपाल की का आनंद घोष करते रहे हैं । इन पावन नारों मंे मातृत्व, मित्रत्व, भातृत्व और वात्सल्य का भाव रहा है । जबकि आज भूमण्डलीकरण की आड़ में कुटिलतापूर्वक अपने व्यापारिक हितों की पूर्ति हेतु विकासशील देशों के लोगों को बकायदा ठगा जा रहा है । इस बात को जानते हुए भी हम स्वयं को, अपनी संस्कृति को, अपने देश की अखण्डता को , विदेशी व्यापारियों के हाथों में सौंपते चले जा रहे हैं । यह जान लेना चाहिए कि अब जो परतंत्रता आएगी वह कालजयी होगी क्योंकि किसी मंगल पांडे को यह पता नहीं चलेगा कि उसकी संस्कृति के साथ खिलवाड़ हो रहा है । यदि ग्रामीण संस्कृति को पुनर्जीवित नहीं किया गया और गांवों के बेरोजगारों का शहर - पलायन नहीं रोका गया तो वह दिन दूर नहीं जब हम फिर से पूरी तरह (आर्थिक सांस्कृतिक, सामाजिक, भौगोलिक आदि) गुलाम हो जाएेंगें । गांव आधारित उद्योग - धंधों को नई वैज्ञानिक तकनीकी के साथ पुन: जीवित करें ताकि हर गांव संपन्न और स्वावलंबी हो । भारतीय कृषि व गोपालन का सशक्तिकरण आज की आवश्यकता है इसे नजर अंदाज करना भविष्य के लिये आत्मघाती होगा ।

९ संदर्भ : विश्व एड्स दिवस

एड्स वायरस : एक रहस्य
डॉ.भोलेश्वर दुबे
संसार के सभी जीवों का एक निश्चित जीवन चक्र होता है जिसके तहत उनकी वृद्धि , विकास, जनन और अंत में मृत्यु होती है । यदि यह चक्र किसी प्रकार बाधित होता है तो जीवन का क्रम विचलित हो जाता है । ऐसे में जीवन की क्रिया विधि असामान्य हो जाती है । मनुष्यों का जीवन भी इन्हीं नियमों के अनुसार चलता है । किंतु विभिन्न प्रकार के रोग जैविक क्रियाआे को प्रतिकूल रूप से प्रभावित करते हैं । ठीक ही कहा गया है कि `पहला सुख नीरोगी काया' किंतु विभिन्न रोग कारकों और सूक्ष्म जीवों के बीच मानव का स्वस्थ बने रहना मुश्किल हो गया है । चिकित्सा विज्ञान के विकास के साथ ही रोगों के उपचार की विधियां भी विकसित हुई । कई बीमारियों का उपचार तो लाक्षणिक आधार पर ही सम्भव हो गया, किंतु वायरस जन्य रोगों से मुक्ति इतनी आसान नहीं रही । आज से कई दशक पूर्व चेचक महामारी के रूप में जानी जाती थी । पागल कुत्तेके काटने पर होने वाली रेबीज भी लाइलाज थी । इस रोग से पीड़ित व्यक्ति की मृत्यु निश्चित मानी जाती थी । इलेक्ट्रॉन सूक्ष्मदर्शी की खोज व आधुनिक शोध विधियों के द्वारा ही विषाणु के बारे में विस्तृत जानकारी प्राप्त् हुई । कई वर्षो तक सामान्य सर्दी-जुकाम से लगाकर डेंगू, हिपेटाइटिस, पोलियो, छोटी माता, मीजल्स, मम्स, चेचक को दैवी प्रकोप माना जाता था । चिकित्सा विज्ञान व सूक्ष्म जैविकी के विकास और शोध के माध्यम से इन रोगों के कारक वायरस यानी विषाणुआे की जानकारी मिली । इससे इन रोगों का इलाज संभव हुआ । किंतु कैंसर जैसी कुछ बीमारियों का उपचार ढूंढने में वैज्ञानिक व्यस्त थे तभी एक और भयानक बीमारी की पदचाप चिकित्सा वैज्ञानिकों ने सुनी । यह रोग कोई नहीं मानवजाति के लिए अभिशाप एड्स था । ऐसा माना जाता है कि एड्स की शुरूआत मध्य अफ्रीका से हुई । एड्स के ये वायरस हैटी से होते हुए अमेरिका पहुंचे। इसके बाद तो विश्व के अनेक देशों में यह रोग फैल गया । अनुमान है कि १९९३ में विश्व भर में लगभग एक करोड़ चालीस लाख व्यक्ति इस रोग से ग्रसित थे, जबकि यही संख्या सन २००० में लगभग चार करोड़ तक पहुंच गई । यह रोग जिस गति से फैल रहा है वह निश्चय ही चिंता का विषय है । यह रोग अफ्रीका और अमेरिका के अतिरिक्त भारत, चीन, वियतमान, कम्बोडिया, मध्य और पूर्वी यूरोप के कई देशों और रूस में भी द्रुत गति से फैल रहा है । १९८० के पूर्व तक यह रोग अज्ञात था । किंतु कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय के प्रतिरक्षा वैज्ञानिक माइकल गोटलिब ने चिकित्सालय में भर्ती चार रोगियों में अति विशिष्ट चौंकाने वाले लक्षण देखे जो कि इसके पूर्व कभी किसी रोगी में नहीं पाए गए थे । संयोग से चारों रोगी समलैंगिक थे । इन चारों रोगियों में श्वेत रक्त कणिकाआे की बहुत कमी हो गई थी तथा इनके ऊतकों में सायटोमेगालों वायरस पाया गया । अत: ऐसा माना जाने लगा कि यह अज्ञात बीमारी सायटोमेगालो वायरस द्वारा हुई होगी । १९८३ में अमेरिका में रॉबर्ट गेलो के मार्गदर्शन में कुछ व्यक्ति इस अज्ञात रोग पर काम कर रहे थे । उधर पेरिस स्थित पाश्चर इंस्टीट्यूट के लक मोन्टेगनेर अपने साथियों के साथ इस पहेली को सुलझाने हेतु प्रयासरत थे । अमेरिका और फ्रांस दोनों के शोध समूहों ने इस बीमारी के कारक वायरस को ढूंढ निकाला। फ्रांसिसी वैज्ञानिकों ने इसे ङ.अ.त. (ङूाहिि अवशििरििींू आीीलिळरींशव तर्ळीीी) नाम दिया क्योंकि इस बीमारी में लिम्फ नोड (लसिका ग्रंथियां) फूलने के प्रारम्भिक लक्षण दिखाई देते हैं। अमेरिकी टीम ने इसका नामकरण कढङध-३ (र्कीारि ढ-लशश्रश्र श्रळाहििींीिहिळल र्ींर्ळीीी) किया । किंतु १९८६ में अंतर्राष्ट्रीय विषाणु वर्गीकरण समिति ने इसे कखत (र्कीारि र्खााीिि-वशषळलळशलिू र्ींर्ळीीी) नाम प्रदान किया तथा इस रोग को अखऊड (अलिंर्ळीीशव र्खााीिि ऊशषळलळशलिू डूविीिा) का नाम मिला । इस वायरस का आकर अत्यंत सूक्ष्म है । इसके बाहरी भाग में प्रोटीन और ग्लायको-प्रोटीन का आचरण होता है जो अपने अंदर एकल सूत्रीय ठछअ के रूप में अनुवांशिक पदार्थ को सुरक्षित रखता है । यह रिटो-वायरस समूह का सदस्य है । अखऊड रोग में मनुष्य का प्रतिरक्षा तंत्र सर्वाधिक प्रभावित होता है । ये वायरस मानव कोशिका में प्रवेश कर गुणन करते हैं ओर अपने जैसे कई अन्य वायरस का निर्माण करते हैं । इस विषाणु का गुणन मुख्यत: रक्षक कोशिकाआें में होता है । इस प्रकार ये रक्षक कोशिकाएं बाहरी रोग जनकों से लड़ने में असमर्थ हो जाती है । ऐसी स्थिति में रोगी अन्य विभिन्न रोगों की चपेट में आने लगता है। कखत मानव रक्त तथा शारीरिक द्रवों में भलीभांति वृद्धि करता है । इस रोग के फैलने में रक्त की महत्वपूर्ण भूमिका है, अत: इसे रक्त वाहित या प्रजनन वाहित रोग के रूप में भी जाना जाता है । मनुष्यों में इस रोग के फैलने का एक तरीका यह है कि समलैंगिक व विषम लैंगिक प्रजनन के दौरान वायरस संक्रमित व्यक्ति से किसी स्वस्थ महिला या पुरूष में पहुंचते हैं और रोग की शुरूआत करते हैं । अस्सी के दशक में इस रोग के सर्वाधिक वाहक समलैंगिक थे । किंतु अब यह रोग सभी में भी तेज़ी से फैल रहा है । इस रोग के संचरण का दूसरा महत्वपूर्ण कारण रक्त का आदान-प्रदान भी है । वाहक कखत व्यक्ति का रक्त स्वस्थ मनुष्य को प्रदान करने अथवा विषाणु संक्रमित सुई के उपयोग से भी यह रोग फैलता है । न्यूयॉर्क में नशीली दवाई का उपयोग करने वाले लगभग ढाई लाख व्यक्तियों में से ६० प्रतिशत लोग कखत ग्रस्त पाए गए हैं । संक्रमित सुई तथा इंजेक्शन क्का उपयोग इसका प्रमुख कारण रहा है । स्वस्थ व एड्स रोगी से रिसते घावों के सम्पर्क से भी यह रोग फैलता है। संक्रमित महिला का गर्भस्थ शिशु भी संक्रमित हो सकता है । बच्च्े को यह रोग गर्भ में ही माता से प्राप्त् होने वाले पोषण अथवा जन्म के बाद प्राप्त् दूध के द्वारा पहुंचता है । कखत संक्रमित माता से बच्च्े को एड्स होने की संभांवना २५ से ५० प्रतिशत तक रहती है । ढ-४ प्रतिरक्षा कोशिकाआें से वायरस से संबंध स्थापित होने पर संक्रमण की शुरूआत हो जाती है । यहां से यह वायरस लिम्फोसाइट कोशिका की बाहरी झिल्ली को भेदते हुए अपना अनुवांशिक पदार्थ (आरएनए) कोशिका में पहुंचा देता है । इस अनुवांशिक जानकारी की प्रतिलिपि रिचर्स ट्रान्सक्रिप्टेस एंजाइम की सहायता से डीएनए के रूप में बना ली जाती है । यह डीएनए लिम्फोसाइट कोशिका के नाभिक में पहुंच कर उसका अविभाज्य अंग बन जाता है । अब कोशिका विभाजन के समय विषाणु का अनुवांशिक पदार्थ भी विभाजित होता है और नई कोशिकाआें में पहुंचता रहता है। वायरस का यह डीएनए मानव शरीर में लगभग ६ वर्ष तक सुप्त् अवस्था में रहता है । इस अवधि को सुप्त् अवधि करते है। अचानक संक्रमित लिम्फोसाइट वायरस का डीएनए प्रोटीन का निर्माण करने लगता है जिससे असंख्य नए वायरस बनने लगते हैं । ये नए वायरस लिम्फोसाइट कोशिका से मुकुलन के द्वारा मुक्त होने लगते हैं और नई-नई कोशिकाआें का अपना शिकार बनाते लगते हैं जिससे संक्रमण बढ़ता है और वे कोशिकाएं नष्ट होने लगती हैं जिनमें वायरस का गुणन हुआ हो । एड्स के रोगी की पहचान चार चरणों में की जा सकती है । प्रथम चरण में संक्रमण के तत्काल बाद रोगी के शरीर में प्रतिरक्षा इकाइयों (एन्टी बॉडी) का निर्माण होता है । ऐसी अवस्था में रोगी में फ्लू जैसे लक्षण पाए जाते हैं । रोगी के शरीर पर बारीक फुंसियां उभर आना तथा लसिका ग्रंथियों का फूलना प्रमुख है । इन लक्षणों का सामान्यत: उपचार सम्भव है। दूसरा चरण कखत एण्टीबॉडी पॉजिटिव अवस्था कहलाती है । यह वह अवधि होती है जिसमें संक्रमण की शुरूआत से लेकर प्रारंभिक चिकित्सकीय लक्षण प्रकट होने लगते हैं । यह अवधि कुछ सप्तह से लगाकर १३ से अधिक वर्ष तक हो सकती है । तीसरा चरण एड्स संबंधी संकुल (ए.आर.सी.) के रूप में जाना जाता है। इसमें कोई भी सामान्य जीवाणु, वायरस, कवक-जन्य संक्रमण हो जाता है, जो लम्बे समय तक बना रहता है । यह सामान्य उपचार से ठीक नहीं होता । ऐसे रोगियों में मुखगुहा तथा जननांगों का हर्पीस रोग भी प्राय: देखा गया है । रोगी के शरीर का वज़न एकदम घट जाता है । उनके प्रतिरक्षा तंत्र की टी-हेल्पर कोशिकाआें में भी आश्चर्यजनक कमी हो जाती है । इस अवस्था में रोगी को विशेष देखभाल की आवश्यकता होती है क्योंकि इसी स्थिति में रोग पूरी तरह से सामने आता है । चौथे चरण में सूक्ष्मजीव संक्रमण और बढ़ जाते हैं । साथ ही शरीर के विभिन्न अंगों में कई रोग तथा द्वितीयक कैंसर की शिकायत सामान्य है । अन्तत: रोगी में एच.आई.वी. क्षय के लक्षण नजर आने लगते हैं तथा इनसे जूझते हुए उसे काल के गाल में समाना ही पड़ता है । सूक्ष्म जैविकी तथा चिकित्सा विज्ञान में हुए आधुनिक शोध के द्वारा रक्त के नमूने की जांच से प्रारंभिक अवस्था में ही एड्स का पता लगाया जा सकता है। का किंतु कई बार एड्स का टेस्ट नकारात्मक होने के बावजूद व्यक्ति एड्स से पीड़ित हो सकता है, क्योंकि ये वायरस लम्बे समय तक अपनी उपस्थिति को छुपाए रखने में माहिर हैं । फिर अचानक प्रकट होकर रोगी के बचने की कोशिशों को नामकाम कर देते हैं । एड्स एक विषाणु जन्य रोग है । अत: इसका उपचार अपेक्षाकृत मुश्किल है । जीवाणु तथा कवक-जन्य रोगों का उपचार तो एन्टीबॉयोटिक्स के माध्यम से सम्भव है किंतु वायरस के लिए कोई एन्टीबॉयोटिक उपलब्ध नहीं है । अभी जो भी उपचार किया जाता है वह लक्षणें के आधार पर द्वितीयक संक्रमण से मुक्ति पाने का ही प्रयास होता है । वर्तमान में एड्स रोग से निपटने के लिए हो रहा शोध मुख्यत: तीन महत्वपूर्ण अवधारणाआें पर केन्द्रित है -- क्षतिग्रस्त प्रतिरक्षातंत्र को दुरूस्त करना,- ऐसी औषधियों का विकास करना जो वायरस की वृद्धि को रोकें और अन्य संक्रमणों का उपचार कर सकें,- इस रोग के लिए टीका तैयार करना । तीनों दिशाआें में हो रहे प्रयासों में अभी तक किसी भी क्षेत्र में पूर्ण सफलता प्राप्त् नहीं हुई हैं, क्योंकि प्रत्येक विधि में कुछ-न-कुछ जटिल समस्या है जिसका निराकरण अभी शेष है । प्रतिरक्षा तंत्र को सुधारने और मजबूत करने की दिशा में रक्त कैंसर की ही भांति अस्थि मज्जा बदलने का प्रयास भी किया गया किंतु वह कारगर सिद्ध नहीं हुआ है । इसके अतिरिक्त कुछ विशेष प्रकार के प्रोटीन लिम्फोकाइन्स का उपयोग किया गया जिनमें इन्टरफेरोन प्रमुख हैं । इनका इस्तेमाल एक प्रकार के त्वचा कैंसर युक्त एड्स के उपचार में किया गया है । अल्फा इन्टरफेरोन तथा इन्टरल्यूकिन से इस क्षेत्र में आंशिक सफलता मिली है । औषधियों के रूप में एजीडो थाइमिडीन का उपयोग प्रारम्भिक वर्षो में किया गया था । इससे रोगी को कुछ अधिक समय तक जीवित रखने में तो सफलता मिली थी, किंतु इससे एनीमिया जैसे हानिकारक प्रभाव हुए थे । एजीडो थाइमिडीन से मिलते-जुलते जेल्सीटाबाइन से वायरस की वृद्धि और गुणन को रोकने में प्रायोगिक तौर पर सफलता मिली, किंतु रोगी के उपचार हेतु उपयोग में लाने पर यह औषधि विषैली पाई गई । जापान के वैज्ञानिकों के अनुसार मुलैठी से प्राप्त् होने वाला पदार्थ ग्लिसरेजीन हिपेटाइटिस के अलावा एच.आई.वी. की रोकथाम के कारगर है, किंतु इस औषधि का चिकित्सकीय परीक्षण अभी शेष है । विषाणु जन्य रोगों की रोकथाम का सफलतम उपाय टीकाकरण है । मनुष्य को पोलियो, मम्स, चेचक, खसरा जैसी कई बीमारियों से टीकाकरण से ही मुक्ति मिली है, अत: एड्स की रोकथाम के लिए भी टीका बनाने के प्रयास समूचे विश्व में चल रहे हैं किंतु इसमें सबसे बड़ी कठिनाई इस वायरस की परिवर्तनशील अनुवांशिक संचरना है जिसके कारण टीका नहीं बन पा रहा है । इसके अलावा टीके के निर्माण के साथ कुछ सुरक्षा संबंधी प्रश्न भी जुड़े हुए हैं । टीकों का निर्माण सक्रिय वायरस से या क्षीण वायरस से किया जाता है जिनके परीक्षण मुश्किल हैं। आज तक एड्स से बचाव के लिए कोई टीका उपलब्ध नहीं है किन्तु भविष्य में ऐसा टीका बन जाने पर भी कई सामाजिक समस्याएं उत्पन्न होंगी । जैसे, यह टीका किस आयु वर्ग के लिए होगा? क्या नौकरी आदि के लिए ऐसा टीका लगवाना अनिवार्य होगा ? क्या यह सभी व्यक्तियों को लगाया जाएगा या केवल उन्हीं को जिनमें इस रोगी आशंका अधिक हो ? ऐसे कई प्रश्न भविष्य में उठ सकते हैं । एड्स जैसे संक्रामक रोग के निदान हेतु उपचार की अपेक्षा बचाव कारगर है। वैसे भी सूक्ष्मजीवों और वायरस को समाप्त् करना मनुष्य के बूते में नहीं है । अत: सुरक्षात्मक उपाय ही श्रेष्ठ हैं । इसलिए बेहतर यही है कि सभी किशोर वय एवं वयस्क व्यक्तियों को एड्स के कारण, संक्रमण व बचाव की स्पष्ट जानकारी देना चाहिए । इस रोग से संबंधित भ्रमों की निवारण होना भी आवश्यक है । हालांकि आज पूरे विश्व में शासकीय, तथा स्वयंसेवी संगठनों के माध्यम से एड्स की रोकथाम के उपायों से जन सामान्य को अवगत करवाया जा रहा हे, फिर भी एड्स संक्रमित व्यक्तियों की संख्या तो अप्रत्याशित रूप में बढ़ती ही जा रही है । अत: जन शिक्षा के माध्यम से इसका नियंत्रण जरूरी है अन्यथा इसकी सजा सम्पूर्ण मानव जाति को भुगतना पड़ेगी । हमें एड्स वायरस की संरचना और संक्रमण के तरीके की पर्याप्त् जानकारी है किंतु आज भी यह एक रहस्य ही है कि अचानक अस्सी के दशक में ये विषाणु कहां से प्रकट हो गए? क्या ये वानर जाति या चिपैंजी से मनुष्य में पहुंचे ? अफ्रीकी और अमेरिकी एड्स वायरस में अंतर पाया गया है । तो क्या दोनों का विकास अलग-अलग प्रकार से हुआ ? हालांकि कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय के वैज्ञानिकों के मतानुसार लगभग ३० लाख साल पहले चिंपैंजी एड्स जैसे वायरस की चपेट में आए थे किंतु उनका अनुवांशिक तंत्र इनसे निपटने में सक्षम हो गया था । इसका मतलब यह हुआ कि चिपैंजी से मानव में इस रोग के पहुंचने की संभावना तो बहुत कम है। इस प्रकार के कई प्रश्न इस रोग और इसके निदान में अभी भी अनुत्तरित हैं जिनके उत्तर खोज जाने हैं ।

१० ज्ञान विज्ञान

नई तकनीक से विकसित होगा हाइड्रोजन इंर्धन

पेट्रोल-डीजल की बढ़ती कीमतों से परेशान लोगों के लिए यह खबर राहतभरी है । अब उन्हें वाहन चलाने के लिए पेट्रोल-डीजल पर निर्भर नहीं रहना पड़ेगा, क्योंकि उन्हें इंर्धन के रूप में भरपूर मात्रा में हाइड्रोजन गैस मिलेगी । इससे न सिर्फ प्रदूषण कम होगा बल्कि पेट्रोल-डीजल के मुकाबले इसके सस्ते होने के दावे भी किए जा रहे हैं । अमेरिकी वैज्ञानिकों ने जैविक पदार्थो से हाइड्रोजन गैस तैयार करने की तकनीक विकसित कर ली है । इसके जरिए प्रचुर मात्रा में हाइड्रोजन गैस तैयार की जा सकती है । नई तकनीक में हाइड्रोजन गैस बनाने के लिए सैल्यूलोज और ग्लेकोज जैसे बायोमास का प्रयोग किया जाएगा । जिसका उपयोग वाहन चलाने, फर्टिलाइजर बनाने और पीने के पानी का ट्रीटमेंट करने के लिए किया जा सकेगा । इन दिनों दुनियाभर के वाहनों में प्रदूषण रहित इंर्धन का चलन बढ़ रहा है। इसके लिए हाइड्रोजन से चलने वाले इंजिन तैयार किए जा रहे हैं, लेकिन फिलहाल समस्या यह है कि हाइड्रोजन भरपूर मात्रा में उपलब्ध नहीं होने के कारण इसका चलन भी कम है । अमेरिकी वैज्ञानिकों ने इसी दिशा में काम किया और जैविक पदार्थो से हाइड्रोजन गैस तैयार कने की तकनीक विकसित कर ली । पेन्सिलवेनिया स्टेट यूनिवर्सिटी के इंजीनियरों ने इस तकनीक का परीक्षण कर लिया है । जो इलेक्ट्रॉन पैदा करने वाले बैक्टीरिया और छोटे इलेक्ट्रिकल चार्ज को माइक्रोबायल फ्यूल सेल के संपर्क से हाइड्रोजन पैदा करती है ।

पक्षियों के माफिया



यह तो आपने भी सुना होगा कि कोयल घोंसला नहीं बनाती है और कौवे के घोंसले में अण्डे देती है । पता नहीं, यह सवाल आपके मन में आया या नहीं कि कौवे यह सहन क्यों करते हैं । वैज्ञानिकों को जरूर यह सवाल परेशान करता रहा है। जैसे कोपनहेगन विश्वविद्यालय के एण्डर्स पेप मोलन ने काफी पहले यह पता लगाया था कि बड़े धब्बों वाली कोयलें (क्लेमेटॉर ग्लैण्डेरियस) एक तरह का माफिया चलाती हैं । स्पेन में किए गए इस अध्ययन से पता चला था कि ये कोयलें अपने अण्डे मैगपाई के घोंसले में देती हैं और यदि मैगपाई इन अण्डों को न रखें, तो कोयलें लौटकर मैगपाई के अण्डे या चूज़े नष्ट कर देती हैं। अब पता चला है कि अमरीकी काऊबर्ड तो इन कोयलों से भी ज्यादा खतरनाक हैं । इलियॉन नेचुरल हिस्ट्री सर्वे के जेम्स हूवर करीब चार वर्षो से ब्राउन हेडेड काऊबड्र्स (मोलोथ्रस एटर) का अध्ययन करते रहे हैं । ये काऊबड्र्स अपने अण्डे वार्बलर नामक पक्षी के घोंसलों में देती है । आम तौर पर माना जाता था कि वार्बलर पहचान नहीं पाती कि ये अण्डे उसके नहीं है और चुपचाप उनको सेती रहती थी । मगर हूवर व स्कॉट रॉबिसंन ने इस बात की जांच की तो नतीजे हैरतअंगेज रहे । अध्ययन करने के लिए हूवर व रॉबिसन ने वार्बलर्स को १८० कृत्रिम घोंसले प्रदान कर दिए । कुछ समय बाद काऊबड्र्स ने आकर अपने अण्डे इन घोंसलों में दिए । हूवर और रॉबिसन ने इन्हें हटा दिया । अण्डे हटाने की देर थी और काऊबड्र्स ने जबर्दस्त हमला किया । उन्होंने घोंसलों में शेष बचे वार्बलर अण्डे नष्ट कर डाले । और तो और, कुछ वार्बलर्स ने यह होशियारी दिखाई थी कि बहुत जल्दी अण्डे दे दिए थे ताकि काऊबर्ड द्वारा कब्जा किए जाने से पहले ही उनके चूजे निकल आएं । काऊबर्ड ने इन अण्डों को भी तबाह करके वार्बलर्स को मजबूत कर दिया कि वे फिर से अण्डे दें औरइसके बाद वे वार्बलर पक्षियों की जासूसी करते रहे कि वे कहां जाकर फिर से घोंसला बनाते हैं ताकि सही समय पर अपने अण्डे भी वहीं जाकर दे सकें । इस प्रक्रिया का परिणाम यह होता है कि काऊबर्ड को संतानोत्पत्ति के अवसर मुफ्त में मिलते हैं । लगभग २० प्रतिशत वार्बलर घोंसलों में इन काऊबड्र्स ने अण्डे दिए और नए बनाए गए घोंसलों में से भी ८५ प्रतिशत में अण्डे दिए थे । इस माफियागिरी के चलते वार्बलर के लिए समर्पण कर देना ही बेहतर होता है । देखा गया कि यदि वे काऊबर्ड के चूजे को पाल लें तो उनके अपने औसतन तीन चूजे जीवित रहते हैं। दूसरी ओर, यदि वे काऊबर्ड के अण्डे को अस्वीकार कर दें तो उनका मात्र एक चूजा ही बच पाता है । हूवर अब कोशिश कर रहे हैं कि इस पूरी प्रक्रिया की फिल्म बनाए ताकि इसे बारीकी से समझा जा सके और यह सवाल तो है ही कि क्या कोयलें भी कौआे के साथ ऐसा ही व्यवहार करती हैं ।
लखटकिया साइकल की दस्तक


टाटा की लखटकिया कार के ऐलान के बाद अब लाख टके की साइकल की बारी है । कीमत बेशुमार होने के बावजूद इसे बनाने वाली कंपनी कोइसकी सफलता पर पूरा भरोसा है । कंपनी का मानना है कि आने वाला वक्त पेट्रोल नहीं, पेडल से चलने वाले टू-वीलरों का होगा । इसकी कीमत १ लाख ६ हजार रूपये है । घरेलू कंपनी फायरफॉक्स बाइक्स प्राइवेट लिमिटेड ने फ्यूल एक्स ८ बाइक नाम की यह साइकल पेश की है । कंपनी अमेरिका में स्थित अपनी सहयोगी कपंनी ट्रेक के माध्यम से इसे सोर्स करेगी । फायरफॉक्स के मैनेजिंग डायरेक्टर शिव इंदरसिंह ने बताया कि काफी सीरियस बाइकर्स को ध्यान में रखकर साइकल के इस मॉडल को लॉन्च किया गया है । उन्होंने बताया कि इस प्रॉडक्ट के बारे में शुरूआती रिस्पॉन्स काफी उत्साहजनक रहा है । कंपनी को पहले ही ३ ऐसी साइकल के ऑर्डर प्राप्त् हो चुके हैं । इस साइकल में स्पोट्र्स फीचर मौजूद हैं । मसलन इसमें हाइड्रोलिक और गैस से भरे हुए शॉक एबजॉर्बर, डिस्क ब्रेक जैसे विकल्प मुहैया कराए गए हैं । इसके अलावा २७ गीयर भी होंगे । श्री सिंह ने कहा कि इसे शहरी बच्चें को ध्यान में रखकर बनाया गया है । ये बच्चें में पश्चिमी मुल्कों के लाइफस्टाइल को खासा पसंद करते हैं । चूंकि ऐसे बाइक पश्चिमी देशों में काफी हिट हैं, लिहाजा हमें भारत में भी अच्छे रिस्पॉन्स मिलने की उम्मीद है । उन्होंने बताया कि कंपनी वर्तमान टारगेट १२ हजार यूनिट की बिक्री करने का है । २०११ तक इसे बढ़ाकर ६० हजार यूनिट करने का लक्ष्य है । नए मॉडल कंपनी के सभी २२ आउटलेट्स पर उपलब्ध होंगे । उन्होंने बताया कि भारत में साइकल का कुल बाजार तकरीबन १.५ करोड़ डॉलर (तकरीबन ६० करोड़ रूपये) का है । इसका ५ से ७ फीसदी हिस्सा अलग किस्म के साइकल्स के लिए है । यह साइकल सिर्फ आर्डर पर ही उपलब्ध होगी । ऑर्डर के ३ हफ्ते के भीतर इसे ग्राहक को मुहैया करा दिया जाएगा । सिंह ने कहा कि शुरू में कंपनी इस साइकल को दिल्ली स्थित अपने आउटलेट्स में ही पेश करेगी । बाद में इसे अन्य महानगरों में भी पेश किया जाएगा । हालांकि फिलहाल इस प्रॉडक्ट के ऑल इंडिया लॉन्च की संभावना नहीं है । मेट्रो शहरों में रिस्पॉन्स के बाद ही इस पर विचार किया जाएगा ।
गंध से शत्रु को पहचान लेते हैं हाथी
हम इंसान भले ही अपने मित्र या शत्रु को पलचानने में धोखा खा जाएं, लेकिन हाथी इसमें बड़े उस्ताद होते हैं । वे किसी मनुष्य के कपड़े के रंग या गंध से भी यह अनुमान लगा लेते हैं कि अमुक व्यक्ति उनका मित्र है या शत्रु । गंध के अलावा इस बात का भी अध्ययन किया गया कि हाथी रंग से जुड़े संभावित खतरे को पहचान पाते हैं अथवा नहीं । इसके लिए उन्हें सफेद व लाल रंग के कपड़े दिखाए गए । सफेद रंग के प्रति तो वे शांत रहे, लेकिन लाल रंग को देखते ही भड़क गए । मनोवैज्ञानिक इस अध्ययन से काफी उत्साहित हैं । उनका कहना है कि यह संभवत: ऐसा पहला मौका है जब किसी जानवर ने एक ही प्रजाति के अपने शिकारी के खतरे को अलग-अलग श्रेणियों में विभाजित किया हैं ।

शुक्रवार, 14 दिसंबर 2007

११ जलवायु

विनाश के मुहाने पर दुनिया
बान की मून
हम सभी आज सहमत हैं कि जलवायु परिवर्तन वास्तव में हो रहा है और हम ही इसके लिए प्रमुख रूप से जिम्मेदार हैं । इसके बावजूद चंद लोग ही इस खतरे की गंभीरता को समझ पा रहे हैं । मैं भी इसे गंभीरता से नहीं लेता था। आंखें खोल देने वाले `इको टूर' के बाद मैंने इस खतरे की भयावहता को समझा । यूं मैंने ग्लोबल वार्मिंग को हमेशा ही सर्वोच्च् प्राथमिकता दी है, लेकिन अब तो मैं मानता हूं कि हम विनाश के मुहाने पर खड़े हैं और इस दिशा में समय रहते ठोस प्रयास किए जाने की जरूरत है । पिछले दिनों अंटार्कटिक में मैंने दुलर्भ नजारों के दर्शन किए । ऐसे खूबसूरत नजारों को देखना मेरे जीवन का बहुत ही यादगार अनुभव रहा । इसके बावजूद इन नजारों ने मुझे दु:खी भी कर दिया, क्योंकि मैं बदलती दुनिया को स्पष्ट देख पा रहाा था । सदियों पुरानी बर्फ हमारी कल्पना से कहीं अधिक तेजी से पिघल रही है । जगप्रसिद्ध लार्सन हिमखंड पांच वर्ष पहले ही लुप्त् हो चुका है । ८७ किलोमीटर लंबे इस विशाल हिमखंड में छोटे देश समा सकते थे, लेकिन महज तीन सप्तह में यह हिमखंड पिघल कर लुप्त् हो गया । किंग जॉर्ज द्वीप में चिली रिसर्च बेस में कार्यरत वैज्ञानिकों ने मुझे बताया कि संपूर्ण पश्चिमी अंटार्कटिक हिम पट्टी खतरे में है । लार्सन की ही तरह यह पट्टी भी पानी पर तैर रही है और इसका आकार पूरे द्वीप के कुल क्षेत्रफल का पांचवा हिस्सा है । अगर यह टूटती है तो समुद्र स्तर में छह मीटर की वृद्धि तय है। अब जरा इस वृद्धि के आलोक में समुद्र तट और उसके किनारे बसे शहरों की कल्पना कीजिए । समुद्र स्तर में वृद्धि से न्यूयॉर्क, मुंबई और शंघाई जैसे तटीय शहरों का क्या होगा । विभिन्न द्वीपों पर बसे छोटे-छोटे देशों का जिक्र करने की तो आवश्यकता ही नहीं है । हो सकता है कि ऐसा कुछ अगले सौ वर्षो में भी न हो और हो सकता है कि महज दस वर्षो में ही ऐसा कुछ हो जाए । हम वास्तव में इस बाबत कुछ नहीं जानते हैं, लेकिन इतना तय है कि ऐसा कुछ भी घटेगा तो बहुत तेजी से घटेगा । रातोरात ऐसा कुछ हो जाएगा । यह किसी विध्वंस प्रधान फिल्म की कहानी सी लगती है, लेकिन यह वास्तव में विज्ञान है । कोई विज्ञान फंतासी फिल्म नहीं । विशेषज्ञ इस बाबत चिंतित हैं। उत्तरी दिशा में स्थित इस क्षेत्र को मध्य एशिया और ग्रीनलैंड के साथ तीन संवेदनशील `हॉट स्पॉट' में से एक माना गया है । कारण, यहां तापमान वैश्विक औसत तापमान से दस गुना अधिक तेजी से बढ़ रहा है । ग्लेशियर आंखों के सामने पीछे खिसक रहे हैं । घास-फूस जड़ें जमाने लगी है । अक्सर गर्मी के मौसम में बर्फबारी के बजाय पानी बरसने लगा है । मैं आपको डरा नहीं रहा हूं, लेकिन मुझे लगता है कि हम चरम बिंदु पहुंच चुके हैं । इसके संकेत एकदम साफ हैं । मैं जहां-जहां गया मैंने ये संकेत स्पष्ट देखे । चिली में शोधकर्ताआे ने बताया कि वे जिन १२० ग्लेशियर्स पर निगाह रखे हुए हैं उनमें से आधे सिकुड़ रहे हैं। उनके सिकुड़ने की दर बीते एक-दो दशकों से दोगुना है । इनमें राजधानी सेंटियागो से बाहर स्थित पहाड़ों के ग्लेशियर भी शामिल हैं, जो साठ लाख क्षेत्रीय लोगों को पीने का पानी मुहैया कराने के प्रमुख स्त्रोत हैं । उत्तर में सूखे के बढ़ते प्रकोप ने खनन उद्योग को संकट में ला दिया है । अर्थव्यवस्था के इस महत्वपूर्ण अंग के साथ-साथ कृषि और जलविद्युत ऊर्जा पर भी संकट मंडरा रहा है । इस यात्रा के दौरान मैंने एक पूरा दिन अंतरराष्ट्रीय ख्यातिप्राप्त् टोरेस डेल नेशनल पार्क में भी बिताया । इस बेहद खूबसूरत, शांत और भव्य पार्क में भी संकट के चिन्ह देखने में आए । एंडीज पर्वत श्रृंखला की बर्फ भी हमारी सोच से कहीं तेजी से पिघल रही है । अल्पाइन से घिरे बर्फीले समुद्र का नजारा देते ग्रे ग्लेशियर का मैंने हवाई नजारा किया । १९८५ में यह महज दो सप्तह में तीन किलोमीटर पीछे खिसक गया था । एक बार फिर विषम, अनिश्चित और विध्वंसक लार्सन प्रभाव के साक्षात दर्शन हुए । कोम्बू द्वीप समाउमीरा पेड़ के तले मैंने अपनी यात्रा समाप्त् की । यह स्थान अमेजन नदी के मुहाने से ज्यादा दूर नहीं हैं । यह कपोल कल्पित `पृथ्वी के फेफड़े' का हृदय स्थल भी है । यहां के उष्णकटिंबंधीय वर्षाऋतु वाले वन भी जंगलों की कटाई और भूमि क्षरण की भेंट चढ़ चुके हैं। यानी वैश्विक स्तर पर २१ फीसदी कार्बन के उत्सर्जन के लिए सीधे तौर पर यह क्षेत्र जिम्मेदार है । वैज्ञानिकों का कहना है कि जलवायु परिवर्तन पूर्वी अमेजन को कुछ ही दशकों में वृक्षहीन लंबी घास वाले क्षेत्र में परिवर्तित करके रख देगा । यह सब काफी निराश करने वाला था । फिर भी मैं पूरी तरह बुझे मन से रवाना नहीं हुआ । कारण, शेष विश्व को शायद ही यह मालूम हो कि ब्राजील ने स्वयं को विशालकाय हरियाली वाले क्षेत्र में बदल कर रख दिया है । पिछले दो वर्षो में ब्राजील ने अमेजन के जंगलों की कटाई की दर आधी कर दी है । जंगलों का एक बड़ा हिस्सा संरक्षित कर दिया है । ब्राजील ऊर्जा के नवीनीकरण में शेष विश्व का अग्रणी बनकर उभरा है । यह उन चंद देशों में शामिल हैं, जो विस्तृत पैमाने पर बायो इंर्धन का सफलतापूर्वक उपयोग कर रहे हैं । यह सरकार की जिम्मेदारी है कि वह सामाजिक दायित्वों और सरकारी लाभ के बीच संतुलन कैसे स्थापित करती है। महत्वपूर्ण यह है कि ब्राजील इस दिशा में कुछ सार्थक कर रहा है । ग्लोबल वार्मिंग के खिलाफ उसके प्रयास अनुकरणीय और सराहनीय हैं । यह हम सभी के लिए एक सबक भी है । लंबे समय तक हमने जलवायु परिवर्तन की गंभीरता को कमतर आंकने का काम किया है । ऐसे में अब यह समय जागने का है। हम इसे पराजित कर सकते है । जलवायु परिवर्तन से निपटने के तमाम वाजिब तरीके हैं । हमें ध्यान रखना होगा कि जलवायु परिवर्तन किसी सीमा को नहीं पहचानता है। अत: इसका समाधान भी वैश्विक ही होना चाहिए । दुनिया में रहने वाले हर एक इंसान को इस बारे में गंभीरता से विचार और काम करना होगा ।

१२ प्रदेश चर्चा

पंजाब : कीटनाशकों के शिकार किसान
सेव्वी सौम्य मिश्रा
दो साल पहले पंजाब प्रदेश के मालवा अंचल के लोगों का ध्यान अपनी ओर खींचा और इसकी वजह थी यहां कैंसर के मामलों में अत्यधिक वृद्धि । अध्ययन में कीटनाशकों के अत्यधिक उपयोग और इस बीमारी के बीच का अंतर्सम्बन्ध उजागर हुआ । यहां की स्थिति अब भी जस की तस है । `कपास' की पैदावार वाले मालवा अंचल में कीटनाशकों का बहुत ज्यादा उपयोग होता है । दशकों से कीटनाशकों का बेतहाशा उपयोग यहां कैंसर के मामलों में हो रही तेज वृद्धि का कारण है । २८ अगस्त ०७ को प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार प्रांत की कुल कीटनाशक खपत का ७५ प्रतिशत अकेला मालवा अंचल उपयोग करता है और देश की कुल खपत का १७ प्रतिशत अकेला पंजाब उपयोग करता है । हालांकि २००५-०६ में पिछले वर्ष की अपेक्षा कीटनाशकों के उपयोग में लगभग १३ प्रतिशत की कमी आई थी किंतु इस वर्ष कीट हमले के मद्देनजर इसके उपयोग में व्यापक वृद्धि होने की संभावना है । राज्य के स्वास्थ्य विभाग द्वारा जारी २००५ के आंकड़ों के मुताबिक १२ लाख की आबादी वाला भटिंडा जिला ७११ कैंसर मामलों के साथ राज्य में सबसे ऊपर है । ५९ प्रति लाख आबादी का यह औसत, राष्ट्रीय औसत ७० से नीचे है, किंतु स्थानीय सामाजिक कार्यकर्ताआे के अनुसार प्रस्तुत आंकड़ा वास्तविक आंकड़े से काफी कम है । भटिंडा, मुक्तसर, फरीदकोट और मन्सा जिलों में पिछले दस वर्षो में कैंसर से कुल २४७२ आधिकारिक मौतें हुई है । किंतु फरीदकोट के गैर सरकारी संगठन `खेती विरासत मिशन' के कार्यकारी निदेशक उमेन्द्र दत्त के मुताबिक यह आंकड़ा कम से कम दस हजार है । भटिंडा के ५०० मकानों वाले जज्जल गांव में गत दस वर्षो में सर्वाधिक ८५ कैंसर के मामले उजागर हुए । यहां कमोवेश हर गली में आपको कैंसर का कोई मरीज मिल जाएगा । गुजरांत सिंह प्रेमी, जिसके स्वयं के फेफड़े में एक छेद है के परिवार में कैंसर से आठ मौतें हो चुकी है । उन्हें गुर्दे की शिकायत भी है, इसके बावजूद वे अपनी कपास की फसल पर कीटनाशक छिड़कते है और उनकी पत्नी ने तो अब दूरी, कमजोरी और तेज दवाआें की वजह से अस्पताल भी जाना छोड़ दिया है । दर्द बढ़ने पर अब वे दर्दनाशक दवाएं लेकर काम चला लेते हैं । डॉक्टरों के अनुसार एलर्जी, अस्थमा और जोड़ों के दर्द के मामले आम हैं । बच्च्ेदानी के कैंसर के मामले भी बढ़ते जा रहे हैं । कई मामलों में विकलांग बच्चे का जन्म या जन्म के बाद विकलांगता भी दिखाई दी है । जज्जल का १४ वर्षीय जगदेवसिंह जो तीन साल पहले एक सामान्य बच्च था । स्नायुतंत्र की समस्या के चलते आज व्हील चेयर पर है । वहीं गुरूदर्शन सिंह को बांई आंख की रोशनी चली जाने की वजह से स्कूल छोड़न पड़ा, बाद में उसकी दाई आंख की रोशनी भी चली गई । डॉक्टरों ने उसके रेटिना में छेद होना पाया है । नाड़ी विशेषज्ञों का मत है कि नाड़ी विकार, गर्भपात, दिमागी बीमारी, बांझपन व समयपूर्व वृद्धावस्था को भी इसमें सम्मिलित किया जाना चाहिए । राज्य प्रदूषण बोर्ड की रिपोर्ट भी कीटनाशकों और पानी के प्रदूषण के खतरों का अनुमोदन करती है । इस मामले में वह सीएसई और पीजीआईएमइआर चंडीगढ़ द्वारा २००५ में मालवा में कराए गए अध्ययनों का हवाला देती है । सीएसई द्वारा २००५ में ये मामला उठाए जाने के परिणाम स्वरूप पंजाब सरकार ने दो समितियां गठित की, जिनमें से एक के अध्यक्ष मुख्यमंत्री स्वयं थे, उस समिति की आज तक कोई बैठक नहीं हुई है । पीजीआईएमइआर के अध्ययन ने साबित किया था कि भटिंडा के तलवंडी ब्लॉक में नलों और जमीन के अंदर के दोनों ही तरह के पानी में हेप्लाक्लोर की मात्रा मानक सीमा से अधिक थी । हेप्टाक्लोर एक ऐसा कीटनाशक है जो वातावरण में घुल जाता है और खाद्य श्रृंखला में भी जगह बना लेता है । स्टॉक होम कन्वेंशन ऑन पर्सिस्टंट ऑर्गेनिक पॉल्युटेंट्स की अनुशंसा के आधार पर इसका प्रयोग प्रतिबंधित है । तलवडी साहब और रूपनगर के चमकीर साहिब ब्लॉक के कैंसर के मरीजों के खून के नमूनों में हेप्टाक्लोर के अलावा एल्ड्रीन और एण्डोसल्फॉन जैसे कीटनाशकों की मौजूदगी पाई गई थी । एल्ड्रीन से स्नायुतंत्र प्रभावित होता है । पीजीआईएमईआर ने कीटनाशकों के प्रभावों को कम करने के बारे में अनुशंसाए की थीं किंतु उन पर अमल सिर्फ कागजों तक ही सीमित रह गया । राज्य की स्वास्थ्य सेवाआे के निदेशक सुखदेव सिंह से जब इसकी बात करनी चाही तो उन्होंने पंजाबी के अलावा और कोई भाषा न आने का बहाना कर बात करने से मना कर दिया । कमान सम्हाली राष्ट्रीय कैंसर नियंत्रण कार्यक्रम में प्रोजेक्ट ऑफिसर नवनीत कंवर ने । जवाब चिरपरिचित था । हमने कई स्वास्थ्य शिविर आयोजित किए हैं । वास्तव में यह दो साल पुरानी बात है । मालवा में सरकार के स्वास्थ्य सेवकों की भर्ती के दावे भी स्थानीय लोग अस्वीकार करते हैं । तत्कालीन मुख्यमंत्री केप्टन अमरिंदर द्वारा प्रभावितों को मुआवजे की घोषणा भी नाकारा सिद्ध हुई है ।

१३ पर्यावरण समाचार

केवलादेव उद्यान का नया रूप निखरा
विलायती बबूल को जड़ से उखाड़ने के जन भागीदारी अभियान की बदौलत राजस्थान में केवलादेव राष्ट्रीय उद्यान भरतपुर का रूप निखर गया है । पिछले डेढ़ दशक से करोड़ों की संख्या में कुकुरमुत्ते की तरह विदेशी बबूल (प्रौसोफिस ज्यूलीफिलोरा) ने इस उद्यान को एक तरह से लील लिया था । इस कारण स्थानीय प्रजाति के बेर, हींस, पीलू, कदम्ब, जामुन इत्यादि पेड़-पौधे विलायती बबूल की जकड़न में आ गए थे और विभिन्न वन्य जीवों के स्वछंद विचरण में बाधा उत्पन्न हो गई थी । इस वर्ष के आरंभ में उद्यान के निदेशक सुनयन शर्मा की पहल पर केवलादेव उद्यान को विलायती बबूल से मुक्त करने के इस अनुष्ठान में निकटवर्ती १५ गाँवों के लगभग ३ हजार परिवारों को जुटाया गया। लोकतांत्रिक तरीके से ग्रामसभा की समितियों की बैठक बुलाकर गरीब और पिछड़े तबके के परिवारों को वरीयता देकर बबूल के पेड़ उखाड़ने के लिए निर्धारित खेत्र का आवंटन किया गया । इन परिवारों के स्त्री पुरूष और युवा अपना पसीना बहाकर सात-आठ फुट तक गहरे ग े खेदकर इन पेड़ों को जड-मूल से उखाड़ रहे हैं । अपने परिश्रम के रूप में इन पेड़ों से निकली जलाऊ एवं इमारती लकड़ी उन्हें ले जाने की छूट दी गई है। केवलादेव उद्यान प्रशासन ने विलायती बबूल को जड़ से उखाड़ने को वरीयता दी और उसके साथ ही परिवार विशेष को आवंटित क्षेत्र से बबूल के अन्य छोटे पौधों का सफाया कर इलाके को साफ सुथरा बनाने की जिम्मेदारी सौंपी । पारदर्शिता के साथ इस पूरे कामकाज का रामनगर मल्हा तथा अन्य ब्लॉक के अनुसार व्यवस्थित रिकार्ड भी रखा गया । स्वच्छ प्रतिस्पर्धा के साथ उद्यान के निकटवर्ती गाँवों के लोग ग्रामीण और पर्यावरण मित्र के रूप में इस अनुष्ठान से जुड़े हैं । उद्यान निदेशक के अनुसार विलायती बबूल उन्मूलन अभियान के सरकार पर कोई वित्तीय बोझ नहीं आया है । बल्कि इससे अर्जित लकड़ी बेचकर कई परिवार कर्जे से भी मुक्त हुए हैं । विलायती बबूल के पेड़ों से पैदा होने वाले बीजों की फलियाँ खाकर मींगनी के रूप में छिछली झीलों सहित उद्यान क्षेत्र में विलायती बबूल की अप्रत्याशित वृद्धि ने इस उद्यान के अस्तित्व का संकट उत्पन्न कर दिया था लेकिन इस अभियान ने उद्यान को नवजीवन प्रदान किया है । छिछली झीलों में काफी संख्या में उग आए विलायती बबूल के पौधों को राज्य सरकार के स्तर पर नष्ट करने के लिए वित्तीय संसाधनों की जरूरत है ।