शनिवार, 12 जनवरी 2008

संपादकीय

गण तन्त्र से मुक्त कब होगा ?
२६ जनवरी १९५० को हमारे देश में संवैधानिक सरकार की शुरूआत हुई । इसी दिन से प्रत्येक वर्ष २६ जनवरी गणतन्त्र दिवस के रूप में मनाया जाता है । एक सम्पूर्ण प्रभुत्व लोकतन्त्रात्मक गणराज्य का आदर्श हमारा लक्ष्य है । देश के सभी नागरिकों को सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय, विचार अभिव्यक्ति , विश्वास, निष्ठा और पूजा की स्वतंत्रता, सामाजिक स्तर और अवसर की समानता होगी, ऐसा संविधान में कहा गया है । यह देश का दुर्भाग्य ही है कि स्वतंत्रता के समय सत्ता में जन तो परिवर्तित हो गया लेकिन तंत्र वहीं रहा । अंग्रेजी साम्राज्यवाद में अंग्रेजों ने अपने सत्ता केन्द्रों की सुरक्षा के लिए जिस तंत्र और तंत्रज्ञों का जाल बुना था दुर्भाग्य से हमने जनतंत्र के रूप में इसे ऐसा ही स्वीकार कर लिया यही कारण हुआ कि पुराने नौकरशाह स्वतंत्रता के बाद राजनीतिज्ञो के सेवक या सलाहकार के स्थान पर उनके मालिक हो गए । नौकरशाही के गलत रवैये के कारण ही आज स्थिति यह है कि आम आदमी को उसको सही, जरूरी और सम्भव सहायता नौकरशाहों की दया पर निर्भर है, पटवारी से मुख्य सचिव तक हमारे नौकरशाह सही मालिक होने का अभिनय बखूबी कर रहे हैं और मालिक होने का भ्रम पाले गणदेवता (नागरिक) बेचारा हाथ जोड़कर याचक की भूमिका से अब तक ऊपर नहीं उठ सका है । यह गणतंत्र के नाम पर छलावा नहीं तो क्या है ? सेवा भावना से गरीब के दर्द को समझकर काम कर सकने की भावना किसी भी प्रशासक में नहीं है । आदमी की औकात उनके सामने आंकड़ों के रूप में है कि इतनों की इतनी सहायता देनी है व्यक्ति नहीं लक्ष्य प्रमुख हैं इसलिए रोज लक्ष्यपूर्ति के दावे किये जाते हैं । व्यक्ति की अस्मिता जहां गोण हो जाए इससे ज्यादा दुभाग्यपूर्ण क्षण और क्या हो सकता है ? समाज परिवर्तन में हमारे प्रयास और सरकारी नीतियां इसीलिए असफल हो रही है कि अधिकारियों के मन में आम आदमी के प्रति प्रेम श्रद्धा या आदर का कोई स्थान नहीं है, आम आदमी को अधिकारीगण हिकारत की दृष्टि से देखते है । आज सही गणतंत्र में नागरिक सुविधाआे की दृष्टि से जरूरी हो गया है कि `गण' को तंत्र से जितना सम्भव हो सके मुक्ति को दिशा में ले जाया जाए, तंत्र से पूर्ण मुक्ति ही सच्च्े गणतंत्र की स्थापना में सहायक होगी, जब तक तो गणतंत्र के नाम पर तंत्र वालों की मौज चलती रहेगी । ***

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