जलवायु परिवर्तन पर भविष्य की चिंता
सारी दुनिया जलवायु में आने वाले बदलाव को लेकर चिंतित है और वैश्विक तापमान में वृद्धि के खतरों से आतंकित है, फिर भी आगे का रास्ता तय करने की बजाय इस बहस में समय गँवा रही है कि इसके लिए कौन कितना जिम्मेदार है और पहले कौन कार्रवाई शुरू करें । हाल ही में इंडोनेशिया के बाली में संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन सम्मेलन में दुनिया के १८७ देशों के प्रतिनिधियों ने दो सप्तह तक विचार-विमर्श किया । मगर उसके क्या परिणाम निकले और सम्मेलन को सफल माना जाए या असफल, इन प्रश्नों का उत्तर बतलाना बहुत मुश्किल है। केवल इतना ही कहा जा सकता है कि अब सभी देश स्वीकार करने लगे हैं कि वैश्विक तापमान वृद्धि एक वास्तविकता है और उसका निराकरण करने के लिए कुछ न कुछ करना होगा । सम्मेलन इस निष्कर्ष तक पहुँच पाया, इतनी ही उसकी सफलता है । मगर अमेरिका, योरप, चीन व भारत देश ग्रीन हाउस गैस के प्रदूषण स्तर को निर्धारित स्तर तक कम करने के उपाय लागू करने के प्रस्ताव पर एकमत नहीं हो सके । इस मुद्दे पर बातचीत आगे जारी रहेगी । दुनिया के देश क्योटो सम्मेलन में यह प्रस्ताव रख चुके हैं कि पर्यावरण प्रदूषण को रोकने के लिए ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन की मात्रा घटानी होगी । अमेरिका और विकसित औद्योगिक देशों में यह उत्सर्जन सर्वाधिक है । विकासशील देशों में भी शहरीकरण और आधुनिकीकरण के कारण इसकी मात्रा तेजी से बढ़ रही है । चीन और भारत इसके मुख्य उदाहरण हैं। अन्य देशों में भी जंगल काटने, शहर बसाने, सड़कें बनाने व स्वचलित वाहनों का प्रचलन बढ़ने के कारण जहरीली गैस तापमान बढ़ा रही है । संभव है कि शीघ्र ही आर्कटिक प्रदेशों में जमी बर्फ पिघल जाए और मुंबई जैसे भूभाग जलमग्न हो जाए । प्राकृतिक प्रकोप और दुर्लभ जैविक जातियों के पूर्णत: लुप्त् होने के खतरे विद्यमान है । सन् २०१२ में क्योटो अनुबंध की अवधि समाप्त् हो रही है । मगर अभी तक अमेरिका ने उस पर हस्ताक्षर ही नहीं किए है । अमेरिका की सहमति लेने के लिए योरपीय महासंघ ने जो प्रस्ताव रखा था, वह भी स्वीकार नहीं हुआ । यह तय हुआ कि २००९ के पूर्व अंतिम निर्णय ले लिया जाएगा । मगर तब तक पर्यावरण और भी विकृत हो चुका होगा तब परिस्थिति नियंत्रित करना कठिन हो जाएगा । इस बात की भी गारंटी नहीं है कि २००९ तक सहमति हो ही जाएगी । सहमति हो या न हो, जरूरी यह है कि प्रत्येक देश अपने यहाँ गैस-उत्सर्जन का स्तर घटाने और पर्यावरण प्रदूषण नियंत्रण करने का कार्यक्रम पूरी तरह से जारी रखे ।
देश में आठ नए एटमी संयंत्र स्थापित होंगे
देश में ऊर्जा की कमी को पूरा करने व परमाणु ऊर्जा के क्षेत्र में आत्मनिर्भरता बढ़ाने के लिए आठ नए परमाणु ऊर्जा संयंत्रों पर काम चल रहा है। इन नए संयंत्रों में प्रत्येक की क्षमता ७०० मेगावाट होगी । भाभा परमाणु अनुसंधान केन्द्र के निदेशक श्रीकुमार बनर्जी ने कहा कि इन नए प्रस्तावित आठ संयंत्रों को ६० वर्षो तक चलाने के लिए करीब अस्सी हजार टन यूरेनियम की आवश्यकता होगी । उन्होंने कहा कि देश के पास इस समय यूरेनियम का पर्याप्त् भंडार है । इस समय आंध्र प्रदेश में यूरेनियम की खदान मिली है जबकि मेघालय में भी यूरेनियम मिलने की जानकारी है । उन्होंने कहा कि परमाणु संयंत्रों के नए तरह से डिजाइन करने का प्रयास किया जा रहा है, इससे उनकी उम्र बढ़ जाएगी । फिलहाल परमाणु संयंत्र की आयु तकरीबन ४० वर्ष होती है । इस दिशा में भाभा परमाणु अनुसंधान केन्द्र के वैज्ञानिक निरंतर शोध कर रहे हैंऔर परमाणु संयंत्रों की आयु बढ़ाने की कार्य योजना पर काम कर रहे हैं । श्री बनर्जी ने परमाणु ऊर्जा से विद्युत उत्पादन पर कहा कि इस समय हम इससे केवल तीन प्रतिशत बिजली उत्पादन कर रहे हैं जिसे १५ से २० प्रतिशत तक पहुंचाने का लक्ष्य है । देश में इस समय प्रति व्यक्ति प्रतिवर्ष ६०० किलोवाट बिजली का उत्पादन हो रहा है, जबकि अमेरिका में खपत १३००० किलोवाट प्रतिवर्ष है । अब भारत को भी अपना बिजली उत्पादन बढ़ाना है और हमें उम्मीद है कि अगला १५ वर्षो में हम ऐसा कर पाएंगे । श्री बनर्जी ने कहा कि यदि भारत को विकसित देशों की कतार में शामिल होना है तो से कोयला, जल विद्युत के साथ परमाणु बिजली के उत्पादन की चुनौती को स्वीकार करना होगा और इसी लक्ष्य को हासिल करने के लिए नए संयंत्र लगाने की योजना पर काम हो रहा है ।
कोटा थर्मल की राख बनी मुसीबत
राजस्थान में कोटा सुपर थर्मल पावर स्टेशन से निकलने वाली राख (फ्लाई ऐश) एक बार फिर मुसीबत का कारण बनती जा रही है । कभी इस राख के ढेर आसपास के इलाके में रहने वाले लोगों के लिये मुसीबत की वजह थी तो अब इस राख का व्यावसायिक उपयोग शुरू होने के बाद राख से भरे और उसके गुबार उड़ाते ट्रकों के कारण यह राहगीरों के लिए परेशानी का सबब बनती जा रही है । प्रशासन अब इस पर लगाम कसने की तैयारी में है । कोटा सुपर थर्मल पावर स्टेशन की इकाइयों से विद्युत उत्पादन में इस्तेमाल होने वाले कोयले से निकलने वाली राख के कारण शुरूआती दौर में थर्मल प्लांट के पिछवाड़े राख के ढेर लग गये थे और एक बड़े तालाब तथा कई छोटे पोखर राख के कारण अनुपयोगी हो गये थे । दूर दूर तक इस राख के ढेर ही लगे रहते थे। पिछले कुछ सालों से इस राख का सीमेंट सड़कें और इंर्ट बनने में बड़े पैमाने पर व्यावसायिक उपयेाग शुरू होने के बाद राख के ढेरों से छुटकारा मिल गया और कोटा सुपर थर्मल पावर स्टेशन के प्रबंधक ने भी राहत की सांस ली । लेकिन अब इस राख का लदान कर उसे ले जाने वाले ट्रकों के परिवहन के दौरान उनसे उड़ने वाले गुबार के कारण अब यह राख राहगीरों के लिये परेशानी का सबब बनती जा रही है । इन दिनों राष्ट्रीय राजमार्ग ७६ का निर्माण कार्य द्रुतगति से चलने के कारण सड़क निर्माण में बड़े पैमाने पर इस राख का इस्तेमाल हो रहा है । प्रतिदिन बड़ी संख्या में ट्रक कोटा सुपर थर्मल पावर स्टेशन के पिछवाड़े बनें राख के ढेर से राख भरकर आबादी क्षेत्र से होते हुये गुजरते हैं । इन ट्रकों में भरी राख को ढककर ले जाने की कोई पुख्ता व्यवस्था नहीं होने के कारण न केवल इस राख का गुबार उड़ता जाता है बल्कि सड़क पर भी राख बिखरती चली जाती है जिसके कारण राहगीरों को भारी परेशानी का सामना करना पड़ता है। कई बार यह राख इतनी अधिक मात्रा में उड़ती है कि चारों तरफ सघन धुंध ही दिखाई देता है । स्थानीय लोगों और विभिन्न राजनीतिक दलों द्वारा इन राख उड़ाते ट्रकों पर प्रतिबंध लगाये जाने की मांग किये जाने के बाद कोटा सुपर थर्मल पावर स्टेशन और राष्ट्रीय राजमार्ग प्राधिकरण के अधिकारियों सहित जिला प्रशासन के अधिकारी भी हरकत में आये हैं और राख उड़ाने वाले ट्रकों पर लगाम कसने का निर्णय किया गया है ।
अब बच जाएगा दुनिया का सबसे पुराना चिनार का पेड़
काश्मीर स्थित दुनिया के सबसे पुराने चिनार के पेड़ की अंत: राज्य सरकार को भी अब सुध आ गई है । इस पेड़ का संरक्षण अब बतौर सांस्कृतिक व ऐतिहासिक धरोहर की तर्ज पर करने का फैसला लिया गया है । इस सिलसिले में स्थानीय लोगों को भी शामिल करने के लिए प्रशासन ने पिछले दिनों इस ऐतिहासिक पेड़ के नीचे एक समारोह का आयोजन किया । बड़गाम जिले के छत्तरगाम गांव में स्थित चिनारके एक विशाल पेड़ को दुनिया का सबसे पुराना चिनार होने का गौरव हासिल है । गांव में स्थानीय जियारत से कुछ दूरी पर स्थित यह पेड़ गांव वालों की आस्था का प्रतीक भी है । इसके बावजूद यह अतिक्रमण की मार झेल रहा है । सरकार ने इसे बतौर पर्यटन स्थल विकसित करने का फैसला किया है । पर्यटन निदेशक फारूक शाह ने कहा कि यूरोप में भी एक ऐसी जगह है जो पर्यटकों के आकर्षण का केंद्र है । हमने इस पेड़ को बतौर ऐतिहासिक धरोहर व पर्यटन स्थल के तौर पर विकसित करने का फैसला किया है । बड़गाम के डीसी ख्वाजा अहमद रेंजू ने कहा कि पर्यटन इस गांव की रूपरेखा बदल सकता है और यह पेड़ इनके लिए तरक्की का माध्यम होगा । उन्होंने कहा कि पेड़ तक पहुंचने के लिए कम से कम सड़क तो खुली मिलनी चाहिए व उसके नीचे बैठने की जगह होनी चाहिए । छत्तरगाम में चिनार का पेड़ दुनिया का सबसे विशाल और बड़ा चिनार है । इस पेड़ को सन् १३७४ में सैय्यद कासिम ने लगाया था । यह पेड़ शुरू से ही लोगों की आस्था का केन्द्र रहा है । इसका व्यास ३१.८५ मीटर और ऊंचाई १४.७८ मीटर है । अलबत्ता, स्थानीय लोगों को अब भी सरकारी बातों पर यकीन नहीं है । पहली बार सरकारी तौर पर इस पेड़ के संरक्षण के लिए कहा गया तो स्थानीय लोगों ने इस पर प्रसन्नता जाहिर करते हुए सरकार को सहयोग का वादा किया है ।***
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