ग्लोबल वार्मिंग : जिम्मेदारी से भागता अमेरिका
जे. सकलेचा
कुछ साल पहले पर्यावरण कार्यकर्ता प्रोफेसर वांगारी एम. मथाई को शांति का नोबेल पुरस्कार दिए जारे पर उसे पर्यावरण के प्रति समर्पण का `सम्मान' निरूपित किया गया था । अब इस साल फिर यह प्रतिष्ठित सम्मान पर्यावरण के क्षैत्र को समर्पित किया गया है । यह पुरस्कार जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा गठित अंतर्राष्ट्रीय समिति (आइ्रपीसीसी) और अमेरिका के पूर्व उपराष्ट्रपति अलगोर को संयुक्त रूप से देने की घोषणा की गई है । नोबेल पुरस्कार की इस घोषणा से साफ है कि जलवायु परिवर्तन, खासकर वैश्विक गर्माहट (ग्लोबल वार्मिंग) में बढ़ोतरी को लेकर दुनिया की चिंता बढ़ती जा रही है । विडंबना यह है कि जिस देश के एकपूर्व उपप्रमुख को यह पुरस्कार देने का ऐलान किया गया है , वही देश वैश्विक तापमान को बढ़ाने में सबसे आगे है । जी हां, यहां बात उसी अमरीका की हो रही है जो विश्व स्तर पर एक चौथाई ग्रीन हाउस गैस उगलकर ग्लोबल वार्मिंग बढ़ाने में सर्वाधिक `योगदान' दे रहा है । नीम पर करेला यह कि उसने क्योटो संधि के अनुमोदन से भी इंकार करके इसकी सफलता पर ही सवालिया निशान लगा दिया है । ग्लोबल वार्मिंग बढ़ाने से चिंतित विश्व समुदाय ग्रीनहाउस गैसों के प्रभाव को कम करने के मकसद से इस संधि पर राज़ी हुआ है, लेकिन अमेरीका ने अपने `राष्ट्रहित' के नाम पर इसे पलीता लगाकर मानव जाति के कल्याण की सामूहिक वैश्विक प्रतिबद्धता की भावना को ताक पर रख दिया है । हम आगे बढ़ें, उससे पहले एक नजर क्योटो संधि पर डाल लेते हें । क्योटो प्रोटोकॉल या संधि को लेकर दिसंबर १९९७ में जापान के क्योटो शहर में वार्ताआे का क्रम शुरू हुआ था। इसी वजह से इसे `क्योटो संधि' नाम दिया गया हे । नवंबर २००४ में रूस द्वारा अनुमोदन के बाद इसके क्रियान्वयन का रास्ता साफ हो गया । यह १६ फरवरी २००५ से लागू कर दी गई । यह संधि विश्व के औद्योगिक देशों को छह ग्रीनहाउस गैसों - कार्बन डाइऑक्साईड, मीथेन, नाइट्रस ऑक्साईड, सल्फर हेक्साफ्लोराइड, एचएफसी और पीएफसी में एक निश्चित सीमा तक कटौती करने को आध्य करती है । इसके तहत वर्ष २०१२ तक ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन के स्तर को १९९० के स्तर से ५.२ फीसदी कम करना है । वैसे विशेषज्ञों का मानना है कि यदि वाकई अस लक्ष्य को हासिल कर लिया जाता है प्रभावी तौर पर यह कटौती २९ फीसदी तक होगी। इस प्रकार बढ़ते वैश्विक तापमान के इस दौर में यह संधि पूरी मानव जाति के लिए वरदान साबित हो सकती है । लेकिन अड़ंगा है तो केवल अमरीका का। अमरीका ने इसका अनुमोदन करने से अंकार कर दिया। हालांकि पूर्व डेमोक्रेट राष्ट्रपति बिल क्लिंटन ने इस पर हस्ताक्षर किए थे लेकिन २००१ में जार्ज डब्ल्यू. बुश के राष्ट्रपति बनने के बाद उन्होंने इसे अनुमोदन के लिए कांग्रेस में पेश नहंी किया । बुश ने संभवत: ऐसा सीनेट में इस तरह की किसी संधि के खिलाफ ९५-० से पारित एक प्रस्ताव के मद्देनजर किया था । सीनेट का कहना था कि वह ऐसी किसी `भेदभावपूर्ण' वैश्विक संधि का समर्थन नही कर सकती जो केवल औद्योगिक देशों पर बंधनकारी हो । यहां एक सवाल उठता है कि नोबेल पुरस्कार विजेता अल गौर अगर राष्ट्रपति होते तो कया वे अमरीकी संसद को ऐसी संधि के अनुमोदन के लिए मना पाते । वर्ष २३००० के राष्ट्रपति चुनाव मे बुश के ख्लिाफ अल गौर ही डेमोक्रेटिक पार्टी के उम्मदीवार थे और विवादास्पद मतगणना मेंबहुत ही कम अंतर से पराजित हुए थे । अल गोर दुनिया के उन चुनिंदा राजनीतिज्ञों में शामिल हैं , जो राजनीति की शतरंज पर मोहरे चलने के साथ- साथ पर्यावरण संरक्षण के प्रति भी सक्रिय रहे हैं। उप राष्ट्रपति के पद पर रहते हुए वर्ष १९९४ में उन्होंने पृथ्वी दिवस के दिन विद्यार्थियों में पर्यावरण संरक्षण को लेकर जागृति पैदा करने के मकसद से `ग्लोब कार्यक्रम' शुरू किया था । उनकी चिंता के केन्द्र में ग्लोबल वार्मिंग सदैव से रहा है । वे जगह-जगह घुमकर इसके खतरों के प्रति अलख जगाते आए हैं । उनके संगठन `सेव अवरसेल्व्स' के तत्वावधान में ७ जुलाई २००७ को `लाइव अर्थ' नाम से संगीत कार्यक्रम का आयोजन किया गया था जिसमें संगीत के क्षैत्र की कई हस्तियों ने भागीदारी की थी । गोर ने क्योटो संधि की भी जोरदार पैरवी की है। लेकिन दुर्भाग्य की बात यह है कि अमरीका के अन्य राजनेताआे की सोच उनकी जैसी नहीं है वे ऐसी किसी भी संधि को मानने को तैयार नहीं है जो अमरीका की अर्थव्यवस्था पर विपरीत असर डाले । सवाल यह है कि कया अमरीका भी भागीदारी के बगैर क्योटो जैसी संधियों की कोई प्रासंगिकता है ? दिक्कत यह है कि अमरीका ऐसी संध्यिों को मानने को बिल्कुल तैयार नहंी है क्योंकि इसमें उसके आर्थिक हित आड़े आते हैं । अमरीका की जैसी नीति रही है, उसके चलते आगे भी उससे कोई विशेष उम्मीद नही रखी जा सकती और फिलहाल तो अमेरीका की अर्थव्यवस्था डांवाडोल चल रही है , डॉलर न्यूनतम स्तर पर है और `यूरो' के साथ संघर्षशील है , कच्च्े तेल की कीमते १०० डॉलर प्रति बैरल तक जा पहुंची है । ऐसे में अमरीका नहीं चाहेगा कि पर्यावरण संरक्षण के नाम पर उसकी अर्थव्यवस्था को कोई और धक्का लगे । लेकिन आईपीसीसी की हाल ही जारी रिपोट्र के संदर्भ में एक बड़ा सवाल यह भी उठता है कि आखिर अमरीका इस दुनिया में अपनी `बादशाहत' कायम करके कया पाना चाहेगा जो शायद अगले कुछ दशकों में रहने लायक भी नहीं बचेगी । आईपीसीसी ने १७ नवंबर को स्पेन के वैलेंशिया में जारी अपनी चौथी और अंतिम रिपोर्ट में कड़ी चेतावनी देते हुए कहा है कि ग्लोबल वार्मिंग की क्षतिपूर्ति नहीं हो पाएगी । इसके दुष्प्रभाव से कोई भी देश नहीं बच पाएगा । सैकड़ों वैज्ञानिकों व पर्यावरण विशेषज्ञों द्वारा तैयार इस रिपोर्ट की विश्वसनीयता असंदिग्ध है, इस पर कोई सवाल नहीं उठाया जा सकता । शायद खुद अमरीका भी इसके निष्कर्षो से असहमति नहीं जता सकता । इसलिए इस रिपोर्ट की उपरोक्त चेतावनी से भी वह शायद ही असहमत होगा कि ग्लोबल वार्मिंग के दुष्प्रभावों से कोई भी देश नहीं बच सकता । यह सच है कि गरीब व विकासशील देशों को इसकी ज्यादा कीमत चुकानी होगी, लेकिन अमरीका जैसे विकसित देश भी इसके प्रभाव से अछूते नहीं रह पाएंगे । आखिर ऐसे किसी कवच का निर्माण तो अब तक अमरीका भी नहीं कर पाया है और न ही कर पाना संभव है कि बाहर पूरी दुनिया जलती रहे और वह कवच के भीतर बैठकर खुद को सुरक्षित महसूस कर सके । अंत में आईपीसीसी के अध्यक्ष डॉ. आर.के. पचौरी का यह कथन महत्वपूर्ण है जो उन्होंने अंतिम रिपोर्ट जारी करते हुए व्यक्त किया था, ``हमें अब उन मूल्यों या नैतिकता की जरूरत है जिनमें हर मानव अपनी जीवन प्रणाली व व्यवहार में बदलाव कर उस चुनौती का सामना करने के लिए कमर कस सके जो हमारे सामने पेश आ रही है ।'' क्या अमरीकी शासन इस पर ध्यान देंगे ? आखिर इस दुनिया को तपने से बचाने की जिम्मेदारी केवल मथाई, बहुगुणा, पचौरी या अल गोर की तो नहीं है ! ***
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